‘‘भूमण्डलीकरण के आक्रामक दौर में नष्ट होती हुई ग्राम संस्कृति और आत्महत्या के लिए विवश किसानों को केन्द्र में रखकर किया जाने वाला कथा-सृजन ही अपनी सार्थकता प्रमाणित कर सकता है।’’ नामवर सिंह की यह टिप्पणी समकालीन कथा साहित्य के सन्दर्भ में उचित लगती है। भूमण्डलीकरण का आक्रामक दबाव, ग्राम संस्कृति का क्षरण और किसानों की आत्महत्याएँ हमारे समय के यथार्थ के ऐसे पहलू हैं, जिनसे आँखें चुराकर किया जाने वाला साहित्यिक लेखन अधूरा, एकांगी तथा सरोकार विहीन ही कहा जाएगा। ऐसे लेखन में भारतीयता की धड़कन नहीं सुनायी देगी। संजीव ने अपना उपन्यास ‘फाँस’ लिखकर मरती हुई किसान संस्कृति का एक प्रामाणिक दस्तावेज पेश किया है। हिन्दी कथा साहित्य में प्रेमचन्द ने सबसे पहले किसान और उसकी समस्याओं को लेखन का विषय बनाकर सौन्दर्य की एक नयी कसौटी प्रस्तुत की थी। तब देश में अंग्रेजों का राज था। उनके संरक्षण में पलने वाले जमींदारों के शोषण-दमन से किसान त्रस्त था। जमींदार, साहूकार और पुरोहित तीनों मिलकर किसान के जीवन को त्रासद बना रहे थे। किसान राजसत्ता, धर्मसत्ता, ज़मींदार और महाजनी पूँजी के चक्रव्यूह में फँसकर यातनाएँ भोग रहा था। प्रेमचन्द ने ‘गोदान’ में बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की राजनीतिक और समाजार्थिक परिस्थितियों के बीच दबे किसान की त्रासदी को महाकाव्यात्मक गाथा के रूप में रचा। उस समय किसान शोषण-दमन सहते रहने के बावजूद आत्महत्या नहीं करता था, जबकि स्वाधीन भारत में वह आत्महत्या करने के लिए विवश है। अंग्रेजी राज से लेकर आज सात दशक बीत जाने के बाद भी भारत का किसान मूलभूत समस्याओं से मुक्ति नहीं पा सका है। उसकी नियति में होने वाला परिवर्तन आश्वस्तकारी नहीं है। बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में उदारीकरण की जो प्रक्रिया आरम्भ हुई थी, उसने किसान का जीवन कठिन बना दिया है। प्रेमचन्द के किसान पात्र कर्ज़ के बोझ से दबे-दबे मर जाते हैं, तो संजीव के किसान पात्र कर्ज़ के बोझ से दबकर आत्महत्या कर लेते हैं। मृत्यु दोनों के यहाँ अनिवार्य रूप से उपस्थित है। दोनों कथाकारों के बीच फैला एक सदी का अन्तराल भी किसानों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन नहीं ला सका। संजीव के उपन्यास में इसके कारणों की गम्भीर पड़ताल की गयी है। ‘फाँस’ के केन्द्र में है महाराष्ट्र का विदर्भ अंचल और मृत्यु की छाया में बीतता वहाँ के किसानों का त्रासद जीवन। इसकी संवेदना की परिधि में वह समूची किसान प्रजाति समाहित है, जिसे हमारे देश में ‘अन्नदाता’ कहा जाता है। पता नहीं इस अन्नदाता शब्द में अभिधा के अलावा दूसरी शब्द-शक्तियों का कितना समावेश है, किन्तु आज इस प्रजाति के अस्तित्व पर संकट के बादल मँड़रा रहे हैं। लगता है जैसे अगले कुछ दशकों में उसका अस्तित्व ही नहीं बचेगा। किसान हमारे समय की वह समस्या है, जिसके समाधान की चिन्ता से राजसत्ता और प्रशासन लगभग मुक्त हो चुका है।
बड़े-बड़े राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय निगमों की सर्वग्रासी मनोवृत्ति का निवाला बन रहे किसान के सामने जब चुनौतियाँ महाकाल बनकर खड़ी हो जाएँगी, तो आखिर वह स्वयं को कब तक और कैसे बचा पाएगा? जब राजसत्ता का उद्देश्य सेठ-साहूकारों और राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय निगमों के हितों एवं उनकी लालसाओं की पूर्ति सुनिश्चित करना हो जाय, तो किसानों के हितों की रक्षा भला दूसरा कौन कर सकता है? क्या कारण है कि जिनको जनता चुनती है, वे ही उसकी पीड़ा से निर्लिप्त हो जाते हैं। किसानों की आत्महत्याएँ उन्हें विवशताजन्य नहीं, फैशन के तहत की गयी कार्रवाई लगती हैं। संजीव ने ‘फाँस’ के वृत्तान्त में किसानों की आत्महत्याओं को ‘हत्या’ के रूप में चिह्नित किया है। हत्यारे सामने तो नहीं दिखते, किन्तु वे ऐसी स्थितियाँ अवश्य निर्मित कर देते हैं जिससे किसानों के सामने आत्महत्या के अलावा दूसरा रास्ता बचता ही नहीं। ‘फाँस’ ऐसे ही किसानों को समर्पित एक औपन्यासिक कृति है, जिसमें संजीव ने अपने अध्ययन की गहराई, संवेदनशीलता, पक्षधरता और सरोकार से हमें परिचित कराया है। कथ्य के धरातल पर यह उपन्यास उनके पूर्व प्रकाशित उपन्यासों से भिन्न है। यह पूरी तरह किसान समस्या पर केन्द्रित है। किसानों की समस्याएँ क्या हैं और उनसे किसान कैसे जूझ रहा है, इसे जानने-समझने के लिए ‘फाँस’ से गुजरना जरूरी है।
‘फाँस’ की शुरुआत बनगाँव में रहने वाले शिबू, शकुन, सरस्वती और कलावती के उल्लेख से हुई है। औपन्यासिक वृत्तान्त में कहा गया है कि ‘एक पेड़ से लटककर एक किसान ने फाँसी लगा ली थी।…इस देश का किसान कर्ज़ में ही जन्म लेता है, कर्ज़ में ही जीता है, कर्ज़ में ही मर जाता है।…पिछले बरस सात हजार किसानों ने आत्महत्या की थी। अखबार, रेडियो, टी.वी. सबने अफीम खा ली, खबर तक न हुई।’ किसान हमेशा से समाज का उपेक्षित वर्ग रहा है। ‘फाँस’ के वृत्तान्त में इस सच्चाई से हमारा सामना होता है। किसानों के शोषण का एक प्रमुख कारण उनका असंगठित होना है। एक वर्ग अथवा समूह के रूप में किसान की कोई सामाजिक-आर्थिक पहचान नहीं बन पायी। वह अनेक जातियों-सम्प्रदायों में विभाजित है। किसानों का शोषण और उनकी आत्महत्याएँ संचार माध्यमों की सुर्खियाँ नहीं बनतीं, क्योंकि संचार माध्यमों की नीतियों एवं सरोकारों में किसान शामिल ही नहीं है। जब संचार माध्यमों पर पूँजीपतियों और अभिजात वर्ग का नियन्त्रण होगा, तो वह किसानों के हित की बात क्यों करेगा? मीडिया का वर्गीय हित किसानों के प्रति संवेदनशीलता प्रदर्शित करने से नहीं सधता। वह किसानों को इसलिए भी महŸव नहीं देता, क्योंकि उनकी आत्महत्याएँ राजनीति और समाज में सनसनी नहीं पैदा करतीं। गोदान’ का होरी भी आखिर खेती छोड़कर मजदूर बन गया था। किसान के लिए खेती छोड़ने का मतलब है मजदूर बन जाना। ‘फाँस’ के वृत्तान्त में भी ऐसा ही कहा गया है। ‘शेती कोई धन्धा नहीं, बल्कि एक लाइफ स्टाइल है-जीने का तरीका, जिसे किसान अन्य किसी भी धन्धे के चलते छोड़ नहीं सकता।’ खेत-खलिहान, बैल और फसल किसान की धमनियों में रक्त की तरह प्रवाहित होते रहे हैं। इस उपन्यास में भले ही विदर्भ अंचल को घटना-स्थल बनाया गया है, किन्तु किसानों की समस्या एक क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं है। इसका विस्तार अखिल भारतीय है। उपन्यास का यथार्थ सिर्फ़ ‘फाँस’ और ‘फाँसी’ जैसे शब्दों तक ही नहीं सिमटा है। इसमें भारत के एक बड़े समूह के जीवन की धड़कन और वास्तविकता समाहित है। विदर्भ का यवतमाल जनपद और किसानों की आत्महत्याएँ एक-दूसरे से गुँथी हैं। उपन्यास में हम देखते हैं कि पुलिस के जवान किसानों को ‘पशुओं की तरह हाँकते हुए’ ले जा रहे हैं। यह उसकी दयनीयता और विवशता की चरम स्थिति है।
संजीव ने किसान समस्या का बहुआयामी चित्रण किया है। ध्वनिसूचक शब्दों के प्रयोग से परिवेश को जीवन्त बनाया है। ‘तड़र-तड़र-तड़ तड़रर-तड़रर…।’ बैलगाड़ी के चलने से निकलने वाली यह ध्वनि कभी किसान जीवन का अटूट हिस्सा रही। इस चित्र में समूचे परिवेश और किसानों की आर्थिक स्थिति की झलक दिखलायी पड़ती है। जो नहीं दिखता, वह है उदारीकरण की कोख से निकलने वाले विकास का समावेशी रूप। उदारीकरण एक छलावा है। जहाँ बैलगाड़ी के पहिये झोल खाते हों और बैल बगावत करने पर उतारू हों, वहाँ किसान की जीवन-स्थिति का अनुमान लगाना कठिन नहीं रह जाता। सुनील का कहना है कि ‘सबका हल संगठित होकर आपसी सद्भाव से निकाला जा सकता है।’ संगठित होने के लिए किसानों का आह्वान करना संजीव की वैचारिकी का उल्लेखनीय पक्ष है। वे किसान समस्या को सामूहिक मानते हैं तथा संगठित प्रयास एवं प्रतिरोध में इसका समाधान ढूँढ़ते हैं। उदारीकरण और नयी आर्थिक नीतियों ने श्रमिक एवं किसान आन्दोलनों के प्रतिरोध को निष्फल कर दिया है। किसानों की आत्महत्याएँ उनकी गहरी निराशा की द्योतक हैं। इस मनःस्थिति से निकलने का उन्हें रास्ता नहीं सूझता है। सुनील का संगठित होने के लिए किया जाने वाला आह्वान इस भयावह स्थिति से निकलने का एक रास्ता हो सकता है। बीज, खाद, कीटनाशक, मजदूरी और कर्ज़ का सिलसिला कभी नहीं रुकता और किसान समस्याओं के बीच घिरता चला जाता है। शेतकरी आन्दोलन के विश्वास का टूटना, किसानों की आत्महत्याओं में बढ़ोत्तरी और उदारीकरण के बीच अनिवार्य सम्बन्ध है। उदारीकरण ने किसानों की संगठन-क्षमता को छिन्न-भिन्न कर उन्हें अकेला बना दिया है। सच्चाई यह है कि ‘बीटी बोये, धन्ना सेठ बनने के लिये। फकीर बनकर रह गये।’ कभी ग्रामीण समाज में खेती को सम्मानजनक श्रेष्ठ व्यवसाय के रूप में देखा जाता था। आज वह धारणा अब बदल चुकी है। सदानन्द कहता है कि ‘अगले साल से अपुन शेती छोड़ रहा है।’ संजीव ने उन परिस्थितियों को इतने स्वाभाविक ढंग से रचा है, जिसमें ‘अकेले पड़ते-पड़ते लोग इतने अकेले हो जाते हैं कि जीवन ही व्यर्थ लगने लगता है।’ उन्हें लगता है कि ‘मरना एक मुक्ति है और जीना एक बन्धन।’ राजनीति और अर्थ-व्यवस्था ने किसानों से उनकी जिजीविषा भी छीन ली है। वह मृत्यु के मुहाने पर खड़ा एक दयनीय जीव बनकर रह गया है।
‘फाँस’ के वृत्तान्त में उपन्यासकार ने मोहनदास इगतदास बाघमारे को कृषि अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया है। अधिकारी उसकी पूरी बात नहीं सुनता और कहता है कि ‘अरे बाप! ये तो जहरीला नाग है, नाग है? निकालो-निकालो इसको, किसने आने दिया अन्दर इसे?’ मानो समूची व्यवस्था किसानों के विरुद्ध पहले से ही तैयार बैठी हो। उसके भीतर संवेदनशीलता, कर्तव्यबोध और अपराधबोध का लेशमात्र नहीं रह गया है। किसान के हिस्से में तिरस्कार, अपमान, शोषण और यातना ही बचे हैं। ‘अजनबी होता चला गया वह अपने ही गाँव में।…अब वह था और उसकी आत्मीय तनहाई। मोहनदास इगतदास बाघमारे ने पुलिया से पूछा, पेड़ से पूछा, परिन्दों से पूछा, भाई से पूछा।’ उसकी मानसिक दशा वृŸाान्त को करुण बना देती है। विवशता ऐसी कि उसे अपना एकमात्र मात्र बैल बेचना पड़ता है। तब उस पर गोहत्या का आरोप लगता है। किसान को मारने के लिए बुना गया यह ऐसा जाल है, जिसे फाड़कर बाहर निकलना उसके वश में नहीं है। रूढ़ियाँ और अन्धविश्वास भी उसकी यातना में सहायक हैं। अभिमन्यु की तरह उसे चारों ओर से घेर लिया गया है। उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। वह ‘गोदान’ के होरी से भी अधिक त्रासद स्थिति में पहुँच गया है। होरी की पत्नी धनिया ने तो सवा रूपये का गोदान कराकर उसकी ‘मुक्ति’ के लिए प्रयास भी किया था, किन्तु बाघमारे समेत ‘फाँस’ के अन्य पात्रों को तो यह अवसर भी उपलब्ध नहीं होता। दण्ड का विधान यहाँ अपेक्षाकृत अधिक कठोर है। सिन्धुताई के ‘सौ रूपये की मुड़ी-तुड़ी नोट के आखिरी सम्बल को’ तोड़कर स्वामी निरंजनदेव जो प्रायश्चित बताता है, वह मनुष्यता के अपमान का चरम ही कहा जाएगा। प्रायश्चित का उपाय यह है कि ‘बैल के गले का फन्दा गले में डालकर एक भिक्षा पात्र लेकर भीख माँगनी पड़ेगी। शुद्धि तक न घर में घुस सकते हैं, न मनुष्य की बोली बोल सकते हैं। बैल की तरह बाँ-बाँ!’ यहाँ हमारे समय की वह विडम्बना उजागर हुई है, जहाँ धर्म का चरम विकृत रूप राजसŸाा एवं वैश्वीकरण के साथ कदमताल करते हुए किसानों के जीवन को लगभग असम्भव बना रहा है। विकास की कथित आँधी के बीच किसानों की ऐसी दयनीय स्थिति में कौन-सी सम्भावनाएँ जग सकती हैं, अनुमान लगाना कठिन है? वर्तमान मोहन बाघमारे जैसे जीते-जागते किसान को ‘किंवदन्ती’ बनाकर रख देता है। नवपूँजीवाद, सत्ता और धर्म की तिकड़ी किसान नामक प्रजाति के लिए प्राणघातक सिद्ध हो रही है। यह आधुनिकता और लोकतन्त्र नहीं हो सकता।
‘फाँस’ के स्त्री पात्र सकारात्मक और सक्रिय हैं। वैसे भी अपने लेखन में संजीव ने हमेशा ही स्त्रियों को पूरी गरिमा के साथ चित्रित किया है। यह उनकी स्त्री-दृष्टि की अन्यतम विशेषता है। शकुन, सिन्धुताई, आशा, कलावती सहित अन्य सभी स्त्री पात्र संजीव की लेखनी का स्पर्श पाकर जीवन्त एवं प्रामाणिक लगते हैं। सबकी अपनी सोच और पहचान है। इनके चरित्र में श्रम, समर्पण, धैर्य, साहस और आसन्न परिस्थितियों के साथ जूझने की संकल्प-शक्ति है। कलावती उर्फ़ छोटी तो जींस की पैण्ट पहनकर गाँव वालों को चौंका देती है। वह गाँव के ही एक युवक अशोक से प्रेम करती है। अशोक इतिहास का पुनर्पाठ करके अपनी माँ के ‘बवण्डरी आक्रोश’ को शान्त करता है। उपन्यास में दलितों को बौद्ध धर्म अपनाते हुए दिखाया गया है। यह हिन्दू धर्म की विकृतियों एवं निम्न जातियों के भीतर पैदा होने वाली आत्मसम्मान की चेतना की अभिव्यक्ति है। संजीव के लेखन में बहुत कुछ कहने की बेचैनी झलकती है। आत्मविश्वास और साहस से भरे किसान पात्र सुनील का कहना है कि ‘रोटी और इज्जत भीख माँगने से नहीं मिलती।’ यह सरकार के आगे समर्पण कर चुके किसानों को जगाने के लिए कहा गया है। सरकार है कि किसानों की समस्या को कोई समस्या ही नहीं मानती। किसानों का जीवन सरकार की प्राथमिकता सूची में कोई मायने ही नहीं रखता। उपन्यास कहता है कि ‘1917 से 2006 तक यहाँ 15 हजार किसान आत्महत्या कर चुके थे। समूचे देश में यह संख्या ढाई लाख तक पहुँच गयी थी। विदर्भ के ग्यारह जिलों में ही तीस हजार।…सभी का कहना था कि विदर्भ कृषि का ज्वालामुखी है। सुप्त ज्वालामुखी।’ आज भारतीयों द्वारा संचालित लोकतन्त्र में किसानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है। यह है भारतीय लोकतन्त्र का स्वरूप। सन् 2009 के आम चुनाव से पहले सरकार ने किसानों का जो 72 हजार करोड़ रूपया माफ किया था, वह सभी किसानों के लिए फायदेमन्द नहीं था। अधिकांश किसान बैंक से कर्ज़ न मिलने पर सूदखोरों से ही कर्ज़ लेते हैं। उसकी भरपायी नहीं कर पाने पर उन्हें जो मनो-शारीरिक और सामाजिक यातना झेलनी पड़ती है, यह स्थिति उन्हें आत्महत्या के मुहाने तक ले जाती है। किसानों की दूसरी समस्या है महँगे बीज, खाद, कीटनाशक एवं जुताई-बुवाई का खर्च। तीसरी समस्या है उत्पाद का उचित मूल्य न मिल पाना। उनकी चौथी समस्या हैं बिचौलिये। किसानों को लगता है कि ‘मनमोहन सिंह की गाय बहुत महँगी पड़ी।’ पुजारी का कहना है कि ‘दान कर दो। पुण्य मिलेगा।’ इस तरह इक्कीसवीं शताब्दी के लोकतन्त्र में राजसत्ता और धर्म अपने-अपने तरीके से किसानों के जीवन को असह्य बना रहे हैं।
‘फाँस’ में किसान विमर्श को रचते हुए संजीव ने एक महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान खींचा है कि ‘सुसाइड करने वाले ज्यादातर कुनबी हैं-मराठा।…इनका प्राचीन गौरव, महानता का बोझ। दूसरी ओर इन्हीं की जाति के कुछ नौकरी वालों का मोटर साइकिल, रंगीन टीवी, फ्रिज। यह हकीकत-जितनी बड़ी खेती, उतना ज्यादा लॉस। दोनों ठेलकर इन्हें ले जाते हैं आत्महत्या तक।’ एक तरफ है अतीत का गौरव और दूसरी तरफ है वर्तमान का कृषि संकट, इन दोनों के बीच सन्तुलन का अभाव है। अतीत का गौरव वर्तमान के साथ तालमेल बैठाने में अवरोधक बनता है। महत्वाकांक्षाएँ भी किसानों को अपने भीतर जकड़ रही हैं। यह भी कहा गया है कि ‘किसी आदिवासी को आत्महत्या करते देखा?…क्योंकि उनपर महत्वाकांक्षा का बोझ नहीं। किसी भी हालत में छोड़ दो, जी लेंगे।’ इस तरह हम कह सकते हैं कि किसान की समस्या आर्थिक ही नहीं, व्यवस्थागत और सामाजिक भी है। गाँव में रहते हुए वह एक तरफ परम्पराओं से बँधा है, तो दूसरी तरफ आधुनिक जीवन-स्थितियाँ एवं आवश्यकताएँ आकर्षित करती हैं। उसे भी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलानी है। सामाजिक मान-प्रतिष्ठा के अनुरूप बच्चों का विवाह करना है। रहन-सहन को ऊँचा उठाना है। किसान इन आवश्यकताओं-इच्छाओं के दबाव से बच नहीं सकता। संजीव इन बारीकियों में जाते हैं। वे यह सवाल भी उठाते हैं कि ‘दिल्ली में ही बैठकर क्यों बना लीं सरकारों ने हमारे गाँवों के कायाकल्प की योजना?’ केन्द्रीय स्तर पर बनने वाली योजनाएँ किसानों की बुनियादी समस्याओं को सतही तौर पर देखती हैं। नीतियों का निर्धारण करने वाले धरातल की सच्चाई से अनभिज्ञ हैं। उनमें ईमानदारी, संवेदनशीलता और सामाजिक सरोकार की कमी है। दूसरे शब्दों में कहें तो उनमें गाँव के प्रति कोई लगाव नहीं है और न ही वहाँ की समस्याओं को हल करने की चिन्ता। भ्रष्टाचार के कारण कोई नीति समुचित ढंग से कार्यान्वित नहीं हो पाती। ऐसे में किसी सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? ग्रामीण समाज और किसानों के सामने यही सब चुनौतियाँ हैं। यह हताशा का दौर है। श्रम करने वालों का साहस लगातार टूट रहा है। किसानों की आत्महत्या को अपने जीवन के लिए धिक्कार मानने वाला ‘फाँस’ का सुनील ‘पस्त और परास्त’ होकर अन्ततः स्वयं आत्महत्या कर लेता है। तब ‘दसियों गाँवों में मृत्यु-गन्ध फैल जाती है और नाना को ‘श्मशान वैराग्य’ हो जाता है। इस पर शिक्षित युवा पात्र विजयेन्द्र प्रतिक्रिया व्यक्त करता है कि ‘जो आदमी दूसरों को आत्महत्या करने से रोकता रहा, वही आत्महत्या कर ले तो बचता क्या है?’ निश्चय ही यह सामान्य स्थिति नहीं है। यह अस्तित्व के विघटन, हीनता-ग्रन्थि और विकल्पहीनता की परिणाम है। उपन्यासकार की चेतना भी इससे टकराकर लहूलुहान होती है। स्वाधीनता पूर्व की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों में परिवर्तन भले हुआ हो, किन्तु यदि कुछ नहीं बदला है तो वह है किसान की नियति। एक स्वाधीन एवं लोकतान्त्रिक राष्ट्र-राज्य में भी किसान को साम्राज्यवादी-सामन्तवादी परिस्थितियों में रहना पड़े, तो उसके लिए स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र के मायने क्या होंगे?
विजयेन्द्र समूचे घटनाक्रम को ‘अपने सामने घटित होते हुए’ देखता है। उसका देखना उपन्यासकार द्वारा समस्या की व्यापकता को समझने का एक संवेदनशील प्रयास है। यह सवाल स्वाभाविक है कि ‘क्यों बंजर हो जाता है आदमी का मन?’ व्यक्ति मृत्यु के विरुद्ध अपनी जिजीविषा को चिरस्थायी क्यों नहीं रख पाता? वह निराश क्यों होता है? जब सारी स्थितियाँ सन्त्रस्त कर रही हों, उबरने का कोई रास्ता दिखलायी न पड़ता हो; तब व्यक्ति अपने आप को कब तक झूठी दिलासा देता रह सकेगा? विकल्पहीनता अत्यन्त दारुण होती है। संजीव ने किसानों की जीवन-स्थिति को जैसी केन्द्रीयता प्रदान की है, वह उपन्यास के घटनाक्रमों, सत्यान्वेषण और भाषिक प्रयोग के कारण अधिक चाक्षुष एवं मारक लगती है। मौजूदा दौर की आक्रामकता को उन्होंने सजीव कर दिया है। जीवन के प्रति व्यक्ति की ‘विरक्ति’ संयोग नहीं, उसके ठोस भौतिक कारण होते हैं। इस विडम्बना की ओर भी ध्यान खींचा गया है कि ‘इस समय जबकि मामूली चाय, पान-बीड़ी का धन्धा करने वालों के पास भी मोबाइल आ गया है, दो सालों से उमा मायके वालों से मिलने तो दूर, बात तक न कर सकी।’ किसान का जीवन इतना अभावग्रस्त है कि वह छोटी से छोटी जरूरतों के लिए भी तरसता है। राजनीतिक विचार, दर्शन अथवा शासन-व्यवस्था उसकी जीवन-स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं कर सके। ‘आम्बेडकरवादियों के गढ़ में, बगल में गढ़चिरौली में माओवादियों की उपस्थिति के बावजूद, कृषक आत्महत्याओं के गहरे मातम के साये में भी कैसे चल रहा है यह सब?’ जियेन्द्र का यह सवाल ‘डांस हंगामा’ को लेकर है, जिसमें ‘उŸोजित आवाजें, सीटियों और कामार्त सिसकारियों के बीच नोट न्यौछावर किये जा रहे’ हैं। लड़कियों का झूमना, उनके अन्तःवस्त्रों का केंचुल की तरह झरना तथा देह का अनावृत्त होना-इसे किसानों की आत्महत्याओं के बरअक्स रखकर देखें तो कितना संवेदनहीन और फूहड़ लगता है? भारतीय समाज की आधारभूत इकाई किसान की वेदना एवं यातना से असम्पृक्त स्त्री-देह के इस कामुक प्रदर्शन को वस्तुतः आत्मकेन्द्रिकता की विवेकहीन अभिव्यक्ति ही कहा जा सकता है। संजीव घटनाओं की तह में घुसकर उसके कारण-कार्य सम्बन्ध की खोज करते हैं, जहाँ वे देखते हैं कि समाज का निचला हिस्सा गम्भीर प्रयासों को स्वीकार करने में भी हिचकिचाता है। राजनीति, समाज और प्रशासन पर ऊँची जातिवाले सुविधाभोगी वर्ग का वर्चस्व है। यही समाज की सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करता है। ‘जिस विदर्भ और जिस भारत में अपने लोभ-लाभ के लिए लोग आत्महत्याएँ करते आ रहे हैं, हताशा के स्याह अँधेरों में दादा जी एक मशाल की तरह जल रहे हैं।…विद्या के केन्द्र इन्हें चिह्नित क्यों करने लगे? उल्टे उन्होंने हड़प लिया उनके अवदान को। न सिर्फ़ हड़पा, बल्कि दुगुने दाम पर अपना लेबल लगाकर बेच रहे हैं।’ हम एक अजीब तरह की चोरबाजारी के दौर से गुजर रहे हैं। यहाँ दूसरों की प्रतिभा पर डाका डालना आम बात हो गयी है। खोज करने वाले को अपदस्थ करके व्यवसायी स्वयं को प्रतिष्ठित करने में जी-जान से जुटे हैं। यह उपन्यास सिर्फ़ किसानों की आत्महत्याओं का ब्यौरा नहीं देता। उन मूलभूत कारणों, परिस्थितियों, नीतियों और कार्यक्रमों की शिनाख्त करता है, जो किसानों के जीवन को असम्भव बना रहे हैं। यह पूँजीवादी बाजार का दौर है। इसके अलग-अलग रंग-रूप हैं। यहाँ उत्पादक श्रम के लिए सम्मान नहीं है। श्रम का शोषण और उपभोग करना ही इसका एकमात्र उद्देश्य है।
‘ग्राम पंचायतों की महापंचायत खत्म हो चुकी थी, मगर ढलते सूरज की नरमाती धूप में लौटते किसानों की चर्चा नरम नहीं पड़ी थी-इनमें से अधिसंख्य दलित और गरीब पिछड़े थे। ब्राह्मण या सम्पन्न मराठों में कोई नहीं।’ इसका मतलब यह कि आत्महत्या करने वाले किसान उपर्युक्त जातियों के नहीं हैं। नवपूँजीवाद और बाजारवाद की यातना का शिकार बनने वाले किसान मध्य एवं निम्न वर्ग के हैं, क्योंकि ‘अब तक तो यहाँ किसी भी ब्राह्मण को आत्महत्या करते नहीं सुना।’ यदि ऊँची जाति के किसानों पर बाजारवाद का अपेक्षाकृत प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है, तो निश्चय ही किसान समस्या सिर्फ़ आर्थिक नहीं, सामाजिक भी है। वैचारिक स्तर पर वामपन्थी होते हुए भी संजीव जाति के सवाल पर वामपन्थियों से भिन्न दृष्टिकोण अपनाते हैं। वे भारतीय समाज को यान्त्रिक ढंग से नहीं देखते, क्योंकि इस तरह न समस्या की पहचान की जा सकती है और न ही उसका समाधान ढूँढ़ा जा सकता। इस उपन्यास का शिबू सही मायने में किसानों का प्रतिनिधि पात्र है। उसके सामने सिर्फ़ ऋण की समस्या नहीं है। वह दो बेटियों का बाप भी है। बेटी का बाप होना व्यक्ति को नैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से हीन बना देता है, ऐसी धारण समाज में बहुत दिनों से चली आ रही है। जब गाँव के मन्दिर के पुजारी की कामुक दृष्टि शिबू की बेटी कलावती का पीछा करेगी, तो शिबू चैन की साँस कैसे ले सकता है? त्रास का यह एक प्रमुख कारण है। शिबू के पास दहेज देने के लिए रूपये नहीं हैं। इस उपन्यास में धर्म परिवर्तन का प्रसंग भी महŸवपूर्ण लगता है। शिबू की अपेक्षा उसकी पत्नी शकुन में धर्म को लेकर कहीं अधिक छटपटाहट है। वह विषमता एवं भेदभाव पर आधारित धर्म का परित्याग करती है। जिस धर्म का पुजारी लम्पट हो, उसके प्रति कब तक आस्थावान रहा जा सकता है? यदि धर्म सुरक्षा न दे तो उसके अस्तित्व पर सवाल उठेगा ही। धर्मान्तरण कर लेने मात्र से व्यक्ति के संस्कार और समाज का उसके प्रति दृष्टिकोण बदल नहीं जाते। विजयेन्द्र दुर्खीम के हवाले से कहता है कि ‘आत्महत्या के मूल तŸव कहीं न कहीं सामाजिक संरचना में मौजूद रहते हैं, खासकर उन समाजों में, जहाँ व्यक्ति समाज के अधीन होता है।’ समाज तरह-तरह से व्यक्ति पर दबाव डालता है। जो इस दबाव को सहन नहीं कर पाता, वह आत्महत्या में अपने दुःखों से मुक्ति देखता है। इसके विपरीत व्यक्तिवादी मनोवृŸिा का विस्तार भी आत्महत्या के लिए प्रेरित करता है। संजीव धर्म के विकृत रूप को अस्वीकार करते हैं। उसके प्रति आक्रोश व्यक्त करते हैं। लेखक होने का दायित्व निभाते हैं।
संजीव ने कलावती को एक सम्भावनाशील पात्र के रूप में चित्रित किया है। वह शिक्षित आधुनिक दृष्टि-सम्पन्न और मुक्तिकामी विचारों वाली स्त्री है। प्रश्नाकुलता एवं प्रतिरोध उसके व्यक्तित्व के स्थायी भाव हैं। तभी तो वह शकुन से पूछती है कि ‘मुलगियों के सिर पर ही इज्जत का सारा बोझ क्यों आई?’ यह प्रश्न बद्धमूल सामाजिक व्यवस्था से टकराकर छिन्न-भिन्न हो जाता है। इसका उŸार शकुन क्या, कोई भी स्त्री नहीं दे सकती। पुरुष इसका उŸार दे सकता है, लेकिन वह देना नहीं चाहता। ‘फाँस’ एक साथ कई मोर्चों पर प्रतिरोध की अभिव्यक्ति करता है। किसानों की आत्महत्या पर केन्द्रित होने के साथ इसके वृŸाान्त में धर्म, संस्कृति, परम्परा, समाज, राजनीति, अर्थनीति, मानवीय सम्बन्ध और स्त्री-जीवन से जुड़े प्रश्नों की अनुगूँज अत्यन्त मुखर है। शकुन जिसे ‘समाज का चलन’ कहती है, कलावती उसे ही बदलने का संकल्प करती है। उसकी सोच और आचरण प्रचलित से भिन्न है। जाति-व्यवस्था की ‘शिला से टकराकर छोटी और अशोक की प्रेम कहानी हमेशा ही सिर धुनने लगती’ है। इसलिए छोटी व्यवस्था को चुनौती देती है, उसका तिरस्कार करती है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था का भेदभाव उसकी चेतना से टकराकर घायल होता है। ‘यह जाति-व्यवस्था न होती तो समाधान इतना मुश्किल न होता। वह कौन-सी गाँठ है, जो ऊपर से दिखती नहीं, मगर अन्दर ही अन्दर बनी रहती है, गलती कभी नहीं। मुलगियों को ऐसी नजर से देखेंगे कि पा जाएँ तो खा जाएँ। मगर बहू स्वीकारते हुए नानी मरती है स्सालों की।’ फिर भी निचली जातियों का यह आक्रोश औपन्यासिक वृŸाान्त में आन्दोलन का रूप नहीं ले पाता। इसके भी राजनीतिक और समाजार्थिक कारण हैं। समस्या की जड़ें काफी गहरी हैं और इसका उच्छेद लगभग असम्भव लगता है। जाति के नाम पर जनता की गोलबन्दी के भी अलग-अलग मायने हैं। ‘गरीब की बेटी जवान नहीं होती? मैंने ऐसा क्या कर दिया ताई? मेरी जो भूख थी, एक आग-सी जलती रहती मन में, जानने की भूख, जिज्ञासा की भूख जो हर पल धधकती रहती है। इस समूची दुनिया को आत्मसात कर लेने की भूख…देह से ज्यादा दिमाग की! रूहानी!’ ऐसा कहने वाली कलावती अपने पति से पहली प्रतिज्ञा करवाती है कि ‘मुझे पढ़ने और बढ़ने से रोकोगे नहीं।’ सरपंच से पूछती है कि ‘इस गाँव में बिजली क्यों नहीं है?’ नवविवाहिता कलावती के प्रयास से बाँसोड़ा गाँव में बिजली आती है। तब ‘पेड़ों के परिन्दों ने जुगलबन्दी करते हुए आकाश की परिक्रमा की। माटी के दीयों से बिजली के जलते लट्टुओं की आरती उतारी गयी। ज्योति से ज्योति की नीराजना। परम्परा ने आधुनिकता की नववधू का स्वागत किया।…रोशनी को कलपती बाँसोड़ा की धरती ने पहली बार ज्योति का स्वाद चखा था। खम्भों के कन्धों पर सवार ज्योति पेड़ों पर जुगनू-सी आँखें मटका रही थी। चहले-चुहले पानी में ज्योति परिन्दों-सी नहा रही थी जैसे वर्षों गुजर चुके पुरखों की आत्माएँ उन्हें आशीर्वाद देने को आविर्भूत हो गयी हों।’ कलावती का यह अभिनव प्रयास, भागीदारी और नेतृत्व परिवार को विक्षुब्ध करता है। ननद कहती है कि ‘नवरी हो, नवरी की तरह रहो।’ उसे लोक-लाज की याद दिलायी जाती है। समाज और परिवार को सुख-सुविधाएँ तो चाहिए, किन्तु स्त्री को स्वतन्त्रता एवं सम्मान देना गँवारा नहीं है। कलावती की सास फरमान जारी करती है कि ‘कायदे से रहना है तो रहो वरना निकल जाओ इस घर से।’ परिवार के लिए स्त्री की इच्छा-आकांक्षाओं की अपेक्षा मर्यादा का पालन होना आवश्यक है। गौरतलब है कि स्त्री जैसे-जैसे स्वतन्त्रता, समानता और न्याय की माँग कर रही है, उसी त्वरा से उसके साथ अपराध की घटनाएँ भी बढ़ रही हैं। पुरुष आधिपत्य वाला समाज उससे प्रतिशोध लेता है। स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में तनाव, विघटन और स्त्रियों के विरुद्ध अपराध में अभिवृद्धि का प्रमुख कारण परिवार और समाज की स्त्री-विरोधी निर्मिति है।
यह अकारण नहीं है कि किसान सरकारी ऋण संस्थाओं के कृपापात्र नहीं बन पाते। उन्हें देसी साहूकारों की चौखट पर माथा झुकाना पड़ता है। ‘जमीन का कागज जमा करो, टीप दो और ले जाओ।’ दस प्रतिशत ब्याज पर ऋण लेकर दस महीने में ‘सूद मूल मिलकर दोगुना’ हो जाता है। ‘फाँस’ के वृŸाान्त में गोहत्या और ऋण दोनों का उल्लेख है। बीसवीं सदी के चौथे दशक में प्रकाशित ‘गोदान’ में प्रेमचन्द ने किसानों की समस्या को उजागर करते हुए ऋण, गोहत्या एवं गोदान जैसे प्रश्नों को प्रमुखता से उठाया है। ‘गोदान’ के प्रकाशन के आठ दशक बाद प्रकाशित संजीव के उपन्यास ‘फाँस’ में भी स्थितियाँ सुधरने का नाम नहीं लेतीं। अब तो आत्महत्याओं की एक असमाप्त श्रंृखला चल पड़ी है। उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इक्कीसवीं सदी में व्यवस्था इतनी व्यापक, निर्मम और मायावी हो गयी है कि किसान उसके चंगुल से निकल नहीं पाता। एक ही फसल के लिए तीन-तीन बार बुवाई करने वाला किसान सुखी कैसे रह सकता है? ऊपर से सरकार की उपेक्षा और भ्रष्ट तन्त्र उसकी जीवन-स्थिति को असहनीय एवं त्रासद बना रहे हैं। किसानों के लिए लोकतन्त्र का स्वाद पराधीनता से भी अधिक कड़वा हो गया है। भारतीय लोकतन्त्र में दिखावा ज्यादा है। धर्म के ठेकेदार आज भी अपना दाव चलने से बाज नहीं आते। तभी तो फाँसी लगाकर मरने वाले किसान के बच्चे को देखकर उसे ‘सबसे पहले नज़र लगी पुजारी महाराज की।’ बिना किसी छानबीन के वह घोषणा कर देता है कि ‘वह बच्चा कला और अशोक का है। इतने दिन बाहर रखा ताकि पता न चले।’ आज भी धर्मसŸाा स्त्रियों, किसानों एवं दलितों के विरुद्ध कुचक्र रचने में संलग्न है। धर्म के ठेकेदार जब किसी स्त्री-देह को भोग नहीं पाते, तब उसके चरित्र को ही कलंकित कर देते हैं ताकि वह जीवन-पर्यन्त चरित्रहीनता के आरोप को ढोती रहे। लोगों की प्रश्नाकुल आँखों का सामना करना स्त्री के लिए कितना यन्त्रणाप्रद होता है, इसे कोई दूसरा नहीं बता सकता। सन्देह का समाधान तो हो सकता है, जान-बूझकर किये गये दुष्प्रचार का कोई निदान नहीं। यह व्यक्ति को समाज से काटकर अकेला कर देता है। शकुन, कलावती, बड़ी, अशोक और उसकी माँ शुभा की चुप्पी ‘शिबू को अकेला और निहत्था बना रही थी। वह अकेले किस-किस से लड़ता फिरे।…लड़की का बाप होना दुनिया का सबसे बड़ा अभिशाप है।’ इक्कीसवीं सदी के भारत का ग्रामीण समाज कुछ लोगों के लिए भले ही विकसित लगता हो, किन्तु किसानों, दलितों एवं स्त्रियों की जीवन- स्थिति यदि सुधरी नहीं है तो उनके लिए ‘हर खोज एक मरीचिका’ से अधिक कुछ भी नहीं है। इसी मरीचिका में भटकते हुए एक दिन शिबू को आत्हत्या करनी पड़ती है। सरकारी कर्ज़ के चलते तीन साल से जिस परिवार ने त्यौहार के दिन भी कभी पूड़ी-पकवान बनते नहीं देखा, उसके लिए संविधान, सरकार, स्वाधीनता और लोकतन्त्र के क्या मायने हो सकते हैं?
उदारीकरण ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को बदलकर उसके लिए नयी प्राथमिकताएँ तय कर दी हैं। अब राज्य नागरिकों की चिन्ता नहीं करता। अब वह पूँजीपतियों और बहुराष्ट्रीय निगमों के आगे नतमस्तक हो चुका है। राजनेताओं का एक बड़ा हिस्सा दलाल की भूमिका में उतर आया है। जनता की भूमिका सिर्फ़ मताधिकार का प्रयोग करने तक सीमित होकर रह गयी है। राजकीय निर्णयों एवं नीतियों में उसकी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति को अनावश्यक बना दिया गया है। भारतीय लोकतन्त्र मूलतः पूँजीवादी लोकतन्त्र है, जिस पर पहले समाजवादी होने का मुलम्मा चढ़ा हुआ था। आज वह मुलम्मा उतर गया है। लोकतन्त्र लगातार निर्बल एवं असहाय होता जा रहा है। यान्त्रिक सोच से लोकतन्त्र का संचालन एवं विकास नहीं हो सकता। समाज में जो प्रभुत्वशाली है, वही लोकतन्त्र का नियन्ता है। वही जनता की नियति का निर्धारण करता है। यह स्थिति ‘लोकतान्त्रिक मूल्यों में कमी और बाजार के सामाजिक व्यवहार में बढ़ते हुए हस्तक्षेप के कारण हुई है।’ देश की कृषि नीति के निर्माण में किसान की लेशमात्र भूमिका नहीं है। छोटे किसान नष्ट हो गये हैं। उनकी आजीविका का विकल्प सŸाा के पास नहीं है। वे पलायन करने के लिए विवश हैं। ‘फाँस’ के औपन्यासिक वृŸाान्त में संजीव ने किसान समस्या का जो चित्र प्रस्तुत किया है, उसमें राजसŸाा, प्रशासन, ऋणदात्री संस्थाओं, साहूकार, अनियन्त्रित पूँजी, धर्म एवं बाजार नयी परिस्थिति के लिए उŸारदायी ठहरते हैं। ये सभी मिलकर किसानों के जीवन को असम्भव बना रहे हैं। उनकी आत्महत्याओं के पीछे इन्हीं शक्तियों का अपवित्र गठजोड़ काम कर रहा है।
एक महŸवपूर्ण ‘सवाल यह है कि भारतीय किसान अकेले पड़ा कैसे?’ वस्तुतः किसान संगठित न होकर विभिन्न जातियों एवं आर्थिक श्रेणियों में बँटा हुआ है। इसीलिए एक वर्ग या समूह के रूप में इसकी अलग पहचान नहीं बन पायी और न ही राजनीतिक दृष्टि से इसका कोई पृथक् अस्तित्व निर्मित हो सका। किसान कोई दबाव समूह भी नहीं है, जो लोकतन्त्र में अपनी बात मनवाने के लिए मतदाता समूह का निर्माण कर सके। यही कारण है कि राजसŸाा, प्रशासन, धर्म और पूँजीपति कोई भी इसकी माँगों पर ध्यान नहीं देता। यह भी सच है कि आज तक किसी भी सरकार ने किसानों के हित में कोई सुव्यवस्थित नीति नहीं बनायी। किसान उपेक्षित होता रहा। कहना न होगा कि उदारीकरण और बाजारवाद के मेल से निर्मित स्थितियाँ पहले की अपेक्षा अधिक जटिल, मारक और अदृश्य हैं। आस्थावाद एवं बाबावाद से इसे ताकत मिलती है। ये सभी एक-दूसरे के पूरक हैं। संजीव ने तन्त्र-मन्त्र-अनुष्ठान का जो उल्लेख किया है, वह भी यथार्थ का एक महŸवपूर्ण पहलू है। सन्तान-प्राप्ति के लिए समाज का एक हिस्सा अब भी अनुष्ठानों पर भरोसा करता है। उŸार आधुनिकता और अन्धविश्वास की साथ-साथ उपस्थिति अचानक नहीं, सुनियोजित है। मुक्ति का खोखला नारा बहुतों को जीवन से ही मुक्त हो जाने के लिए बाध्य कर रहा है। ‘सोचते हो, तुम्हारे दुःखों से दुःखी और द्रवित हो जाएगी सरकार! दान, दया की बरसात करेगी।…तुम समझते हो, तुम्हारे नेता लोगों का पत्थर दिल पसीज जाएगा। कभी नहीं।’ उपन्यास के उल्लेखनीय पात्र नाना की इस दो-टूक अभिव्यक्ति में राजसŸाा, प्रशासन और राजनीतिक वर्ग की संवेदनहीनता, चतुराई और जनविमुखता सभी का समाहार है। नाना की यह निराशा एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। संजीव मौजूदा व्यवस्था के प्रति आशान्वित नहीं लगते। उनकी रचनाओं में ऐसे संघर्षशील पात्रों को गढ़ा गया है, जो जीवन के अन्तिम क्षणों तक समूची शक्ति के साथ मनुष्य-विरोधी व्यक्तियों, समूहों, स्थितियों एवं विचारों से जूझते हैं। उन्हें विश्वास है कि उनका संघर्ष एक दिन वह परिवर्तन ला सकेगा, जिसमें सभी के लिए सम्मानजनक जीवन जीने की जगह होगी। जिस लोकतान्त्रिक व्यवस्था को जनता के प्रति संवेदनशील और उŸारदायी होना चाहिए, वह इसके विपरीत व्यवहार करती है। मौजूदा लोकतन्त्र में भी यदि राजतन्त्र की तरह नये युग के राजा-रानियों का ही प्रभुत्व रहना है, तो फिर इसे लोकतन्त्र कहना ही क्यों चाहिए? संजीव किसानों के माध्यम से संसदीय लोकतन्त्र के इस अभिजातवादी-भीड़वादी स्वरूप को प्रश्नांकित और तिरस्कृत करते हैं।
‘कर्ज़ चालीस हजार से बढ़कर एक लाख हुआ और साल-दर-साल बढ़ता रहा। बाढ़ के पानी की तरह।…कर्ज़ बढ़ते-बढ़ते जा पहुँचा दो लाख के स्तर पर और अब यह तीसरा साल।’ बाढ़-सूखा के कारण नष्ट होती फसलें, ऋण में अप्रत्याशित वृद्धि, संवेदनहीन राजकीय व्यवस्था तथा भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में फँसे किसान का अस्तित्व संकटग्रस्त है। औपन्यासिक वृŸाान्त में किसानों की विवशता एवं छटपटाहट के अनेक चित्र उभरते हैं, जो अत्यन्त कारुणिक हैं। किसान भले ही आक्रोशित होता है, क्षोभ व्यक्त करता है; किन्तु संगठित होकर अन्याय का प्रतिरोध नहीं कर पाता। एक किसान कहता है कि ‘जब देश का हर फैसला देसी-विदेशी बनियों को ही करना है तो सरकार क्यों हमें चूतिया बना रही है?’ उसे अपने बेवकूफ बनते रहने का एहसास है। फिर भी वह कुछ नहीं कर सकता। उसकी ‘झिलमिलाती आस’ और ‘हर उत्साह’ अन्ततः गहरी उदासी में डूब जाते हैं। ‘अवकाश और हताशा’ का प्रभाव गाढ़ा होता जा रहा है। कीड़े मारने वाला सल्फास किसानों को ही मार रहा है। उपन्यास के भीतर से यह प्रश्न उठता है कि ‘इतनी अकेली शाम होती है क्या?’ एक तरफ परिवेश और वातावरण में घुटन और सन्नाटा है, दूसरी तरफ किसान की सनातन भावुकता भी उसे तिल-तिलकर मारती है। किसानों को ऋण देने वाला साहूकार दारू की दुकान चलाता है। यही दारू जब किसान के घर तक पहुँचती है तो उसका जीवन और परिवार दोनों नष्ट हो जाते हैं। किसान को हर तरफ से घेरने की कोशिश हो रही है। नारायण सेठ पैसे के बल पर पुलिस की कैद से छूट जाता है। शकुन का भðी भंजक दल प्रतिरोध तो करता है, किन्तु साहूकार की सामर्थ्य के आगे ठहर नहीं पाता। साहूकार की हँसी ‘जहर से भी मारक’ है। ‘वह उनसे ऐसे पेश आ रहा था जैसे वे उनके सामने भुनगे हों।’ पूँजी के सामने मनुष्य की साधारणता निरुपाय है। ‘किसानों के नाम पर अरबों रूपये लूटना है तो कृषक आत्महत्या, अपनी चीनी मिल का बहाना ढूँढ़ना है तो कृषक आत्महत्या, विरोधी पार्टी को दागना है तो कृषक आत्महत्या-बहुत कारगर है किसान आत्महत्या की तोप!…घण्टे-घण्टे पर ड्रेस बदलने वाले गृहमन्त्री, करोड़ों-अरबों में खेलने वाले राजनेता, फिल्मी लोग, दलाल, व्यापारी, क्रिकेट और बिल्डर्स इनके लिए खेल हो गयी है 3 लाख किसानों की आत्महत्या! बर्फ़ के गोले-सा उठा-उठाकर मारते हैं एक दूजे पर।’ उपन्यास की ये पंक्तियाँ वस्तुगत यथार्थ की परतें उघाड़कर रख देती हैं। अभिजात और मध्यवर्ग के लिए किसानों की आत्महत्याएँ मनोरंजन से अधिक कुछ भी नहीं हैं। इन आत्महत्याओं से भी कुछ लोग लाभ उठाते हैं। ऐसे लोग क्यों चिन्तित होने लगे? कोई भी किसानों की आत्महत्याओं के लिए उŸारदायित्व लेने के लिए तैयार नहीं है। ‘आशा-निराशा के बीच कुŸाा बने दौड़ रहे हैं किसान पीछे-पीछे’ और उन्हें बार-बार दुत्कार कर भगा दिया जाता है। किसान का ऐसा सोचना गलत नहीं है कि ‘जिसे भी नकदी पैसा मिल रहा है वह सुखी है। दुःखी है तो शेतकरी। नेता, व्यापारी, बनिये, महाजन, दलाल, सरकारी लोग तो सबसे अच्छे।’ ढपोरशंखी आश्वासनों, आशा-निराशाओं तथा कुŸाा जैसी दौड़ से लापरवाह होकर नकदी कमाने वाला मजदूर भी किसानों से बेहतर है। ऐसे में किसान कहाँ खड़ा है, इसे समझना मुश्किल नहीं है। किसान मजदूर से भी गया-गुजरा हो गया है।
‘फाँस’ का एक किसान कहता है कि ‘मेट्रो रेल पर सब्सिडी, सब पर सब्सिडी, कृषि उत्पाद पर नहीं। कोयला, स्टील का भाव सरकार उत्पादक से पूछकर तय करती है, कापूस से लेकर अन्य कृषक उत्पादों का भाव तय करते समय हमसे नहीं पूछा जाता।’ यही तो समस्या है। देश के सबसे बड़े उत्पादक वर्ग को उत्पादक ही नहीं माना जाता। सरकार के लिए किसान मूल्यवान नहीं है, क्योंकि उसका विकल्प मौजूद है। अब वह अन्नदाता नहीं रहा। सुनियोजित ढंग से किसानों को खेती से हतोत्साहित करना ही राजसŸाा का प्रयोजन है। पूँजीपतियों, निगमों और सरकारों को सस्ते श्रम की आपूर्ति तभी सुनिश्चित हो सकेगी, जब किसान खेती छोड़कर काम की तलाश इसलिए उसकी उपेक्षा करने में कोई हानि नहीं है। जिस देश की अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर हो, उसी क्षेत्र को उपेक्षित कर दिया गया है। यह स्वतःस्फूर्त नहीं है। इसके पीछे सुनियोजित रणनीति है। परिणामस्वरूप ‘हर आठ मिनट पर एक आत्महत्या!…ढाई लाख किसान चींटियों-से मर गये जैसे यह कोई मृत्यु उत्सव हो।…फाँस कसती जाती है, कसती जाती है तो क्विक मुक्ति के लिए आत्महत्या! सारे झंझटों से मुक्ति से मुक्ति!…हास्यास्पद बना छोड़ा इस देश के किसानों को।….अमेरिका तक चिन्तित है भारत की कृषक आत्महत्याओं पर।’ उदारीकरण की नीतियाँ लागू होने के बाद ही देश में सब्सिडी पर बहस शुरू हो गयी थी। ऐसे-ऐसे तर्क गढ़े जाने लगे मानो किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी ने ही भारतीय अर्थव्यवस्था को रसातल में पहुँचा दिया हो। उपन्यास में जो प्रश्न उठाये गये हैं, उनके उŸार राजसŸाा के पास भी नहीं हैं। विकास की समूची अवधारणा तात्कालिक लाभ पर टिकी है। इसमें टिकाऊपन, संवेदनशीलता और मानवीय सरोकार नहीं है। अन्य सभी क्षेत्रों में उत्पाद का मूल्य यदि उत्पादक की सहमति से तय किया जाता है, तो कृषि के क्षेत्र में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? राजसŸाा को मालूम है कि किसान विद्रोह नहीं कर सकता। उसकी मनोरचना ही ऐसी है। उसमें अतिशय सहनशीलता और धार्मिकता है। उसे जाति और धर्म में बाँटकर उसकी भावुकता का शोषण किया जा सकता है। ऐसा ही हो भी रहा है।
इक्कीसवीं सदी का किसान राजनीति, धर्म, समाज और रूढ़ियों के बीच निरन्तर पिसा जा रहा है। वह अन्धविश्वास से भी ग्रसित है। अन्धविश्वास उसे मनुष्य से पशु की नियति में डाल देता है। उपन्यास का यह अंश गौरतलब है: (सिन्धु ताई के) ‘हाथ में एक पगहा है जिसमें बँधा है कोई दढ़ियल बूढ़ा-बैलों की पाँत में एक विचित्र बैल!’ यह मोहन बाघमारे है, जो कथित अपराध के प्रायश्चित के लिए बैल बनने को विवश है। धर्म का यह विधान कितना अमानवीय है, इसे मोहन बाघमारे की यातना को देखकर समझा जा सकता है। रूढ़ियाँ आज भी प्रचलित हैं। संस्थागत धर्म इन्हें प्रोत्साहित करता है। आधुनिकता के दौर में विकृतियों का हस्तक्षेप व्यक्ति के जीवन को कहीं अधिक जटिल एवं संकटग्रस्त बना देता है। ठेठ गँवई पात्र नाना जिजीविषा का पर्याय है। उसका अस्तित्व फिनिक्स पक्षी जैसा है। वह बार-बार मरकर जीवित हो उठता है। यह संजीव का प्रिय पात्र है। इसमें वे अनेक सम्भावनाएँ ढूँढ़ते हैं। सरकारी योजनाओं की निरर्थकता पर विजयेन्द्र कहता है कि ‘ये संजय गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी, ये गाँधी, वो गाँधी वाली हलकट योजनाएँ! कुआँ पहले खोदो, ऋण बाद में देगी सरकार।’ ये कुआँ भी मृत्यु का प्रतीक ही है। कुआँ खोदने के लिए पैसे होते तो किसान ऋण क्यों लेता? यह बात सरकार की समझ में नहीं आती। उपन्यास के वृŸाान्त में पसरी समस्याओं का केन्द्र भले ही विदर्भ हो, लेकिन यह तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छŸाीसगढ़ से लेकर देश के पश्चिमोŸार हिस्से पंजाब तक फैली है। ये समस्याएँ क्षेत्र विशेष की नहीं, किसानों की हैं। किसानों की आत्महत्याओं का एक कारण भ्रष्टाचार भी है। बढ़ती मजदूरी और उपज का उचित मूल्य न मिलना भी किसान के सामने बड़ी चुनौतियाँ हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में नक्सलवादियों की जो सशस्त्र उपस्थिति दिखायी देती है, उसका एक कारण खेती और किसान की उपेक्षा, शोषण एवं उनके साथ होने वाला छल है। अन्धविश्वास, साहूकार, भूस्वामी, शराब माफिया, भ्रष्ट पुलिस, नेता आदि किसानों के हत्यारों के विविध रूप हैं। ये सभी परजीवी और शोषक हैं। प्रकृति का प्रकोप भी किसानों के जीवन को संकट में डालता है। उपन्यास कहता है कि ‘वर्धा ही नहीं, विदर्भ के कई जिलों के किसानों का कलेजा काँप उठा।…कापूस के पौधे नीचे छिनगाये जा चुके हैं। चुभने के लिए अब सिर्फ़ काँटे बचे हैं।’ किसानों को व्यवस्थागत और प्राकृतिक दोहरी मार झेलनी पड़ती है। प्राकृतिक आपदा पर तो कोई वश नहीं है, किन्तु व्यवस्थाजन्य संकट तो टाले जा सकते हैं। सामुदायिकता के क्षरण और सम्मिलित प्रयास के अभाव में एक जीती-जागती प्रजाति नष्ट होने के कगार पर खड़ी है। संजीव का रचनाकार इस स्थिति से बेहद क्षुब्ध है।
किसानों की त्रासदी का एक कारण यह है कि वे ‘सम्पन्नों की प्रतिस्पर्धा में खड़े होने की लालच में कर्ज़ के दलदल में डूबते जाते हैं और एक दिन मर जाते हैं।’ व्यवस्था को उŸारदायी ठहराने के साथ ही संजीव किसानों की मानवीय दुर्बलताओं की ओर भी संकेत करते हैं। किसानों को ऋण का भारी और असहनीय बोझ ढोना पड़ता है। उनके भीतर भी इच्छाएँ कुलबुलाती हैं। सुख देने वाली वस्तुओं के प्रति उनका मन भी आकर्षित होता है। वे भी चाहते हैं कि उनके पास अपना ट्यूबवेल, ट्रैक्टर और जीप हो। छोटे और मध्यवर्गीय किसानों के लिए ये साधन जुटाना आसान नहीं है। ‘फाँस’ के वृŸाान्त में किसानों को झिड़की और चेतावनी दी गयी है कि ‘फिजूलखर्ची बन्द करो और अगर यह सब नहीं कर सकते तो बन्द करो यह नौटंकी।’ समाज के एक हिस्से में समृद्धि बढ़ने के साथ किसानों पर भी दहेज देने का दबाव बढ़ा है। ‘महŸवाकांक्षा और मजबूरी के लोन, ट्रैक्टर हो या मुलगी-मुलगा या घर की मरम्मत’, ऊँची ब्याज दरों पर ऋण का भुगतान करते रहने से किसानों की आर्थिक स्थिति में लगातार गिरावट आयी है। वक़्त के साथ किसानों के रहन-सहन में भी बदलाव की चाहत पैदा हुई है। अब वह फटे-पुराने कपड़े पहनकर दीन -हीन मुद्रा में अपना जीवन नहीं बिताना चाहता। उसका भी मन करता है कि वह महँगे सामानों का इस्तेमाल करे, लेकिन कैसे? कृषि विकास के ढाँचे मंे ऐसा टिकाऊपन नहीं है, जो छोटे एवं मझोले किसानों की जीवन-स्थिति में सुधार कर सके। अनिश्चितता और उतार-चढ़ाव के वातावरण में किसान का जीवन झूल रहा है। सन् 1991 में भारतीय अर्थनीति में ढाँचागत परिवर्तन के फलस्वरूप यह संकट अधिक गहरा होता गया है। उत्पादन लागत में बढ़ोŸारी के विपरीत किसानों की आमदनी तेजी से कम हुई है। किसान खेती के बढ़ते खर्च को पूरा करने के लिए साहूकार से बार-बार उधार लेता है। एक बार ऋण के चक्रव्यूह में फँसने के बाद मृत्यु ही उसे मुक्ति दे पाती है। संजीव ने किसानों की चुनौतियों को एकांगी ढंग से नहीं, व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया है। उनके किसान ंपात्र अपनी सीमाओं और सम्भावनाओं के साथ जीते-जागते लगते हैं। किसानों के साथ अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए संजीव उनकी कमियों की ओर संकेत करने से नहीं चूकते। कलावती सारी बाधाओं को पार करती हुई अपने लिए स्वतन्त्र जीवन का चुनाव कर लेती है, लेकिन उसका पिता शिबू समाजार्थिक संरचना के भीतर उलझकर आत्मघाती निर्णय लेने के लिए विवश होता है। यह दो पीढ़ियों की सोच का ही नहीं, बल्कि यथार्थ से टकराने में उपयोगी उपकरणों के चुनाव का भी परिणाम है।
संजीव की रचनाओं में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और पर्यावरण सम्बन्धी चिन्ताएँ व्यापक स्तर पर दिखलायी पड़ती हैं। उनके यहाँ शुद्ध साहित्य जैसी कोई चीज नहीं है। वे जो कुछ भी लिखते हैं, उसमें समाज के उत्पीड़ित, उपेक्षित और मुख्यधारा से ओझल कर दिये गये समूहों की पीड़ा बोलती है। कृषि संकट का वर्णन करते हुए वे यह देखते हैं कि खेती में रसायनों के अधिकाधिक उपयोग एवं नये तौर-तरीकों की अधिकता के कारण जिस तरह से पर्यावरण को नुकसान हो रहा है, वह समूची मानवता के लिए घातक है। किसान बाजार के जाल में बुरी तरह फँस गया है। अपनी मर्जी से वह फसल भी नहीं उगा सकता। संजीव मानते हैं कि नेता, अभिनेता, पत्रकार, उद्योगपति और दलाल सभी मिलकर किसानों के साथ छल कर रहे हैं। उनकी यह निष्पŸिा अप्रश्नेय है, क्योंकि यही वास्तविकता है। खाद-पानी, बीज और कीटनाशकों का मायाजाल इस प्रजाति को नष्ट करने के लिए ही रचा गया है। एक-एक करके किसानों से जीने के अवसर छीने जा रहे हैं। उसके पक्ष में जुटाये गये सारे तर्क खोखले साबित हुए हैं। वेंकटैया की यह बात सोलह आने सच है कि ‘नकदी फसल पूँजीवादी साम्राज्यवादी शक्तियों का फैलाया लोभ का जहर है।’ जब 68 प्रतिशत आत्महत्याएँ कपास की खेती के कारण हो रही हों, प्याज और गन्ना जैसी नकदी फसल उगाने वाले किसानों को बार-बार घाटा उठाना पड़ता हो; तो वेंकटैया की बात पर भरोसा क्यों न किया जाय? मराठवाड़ा और विदर्भ के किसानों की चुनौतियाँ अलग नहीं हैं, फिर भी पानी विदर्भ के किसानों की सबसे बड़ी समस्या है। गन्ना मिलों और सहकारी बैकों पर राजनेताओं का कब्जा है। गन्ने के नाम पर अलग-अलग गुटों के बीच प्रतिस्पर्धा है। एक तरफ यूरोप और अमेरिका जैसे विकसित देशों में किसानों को 80 प्रतिशत से ज्यादा सब्सिडी दी जाती है, दूसरी तरफ भारत में सब्सिडी के नाम पर सिर्फ़ कुत्सित राजनीति होती है। अकारण नहीं कि संजीव ने किसानों को एक ‘मरती हुई प्रजाति’ कहा है। इस प्रजाति में आत्महत्या ‘संक्रामक व्याधि’ की तरह फैल रही है। उपन्यास का एक सेवानिवृŸा अध्यापक कहता है कि ‘आत्महत्या महज कायरता नहीं, भावप्रवणता का एक उदाŸा मुहुर्त है-पश्चाŸााप और निर्वेद की आग में मानवता का झुलसता हुआ परचम।’ निराश-निरुपाय किसान के मन को खोखले वादांे से कब तक बहलाया जा सकता है? जहाँ के नेता बिकाऊ हों, खेती पर बीज माफियाओं का कब्जा हो, समाज में नैतिक मूल्यों का अधःपतन हो चुका हो और बौद्धिक वर्ग दूर बैठे विमर्श करने में मग्न हो; वहाँ किसान को बचा पाना कितना सम्भव हो सकता है? राजनेता के निर्णय में नैतिकता एवं पवित्रता का छù झलकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद सरकारें जनता के नहीं, पूँजीपतियों के साथ खड़ी हो चुकी हैं।
संजीव जाति, धर्म, गोत्र और ऊँच-नीच के भेदभाव को प्रश्नांकित करते हुए मनुष्य की गरिमा के प्रश्न को सर्वाधिक महŸव देते हैं। इस उपन्यास में मेंडालेखा ग्राम स्वराज का एक प्रारूप है। इसमें संगठन, सामूहिकता, आन्दोलन एवं संघर्ष के अवयव मौजूद हैं। वैसे सरकार और नौकरशाही के हस्तक्षेप से मुक्त ग्राम सभा के स्वतन्त्र अस्तित्व की परिकल्पना जितनी मोहक है, उतना ही विकृत दिखलायी पड़ता है धरातल पर दिखने वाला उसका वास्तविक स्वरूप। जिस तरह से पंचायत के चुनाव सम्पन्न होते हैं, उसमें विद्वेष और हिंसा के जैसे दृश्य दिखलायी पड़ते हैं, पैसे की जैसी बन्दरबाँट होती है; उसे देखते हुए ग्राम स्वराज का यह प्रसंग बहुत भरोसेमन्द नहीं लगता। हाँ, उपन्यास के अन्त में हमें कलावती का संकल्पयुक्त प्रखर रूप अवश्य देखने को मिलता है, जहाँ वह परम्परित मर्यादाओं को पीछे धकेलकर एक नयी भूमिका में अवतरित हुयी है। समाज सेवा को उसने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया है। कृषि अनुसन्धान केन्द्र को इस लक्ष्य की पूर्ति का माध्यम बनना है। वह कितना सफल होता है, यह तो भविष्य के गर्भ में है। सिन्धु ताई, शकुन और कलावती जैसे स्त्री पात्रों के सरोकारों को स्त्री-चेतना में हो रहे परिवर्तन का प्रतीक बनाकर संजीव ने ‘फाँस’ के वृŸाान्त को उदाŸा एवं बहुआयामी बना दिया है। परिवर्तन की यह दिशा निश्चित रूप से शहरी स्त्रियों के सरोकारों से भिन्न है। शोध छात्र प्रेम का यह कथन भी गौरतलब है कि ‘प्रतिरोध के विभिन्न रूपों में सरकार या सŸाा उन रूपों को मजबूरन स्वीकार करती है, जो उसकी शक्ति- संरचना और छवि के लिए सबसे उपयुक्त लगते हैं।’ इसीलिए मेंडालेखा के प्रतिरूप में राजसŸाा को ‘अपनी लोकपक्षीय छवि को चमकाने’ की सम्भावना दिखलायी पड़ती है। कलावती का प्रेमी अशोक ‘कलावती कंुज’ के माध्यम से वैसा ही प्रयास करता है। अपनी रचनात्मक प्रकृति के अनुरूप संजीव ने कर्मकाण्ड एवं देह से दूर रखते हुए अशोक और कलावती के प्रेम को लगभग दैविक ऊँचाई पर खड़ा कर दिया है। उपन्यासकार की वैचारिकता कलावती के शब्दों में इस तरह व्यक्त हुई है: ‘देश को बचाना है तो देशवासी को बचाओ और शेतकरी को बचाना है तो इन परजीवियों और दलालों को उखाड़ फेंको।…अपने दिये पैसे का तुम हिसाब माँगते हो! सोचो, क्या होगा उस दिन, जिस दिन इस देश का एक-एक शेतकरी अपने पैसे का हिसाब माँगने लगेगा।’ संजीव प्रतिरोध की इसी चेतना के रचनाकार हैं। अपनी रचनाओं में मौजूदा व्यवस्था के प्रति जनाक्रोश की अभिव्यक्ति से ही वे सन्तुष्ट नहीं हो जाते, बल्कि प्रचलित व्यवस्था को बदलकर एक नयी व्यवस्था का संकल्प बार-बार दोहराते हैं। ‘फाँस’ के औपन्यासिक वृŸाान्त में उन्होंने ग्रामीण व्यवस्था का ऐसा प्रारूप प्रस्तुत किया है, जो छिन्न-भिन्न होती ग्राम संस्कृति को न सिर्फ़ आपस में जोड़ सकता है; बल्कि ग्रामीण समाज की अर्थ-व्यवस्था को स्वाधीन और स्वावलम्बी भी बना सकता है।
जब हिन्दी कथा साहित्य में गाँव और खेती-किसानी से जुड़ी समस्याओं को उपजीव्य बनाने को लेकर उत्सुकता एवं रुचि बहुत कम हो गयी हो, ऐसे में हमारे समय के एक व्यापक संकट को ‘फाँस’ में विन्यस्त करने का प्रयास निश्चय ही सामयिक, उपयोगी और सार्थक कहा जाएगा। संजीव का यह उपन्यास राजनीति, सŸाा, बाजार, धर्म और पुरुषवाद को चुनौती देता है, उसका प्रतिकार करता है। इसमें परिवार के ढाँचे और समाज की पारम्परिक संरचना को प्रश्नांकित किया गया है। स्त्री-चेतना की दृष्टि से भी यह उपन्यास महŸवपूर्ण है। ‘फाँस’ का कथ्य किसान को केन्द्रीयता प्रदान करते हुए उसकी त्रासदी को जिस तरह हमारे सामने प्रस्तुत करता है, वह पाठक को नये सौन्दर्यबोध की अनुभूति से सम्पन्न करेगा।
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म्उंपस रू कततंउअपदंलेींतउं2013/हउंपसण्बवउ