भारतीय ज्ञान परंपरा एक विशाल नदी की तरह है जो सदियों से प्रवहमान है। इस ज्ञान परंपरा के भीतर अनेकानेक विशेषताएं हैं। इन विशेषताओं के सम्मिलित रूप हमारे जीवन के अभिन्न अंग या कहें हमारे व्यक्तित्व के महत्वपूर्ण हिस्से बनकर हमारे सामने उपस्थित रहते हैं। ऐसा भी कह सकते हैं कि जो भारतीय ज्ञान परंपरा है उन्हीं से हमारी निर्मिति हुई है। इसलिए हमें ज्ञान परंपरा को अनिवार्यत रूप से जानना चाहिए और उसके संवर्द्धन के लिए निरंतर प्रयास भी करना चाहिए। ज्ञान की परंपरा जो प्राचीन काल से चली आ रही है, भक्ति कविता में अपने चरम रूप में हमें दिखाई देती है। भक्ति काव्य भक्ति काल की अनुपम कृति है। भक्ति काव्य मानवीय चेतना की एक उत्कृष्ट साधना है। भक्ति काल में जितने भी संत-भक्त कवि हुए, सभी ने मनुष्यता को सर्वोपरि बताने का अथक प्रयास किया। इसीलिए मनुष्य विरोधी विचार और संरचनाओं को सभी कवियों ने अपने-अपने तेवर से ध्वस्त करने का कार्य किया। सगुण और निर्गुण मार्गी कवियों ने मनुष्यता को कलंकित करने वाले बिंदुओं की पहचान की और उन पर लगातार प्रहार किया। इन कवियों में कुछ अधिक आक्रामक हैं तो कुछ कम लेकिन आक्रामकता की विशेषता सभी कवियों में मिलती है। मनुष्यता की महान साधना का काव्य जिसे भक्ति काव्य के नाम से अभिहित किया जाता है उसके स्रोतों की पड़ताल करने पर हमें प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा के महत्वपूर्ण स्रोतों की ओर जाना पड़ेगा।

भारतीय ज्ञान परंपरा के आधार वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, अरण्यक आदि रहे हैं। वेदों में विभिन्न विषयों पर ज्ञान का विस्तार से वर्णन है जैसे धर्म, संस्कृति, ज्योतिष, विज्ञान, गणित, खगोल, आयुर्वेद आदि। वेदों के उपरांत उपनिषदों ने आत्मा के ज्ञान को प्रमुखता दी, जिससे भारतीय दर्शन की नींव रखी गई। वेद भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम और प्रमुख ग्रंथ हैं। इनमें ब्रह्म, अध्यात्म, ज्ञान, कर्म, विज्ञान, धर्म, पर्यावरण और साहित्य आदि विभिन्न विषयों पर विस्तार से चर्चा की गई है। वेद चार हैं – ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। उपनिषदों ने आत्मा के ज्ञान को प्रमुखता दी, जिससे भारतीय दर्शन की नींव रखी गई।

वेदों के उपरांत भारतीय ज्ञान परंपरा ने शास्त्र, सिद्धांत और दर्शन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वैष्णव संप्रदाय में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य भारतीय ज्ञान परंपरा के अनमोल धरोहर हैं। महाभारत के रचयिता व्यास ने कहा कि जो महाभारत में है, वह पूरी दुनिया में है। यानी महाभारत में ऐसा कोई प्रसंग या संदर्भ छूटा नहीं है जो दुनिया में है। भगवद गीता भी भारतीय ज्ञान परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं में मार्ग दर्शन प्रदान करती है।

भारतीय साहित्य में भक्ति काव्य का अनुपम स्थान है जिसमें आध्यात्मिक भावनाओं की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति हुई है। इसमें भगवान के भक्तों के प्रेम, भक्ति और उनके अनुभवों का गहराई से वर्णन है। भक्ति काव्य में विभिन्न धर्म-संप्रदायों के संतों की रचनाएं सम्मिलित हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा एक विशाल और अमूल्य धार्मिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक ज्ञान का संग्रह है। यह ज्ञान सदियों से पारंपरिक रूप से पीढ़ी दर बढ़ हस्तांतरित होता रहा है। इस तरह यह ज्ञान भारतीयों के जीवन का अभिन्न अंग बनकर भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया है। इसमें भक्ति, प्रेम और देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा-भाव का प्रत्यक्ष अनुभव है। भक्ति कविता में भक्ति भावना और ईश्वर प्रेम के अद्भुत अनुभवों का वर्णन है। हमारी संस्कृति में भक्ति का भाव हमेशा से ही महत्वपूर्ण रहा है और इसका प्रतिनिधित्व कविता द्वारा होता रहा है। भारतीय संस्कृति का ज्ञान परंपरा में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय संस्कृति में समाहित ज्ञान परंपरा धार्मिक और आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ विज्ञान, गणित, चिकित्सा, ज्योतिष, वास्तु, विमानिक शास्त्र, काव्य, कला और साहित्य के क्षेत्र में भी ज्ञान को सम्मिलित करती है।

संत कवियों ने भगवान के लिए अपने प्रेम को कविताओं में अभिव्यक्त किया। आदि शंकराचार्य, मीराबाई, सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास जैसे श्रेष्ठ संत-कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से देवी-देवताओं के चरित्र, उनकी लीला और उनसे जुड़े भक्तों के प्रेम का वर्णन किया है। इनकी कविताएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं और उन्हें आध्यात्मिकता के नजदीक लाती है।

मध्यकालीन प्रमुख संतों में आदि शंकराचार्य, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई, कबीर, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव, चैतन्य महाप्रभु, रामानंद, वल्लभाचार्य, नानक, कबीर आदि हैं। इन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से भगवान की लीला, उनके भक्तों के प्रेम और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रमुखता से वर्णन किया है। मध्यकालीन भक्ति साहित्य में वैष्णव, शैव और शाक्त संप्रदाय के कवि और संत शामिल हैं, जिनके काव्य में भगवान के अनन्य प्रेम का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। भक्ति कविता उच्च आध्यात्मिकता, नैतिकता और धार्मिकता की उच्च भाव भूमि पर अवस्थित है।

मध्यकालीन भारतीय संत-भक्त कवियों ने धार्मिक और सामाजिक परिवर्तन की अद्भुत यात्रा प्रारंभ की। इन संतों ने अपनी कविताओं और संदेशों के माध्यम से समाज में फैली अज्ञानता, पाखंड और मानव विरोधी भावनाओं का विरोध किया और मानवमात्र की एकता का संदेश दिया।

भारतीय ज्ञान परंपरा की कतिपय महत्वपूर्ण विशेषताएं जिन्हें भक्ति काव्य में संतों ने प्रमुखता से उजागर किए, उनमें महत्वपूर्ण हैं-

गुरु-शिष्य परंपरा का महत्वः

भारतीय ज्ञान परंपरा में गुरु-शिष्य परंपरा का महत्वपूर्ण स्थान है। गुरुकुल परंपरा में शिष्य गुरु के आज्ञानुसार ज्ञान की विभिन्न सरणियों का अध्ययन करते थे और जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में अनुशासन का पालन करते हुए जीवन यापन करते थे। इस परंपरा में विद्या का सम्मान होता था और ज्ञान को अनमोल धरोहर के रूप में देखा
जाता था। कबीर के यहां गुरु का बहुत महत्व है। गुरु के महत्व को रेखांकित करते हुए कबीर कहते हैं –

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े काके लागौं पांय।

बलिहारी गुरु आपने, गोबिंद दियो मिलाय।।

मध्यकालीन समाज अज्ञानता के घने कोहरे से घिरा हुआ है। सच और झूठ का अंतर करना कठिन है। ऐसे में एक मात्र गुरु ही हैं जो अच्छे और बुरे के अंतर का ज्ञान दे सकते हैं। इसलिए समूची भक्तिकालीन कविता में गुरु के बिना किसी भी प्रकार के ज्ञान या पहचान की कल्पना करना संभव नहीं है।

संत दादू दयाल के गुरु तो घट-घट में समाए हुए हैं-

घट घट रामहिं रतन है, दादू लखै कोई।

सतगुरु सबदों पाइये, सहजे ही गम होइ।।

 

संत मलूकदास गुरु और ब्रह्म को एक समान मानते हैं। दोनों में कोई अंतर नहीं है। वे गुरु को सर्व शक्तिमान मानते हैं। गुरु ईश्वर की तरह सभी कार्यों को संपन्न करने में सक्षम हैं। गुरु इतने समर्थवान हैं कि सूई के छेद में से सुमेरु पर्वत को आरपार करा सकते हैं-

” हमारा सतगुरु बिरले जानै,

सुई के नाके सुमेर चलावै, सो यह रूप बखानै।”

जाति प्रथा का विरोध:

मध्यकालीन संतों ने मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद करने वाली जाति प्रथा का कठोरता के साथ विरोध किया है। कबीरदास ने सामाजिक अन्याय, धार्मिक अंधविश्वास और जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाई। उनके संदेश में सबको एक समान भाव और प्रेम से देखने की प्रेरणा मिलती है। कबीर मनुष्य और मनुष्य के बीच में खाई पैदा करने वाली जाति व्यवस्था पर कुठाराघात करते हुए पंडा, पुरोहित, मौलवी आदि के महत्व और अस्तित्व को नकारते हुए कहते हैं –

” जौ तूं बांमन बांमनी जाया।

तौ आन बाट ह्वै क्यों नहीं आया।।

जौ तूं तुरुक तुरकानी जाया।

तौ भीतर खतना क्यों कराया।।”

वस्तुतः कबीर मानव एकता के हिमायती थे। जन्म के आधार पर श्रेष्ठता और निकृष्टता का भाव पैदा कर इंसानों के बीच फांक पैदा करने वाली सभी मान्यताओं और व्यवस्थाओं को कबीर सिरे से नकार देते हैं। कबीर के यहां प्रेम और ज्ञान महत्वपूर्ण हैं। कबीर ने जो नया पथ चुना, समाज के सुधार और पुनर्निर्माण का, उसका आधार प्रेम और ज्ञान
ही है –

” जाति पांति पूछे नहिं कोई।

हरि को भजै सो हरि का होई।।”

ब्रह्म:

मानवीय एकता का मूल आधार ईश्वरीय एकता है। इस संदेश को भक्ति कविता में संतों ने प्रमुखता से उठाया है। गोस्वामी तुलसीदास ने ब्रह्म के स्वरूप सगुण-निर्गुण को लेकर उत्पन्न हुए मतभेद को दूर करते हुए रामचरितमानस में कहा है –

” सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।”

अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।”

 

अर्थ है सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है।

कबीरदास के उपास्य राम निर्गुण हैं जो जन्म-मरण के बंधन से परे हैं। उन्हें अनेक नामों से पुकारा जाता है जैसे- हरि, गोबिंद, केशव, माधव, गोपाल, निरंजन, रघुनाथ, सहज, शून्य, रहीम, अल्लाह, विश्वंभर आदि।

वेद और भारतीय ज्ञान परंपरा में ब्रह्म के स्वरूप पर काफी चर्चा है। सूक्ष्मता से देखा जाए तो सभी मध्यकालीन संतों-भक्तों ने अपने संदेशों के माध्यम से सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन को समृद्ध और सरल बनाने का संदेश दिया।

परोपकार और अपरिग्रह:

“ईशावास्योपनिषद्” में एक मंत्र है –

“ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।

तेन त्यत्केन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।”

 

अर्थ है- जगत् में जो कुछ स्थावर-जंगम संसार है वह सब ईश्वर के द्वारा आच्छादित है। उसके त्याग भाव से तू अपना पालन कर। किसी के धन की इच्छा न कर। अर्थात यह सारी सृष्टि ईश्वर की रची हुई है। इसलिए निजी भौतिक संपदा के प्रति आसक्ति के विचार को त्यागकर जीना चाहिए। इस तरह इस मंत्र से जो संदेश निकलता है वह है हमें त्यागपूर्ण जीवन जीना चाहिए। क्योंकि धरती के संसाधन सीमित हैं। आज मनुष्य लोभ वश ईश्वर की बनाई धरती का अत्यधिक दोहन कर रहा है। परिणाम जलवायु परिवर्तन, अनावृष्टि-अति वृष्टि, तापमान वृद्धि जैसी समस्याएं विकराल रूप धारण कर मानव अस्तित्व को ही समाप्त करने के लिए तुली हुई है। इस औपनिषदिक ज्ञान को भक्तिकालीन संतों ने अपनी कविताओं में पिरोकर जन-जन तक पहुंचाया। कबीरदास ने कहा –

“साईं इतना दीजिएि जामै कुटुंब समाए मैं भी भूखा रहूं साधू भूखा जाए।”

भक्तिकाल के जितने भी भक्त और संत कवि थे, सभी ने अपरिग्रह और संयमित जीवन पर बल दिया है। इसके साथ ही प्रकृति के साथ साहचर्य संबंध के महत्व को प्रतिपादित किया है। सूरदास का समूचा काव्य गोचारण संस्कृति में पल्लवित-पुष्पित होता है। उनकी कविता मनुष्य और प्रकृति के अन्योन्याश्रय मधुर संबंध की सीख देती है। पेड-पौधे, पर्वत, पशु-पक्षी और वनस्पति के प्रति अगाध श्रद्धा सगुण और निर्गुण संतों ने अपनी कविताओं में प्रतिपादित की है।

समग्रतः भारतीय ज्ञान परंपरा और मध्यकालीन भक्ति कविता ने भारतीय संस्कृति को उच्चतर मानवीय मूल्यों और आध्यात्मिकता से समृद्ध तो किया है साथ ही जीवन के नैतिक और संयमित आचरण पर भी विशेष बल दिया है। यही नहीं तुलसीदास ने अपने ग्रंथों के माध्यम से नैतिकता, प्रेम, धर्म और भक्ति के महत्व को प्रमुखता से उजागर किया है। सूरदास की कविताओं में प्रेम का महत्व, अंतरात्मा की खोज और अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध करने का संदेश मिलता है। रामानंद ने सामाजिक बदलाव के लिए सभी को एक साथ आने की प्रेरणा दी। उनके संदेशों के माध्यम से समाज के नियमों और धर्म के प्रति विचारधारा की खुलकर समीक्षा की गई। संत नामदेव ने सर्वधर्म समानता और सामाजिक समरसता का संदेश दिया। समग्रतः भक्ति काव्य भारतीय ज्ञान परंपरा की सर्वोत्तम उपलब्धि है।

संदर्भ:

  • संतों के संवाद, उदय प्रताप सिंह, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नई दिल्ली-110070
  • श्री वल्लभाचार्य, विजयेन्द्र स्नातक, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नई दिल्ली-110070
  • कबीर बानी, अली सरदार जाफ़री, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  • भ्रमरगीत सार, संपादक-रामचन्द्र शुक्ल, कमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • भक्ति आंदोलन और काव्य, गोपेश्वर सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  • भक्ति का संदर्भ, देवीशंकर अवस्थी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  • सूर की काव्य चेतना, बलराम तिवारी, अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद
  • निर्गुण संतों के स्वप्न, डेविड एन., लॉरेंजन, अनुवादक धीरेन्द्र बहादुर सिंह, श्रृंखला संपादक पुरुषोत्तम अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  • सात भारतीय संत : जीवन दर्शन और संदेश, डा. बलदेव बंशी, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नई दिल्ली-110070
  • रामचरितमानस, गीताप्रेस, गोरखपुर
डॉ. जयन्त कुमार कश्यप
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
संत जेवियर्स कॉलेज, सिमडेगा, रांची यूनिवर्सिटी, रांची