उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य का समुचित विकास हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतेंदु काल में हिन्दी गद्य ने व्यवस्थित रूप धारण किया। हिन्दी साहित्य में सामान्यतः गद्य के अंतर्गत उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध तथा आलोचना आदि का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। बीसवीं सदी में नई धाराओं ने जन्म लिया और साहित्य में मान्यता प्राप्त की। हिन्दी में भारतेंदु के उपरांत द्विवेदी युग का अंत होते- होते डॉ. श्यामसुंदर दास, पदुम बख्शी तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि गद्यकार आए लेकिन इनकी बहुज्ञता के दर्शन आगे चलकर हुए। यही प्रसाद युग कहा जाता है और यही प्रसाद युग महादेवी वर्मा के साहित्य- सर्जन का काल है।
महादेवी वर्मा के साहित्य का काल हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल माना जा सकता है। आधुनिक काल वस्तुतः ‘ गद्य युग ‘ (1) ही है। कविता की रचना इस काल में पर्याप्त मात्रा में हुई लेकिन गद्य की नई विधाएं इस काल में आई अन्यत्र कविता में नहीं। पद्य में जहां जीवन के किसी एक पक्ष या निजी जीवन को उजागर किया गया वहां गद्य ने व्यक्ति के पूरे जीवन को खुद में समेटा। महादेवी वर्मा के साहित्य पर विचार करते हुए रतन कुमार लिखते हैं_ “महादेवी वर्मा की कविताओं में उनकी निजी व्यथा है तो उनके गद्य में सामाजिक जीवन की।“ (2)
इस प्रकार महादेवी वर्मा ने पद्य के साथ – साथ गद्य में भी अहम भूमिका निभाई है। महादेवी वर्मा के गद्य में उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण रूप संस्मरण लेखिका का है। महादेवी वर्मा के गद्य का शुद्ध रूप इनके संस्मरणों में ही मिलता है। इनके संस्मरण ग्रंथ हैं_ अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, श्रृंखला की कड़ियां, मेरा परिवार आदि।
कुछ आलोचक इन संस्मरणों को रेखाचित्र मानते हैं परन्तु वास्तव में ये रेखाचित्र नहीं हैं। महादेवी स्वयं इन्हें संस्मरण तथा स्मृतिचित्र मानती हैं। ‘ साहित्य संदेश ‘ में प्रकाशित एक निबंध में लिखा है_ “ पात्रों का कौशलपूर्ण रेखांकन जहां इन कृतियों को रेखाचित्र की कोटि में पहुंचा देता है वहां इनमें उपलब्ध लेखक – लेखिका के निजी राग – विराग और क्षोभ – क्रोध की भावना उन्हें संस्मरण के अधिक निकट ले आती है। अतः ये शुद्ध रूप से रेखाचित्र या संस्मरण न होकर संस्मरणात्मक रेखाचित्र बन गए हैं।“(3)
‘ पथ के साथी ‘ में महादेवी वर्मा के अपने समकालीन साहित्यकारों के संस्मरण अंकित है। रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार_ “पथ के साथी (1956) समकालीन लेखकों के संस्मरणात्मक चित्रों का संकलन है।“(4) इन संस्मरणों में महादेवी वर्मा ने साहित्यकारों के बाह्य व्यक्तित्व व कृतित्व के अतिरिक्त उनकी आंतरिक रुचियों व विरुचियों का चित्रण किया है। इसमें सात साहित्यकार – रवीन्द्रनाथ टैगोर, मैथिलीशरण गुप्त,सियाराम शरण गुप्त, प्रसाद, पंत, निराला व सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी वर्मा के पथ के साथी हैं।
मन के भावों या विचारों की अभिव्यक्ति करने का ढंग ‘ शैली ‘ है। विचारों के संप्रेषण में शैली का महत्वपूर्ण योगदान है। शैली किसी भी लेखक के व्यक्तित्व की पहचान है। शैली के कारण ही संस्मरणकार लेखकों की भीड़ में पहचाना जाता है। सभी प्रकार के भाव किसी एक शैली में तो संभव नहीं है। इसलिए जिस प्रकार के भाव होंगे शैली भी उसी प्रकार की होगी। ये शैलियां विभिन्न प्रकार की होती है। शैली को लेखक की प्रतिछवि मानते हुए डॉ. रविन्द्र भ्रमर लिखते हैं_” किसी महान व्यक्तित्व वाले लेखक से ही श्रेष्ठ तथा उदात्त शैली की आशा रखनी चाहिए, जिसने ज्ञान – राशि का मंथन नहीं किया, जिसने सृष्टि के रहस्य को समझते रहने की साधना नहीं की, जिसने मनुष्य की दिक्काल व्यापी महिमा का कुछ बोध नहीं प्राप्त किया और जिसने स्वयं अपने निजत्व का मूल्यांकन करने की चेष्टा नहीं की, ऐसे मेरुदंड विहीन एवम् निराधार लेखक से शैली – निर्माण की आशा मात्र दुराशा होगी।“ (5)
इस दृष्टि से महादेवी वर्मा के संस्मरणात्मक रेखाचित्र ‘ पथ के साथी ‘ के आधार पर शैली विश्लेषण इस प्रकार है –
वर्णानात्मक शैली महादेवी के संस्मरणात्मक गद्य की प्रमुख शैली मानी जाती है। ‘ पथ के साथी ‘ में भी महादेवी वर्मा ने इसका प्रयोग किया है। इस शैली में वे अपने भावों को सहज रूप से संप्रेषित करने में सफल रही है। इनकी वर्णनात्मक शैली पर्याप्त प्रभावोत्पादक है जिसे साधारण पाठक भी आसानी से समझ सकता है। महादेवी वर्मा ने सुभद्रा कुमारी चौहान के जीवन की ( बाल्यावस्था) गोपी बनकर ग्वालों के साथ कृष्ण को ढूंढने की एक घटना का वर्णन इस प्रकार किया है_ “ दूसरे दिन वह लकुटी लेकर गायों और ग्वालों के साथ कीकर और बबूल से भरे जंगल में पहुंच गई। गोधूलि वेला में चरवाहे और गायें तो घर की ओर लौट गए, पर गोपी बनने की साध वाली बालिका कृष्ण को खोजती ही रह गई। उसके पैरों में कांटे चुभ गए, कंटीली झाड़ियों में कपड़े उलझकर फट गए, प्यास से कंठ सूख गया और पेशानी पर धूल की पर्त जम गई, पर वह धुनवाली बालिका लौटने को प्रस्तुत नहीं हुई।“(6) इस प्रकार महादेवी वर्मा ने सुभद्रा कुमारी चौहान के बालमनोविज्ञान व बाल्यावस्था की हठ का वर्णन किया है।
महादेवी वर्मा ने पात्रों के व्यक्तित्व, जीवन – घटनाओं और भावों – विचारों को अधिकतर विश्लेषणात्मक शैली में व्यक्त किया है। लेकिन कहीं – कहीं पात्रों के मनोभावों को मुखर करने के लिए संवाद शैली का भी प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए महादेवी वर्मा और निराला का परिस्थिति चित्र दृष्टव्य है – “ उस दिन मैं बिना कुछ सोचे हुए ही भाई निराला जी से पूछ बैठी थी, आपके किसी ने राखी नहीं बांधी?” अवश्य ही उस समय मेरे सामने उनकी बंधनशुन्य कलाई और पीले कच्चे सूत की ढ़ेरों राखियां लेकर घूमने वाले यजमान खोजियों का चित्र था। पर अपने प्रश्न के उत्तर ने मुझे क्षण भर के लिए चौंका दिया। “ कौन बहिन हम जैसे भुक्खड़ को भाई बनावेगी।“(7) इनके संवादों में संस्कृत गर्भित पदावली को स्थान मिला है। महादेवी वर्मा ने संवादों की संक्षिप्तता, सजीवता, सौद्देश्यता और विविधता की ओर ध्यान दिया है और इसने संवाद शैली को एकरूप होने से बचाया है।
सूक्ति रूप में कहा गया कथन सूक्ति शैली कहलाता है। महादेवी वर्मा की शैली को अधिकाधिक रोचकता, मनोरंजकता व अर्थवत्ता प्रदान करने वाले तत्व सूत्रात्मक वाक्य है जो इनकी सभी रचनाओं में प्रयुक्त हुए हैं। इनके प्रयोग में वर्मा जी ने गूढ़ विचारों को संक्षेप में अभिव्यक्त कर दिया है। इन सूक्तियों से भावों को व्यक्त करने में एक प्रकार की रसात्मक्ता का समावेश होता है और भाव हृदय के लिए सहज ग्राह्य बन जाते हैं। हर्षनंदिनी भाटिया का इस विषय में मंतव्य है – “ महादेवी की स्वनिर्मित सूक्तियां बड़ी मार्मिक और सारगर्भित है। छोटे से वाक्य में ‘ गागर में सागर ‘ भर देना ही उनकी अपूर्व कला है।“(8) महादेवी वर्मा साहित्यकार ‘ निराला ‘ के संस्मरण में सूक्ति का प्रयोग करती हुई लिखती है – “ घृणा का भाव मनुष्य की असमर्थता का प्रमाण है।“
महादेवी वर्मा पहले एक कवयित्री हैं फिर गद्यकारा महादेवी को काव्य – हृदय प्राप्त है। वे भावुक अधिक है। उनके हृदय में करुणा, संवेदना तथा सहानुभूति अधिक है। इसलिए उनके गद्य में भी पद्य का – सा आनंद मिलता है। जिससे उनकी गद्यात्मकता में काव्यात्मक शैली की भी अभिव्यक्ति हुई है। महादेवी वर्मा स्वयं के विषय में लिखती हैं – “ जिन्हें मेरा व्यक्तिगत हिसाब रखना पड़ता है, वे जानते हैं यह कार्य मेरे लिए कितना दुष्कर है। न वे मेरी चादर लंबी कर पाते हैं। न मुझे पैर सिकोड़ने पर बाध्य कर सकते हैं, और इस प्रकार एक विचित्र रस्साकशी में तीस दिन बीतते रहते हैं।“ (10) इस प्रकार काव्यात्मक शैली के द्वारा लेखिका ने विषय को बहुत ही सरस और प्रेषणीय बनाया है।
महादेवी वर्मा ने काव्यात्मक शैली के साथ – साथ भावनात्मक शैली का प्रयोग किया है। भावुकता में प्रायः इन्होंने भावनात्मक शैली का ही प्रयोग किया है। भावनात्मक स्थलों पर संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग रहने पर भी उसमें क्लिष्टता एवं जटिलता नहीं है। लेखिका सुभद्रा कुमारी चौहान व अपने विषय में भावुक होकर लिखती है – “ लीपने में हमें अपने से बड़ा कोई विशेषज्ञ मध्यस्थ नहीं प्राप्त हो सका, अतः प्रतियोगिता का परिणाम सदा अघोषित ही रह गया, पर आज मैं स्वीकार करती हूं कि ऐसे कार्य में एकांत तन्मयता केवल उसी गृहिणी में संभव है जो अपने घर की धरती को समस्त हृदय से चाहती हो और सुभद्रा ऐसी ही गृहिणी थी।“ (11) इस प्रकार लेखिका ने अपने भावात्मक क्षणों में भावात्मक शैली का प्रयोग किया है।
व्यास शैली में लेखक विषय के विस्तार में ही मग्न रहता है। इसे प्रसाद शैली भी कहते हैं। वर्णनात्मक व विवरणात्मक संस्मरणों में प्रसाद या व्यास शैली प्रयोग की जाती है। महादेवी वर्मा प्रसादमय शैली में प्रसाद के महान व्यक्तित्व का चित्र अंकित करती है – “हिमालय के ढाल पर उसकी गर्वीली चोटियों से समता करता हुआ एक सीधा ऊंचा देवदारू का वृक्ष था। उसका उन्नत मस्तक हिम – आतप – वर्षा के प्रहार झेलता था। उसकी विस्तृत शाखाओं को आँधी – तूफान झकझोरते थे और उसकी जड़ों से एक छोटी पतली जलधारा आंख मिचौली खेलती थी। ठिठुराने वाले हिमपात, प्रखर धूप और मूसलाधार वर्षा के बीच में उसका मस्तक उन्नत रहा और आँधी और बर्फीले बवंडर के झकोरे सहकर भी वह निष्कम्प निश्चल खड़ा रहा, पर जब एक दिन संघर्षों में विजयी के समान आकाश में मस्तक उठाए, आलोक स्नात वह उन्नत और हिमकिरिटिनी चोटियों से अपनी ऊंचाई नाप रहा था, तब एक विचित्र घटना घटी।“(12) इस प्रकार महादेवी वर्मा ने प्रसाद के व्यक्तित्व का चित्रण प्रसाद अथवा व्यास शैली में किया है।
महादेवी का साहित्यिक व्यक्तित्व पद्य और गद्य दोनों में अभिव्यक्त हुआ है और दोनों का मूल एक ही है। गद्य में यदि उन्होंने कहीं भी दर्शन की बात नहीं की, कहीं उपनिषद की चर्चा नहीं की, तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उन्होंने दर्शन को बिल्कुल छोड़ दिया है। भावुकता का गुण उसी में रह सकता है जिसमें परहित की भावना हो। यह परहित की भावना ही दर्शन का एक रूप है। महादेवी के गद्य में स्थान – स्थान पर दुरूहता के दर्शन होते हैं। यह पीड़ा उनके ‘ पथ के साथी ‘ में भी व्यक्त हुई है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के साहित्य का मूल्यांकन करते समय लेखिका दार्शनिक शैली का प्रयोग करती हैं – “ ऊंचे – नीचे कगार या सूखे हरे तट नदी की सीमा बनते हैं, पर नदी नहीं बना सकते। इतना ही नहीं, साहित्यकार की सभी उपलब्धियां भी समान नहीं होती। गोताखोर समुद्र के अटल गर्भ से न जाने कितने शंख, घोंघे, सीप, सवार आदि लाकर तट पर ऊंचा पहाड़ बना देता है। यह भी उसकी उपलब्धि ही कही जाएगी, पर उसके अनेक प्रयासों का मूल्यांकन मोती की उपलब्धि मात्र है।“ (13) लेखिका की दार्शनिकता केवल व्यक्ति पर आधारित नहीं वरन् समष्टिगत चिंतन का परिणाम है।
‘ पथ के साथी ‘ में आलंकारिक शैली का भी प्रयोग दिखाई देता पड़ता है। हालांकि लेखिका ने अधिकतर परिस्थितियों का विश्लेषण व पात्रों के व्यक्तित्व को चित्रित करने पर ज्यादा बल दिया है लेकिन फिर भी कुछ स्थलों पर आलंकारिक शैली का प्रयोग किया है। महादेवी वर्मा, निराला के विषय में आलंकारिक शैली का प्रयोग इस प्रकार करती हैं – “ उनकी झुकी पलकों से घुटनों पर चूने वाली आंसू की बूंदें बीच – बीच में ऐसे चमक जाती थी मानो प्रतिमा से झड़े जूही के फूल हों।“(14) महादेवी वर्मा की आलंकारिक शैली के विषय में इन्द्रनाथ मदान लिखते हैं – “ महादेवी का गद्य अन्तर्जगत और बहिर्जगत का रोचक संवाद प्रस्तुत करता है। अलंकृत शैली के घटाटोप को चीरती उनकी ‘ विट ‘ उनकी संवेदनाओं को तीखा बनाए रहती है। उनकी भावुकता को उनकी समझ से अलग ज्यादा देर टिकने नहीं देती।“(15)
रेखाचित्रात्मक शैली का प्रयोग लेखिका ने जीवन की किसी परिस्थिति या मनोरम प्राकृतिक दृश्य के चित्रण में किया है। लेखिका, निराला की आर्थिक स्थिति का मार्मिक दृश्य चित्रित करती हुई लिखती है – “ आले पर कपड़े की आधी जली बत्ती से भरा, पर तेल से खाली मिट्टी का दिया मानो अपने नाम की सार्थकता के लिए जल उठने का प्रयास कर रहा था।“(16)
महादेवी वर्मा की गद्य शैली की प्रमुख विशेषता यह है कि वह पात्र या घटना का विवरण प्रस्तुत करते समय भी वाक्य – रचना विवरण की ओर ही नहीं अपितु पात्रों की चरित्र रेखाओं में यथार्थ व कल्पना के अनुरूप उन्होंने शब्द विविधता में विशेष रुचि ली। अभिव्यंजना शैली में भी लेखिका उतनी ही निपुण है जितनी अन्य शैलियों में। उदाहरण के लिए सुभद्रा कुमारी चौहान के बाह्य और अंतर व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति वे इस प्रकार करती हैं – “ गोल मुख, चौड़ा माथा, सरल भृकुटियां, बड़ी और भावस्नात आँखें, छोटी सुडौल नासिका, हंसी को जमाकर गढ़े हुए से ओठ और दृढ़तासूचक ठुड्डी – सब कुछ मिलाकर एक अत्यंत निश्छल, कोमल उदार व्यक्तित्व वाली भारतीय नारी का ही पता देते थे।“(17) इसके अतिरक्त महादेवी वर्मा ने विश्लेषणात्मक व विवेचनात्मक शैली का भी प्रयोग किया है।
व्यंग शैली में लेखिका छोटे मुंह बड़ी बात कहती है। लेखिका जो कहना चाहती है उसे सपाटबयानी में न कहकर घुमावदार अर्थात् व्यंग शैली में कहती है। महादेवी वर्मा सुमित्रानंदन पंत की मृत्यु का झूठा समाचार अखबार में छपने पर समाचार पत्र व्यंग करती हुई कहती है – “ इसी बीच घटित को साधारण और अघटित को समाचार मानने वाले किसी समाचार- पत्र ने उसके स्वर्गवास की झूठी खबर छाप डाली।“(18) या “ रसोई घर मे दो-तीन अधजली लकड़ियां, औंधी पड़ी बटलोई और खूंटी से लटकती हुई आटे की चोटी- सी गहरी आदि मानो उपवास- चिकित्सा के लाभों की व्याख्या कर रहे थे।“(19)
महादेवी वर्मा की भाषा पात्रानुकूल व प्रसंगानुकूल है। महादेवी का शब्द भंडार व्यापक है। इनकी भाषा में तत्सम, तद्भव व विदेशी, देशज शब्दावली के शब्दों की प्रमुखता है। इनके द्वारा प्रयुक्त संस्कृत के शब्दों का प्रयोग करने पर भी क्लिष्टता व अवरुद्धता नहीं आई है। महादेवी वर्मा के गद्य में प्रसंगानुकूल शब्दों का प्रयोग इनके संस्मरण की जान लगती है। महादेवी ने संस्मरणों में देशज शब्दों का प्रयोग बहुलता के साथ किया है जिससे पात्रों के जीवन में स्वाभाविकता आ गई है।
अंततः हिंदी गद्य साहित्य में महादेवी वर्मा का स्थान काव्य से कम महत्वपूर्ण नहीं है। गद्य साहित्य को इन्होंने सहज स्फूर्ति व सहजता प्रदान की है। महादेवी वर्मा को इनकी शैली के कारण ही उन साहित्यकारों की कोटि में रखा जा सकता है जिन्होंने हिंदी गद्य साहित्य जगत को नयी व समर्थ शैलियां प्रदान की। निश्चय ही महादेवी वर्मा का गद्य – शैली में महत्वपूर्ण योगदान है।
आधार ग्रंथ –
- पथ के साथी, महादेवी वर्मा, राधाकृष्ण प्रकाशन ( नई दिल्ली ) प्रथम संस्करण 1995
संदर्भ ग्रंथ –
1.महादेवी वर्मा : काव्य कला और जीवन दर्शन, गुरटूर सिचारनी, आत्माराम एण्ड संस प्रकाशन ( दिल्ली ) संस्करण 2010,पृ. सं.-129
2.महादेवी का सृनात्मक गद्य, रतन कुमार, स्वराज प्रकाशन ( नई दिल्ली ) प्रथम संस्करण 2013, पृ.सं.-8
3.महादेवी का संस्मरणात्मक गद्य, चरनसखी शर्मा एम. ए, शोध प्रबंध प्रकाशन (दिल्ली), प्रथम संस्करण
4.हिंदी साहित्य और संवेदनाओं का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन ( इलाहाबाद ), प्रथम संस्करण
5.महादेवी का संस्मरणात्मक गद्य, चरनसखी शर्मा एम. ए. शोध प्रबंध प्रकाशन (दिल्ली ), प्रथम संस्करण 1971,पृ.सं.-79
6.पथ के साथी, महादेवी वर्मा, राधाकृष्ण प्रकाशन ( नई दिल्ली ), प्रथम संस्करण 1995 पृ.सं.-38
7.वही पृ.सं.-48
8.महादेवी का संस्मरणात्मक गद्य, चरनसखी शर्मा एम. ए. , शोध प्रबंध प्रकाशन (दिल्ली), प्रथम संस्करण 1971,पृ. सं.-72
9.पथ के साथी, महादेवी वर्मा, राधाकृष्ण प्रकाशन (नई दिल्ली), प्रथम संस्करण1995,पृ. सं.-55
10.वही पृ. सं.-49
11.वही पृ. सं.-40
12.वही पृ. सं.-62
13.वही पृ. सं.-73
14.वही पृ. सं.-51
15.महादेवी चिंतन व कला, संपादक इन्द्रनाथ मदान, राधाकृष्ण प्रकाशन (नई दिल्ली), संस्करण 1973,पृ.सं-78