प्रकृति व मनुष्य का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । प्रकृति मानव जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है । प्रकृति है तो मनुष्य का अस्तित्व है और यदि प्रकृति चाहे तो मनुष्य को नष्ट भी कर सकती है । मनुष्य प्रकृति से अछूता रह ही नहीं सकता । अत: मनुष्य द्वारा निर्मित साहित्य भी प्रकृति पर ही आधारित होता है । मनुष्य जो साहित्य रचता है उसमें प्रकृति की ही अनेक रूपों में अभिव्यक्ति करता है । अत: मनुष्य, प्रकृति और साहित्य ये तीनों आपस में अभिन्न रूप से सम्बन्धित हैं ।

         मंझन कवि भी प्रकृति से अछूते न रह सके और उनकी रचना मधुमालती में प्रकृति के अनेक रूपों का वर्णन किया गया हैं, जो कि इस प्रकार है :-

        सर्वप्रथम मंझन ने प्रकृति का ईश्वर के रूप में वर्णन किया है । वे कहते है कि ईश्वर प्रकृति के कण कण में व्याप्त हैं । वह फूलों की सुगन्धि के रूप में उपस्थित रहता है और वही भंवरों के विलास का साधन है । मंझन कहते है कि वही ईश्वर सूर्य और चन्द्रमा के रूप में भी व्याप्त हैं और यही रूप संसार में पूरित होकर उसको आपूर्ण कर रहा है :-

           “इहै रूप सभ फूलन्ह बासा । इहै रूप रस भंवर बेरासा ।

            इहै रूप ससिहर औ सूरा । इहै रूप जग पूरि अपूरा ।”[i]

     इस प्रकार उपर्युक्त छंद में प्रकृति का ईश्वरीय रूप में वर्णन किया गया हैं ।

           इसके अलावा मंझन ने प्रकृति का मानवीय रूप में भी वर्णन किया है । जब प्रेमा राक्षस द्वारा वन में बंदी बनाई गई होती है तो वहां उस जंगल में कुमार मनोहर को देखकर प्रेमा दुःख से रोने लगती है और उसके इस दुःख से सम्पूर्ण पृथ्वी व प्राकृतिक उपादान भी आँसूं बहाने लगते हैं । प्रेमा के दुःख को देखकर सूर्य, चन्द्रमा, तारें, वासुकि, इंद्र, कुबेर और धरती, आकाश व सुमेरु पर्वत भी रोने लगते हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार हैं :-

                “सूरूज चांद तराइन बासुकि इंद्र कुबेर ।

                 पेमां दुःख सभ रोए धरती गंगन सुमेरु ।।”[ii]

       इस प्रकार उपर्युक्त पंक्तियों में प्रकृति का मानव के रूप में वर्णन किया गया है ।

            इसके अलावा मंझन मधुमालती में प्रकृति का आलम्बन रूप में भी वर्णन करते हैं । जब मनोहर की भेंट वन में बंदी प्रेमा से होती है तो वह अपना परिचय देती हुई चित विश्राम नगर की प्राकृतिक सुन्दरता का वर्णन करती है  और कहती है कि हे कुंवर ! चित विश्राम नगर बहुत ही सुहावना है । वहाँ आम के बागों में ऐसी शीतल छाया रहती है कि मानों कैलाश पर्वत ही भूमि पर आ गया हों । वहाँ सभी पेड़ फलायुक्त थे और उनके नीचे जल प्रणाली थी । वहाँ कई पक्षी निवास करते थे और मीठे बोल निकालते हुए केलि करते रहते थे । वहाँ की आम की वाटिका में सदैव वसंत ऋतु रहती थी और वायु उसकी सुगंध दसों दिशाओं में फैलाती रहती थी :-

                  “नगर सोहावन चित बिसराऊं । गोंइड़े नगर पिता लखराऊं ।

                    सीतरि छांह सघन अंबराई । निजु कबिलास जानु भुइं आई ।

                   बांधे पेड़ सफ़र सब झारी । औ सभ तरुवर पानि पनारी ।

                   भल अनेग पंखी पहं छाए । करहिं केलि रस बचन सोहाए ।

                   सदा बसंत रहै अंबराई । मरुत बास दहुं दिसि लै जाई ।”[iii]

     इस प्रकार उपर्युक्त पंक्तियों में आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण किया गया है ।

            इसके अलावा मंझन ने उद्दीपन रूप में भी प्रकृति का चित्रण किया है । मनोहर के वियोग में मधुमालती को प्रकृति भी दुःख देने वाली ही प्रतीत होती है । कार्तिक मास की शरद व अमृत वर्षा उसे (मधुमालती ) विष की धारा लग रही थी । मंझन कहते है कि शरद की शीतल रजनी उस स्त्री के लिए अच्छी है जो प्रियतम को गले लगाकर बिताती है । लेकिन मधुमालती के लिए ये शरद उसके तन में विरह की अग्नि जला रहा था और शरद का शीतल चन्द्रमा उसके लिए अंगारों की सेज के समान था :-

                   “कातिक सरद सताई बारा । अमिअ बुंद बरखै बिखधारा ।

                    बिगसहिं कंवल भांति ते बारा । जनहुं कुमुदिनि ससि उजियारा ।

                    सरद रैनि सीतरि तेहि भावै । जो पीतम कंठ लागि बिहावै ।

                      मोहि तन बिरह अगिनि परजारा । सरद चांद मोहि सेज अंगारा ।”[iv]

   इस प्रकार उपर्युक्त पंक्ति में प्रकृति का उद्दीपन के रूप में वर्णन किया गया है ।

            इसके अलावा एक अन्य स्थान पर भी प्रकृति का उद्दीपन रूप दिखाई देता हैं । मनोहर के वियोग में मधुमालती को वैशाख मास भी उजड़ा हुआ प्रतीत हो रहा था, क्योंकि उसे वैशाख मास में अत्यंत दुःख था और हरा भरा वन उसके शरीर को दावाग्नि के समान दग्ध कर रहा था । जिनके पति उनके पास होते हैं उनके लिए वसंत सुखद होता है किन्तु पिया के बिना मधुमालती के लिए वह वसंत उजाड़ था । पेड़ों पर अलग अलग रंग के पत्ते निकले थे जैसे लाल, पीला, हरा किन्तु मधुमालती को वह रंग नहीं भा रहे थे और प्रियतम के बिना मधुमालती का यौवन फैलने  लगा था और उस यौवन तरु के फूल धरती पर इस प्रकार झड़कर गिर रहे थे जैसे वन में मालती के फूल झड़ते हों :-

                    “सुनु बैसाख सखी दुख भारी । बन हरियर मोहि तन दौं जारी ।

                     जिन्ह सुख सेज सखी है कंतू । तिन्ह अनंद बैसाख बसंतू ।

                     पहिरै पुहुप चाह बन बारी । मोहि बसंत पिय बाझु उजारी ।

                     बिरहा पलुहि पलुहि जिउ जारै । किमि करि मधु बैसाख निवारै ।

                     बरन बरन निकसे तरु पाता । कोइ पीत कोइ हरियर राता ।

                         मोर जोबन फर सुनु सखी बाझु पियारे नांह ।

                         फूल ते धरती झरि परे जेउं मालति बन मांह ।।”[v]

   इस प्रकार उपर्युक्त छंद में भी प्रकृति का उद्दीपन के रूप में ही वर्णन किया गया हैं ।

             इस प्रकार उपर्युक्त छंदों में मंझन ने प्रकृति के अनेक रूपों का वर्णन किया हैं  । उन्होंने प्रकृति का वर्णन ईश्वरीय रूप में, मानव रूप में, उद्दीपन रूप में और आलम्बन रूप में बड़ी ही सफलता पूर्वक किया हैं । कहीं प्रकृति ईश्वर के रूप में सूर्य-चन्द्रमा में व्याप्त है तो कहीं वह मनुष्य रूप में प्रेमा के दुःख को देखकर आँसूं बहाने लगती है । इसके अतिरिक्त कहीं प्रकृति आलम्बन रूप में आम के बागों के रूप में अपनी छटा बिखेरती है तो कहीं उद्दीपन रूप में वह (प्रकृति ) मधुमालती के लिए विष की धारा के समान बन जाती है जो कि उसकी विरह वेदना को बढाती है और मनोहर के वियोग में मधुमालती को वैशाख मास उजड़ा हुआ और शरद का शीतल चन्द्रमा अंगारों की सेज के समान प्रतीत होता है ।

आधार ग्रंथ – 

[i] मंझन कृत मधुमालती, संपादक -माता प्रसाद गुप्त, प्रकाशन वर्ष-१९६१, मित्र प्रकाशन, इलाहाबाद, छंद सं.-१२०

[ii] वही, छंद सं.-२१८

[iii] वही, छंद सं.-१९६

[iv] वही, छंद सं.-४०५

[v] वही, छंद सं.-४११

 रेखा
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *