जर्मन दार्शनिकों, कवियों, साहित्यकारों, कलाकारों और धार्मिक लोगों के लिए इटली (विशेष रूप से इटली का दक्षिणी हिस्सा) हमेशा से एक महत्वपूर्ण देश रहा है। सदियों से जर्मन विद्वान इस देश की यात्रा करते रहे हैं, ताकि वे इस महत्वपूर्ण देश की भाषा, साहित्य, संस्कृति, कला आदि पर शोध कर सकें, इस सुन्दर देश को समझ सकें और वहां अपने अन्य इच्छाओं की पूर्ति कर सकें। एक लम्बे समय से जर्मन भाषी समाज में इटली की यात्रा करने की संस्कृति रही है। यद्यपि बहुत सारे जर्मन भाषी विद्वानों ने इटली की यात्रा की हैं, लेकिन इस देश के बारे में उनके मत हमेशा भिन्न रहे हैं। अपनी किताबों में उन्होंने इस देश का वर्णन अलग अलग तरीके से किया है। यात्रावृत्तांत आदिकाल से ही साहित्य का एक बहुत महत्वपूर्ण भाग रहा है।[i] यूरोपीय सन्दर्भ में इसका अध्ययन करने के लिए हमें सबसे यूनानी यात्रावृतांत के इतिहास में जाना पड़ेगा।
जर्मनी के स्टेनडाल में जन्मे जोहान जोआखिम विंकेलमान को यूरोपीय कला के इतिहास का पिता कहा जाता है। बचपन से ही उन्हें अपने पिता के व्यवसाय को आगे बढ़ाने में कोई दिलचश्पी नहीं थी। बहुत छोटी उम्र से ही उनका ध्यान ग्रीक भाषा और साहित्य में था, जिसका वह गहन अध्ययन करना चाहते थे। पुस्तकालय में वह हमेशा जर्मन सामंतों की इटली की यात्रा के बारे में पढ़ते थे। उनमें से कई सामंत कला, संस्कृति और विशेष रूप से यूनानी कला और संस्कृति में गहरी रूचि रखते थे। इन यात्रा वृतांतों ने विंकेलमान का परिचय उस दूनिया से कराया, जिसमें उनकी बचपन से ही गहरी दिलचश्पी थी। उस समय यूरोप में ग्रीक से ज्यादा लैटिन का महत्व था, लेकिन इस विद्वान बालक ने धारा के विपरीत जाते हुए एक अलग रास्ता चुना। उनके ज्यादातर शिक्षक आपने छात्रों से यही अपेक्षा रखते थे, कि वे अपना जायदा समय ईश्वरीय भाषा लैटिन में दें, लेकिन यह बालक और बालकों से बहुत अलग था, जिसे सुकरात और अरस्तु में बहुत ज्यादा दिलचश्पी रहती थी। हालाकि कुछ शिक्षकों ने इस विद्वान बालक का साथ दिया।
आगे चलकर ग्रीक भाषा, साहित्य, कला और संस्कृति के अध्ययन के लिए विंकेलमान पूर्वी जर्मनी चले गए। वहां के हाले विश्वविद्यालय में नामांकन के पश्चात् उन्होंने ग्रीक का विस्तृत अध्ययन शुरू किया। उस समय के महान विद्वान प्राध्यापक एलेग्जेंडर गोटलिब बाउमगार्टन की कक्षाओं में उनकी खासकर दिलचश्पी रहती थी। कुछ दिन येना में एक अध्यापक के रूप में काम करने के पश्चात् वह ड्रेस्डेन चले गए और वहां पर खासकर ग्रीक और रोम की कला का अध्ययन किया। जुलाई 1755 में उन्होंने इटली की यात्रा शुरू की। हालाकि वह यूनान भी जाने की सोच रहे थे, लेकिन उस समय के राजनीतिक परिस्थितियों के चलते ऐसा नहीं हो पाया। चूकी इटली में भी ग्रीक कला की एक लम्बी परंपरा रही है, इसलिए वह इटली चले गए और वहां अपना शोध शुरू किया। इस शोध के दौरान उनकी कई किताबें प्रकाशित हुईं और पूरे यूरोप में उन्हें बहुत ख्याति मिली।
उस समय यूरोप अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रहा था, जहाँ पर हर जगह से केवल खून खराबे की ही खबरें आ रही थी। इस अशांति के दौर ने हालाकि फ्रेंच रेवोलुशन जैसी चीजें भी दी, जिसे विश्व इतिहास की सबसे सुखद घटनाओं में से एक माना जाता है। इस क्रांति ने पूरे विश्व में लोकतंत्र, समानता और भाईचारे की आधुनिक नींव रखी। इन सब के बावजूद हिंसा को किसी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता। अठारहवीं सदी के पहले दशक में इतना खून खराबा हुआ, कि इससे बहुत सारे विद्वान काफी व्यथित हुए। इन दुखद घटनाओं ने यहाँ तक कि सम्पूर्ण यूरोप के पढ़ेलिखे लोगों को भी दो भागों में बाँट दिया। कुछ इन घटनाओं को क्रांति का नाम देकर उनका समर्थन कर रहे थे, तो कुछ उनके बिलकुल विरोधी थे। कई सारे फ्रीडरिक शिलर जैसे विद्वान भी थे, जो क्रांति के समर्थक तो थे, लेकिन खून खराबे के व्यापक स्तर को देखकर उसके खिलाफ हो गए।
इस विभाजन के दौर ने विद्वान, आम जनता से लेकर हर वर्ग को दो भागों में बाँट दिया। उस दौर की तुलना अगर वर्तमान सदी से की जाए तो गलत नहीं होगा। विंकेलमान जैसे विद्वान समाज की इस बंटवारे को देखकर बहुत ब्यथित थे। उन्होंने समाज में मानवता, लोकतंत्र, सहिष्णुता और समानता का बीड़ा उठाया। इस सम्बन्ध में उन्होंने यूनानी कला को चुना, जो उनके अनुसार स्वतंत्रता और सहिष्णुता की सबसे बड़ी पैरोकार रही थी। शोधार्थी विंकेलमान के लिए इटली का मतलब ही ग्रीक कला था। ग्रीक कला से वह इतने प्रभावित थे, कि उन्होंने कई बार इस सभ्यता को पूरी दूनिया की भाषा, साहित्य, कला और संस्कृति का आधार भी बता दिया था।
उनके अनुसार सम्पूर्ण विश्व में जो सौन्दर्य सदियों से छाया रहा है, वह सबसे पहने प्राचीन यूनान में अस्तित्व में आया था, बहुत सारी कलाएं विदेशों से यूनान में आयी और वहां उन्होंने सराहना पाई.[ii] जिस तरह से वह ग्रीक कला, संस्कृति और साहित्य का वर्णन करते हैं, ठीक उसी प्रकार से फ्रीडरिक श्लेगल भारत के बारे में लिखते हैं, इसलिए उन्हें यूनान का फ्रेडरिक श्लेगल कहना गलत नहीं होगा। हालाकि विद्वानों का ये मत रहा है, कि वह कला के इतिहास से ज्यादा जोर ऐतिहासिक मेटाफिजिक्स पर देते हैं.[iii] हालाकि वह इटली प्रवास के दौरान दूसरे शहरों का भी दौरा करते हैं, लेकिन उनका ज्यादातर समय रोमन साम्राज्य की राजधानी रोम में ही व्यतीत होता है। एक तरफ वह फ्रांसीसी विद्वानों की कुछ किताबों की सराहना करते हैं और फ्रेंच क्लैसिसिज्म से प्रभावित प्रतीत होते हैं,[iv] तो दूसरी तरफ फ्रेंच विद्वानों की कड़ी आलोचना भी करते हैं।
उस समय के जर्मन विद्वानों में ऐसा अक्सर देखने को मिलता है और उनमे से ज्यादातर की रचनाओं पर राजनीति का गहरा प्रभाव रहा है.[v] वह फ्रांस और ब्रिटेन से प्रतियोगिता में लगे हुए प्रतीत होते हैं। उनके अनुसार फ्रांस और ब्रिटेन के विद्वान भारत और इटली के बारे में इसलिए लिखते पढ़ते हैं, ताकि वह ये जान सकें कि इन देशों में कैसे अपनी साम्राज्यवादी नीतियों को लागु किया जा सकता है और कैसे इन देशो के लोगों को अपने अधीन रखा जा सकता है। जर्मन विद्वानों के बारे में ऐसा कहा जाता है, की उनकी ज्यादातर रचनाएँ राजनीती से प्रेरित नही रहीं, लेकिन यह केवल एक मत हो सकता है, जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं हैं। ज्यादातर जर्मन विद्वान अंग्रेजों और फ्रांसीसी लोगों की आलोचना इसलिए नही करते थे, कि उन्हें एशिया और अफ्रीका से कोई हमदर्दी है, वे केवल इस बात से चिढ़ते थे, कि क्यों ब्रिटेन और फ्रांस के पास एशिया और अफ्रीका में साम्राज्य थे और उनके पास नहीं थे। उनके इस सोच को एक अलग तरह के साम्राज्यवाद की संज्ञा दी जा सकती है, जो ब्रिटेन और फ्रांस से अलग थी।
विंकेलमान इटली में साहित्य और कला को तवज्जो देते हैं, इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि वह इटली और वहां के लोगों के बारे में कुछ नहीं कहते। अपने इटली प्रवास के दौरान वह कई बार वहां के सुन्दर वातावरण की प्रशंसा करते हैं। उनके अनुसार इटली और खासकर रोम एक ऐसी जगह है, जहाँ कला और साहित्य के अध्ययन के लिए उपयुक्त वातावरण प्राकृतिक और सामाजिक रूप से हमेशा से बना हुआ है। रोम से अच्छा इसका अध्ययन और कही भी संभव नहीं है। इटली के बारे में उनके विचारों को दो भागों में बांटा जा सकता है। पहले भाग में वह केवल कला और संस्कृति की तारीफ करते हैं, तथा इटली की संस्कृति की तुलना जर्मन संस्कृति से करते हैं।
वहां पर उन्हें यह ज्ञात नहीं होता कि इटली की संस्कृति और लोग अलग हैं, वह हमेशा इटली की संस्कृति को जर्मनी की तुलना में कम करके आंकते हैं। लेकिन अपने प्रवास के दूसरे भाग में उन्हें यह ज्ञात होता है, कि इटली जर्मनी से अलग है। कुछ कमियां और कुछ खासियत तो हर जगह है। जैसे की इटली के लोगों को ज्यादा स्वतंत्रता प्राप्त है, और वह जर्मन लोगों से अच्छा जीवन जीते हैं। इस संबंध में जर्मन कवि हाइनरिख हाइने ने बहुत ही सुन्दर बात कही थी। उनके अनुसार जर्मन लोग फ्रेंच और अंग्रेजी विद्वानों की आलोचना इसलिए कर रहे थे, कि वह साम्राज्यवाद के दौर में उनसे पीछे रह गए थे.
विंकेलमान अपने लगभग तेरह साल के इटली प्रवास के दौरान वहां की विभिन्न शहरों में उपलब्ध ग्रीक कला की बहुत प्रशंसा करते हैं। इसके साथ साथ वह रोम की कला या फिर बारोक कला को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाहते। हालाकि रोम और ग्रीक कलाएं आपस में इस तरह से मिली हुई हैं, कि दोनों को एक दूसरे से अलग करना लगभग असंभव है। समय के साथ इटली के बारे में उनके विचार बदलते हैं और वह अंततः इस देश को स्वीकार करते है। सबसे दिलचश्प तो यह है, कि इटली के लोगों के रहन सहन की इतनी कटु आलोचना करने वाला जर्मन विद्वान अपने जीवन के केवल उन्ही दिनों को गिनता है, जो उसने इटली में बिताए हैं। वह जर्मनी भी वापस नहीं जाना चाहता, जहाँ उसे इस बात कर डर सताता है, कि कहीं उसकी स्वतंत्रता न छीन जाए। अपनी इटली यात्रा के प्रारंभ में एक जर्मन राष्ट्रवादी की तरह लिखने वाला यह कला प्रेमी एक विश्व नागरिक की तरह लिखने लगता है। लेकिन इन सबके बावजूद वह ग्रीक भाषा, साहित्य, कला और संस्कृति को हमेशा और सारी संस्कृतियों से बेहतर मानता है। वह जर्मन विद्वानों से हमेशा आग्रह करता है, कि वे अपनी लेखनी के द्वारा हमेशा आम जनता को ग्रीक समाज के बारे में बताएं। ग्रीक समाज को वह पूरे जर्मन समाज के लिए एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिनका अनुकरण करके ही जर्मन लोग हर क्षेत्र में आगे बढ़ सकते हैं। पांचवी सदी का एथेंस एक हजार साल बाद भी एक आदर्श समाज के रूप में दर्शाया जाता है, इसलिए यहाँ पर कला की राजनीति के बारे में बात करना आवश्यक है। यह सही है कि ग्रीक कला और सौन्दर्य ने पूरे विश्व को बहुत कुछ दिया है, और आज भी उस समाज से सिखने लायक बहुत सारी चीजें हैं। लेकिन हर समाज के दो पहलू होते हैं। एक पहलू मानवतावादी तो दूसरा बर्बर होता है। दोनों पक्षों को सामने लाना ही एक आदर्श शोधार्थी का कर्तव्य है।
यूरोप की सभ्यता में अपोलो और डाइनोसिस इन दोनों पक्षों को प्रस्तुत करते हैं। इसमें से पहला सुन्दरता का तो दूसरा कुरूपता का प्रतिनिधित्व करता है। यूरोपीय सभ्यता दोनों का एक मिश्रण है। भले ही ग्रीक समाज ने लोकतंत्र और स्वतंत्रता का पाठ पूरी दूनिया को पढाया, लेकिन उसी समाज के लोग अपने परिवार के सदस्यों का क़त्ल तक करते थे, और वह भी युद्ध जितने के लिए। कहीं-कहीं तो परिवार के सदस्य एक दूसरे की हत्या इस तरह से करते थे कि पूरा का पूरा परिवार ही ख़त्म हो जाता था। मनुष्यों की बलि देने के प्रथा भी उसी ग्रीक समाज में रही है, जिसने सबको लोकतंत्र का पाठ पढाया। ट्रॉय के युद्ध में आगमेमनन अपनी बेटी तक की युद्ध जीतने के लिए बलि दे देता है। हिंसा को श्राप और देवी द्वारा रक्षा करके छुपाया जाना भी एक तरह की हिंसा ही है। विंकेलमान अपनी अकादमिक राजनीती के लिए इस हिंसा को छुपाते हैं, ताकि उस समय के जर्मन समाज को स्वतंत्रता, सहिष्णुता, भाईचारा और समानता की शिक्षा दी जा सके।
संदर्भ ग्रंथ –
[i] वुखनर, सांद्रा: इलुजन एंड रियालिटी इन जर्मन इमेज आफ इटली आफ 18। सेंचुरी। येना 2002, पृष्ट संख्या 4
[ii] विंकेलमान, योहान योआखिम: विंकेलमान इन आइनेम बांड। बर्लिन 1982, पृष्ट संख्या 1
[iii] वुखनर, सांद्रा: इलुजन एंड रियालिटी इन जर्मन इमेज आफ इटली आफ 18। सेंचुरी। येना 2002, पृष्ट संख्या 15.
[iv] प्रोफेसर सिमनर से बातचीत पर आधारित
[v] प्रोफेसर सिमनर से बातचीत पर आधारित
[i] वुखनर, सांद्रा: इलुजन एंड रियालिटी इन जर्मन इमेज आफ इटली आफ 18. सेंचुरी. येना 2002, पृष्ट संख्या 4.
[ii] विंकेलमान, योहान योआखिम: विंकेलमान इन आइनेम बांड. बर्लिन 1982, पृष्ट संख्या 1.
[iii] वुखनर, सांद्रा: इलुजन एंड रियालिटी इन जर्मन इमेज आफ इटली आफ 18. सेंचुरी. येना 2002, पृष्ट संख्या 15.
[iv] प्रोफेसर सिमनर से बातचीत पर आधारित
[v] प्रोफेसर सिमनर से बातचीत पर आधारित