भारत की पहचान आदि काल से ज्ञान परंपरा एक ज्ञान संस्कृति के रूप में जानी जाती रही है । अनेक प्राचीन सभ्यताएं ज्ञान के क्षेत्र में भारत की सदैव ऋणी रही हैं । आदिकाल से अब तक आधअवधि पर्यंत भारत में ज्ञान का नियति दूसरी सभ्यताओं और संस्कृतियों को दिया है भारतीय ज्ञान सभ्यता को विकसित किया है स्वयं एक परंपरा के रूप में विकसित हुआ है भारत के लिए ज्ञान सदा पवित्र विषय रहा है ज्ञान की सभी राशियों का अनावरण होता है। ज्ञान से ही धर्म सधता है। ज्ञान से अर्थ काम और मोक्ष मिलते हैं। जिज्ञासा और प्रश्न सशक्त ज्ञान उपकरण है। ज्ञान दर्शन की यही परंपरा ऋग्वेद सहित चार वैदिक संहिता में विश्व की पहली ज्ञान सारणी है। अनादि काल से चलती हुई” भारतीय ज्ञान परंपरा जो वैदिक एवं उपनिषद् कल से अनवरत चली आ रही है जिसमें 18 विद्याएं चार वेद चार सहायक वेद (आयुर्वेद, चिकित्सा, धनुर्वेद -हथियार, गंधर्ववेद- संगीत और शिल्प वास्तुकला), पुराण न्याय मीमांसा धर्म शास्त्र और वेदांग 6 सहायक विज्ञान ध्वनयात्मकता व्याकरण छंद खगोल विज्ञान कर्मकांड और भाषा शास्त्र या प्राचीन भारत में 18 विज्ञान विधाओं के आधार बने जहां तक व्यावहारिक विज्ञान का सवाल है 64 की प्रतिस्पर्धा गणने हैं”1 ज्ञान दर्शन की यही परंपरा ऋग्वेद सहित चार वैदिक संहिताओं में विश्व की पहली ज्ञान सारणी बनी ।ज्ञान प्रकट करने का प्रथम उपकरण है वाणी, और वाणी का अनुशासन व्याकरण है । ज्ञान की इसी परंपरा में पाणिनि ने दुनिया का पहला व्याकरण लिखा। पतंजलि योग सूत्र में भाषा अनुशासन लिखते हैं। कौटिल्य ने दुनिया का पहला अर्थशास्त्र लिखा। आचार्य वात्स्यायन ने कामसूत्र लिखा। भरत मुनि ने पहले नाट्यशास्त्र लिखा और इसी ज्ञान परंपरा में चरक और सुश्रुत संहिताएं आयुर्वेद विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित हुई। पाणिनि, पतंजलि, कौटिल्य, वात्सायन, भरतमुनि, चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, वराहमिहिर आदि सभी विद्वान अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख करते हैं ,और अपने ज्ञान को प्राचीन परंपराओं से जोड़ते हैं। विवाह संस्था का जन्म वैदिक काल में ही हुआ प्राचीन काल में गीत, संगीत, चित्र कला और स्थापत्य सहित सभी ज्ञान अनुशासन फल फूल रहे थे। लेकिन काल परिस्थितियों के प्रभाव में यह ज्ञान परंपरा टूटती से दिखाई पड़ती है, हालांकि ब्रिटिश सत्ता के समय भारतीय ज्ञान परंपराओं पर सुनियोजित आक्रमण हुए।

भारतीय ज्ञान परंपरा में यदि नाट्य शास्त्र पर विचार किया जाए तो भरतमुनि में नाट्यशास्त्र को विश्व के लिए इस प्रकार उपयोगी बताया कि यह नाट्य संसार के वेदों विधाओं और इतिहास की गाथाओं की परिकल्पना करने वाला है। लोगों के मनोविनोद कर्ता भी होगा। नाट्य में समस्त लोगों का अनुकीर्तन होता है। भरत मुनि ने नाटक के अभिनय पक्ष की प्रशंसा की है। भरत मुनि ने संगीत और नाट्य परंपरा का भी उल्लेख किया है। भारत के सभी ज्ञान अनुशासन का विस्तार वैदिक काल में हो चुका था। नाट्यशास्त्र में नारद एवं स्वाति के नाम है। स्वाति के विषय में उल्लेख है कमल पत्रों पर वर्षा की बूंद से होने वाली बूंदों को सुनकर उसके मन में वाद्य यंत्र निर्माण करने का विचार आया था। ऋग्वेद में भी नाट्य और संगीत से जुड़े तमाम यंत्रों में गीत संगीतों की चर्चा हुई है।नाट्यशास्त्र कला पर एक उल्लेखनीय प्राचीन विश्वकोश ग्रंथ है। जिसने भारत में नृत्य संगीत और साहित्यिक परंपरा को प्रभावित किया है ।सुसान एल श्रारटज के अनुसार” नाट्यशास्त्र सदाचार उचित व्यवहार नैतिक और नैतिक दृढ़ता साहस प्रेम और परमात्मा की आराधना की शिक्षा के लिए व्यापक सहायता के रूप में नाटकीय कला की प्रशंसा करता है”2 नाट्यशास्त्र ग्रंथ को 300 ईसा पूर्व भरत मुनि ने लिखा था। इस ग्रंथ में नाट्य कला एवं शास्त्रीय संस्कृत मंच के सभी पहलुओं का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में नृत्य संगीत कविता एवं सामान्य सौंदर्यशास्त्र सहित नाट्य से संबंधित सभी अवधारणाओं को समाहित किया गया है। दूसरे शब्दों में संगीत नाटक और अभिनय के संपूर्ण ग्रंथ के रूप में नाट्यशास्त्र को जाना जाता है। इसका केवल नाट्य रचना के नियमों का आकलन नहीं होता बल्कि अभिनेता, अभिनय, गीत वाद्य, दर्शक, दशरूपक और रस निष्पत्ति से संबंधित सभी तथ्यों का समग्र विवेचनात्मक वर्णन किया गया है। नाट्यशास्त्र हमें केवल यह नहीं बताता की नाटक केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होता। बल्कि विभिन्न कलाओं और कलाकारों के सहयोग से नाटक परिपूर्ण बनता है। नट धातु से नाट्य शास्त्र शब्द बना है। जिसका अर्थ होता है गिरना या नाचना । सभी कलाओं का उत्कर्ष रूप काव्य होता है और उत्कृष्टम रूप नाटक। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र सबसे प्राचीन ग्रंथ है। जो अपनी विचारों के साथ-साथ व्यापक विषयगत समग्रता से परिपूर्ण है। नाट्यशास्त्र नाट्य कला की अतिरिक्त काव्य संगीत नृत्य शिल्प तथा अन्य ललित कलाओं का भी विषयगत कोष है।नाट्यशास्त्र में नाट्य और रंग से संबंध काव्य, शिल्प, संगीत, नाट्य आदि ललित कलाओं का व्यापक विवरण दिया गया है। साथ ही इसमें अनेक प्रकार के शास्त्रों, शिल्पों, कलाओं तथा प्रयोग के बारे में विस्तार रूप से चर्चा की गई है। इसकी इसी विशेषता ने इसे काव्य नाट्य शिल्प तथा ललित विधाओं का विश्व कोष बना दिया है। भरत मुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र में नाट्य सिद्धांतों की मौलिकता एवं व्यापकता का ऐसा बीज है जिनकी शाश्वती आज भी देखी जा सकती है भरत मुनि ने इसे पंचम वेद की संज्ञा दी क्योंकि अन्य वेदों में केवल दिज मात्र है। परंतु नाट्य शास्त्र संपूर्ण माना जा सकता है। प्राचीन भारतीय नाटक और रंगमंच में यह निश्चय ही प्रतीत होता है कि भरतमुनि और संस्कृत नाटकों से बहुत पहले बोली क्षेत्रीय प्राकृतिक की विविधताओं में नाटक रूप में अस्तित्व में थे और भारतीय नाट्य परंपरा में नाट्य शास्त्र पर पहले प्रचलित और व्यापक कार्य भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। प्रजापति ब्रह्मा ने ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद से क्रमशः चार घटक पाठ, गीत ,अभिनय और नाट्य इसलिए और उन्हें एक एकीकृत करके नए वेद का एक संकर किस्म की रचना जिसे पंचम वेद या नाट्य वेद के नाम से जाना गया है। प्रारंभ में नाटक के निरूपण में तीन विधाओं का आविष्कार किया गया था। नाट्य, नृत्य और नृत् उनके पहले कलाकार भरत मुनि द्वारा विधिवत प्रशिक्षण कार्य किया था।

ब्रिटिश राज में आदर्श मनुष्य की रचना का काम बाधित हुआ ब्रिटिश सत्ता ने पूरे पाठ्यक्रम में बदलाव किया क्योंकि उनका उद्देश्य ब्रिटिश प्रभु वर्ग के आज्ञाकारी सेवक तैयार करना था भारतीय ज्ञान परंपरा हाशिए पर धकेल दी गई। स्वतंत्र भारत में निरोप योगी पाठ्यक्रम चलता रहा यह ब्रिटिश शिक्षा हमें समग्र विकास की ओर नहीं ले जाती इसलिए हमें नई शिक्षा नीति के अंतर्गत भारतीय ज्ञान परंपरा को प्रशिक्षण का माध्यम बनाना होगा।

 

संदर्भ ग्रंथ सूची

  1. भारतीय ज्ञान प्रणाली खंड एक Indian knowledge system Kapil Kapoor PDF
  2. भारत का नाट्यशास्त्र: एक व्यापक अध्ययन , एचएनबी जी यू केंद्रीय विश्वविद्यालय
  3. डॉ एम रामेश्वर सिंह डीएमयू इंफाल मणिपुर
  4. नाट्य अन्वेषण ब्रज रतन जोशी

ज्योत्सना आर्य सोनी
असिस्टेंट प्रोफेसर
एस आर एन आदर्श कॉलेज चामराजपेट बेंगलुरू