हिन्दी शब्द पर्यावरण ‘परि’ तथा ‘आवरण’ शब्दों का युगम है। ‘परि’ का अर्थ है- ‘चारों तरफ’ तथा ‘आवरण’ का अर्थ है- ‘घेरा’। अर्थात प्रकृति में जो भी चारों और परिलक्षित है यथा- वायु, जल, मृदा, पेड़-पौधे तथा प्राणी आदि सभी पर्यावरण के अंग है।’’1
पर्यावरण चिंतन की अवधरणा के पीछे एक लम्बा सक्रमंणकालीन दौर रहा है। जिसके बीज यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति, विश्व युद्ध , शीत युद्ध , अरब युद्ध , ओजोन क्षरण, परमाणु बम के परीक्षणों, वायु प्रदुषण से होने वाली मौतों की संख्या में बढ़ोतरी, जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि, तथा विकास की अंधी दौड़ की पूर्ति हेतु संसाधनो का अधाधुंध उपभोग आदि में खोजे जा सकते हैं।
यूरोप की विकास संबंधी अवधरणा के मूल में प्रकृति पर विजय द्वारा उसका अंधाधुंध उपभोग है। जबकि भारतीय अवधरणा इसके ठीक उलट है। भारतीय मनीषा में यह बात दीर्घकाल से बैठी हुई है कि हम सब प्रकृति के ही अंग है, हमारा शरीर प्राकृतिक शक्तियों का ही पूँजीभूत रूप है… ‘यत पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे’2 अर्थात जो इस शरीर में है, वही विशाल पैमाने पर ब्रह्माण्ड में है। भारतीय संस्कृति में अग्नि, नदियाँ, वृक्ष, सूर्य, पशु-पक्षी आदि अनेक प्राकृतिक घटकों को पूजनीय माना जाता रहा है। यूरोप के आधिपत्यवाद की अपेक्षा भारतीय संस्कृति प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण कदमताल करती हुई आगे बढ़ी है। अधिकतर भारतीय पर्व व त्यौहार भी प्रकृति से जुड़े हुए हैं, चाहे वे बैसाखी हो या बसंत पंचमी। पर्यावरण यहाँ जीवन की रीढ़ माना जाता है।
‘‘वृक्ष हमारे लिए जमीन पर चुपचाप खड़ी रहने वाली हरी चीज कभी नहीं रहे। ये हमारे जीवन में रचे-बसे रहे हैं। हमने इन्हें अपनी कथा-कहानियों, लोकगीतों और नाना कलाओं में सँजाये रखा है।’’3
भारतीय सभ्यता-संस्कृति का लम्बा दौर प्रकृति की पावन गोद में ही विकसित हुआ है जिसमें शुद्ध वायु, खुले आकाश, अखण्ड हरीतिमा एवं निर्मल जलधारा के सानिध्य में हमारी चिंतन-धारा को अनुप्राणित करने वाले गौरव ग्रंथ रचे गये। हड़प्पा सभ्यता सिंधु नदी है कि भारतीय साहित्य का बड़ा हिस्सा प्रकृति को आलम्बन भाव से चित्रित करता है- आदि कवि वाल्मीकि को काव्य प्ररेणा क्रोंच जोड़े को देखकर ही मिली थी, कालीदास का सम्पूर्ण रचना संसार प्रकृति की गोद से ही जन्मा, विरह का बारहमासा द्वारा चित्रण, रामचरितमानस में राम द्वारा पशु-पक्षियों से सीता का पता पूछना आदि हमारे जीवन की इस अंर्तधारा को सहज ही दर्शाता है।पर्यावरण-रक्षक पेड़ों की कमी पर हमारे पूर्वज भी कम चिन्तित नहीं होते रहें हैं।
रहीम कहते हैं-
‘रहिमन वे अब बिरछ कहँ जिन की छाँह गंभीर।
बागन बिच-बिच देखियत सेहुडं-कंज-कटीर।’’4
हिन्दी साहित्य में ‘छायावाद’ को तो प्रकृति का उद्यान ही माना जाता है, जहाँ मनोभावों का प्रकृति से सहज ही सामंजस्य हो जाता है। हिन्दी के महान सर्जक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने कई ललित निबंधें का विषय वनस्पति को बना कर उससे अभूतपर्व मानवतावादी निष्कर्ष निकाले हैं। उदाहरणतः ‘अशोक के फूल’ ‘शिरीष के फूल’ आदि।
पर्यावरण संरक्षण के नाम पर समस्त संसार के लिए प्रेरणास्रोत राजस्थान के खेजड़ीली गाँव में खेजड़ी के वृक्षों को बचाने हेतु बिश्नोई समाज के 363 नर-नारियों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। जिससे ‘चिपकों आंदोलन को प्ररेणा मिली।
‘आधुनिककाल के महाकाव्य ‘कामायनी’ में जयशंकर प्रसाद ने यह दर्शाया है कि प्रकृति के निर्मम दोहन का भाव हमारी संस्कृति में हमेशा से अस्वीकार्य रहा है। कामायनीकार ने ‘चिन्ता’ सर्ग में ऐसे महानाश की कथा कहकर अन्धभोग के प्रति हमें आगाह किया है। 20वीं व 21वीं शताब्दी पर्यावरण चिंतन के हिसाब से जागरूकता की कसौटी पर सफल प्रतीत होती जान पड़ती है। जहाँ न सिर्फ साहित्य बल्कि अनेक स्तरों पर पर्यावरणीय चेतना दिखाई दी।
यहाँ आकर हमने समझा की पर्यावरण का विषय केवल प्रदूषण तक सीमित नहीं है। इसका सबसे प्राथमिक पहलु प्राकृतिक संधधनों के स्वतः घटित पारस्परिक संतुलन की रक्षा है। ‘‘सम्पूर्ण ब्रह्मांड एक कुटुम्ब हैं, यहाँ किसी का अलग अस्तित्व नहीं है।’’5
गाँधी जी ने भी कहा है- ‘‘प्रकृति के भण्डार में हर किसी की जरूरतें पूरी करने को यथेष्ट संसाधन है, पर किसी भी लालच को पूरा करने में यह भण्डार असमर्थ है।’’6
जैसे-जैसे सभ्यताओं ने विकास किया है, वैसे-वैसे नई-नई समस्याएँ भी हमारे सामने पनपी है। पर्यावरण को लेकर भी जो आधुनिक चिंतन हुआ है उसको विस्तार कथा साहित्य में ही प्राप्त हुआ है। एक आधुनिक विधा में आधुनिक दौर की समस्याओं पर नये सिरे से विचार-विमर्श हुआ है।
प्राकृतिक चेतना के कई स्तर आधुनिक उपन्यासों में दिखाई देते हैं।
- इंसानी श्रम व कुदरती प्रणाली की जगह मशीनी व कृत्रिम प्रणालियों का प्रचलन
- विकास की आड़ में प्राकृतिक संसाध्नों का अंधाधुंध दोहन
- मूल निवासियों से उनका प्राकृतिक आवास छीनकर वहाँ पर उनके जीवन के लिए खतरा बनने वाले कारखानों की स्थापना, जिससे नष्ट होता उनका जीवन।
पर्यावरण चिंतन को केन्द्र में रख लिखे गए कुछ प्रमुख उपन्यास निम्नलिखित हैं- मरंग गोड़ा नील कंठ हुआ(महुआ माजी), रह गई दिशाएँ इसी पार(संजीव), हिडिम्ब (एस.आर.हरनोट) व कुइयांजान(नासिरा शर्मा) आदि। इन उपन्यासों ने पर्यावरण चिंतन संबंधी आधुनिक प्रश्नों को प्रमुखता से उठाया है। ‘रह गई दिशाएँ इसी पार’ में संजीव जीव-वैज्ञानिकों द्वारा क्लोंनिग और जेनेटिक्स के क्षेत्र में की जाने वाली अभूतपूर्व उपलब्धियों को मानवीय संबंधों के जटिल संसार में पनपने वाली विकृतियों की संज्ञा देते हैं। संजीव इसमें जीवों की महत्ता को दर्शाते तथा कृत्रिमता का विरोध करते हैं। ‘मरंग गोड़ा नीलकठं हुआ’ उपन्यास में ‘महुआ माजी’ आदिवासीयों व प्रकृति के टूटते संबंधें की मर्मातक पीड़ा को दर्शाती है। उपन्यास में सबसे बड़ा सवाल मनुष्य द्वारा प्राकृतिक तौर पर स्वस्थ जीवन जीने के अधिकार का है। इसी परम्परा में नासिरा शर्मा का उपन्यास कुइयाँजान जल संरक्षण के हमारे प्रयास, पर्यावरण के प्रति हमारी चेतना को एक नया आयाम देता है। पूरा उपन्यास रोचक अंदाज और सहज तरीके से इस मुद्दे पर आवाज उठाता है, इस आवाज पर अगर हमने अभी गौर नहीं किया तो शायद काफी देर हो जाएगी।
कविता व उपन्यास के अलावा संस्मरण, कहानी और यात्रा-वृतान्त जैसी कितनी ही विधाएँ हैं जो हिन्दी साहित्य में इस संवेदना को घनीभूत करती हैं। पहाड़ों के संबंध् में निर्मल वर्मा की कहानियों को भला कौन भूल सकता है। अगर विधा के विवाद में न पड़े और साहित्य को हित और कल्याण की भावना ही मानें तो प्रख्यात पर्यावरणवादी ‘अनुपम मिश्र’ की अमर कृति ‘आज भी खरे हैं तालाब’ वर्तमान में पर्यावरणीय संवेदना की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। वरिष्ठ साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय ने जानी-मानी पत्रिका ‘ज्ञानोदय’ का एक अंक पानी जैसे महत्वपूर्ण विषय पर निकाला था। आज की अनेक हिन्दी पत्रिकाएँ जल, जंगल और ज़मीन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर विशेषांक प्रकाशित करती है। ‘‘दिनमान’ में फणीश्वरनाथ रेणु ने बाढ़ और सूखे वाले इलाकों का दौरा कर रिपोतार्ज की शक्ल में जो स्तम्भ लिखे थे, वे ‘ऋणजल-धनजल’ नाम से प्रकाशित होते थे और पर्यावरण के सन्दर्भ में हमारे हिन्दी साहित्य की थाती है।
प्रेमचंद जैसे युग प्रवर्तक साहित्यकार के साहित्य मे भी पर्यावरणीय संवेदना के दर्शन होते है ‘‘पूस की रात’’ कहानी में अपने ‘प्राकृतिक परिवेश का पर्दा खोलते हैं- ‘‘रात को शीत ने धधकना शुरू किया।’’ प्रेमचंद ने ‘दो बैलों की कथा’ के माध्यम से प्रकृति के उदात्त संवेदनात्मक पक्ष को उभारा है। यात्रा वृत्तांतों के अतंर्गत निर्मल वर्मा के ‘‘चीड़ों पर चाँदनी’’ अज्ञेय के ‘‘अरे यायावर रहेगा याद’’ महत्वपूर्ण रचनाएँ है। निर्मल वर्मा के यात्रा वृतांत प्रकृति के साथ गहरे संवेदनशील रिश्तों का खाका प्रस्तुत करते हैं। ‘अज्ञेय’ ने ‘अरे यायावर रहेगा याद?’ में प्रकृति का स्थूल वर्णन न करके, प्रकृति के स्पंदक का सूक्ष्म अंकन किया है। प्रकृति के छिपे हुए इतने सौंदर्य स्तरों की खोज की है जो उनकी बौधिकता का ही नहीं उनकी रागात्मकता का भी परिचायक है।
वास्तव में आज पर्यावरणीय संवेदना के प्रति उसी तरीके के संरक्षण की भावना की दरकार है जो वैदिक साहित्य में उपलब्ध हुआ करती थी। हर पुरानी चीज बुरी नहीं होती है और हर नई चीज जरूरी नहीं की अच्छी ही हो, पर्यावरण का तो तात्पर्य ही है कि ‘‘परित आवरणम् पर्यावरणम्’’। वेदों में अगर तमाम नदियों का वर्णन है तो क्या यह अकारण है? अनेक हिन्दी कवियों ने ऋतुओं को आधर बनाकर जो बारहमासा रचा है, क्या वह निरुद्देश्य रूप से रचा गया है? आज इन सवालों से जूझने की जरूरत है ताकि हम उस पंचतत्व को समझ सकें जिसे हमारे महान साहित्यकार तुलसी ने ‘‘क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा’’ कहा हे। जरूरत इन्हें एक ही शब्द ‘पंचतत्व’ के तहत खाँचाबद्ध करने की नहीं है, बल्कि सृष्टि के इन निर्णायक तत्वों की अलग-अलग और विशिष्ट महत्ता को समझने की है। साहित्य भी इसी महत्ता का रूपायन है आखिर। हमें भूलना नहीं चाहिए कि आज भी स्वामी निगमानन्द जैसे महान् लोग हमारे देश में मौजूद हैं जो अपनी माँ यानी गंगा नदी को बचाने के लिए अपने प्राणों को सहर्ष उत्सर्ग कर देते हैं।
मूलतः जीवन के आधरभूत तत्व के रूप में प्रकृति को समझने, उसे स्वीकारने, उसके प्रति संवेदनशील बने रहने का सशक्त-व्यापक भाव भारत के पुराने नये तमाम साहित्यिक व सांस्कृतिक स्रोतों से छनकर आकार ग्रहण करता है। जहाँ प्रकृति का स्वरूप सहचरी से शूरू होकर चिंतन के केन्द्र में आकर साहित्य व प्रकृति के रिश्तों को विचारात्मक अवदान प्रदान करता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ –
- इकोलाजी, हिदुंस्तान लाईव, 2 मई 2010
- http://Ravinderkumarpathak.blogrpot.com
- ई-पत्रिका-हिन्दी समय, पृष्ठ 17, अंक 17
- श्रीराम, प्रो., समकालीन भारतीय साहित्य, विविध् विमर्शशमा, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करणः 2009, पृष्ठ, 11
- रह गई दिशा इसी पार, संजीव, राजकमल प्रकाशन, 2011
- मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ, महुआ, माजी, राजकमल प्रकाशन, 2012
प्रवीन मलिक
शोधार्थी
पंजाब विश्वविद्यालय
चंडीगढ़