विकास और राष्ट्र के नाम पर उपजे मौसमी पक्षकारों की जमात की पैन्तरेबाजी से जनता बस ‘सक्रिय-मूकदर्शक’ बनाई जा रही है !! आज सरहद की सुरक्षा में लगे सैनिकों के अदम्य साहस का उदाहरण ए.टी.एम. और बैंकों की क़तार में खड़े रहने की संदर्भ में दी जा रही है | सरकारी फैसले को सही साबित करने के लिए हर नामुमकिन को मुमकिन बनाने की कवायद व कसरत का कोलाहल मचा है | लोकतंत्र की स्वघोषित पैरोकार समकालीन मीडिया आज के भूमंडलीकृत नई विश्व-व्यवस्था में सरकार और समाज के बीच की कड़ी वाली अपनी वास्तविक भूमिका से सरक कर ‘सरकारबाज-मीडिया’ बन चुकी है
सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विरोधियों को ‘शह-मात’ में उलझाकर अपना दायरा बढ़ा रहे हैं। इस भाषण में उन्होंने इस बात के स्पष्ट संकेत दिए हैं कि वह भारतीय जनता पार्टी और अपनी सरकार को गरीब और मध्यम वर्ग के नजदीक ले जाना चाहते हैं। वह भाजपा को ‘बनियों की पार्टी’ वाली छवि से मुक्त करना चाहते हैं। यहाँ बनियों से आशय किसी जाति विशेष से नहीं, बल्कि सम्पन्न वर्ग से है। नरेन्द्र मोदी अपनी एक चाल से कई लक्ष्य साधते हैं। अब देखिए, नोटबंदी के निर्णय से उन्होंने कालेधन, जालीनोट और आतंकियों की फंडिंग पर चोट की है। भाजपा पर यह तोहमत लगाई जाती है कि वह अमीरों की पार्टी है। अंबानी और अडाणी, प्रधानमंत्री मोदी के दोस्त हैं। इसीलिए विपक्ष यह भ्रम फैलाने का प्रयास कर रहा है कि नोटबंदी का निर्णय लेकर नरेन्द्र मोदी ने देश के गरीबों को बैंक और एटीएम के सामने कतार में खड़ा कर दिया है, जबकि अमीर अपने घरों में आराम से बैठे हैं। प्रधानमंत्री भली प्रकार समझते हैं कि भाजपा को अपना दायरा बढ़ाने के लिए इस झूठी छाप से बाहर निकलना होगा। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी खुलकर कहते हैं- ‘नोटबंदी के निर्णय में सबसे ज्यादा आशीर्वाद गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों ने दिया है, जिन्हें मैं सिर झुकाकर नमन करता हूँ।’
देश में काले धन के लिए चलाए जा रहे नोटबंदी अभियान की बलिवेदी में सौ लोगों की भेंट चढ़ गई। मौजूदा हालात में जिस तरह बैंकों में कतारें नजर आ रही हैं, उससे जाहिर है कि आगामी महीनों में भी हालात बेहतर होने वाले नहीं हैं। मृतकों में उनकी संख्या शामिल नहीं हैं, जिनकी खबर नहीं बन सकी। ऐसे लोगों की मौत का आंकड़ा कहीं अधिक हो सकता है। ज्यादातर लोगों की मौत बैंकों से धन नहीं मिलने के सदमे और बीमारी के लिए धन का पर्याप्त इंतजाम नहीं करने से हुई हैं। कुछ लोगों ने बेटी के विवाह में व्यवधान या दूसरे कारणों से आत्महत्या कर ली। मौत के आगोश में ज्यादातर आम लोग ही आए। नोटबंदी से मरने वालों के मामले में कुतर्कों की वही गली तलाशी गई है जोकि कुपोषण और भूख से होने वाली मौतों के मामलों में तलाशी जाती रही है। ऐसी मौतों की कोई भी राजनीतिक दल जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता। इसके विपरीत जिस दल की भी सरकार राज्य या केंद्र में सत्ता में होती है, वह यही दलील देती है कि मौत बीमारी से हुई है ना कि कुपोषण या भूख से। नोटबंदी की चपेट में आकर जान गंवाने वालों के लिए भी इसी तरह के कुतर्क गढ़े जा रहे हैं। नोटबंदी में आम आदमी बेशक जान गंवाए या परेशान हो पर इससे नेता, अफसर, धनपशु और माफियाओं पर फर्क नहीं पड़ा। इनको बैंकों और एटीएम मशीनों की कतार में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार नहीं करना पड़ा। इनमें से किसी को घर−परिवार और रोजगार चलाने के लिए मौत को गले नहीं लगाना पड़ा। इनके काले धन का असर पहले भी आम लोगों पर पड़ रहा था और उसके खात्मे का परिणाम भी आम लोग ही भुगत रहे हैं। जबकि काले धन का अभियान इन्हीं को केंद्र में रखकर चलाया गया था। इनका धन बेशक चला गया हो पर जीवनशैली में कोई खास अंतर नहीं आया अपने भाषण में उन्होंने यह भी कहा कि गरीबों का हक मारने वालों को उन्होंने कड़ा दण्ड दिया है। अमीरों की तिजोरी से निकलकर बैंक में आए धन को गरीबों और जरूरतमंदों को उपलब्ध कराया जाएगा। भले ही मोदी विरोधी यह स्वीकार न करें, लेकिन सच यही है कि नोटबंदी के निर्णय का सबसे अधिक स्वागत इसी गरीब और मध्यम वर्ग ने किया है, जो नोट बदलवाने के लिए कतार में खड़ा है। अब तक आए ज्यादातर सर्वेक्षण भी इस बात की हामी भरते हैं कि तकरीबन 85 प्रतिशत जनता कष्ट उठाकर भी इस निर्णय के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ है। जनता का यह समर्थन इसलिए है, क्योंकि मोदी उसे यह समझाने में सफल रहे हैं कि यह सरकार गरीबों और मध्यम वर्ग की सरकार है। इस परिवर्तन रैली में भी मोदी ने प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना का शुभारम्भ किया, जो इसी वर्ग को समर्पित है। बहरहाल, यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि जनता की भावनाओं और आकाक्षांओं को समझने में नरेन्द्र मोदी का मुकाबला विपक्ष का कोई भी नेता नहीं कर पा रहा है। यदि ऐसा होता, तब नोटबंदी का विरोध करने के लिए विपक्षी नेताओं को कुतर्क ढूंढकर लाने की जरूरत नहीं पड़ती। नोटबंदी के मुद्दे पर विपक्ष पूरी तरह चूक गया है। जबकि प्रधानमंत्री मोदी भारत के बहुसंख्यक वर्ग (गरीब एवं मध्यम वर्ग) में अपनी पैठ को मजबूत बनाते जा रहे हैं।
अपने प्रधानमंत्रित्व के दूसरे कार्यकाल में सर्वाधिक आलोचना झेलने वाले पीएम ने इस बाबत बेहद व्यवहारिक ढंग से कहा कि ‘नोटबंदी के उद्देश्यों को लेकर असहमत नहीं हूं, लेकिन इसके बाद बहुत बड़ा कुप्रबंधन देखने को मिला, जिसे लेकर पूरे देश में कोई दो राय नहीं’। महान अर्थशास्त्री ने आगे कहा कि ‘मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ यह कहता हूं कि हम इसके अंतिम नतीजों को नहीं जानते। कृषि, असंगठित क्षेत्र और लघु उद्योग नोटबंदी के फैसले से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं और लोगों का मुद्रा व बैंकिंग व्यवस्था पर से विश्वास खत्म हो रहा है। नियमों में हर दिन हो रहा बदलाव प्रधानमंत्री कार्यालय और भारतीय रिजर्व बैंक की खराब छवि दर्शाता है’। ज़रा सी निष्पक्षता रखने वाला व्यक्ति भी शायद ही डॉ. सिंह के हालिया कथनों से असहमति रखेगा। शुरू के दिनों में निश्चित रूप से मैं खुद भी पीएम के इस कदम के पक्ष में था, क्योंकि इस बात का विश्वास मुझे भी था कि पीएम मोदी जैसे सक्रिय और मजबूत व्यक्तित्व ने सवा सौ करोड़ देशवासियों के दुःख दर्द का सटीक आकलन किया होगा, किन्तु अफ़सोस कइयों की तरह मुझे भी निराशा ही हाथ लगी।
हालाँकि, ऐसा भी नहीं है कि इन फैसलों के सिर्फ नुक्सान ही हों, बल्कि निश्चित रूप से इस फैसले के फायदे भी हैं। फायदा, नुक्सान के सम्बन्ध में दोनों आकलन, अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्वरूप में विद्यमान हैं। अगर कॉन्सेप्ट के तौर पर बात की जाए तो नोटबंदी का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि हर व्यक्ति को अर्थव्यवस्था की कई बुनियादी बातों से दो-चार होना पड़ा है और कहीं ना कहीं उसकी समझ इससे बढ़ी ही है, वह जागरूक ही हुआ है। इसी के साथ लोग बड़ी संख्या में बैंकिंग की ओर मुड़े हैं, तो देश की आधी आबादी यानी, महिलाएं भी बैंकिंग से सीधे तौर पर जुड़ी हैं। निश्चित रूप से इसके अन्य लाभों में बड़ी संख्या में नकली नोटों की रोकथाम है तो काफी हद तक आतंकवाद और अंडरवर्ल्ड की फंडिंग को भी एकबारगी बड़ा झटका लगा है। हालाँकि, सबसे बड़े मुद्दे काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था पर जिस कंट्रोल की बात कही गई थी वह कितना सफल हुआ है इस बारे में बड़ा विवाद है, तो भ्रष्टाचार पर भी किस कदर अंकुश लगा है या अंकुश लगेगा, इस बात की ठोस तस्वीर सामने नहीं आ पा रही है।
आजादी की लड़ाई के बाद संभवत नोटबंदी ही ऐसा कदम है, जिसमें समूचा भारत व्यापक स्तर पर प्रभावित हुआ है। क्या गरीब, क्या अमीर, क्या छोटा, क्या बड़ा, क्या बुजुर्ग, क्या महिलाएं हर एक व्यक्ति को नोट बंदी के फैसले में गहरे तक प्रभावित किया है। अगर हम बात करते हैं इसके फायदे और नुकसान के बारे में तो इसका आकलन एक शब्द में, हां या ना के रूप में करना न्यायोचित नहीं होगा। अर्थशास्त्री के तौर पर ज्यादा और पूर्व प्रधानमंत्री के तौर पर कम याद किये जाने वाले डॉ. मनमोहन सिंह ने इस बारे में कदाचित सटीक टिप्पणियां की हैं। राज्यसभा में नोटबंदी पर बोलते हुए सत्तापक्ष को कई नसीहतें देने के साथ-साथ, उन्होंने लगभग 10 मिनट के अपने भाषण में नोटबंदी को देश के इतिहास का ‘सबसे बड़ा कुप्रबंधन’ करार दिया।
सबसे आगे जिन नुकसानों की चर्चा की जा रही है, वह है बाजारों में गिरावट और यह इतनी बड़ी या व्यापक कही जा सकती है कि बैंक ऑफ अमेरिका, मेरिल लिंच और मॉर्गन स्टैनली जैसे संस्थान भारत की रेटिंग गिरा चुके हैं। मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले के बाद रेटिंग फर्म मॉर्गन स्टैनली और बैंक ऑफ अमेरिका मेरिल लिंच ने 2016 में भारत के जीडीपी ग्रोथ के अनुमान को 7.7 पर्सेंट से घटाकर 7.4 पर्सेंट कर दिया है। गौरतलब है कि इस कटौती को नोटबंदी के बाद कारोबार में आई गिरावट और मंदी के माहौल का नतीजा माना जा रहा है। यही नहीं मॉर्गन स्टैनली ने 2018 में देश की ग्रोथ रेट के अनुमान को भी 7.8 पर्सेंट से कम कर 7.6 प्रतिशत कर दिया है। इन तथ्यों पर विचार करते हैं तो नज़र आता है कि भारत की अर्थव्यवस्था एक विकासशील अर्थव्यवस्था है और इतने बड़े झटके, जिसका असर कम से कम 6 महीने से साल भर तक रहने वाला है, उससे भारतीय अर्थव्यवस्था कैसे उबर पाएगी? राजनीतिक फायदे नुकसान की बात अपनी जगह है, किंतु अलग-अलग इंडस्ट्रीज में जिस तरह गिरावट दर्ज की गई है, आखिर उससे निपटने की क्या रणनीति बनाई गई है I कुछ और व्यावहारिक कठिनाइयों की बात करें तो नोट बंदी के शुरुआती दिनों में ट्रेन इत्यादि के टिकट्स के लिए पुराने 500 और 1000 के नोट मान्य किये गये थे, जबकि ट्रेनों की पैंट्री कार में ही वह नोट स्वीकार नहीं किए जा रहे थे। समझा जा सकता है कि श्रीनगर से बैठा एक नागरिक अगर कन्याकुमारी या फिर पूर्वोत्तर के गुवाहाटी या डिब्रूगढ़ तक गया होगा तो उसे किन हालातों का सामना करना पड़ा होगा। शादी-विवाह के सीजन को लेकर सरकार की काफी किरकिरी हो चुकी है, किंतु तमाम उठापटक के बाद भी कई आदेशों और एडवाइजरी के बाद भी कुछ खास रास्ता नहीं निकाला जा सका। मुश्किल यह है कि सत्ताधारी पार्टी इस फैसले के राजनीतिक नफे-नुकसान की गणना तो कर रही है, किंतु आर्थिक मोर्चे पर कहां से कहां बात जा रही है इस बाबत किसी का ध्यान नहीं है। बैंक कर्मचारियों पर इस कार्य से जो अतिरिक्त भर पड़ा है, उसे ज्यादा लंबे समय तक खींचना उचित नहीं कहा जा सकता।
यह बताना भी जरूरी है कि नोटबंदी के फैसले में आला दर्जे का घटिया प्रबंधन सरकार और रिजर्व बैंक ने दिखलाया है। आखिर बिना आकलन किए और बिना प्रभाव का अध्ययन किए इतना बड़ा फैसला लिया जाना कहां तक लाजिमी है? कहना बहुत आसान है कि सब मैनेज हो जाता है। एक वाकया सुनाऊँ तो, अभी पिछले दिन मैं एक शादी में शहर से गांव गया था। थोड़ा लंबा कार्यक्रम था और उसमें तकरीबन 15 दिन गांव में मुझे रहना पड़ा और इस दरमियान बिजनेस से मेरी कनेक्टिविटी बेहद कम हो गई। समझा जा सकता है कि इन 15 दिनों में मुझे खासा नुकसान उठाना पड़ा। इस नोट बंदी के चक्कर में तो कई लोगों और संस्थानों को काफी कुछ झेलना पड़ा है, वह भी लंबे समय तक! अगर सरकार की तैयारियां पूरी रहती, उसके आकलन सटीक रहते, तब शायद इनसे बचा जा सकता था। बेहद आश्चर्य की बात है कि 2000 का नोट लांच हो जाने के कई दिनों के बाद तक एटीएम के सॉफ्टवेयर उसके कंपेटिबल नहीं हो सके थे, नतीजा सौ-सौ के नोट से भरे एटीएम जल्दी खाली हो जाते थे और बैंकों में एटीएम पर लाइने लंबी की लंबी बनी रहती थी।
इन दिनों पैसे जमा करने और निकालने के अतिरिक्त बैंकों में दूसरे कामकाज लगभग ठप्प हैं, जैसे लोन देना या लोन की रिकवरी करना! जाहिर है बैंकिंग मॉडल भी एक विशेष तरह के तनाव से गुजर रहा है और इस सिचुएशन में ‘एनपीए’ और ज्यादा बढ़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इसके साथ-साथ सरकार की जो सबसे बड़ी आलोचना हो रही है वह है आयकर अधिनियम में संशोधन पेश करने की! एक तरफ प्रधानमंत्री ने कालाधन रखने वालों को 30 सितंबर तक मोहलत दी थी कि अगर उन्होंने स्वेच्छा से अपने कालेधन की घोषणा नहीं की तो दो सौ पर्सेंट का जुर्माना लगा दिया जाएगा, जो उनके कुल धन का टैक्स सहित पचासी पर्सेंट तक हो सकता है। मतलब काले धन वाले सौ रुपए में से मात्र ₹15 सफेद कर सकेंगे, जबकि उनका ₹85 सरकारी खातों में जमा हो जाएगा। बाद में नवंबर के आखिरी दिनों में संसद में बिल पेश कर दिया गया है, जिसमें यह प्रावधान शामिल किया गया कि काले धन वालों को एक और मौका दिया जा सकता है, जिसमें 49.99 परसेंट का टैक्स देकर 25 परसेंट तुरंत वाइट मनी में कंवर्ट किया जा सकता है, जबकि 25 परसेंट शेष धनराशि 4 साल के लिए ब्याज रहित रहेगी किंतु 4 साल बाद उसे भी निकाला जा सकता है।
सवा सौ करोड़ आबादी इसी काले धन को नष्ट किये जाने के लिए इतना कष्ट उठा रही है और प्रधानमंत्री की तारीफ भी कर रही है, तो क्या काला धन वालों को लगातार रियायत देकर जनता के साथ एक तरह का धोखा नहीं किया जा रहा है? हालांकि सरकार पर दबाव की बात भी कही जा रही है, किंतु सरकार को इन सारी स्थितियों को पहले ही संज्ञान में लेना चाहिए था। मनी लांड्रिंग देश में एक बड़ी समस्या है और नोटबंदी ने इस पर लगाम लगाने की दिशा में एक अच्छी राह सुझाई थी, पर एक बार और छूट देकर कहीं न कहीं समस्या को जानबूझकर अनसुलझी छोड़ने की बात सामने आई है। इससे बचा जा सकता था और यह आर्थिक रूप से भी और तब नैतिक रूप से भी काफी हद तक सही हो सकता था। जहां तक इस कदम के राजनीतिक लाभ हानि का प्रश्न है तो बीजेपी का समर्थक वर्ग यानी व्यापारी वर्ग इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है, किंतु उनके सामने कोई राजनीतिक विकल्प नहीं है, इसलिए भाजपा के साथ यह वर्ग आगे भी जुड़ा रह सकता है। छोटे तबके में जरूर इस बात को लेकर थोड़ी खुशी थी कि अमीर और काले धन वालों का धन सरकार की जेब में जा रहा है जो घूम फिर कर जनता के कल्याणकारी कार्यों में लगेगा, किंतु एक संशोधन अधिनियम प्रस्तुत कर केंद्र सरकार ने अपने इस राजनीतिक फायदे को ही कम करने की कोशिश की है।
यह पहला मौका है जब मीडिया पीएम और वित्तमंत्री के बयानों की तथ्यपरक जांच नहीं कर रहा। मीडिया का कमर कसकर अफवाह अभियान में जुट जाना इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी है। भारत के इतिहास में सहकारी बैंकों को कभी सामान्य बैंकिंग प्रणाली से काटकर नहीं रखा गया, लेकिन नोटबंदी के बाद सहकारी बैंकिग व्यवस्था ठप्प पड़ी है। वहां कोई लेन-देन नहीं हो रहा, कोई काम नहीं हो रहा। यहां तक कि तुलनात्मक तौर पर पोस्ट ऑफिस से भी इन बैंकों का बुरा हाल है।
देश के मध्य वर्ग को भी आयकर अधिनियम में संधोधन से कुछ राहत मिल सकती है, पर इतना हो हल्ले मचने के बाद इस कदम से गलत सन्देश ही गया है। चूंकि, विपक्ष देश में उतना सशक्त नहीं है और यह बात उस तरीके से जनता में कम्युनिकेट नहीं हो रही है, जितना एक सशक्त विपक्ष कर सकता था, इसलिए सरकार को यहां भी जनता संदेह का लाभ दे सकती है। रही बात अर्थव्यवस्था की तो नोट बंदी से झटका खाई हुई इंडस्ट्री को सरकार संभालने के लिए क्या कदम उठाती है, काफी कुछ इस पर भी निर्भर रहने वाला है। जीएसटी जैसे कुछ प्रावधान इस मामले में जरूर मददगार साबित हो सकते हैं, किंतु आयकर अधिकारियों के ऊपर डिपेंडेंसी बढ़ाकर और टैक्स प्रावधानों के कई सारे उलझाव वाले पहलू सामने लाकर ‘इंस्पेक्टर राज’ को बढ़ावा देने की बड़ी गुंजाइश छोड़ दी गयी है। इसी तरह से जो बड़ी कमी जनधन खातों को लेकर सामने आई है।
सवाल यह है कि ये कंपनियां क्या अपने पॉकेट से नागरिकों को दो हजार रूपये बांटेगी ? कहीं नई मुद्रा को सिलेक्टिव ढंग से कारपोरेट घरानों को देने की मुहिम तो नहीं चल रही ? मसलन बिग बाजार ने दो हजार की मुद्रा डेबिड कार्ड के आधार पर नागरिक को दी तो आखिरकार वह मुद्रा बिग बाजार कहां से जुगाड़ करेगा ?
जिस समय बैंकों के पास मुद्रा न हो वैसे में बिग बाजार जैसे निजी नैटवर्क को दो हजार रूपये डेबिड कार्ड के जरिए देने का फैसला नए किस्म की मोदी -कारपोरेट मिलीभगत का नमूना है। यह नोटबंदी की आड़ में चल रहा मोदी करप्शन है। इसी तरह यह प्रचार भी तथ्यहीन है कि कैशलैस सोसायटी करप्शन मुक्त होती है। सारी दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जो कैशलैस हो, यहां तक कि जिन देशों में कैशलैस सिस्टम बहुत पुख्ता है वहां पर भी करचोरी बड़ी मात्रा में होती है। कैशलेस सिस्टम अंततःकैश पर ही चलता है। सिर्फ अंतर यह है कि चलमुद्रा का एक बड़ा अंश चलन से बाहर रहता है, वह बैंकों के पास रहता है।
सारी दुनिया में 1.2 बिलियन लोग हैं जिनकी जिंदगी प्रतिदिन एक डॉलर से भी कम पैसे से चलती है। भारत में आबादी का बहुत बड़ा अंश है जिसकी रोज की आय तीस रूपये से भी कम है। ऐसे में कैशलैस विनिमय की बात करना अवैज्ञानिक है, साथ ही गरीबों के साथ भद्दा मजाक है।
पहले से ही एक लाख करोड़ रूपये की प्लास्टिक मनी चलन में है। यह प्लास्टिक मनी मोदीजी के पीएम बनने के पहले से ही चलन में है। प्लास्टिक मनी बाजार की पूरक मुद्रा है, विनिमय की मुद्रा है, यह वस्तुतः मुद्रा नहीं, मुद्रा का वायदा है, गारंटी है। असल मुद्रा तो इसके कारण चलन के बाहर है।
मीडिया साक्षरता के अभाव के कारण नोटबंदी के प्रति इस तरह का अनालोचनात्मक रवैय्या पैदा होता है। आम जनता देखती है कि मीडिया समर्थन कर रहा है फलतः जनता मानकर चल रही है कि मोदीजी की नोट बंदी सही है। मीडिया बार-बार असुविधाओं को चित्रित कर रहा है उसमें भी वह बड़ी कृपणता के साथ पेश आ रहा है। विगत 14 दिनों में मीडिया का समूचा कवरेज नोटबंदी के प्रति अनालोचनात्मकता से लबालब भरा रहा है। मीडिया का काम है कि वह जनता की आवाज बने, लेकिन हमारे यहां मीडिया खुल्लमखुल्ला सरकार और कारपोरेट घरानों की आवाज के रूप में काम कर रहा है, ऐसे में मीडिया साक्षरता का काम और भी महत्वपूर्ण हो उठा है।
इस दौर में आम जनता की राय को बनाने और नियंत्रित करने में मीडिया सबसे बड़ी भूमिका अदा कर रहा है। अतः मीडिया की भूमिका पर व्यापक बहस होनी चाहिए। सवाल यह है मीडिया यह मानकर क्यों चलनेलगी है कि विकास के नाम पर विस्थापन कोई बुरी बात है है बल्कि अच्छी बात है, सही फैसला है और कोई भी सरकार इसके बिना विकास का काम कैसे कर सकती है |बिना इस नीति की तहकीकात किए, उसके बुनियादी आधार के बारे में सवाल खड़े किए बिना मीडिया ने जिस तरह का माहौल बनाया है उससे पहली बात यह निकलती है कि मीडिया वालों में साक्षरता का अभाव है।
नोटबंदी के सवाल पर मीडिया ने दो बड़े अपराध किए हैं। पहला मीडिया ने आर्थिक सूचनाओं को छिपाया है और अ-प्रासंगिक सूचनाओं का प्रसार किया है। दूसरा अपराध यह किया है कि मीडिया अपनी भूमिका भूलकर सरकार के भोंपू की भूमिका अदा कर रहा है। हम सब जानते हैं आम जनता मीडिया द्वारा प्रसारित सूचनाओं पर पूरी तरह निर्भर है ऐसे में आम जनता से सही सूचनाएं छिपाना और सरकार की ही सिर्फ सूचनाओं को प्रसारित करना अपराध की कोटि में आता है ।
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