हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक काल विभाजन में छायावाद का विशिष्ट स्थान है, जिसके प्रमुख स्तम्भों में भी महादेवी वर्मा का विशिष्ट व दोहरा महत्वपूर्ण स्थान है। प्रथमतः जहाँ वे प्रसाद, पंत, निराला के त्रिकोण में चैथा कोण या उसकी धुरी थी, वहीं एक महिला साहित्यकार होते हुए भी अपने साहित्य व कलाकर्म के माध्यम से तत्कालीन भारतीय सांस्कृतिक परिदृश्य में शोभनीय हुईं जबकि उस समय भारत में स्त्रियों को शिक्षा प्राप्ति कुलीन वर्ग में भी यथार्थ से अधिक कल्पना की ही वस्तु थी। भारत की आधुनिक सरस्वती मा0 सावित्रीबाई फुले द्वारा प्रज्वलित शैक्षिक ज्योति के प्रकाशमय परिवेश से लाभान्वित महादेवी वर्मा का काव्य ही नहीं वरन सम्पूर्ण साहित्य भी भारत की सांस्कृतिक धरोहर है। यही कारण है कि अनेक साहित्य मनीषियों ने उनके साहित्य विशेषकर महिला परिवेश की कविताओं व श्रृंखला की कडियां, को वैश्विक साहित्य की श्रेणी में रखा है।
छायावाद काल हिन्दी साहित्य का वह युग है जिसमें किसी परम सत्ता को संबोधित काव्य पर उस परमशक्ति की छाया कहा गया है किन्तु उसी आधुनिक काल में जहां खडी बोली गद्य को भी प्रधानता मिली वहीं 20वीं सदी के उन आरम्भिक वर्षों में पहली बार मानव मन हम की सामूहिक भावना से निकलकर मैं या व्यक्तिवाद में परवर्तित होकर स्वतंत्रता का अनुभव कर रहा तथा सामंती मूल्य व आदर्श टूट रहे थे। इसी परिवेश में महादेवी का व्यक्तित्व पल्लवित, पुष्पित होता हुआ कविता व साहित्य की अन्य विधाओं के माध्यम से स्त्री मन की स्वतंत्रता व उसका सतत सांस्कृतिक उन्नयन करने लगा। उन्होंने कविता को परिभाषित करते हुए कहा- ’’कविता किसी परम सत्ता का स्मरण नहीं बल्कि वह सबसे पहले मन की ही एक अभिव्यक्ति होती है।1
नारी विमर्श के क्षेत्र में उनकी अनेक कृतियों में नीहार, रश्मि, नीरजा, दीपशिखा, यामा व विशेषकर उनकी कविता ’मैं हैरान हूँ’ से भी बढ़कर ’श्रृंखला की कडियाँ’ के गहन समाजशास्त्रीय अध्ययन में महिला सशक्तिकरण की जडें पायी जाती हैं। हालांकि इससे भी पूर्व बकौल दलित साहित्यकार डा0 धर्मवीर ’’एक अज्ञात हिन्दु स्त्री द्वारा लिखित सीमन्तनी उपदेश (1882) भी प्रकाश में आया था और ऐसे ही आधुनिक साहित्यिक परिदृश्य में मुंशी प्रेमचन्द संस्थापित हंस पत्रिका के माध्यम से इसके तत्कालीन प्रकाशक राजेन्द्र यादव ने हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श व दलित विमर्श का प्रारम्भ किया।,,2 जिसकी फलश्रुति वर्तमान में मुख्यधारा के हिन्दी साहित्य में दृष्टिगोचर हो रही है। हालांकि उन्होंने स्त्री विमर्श को पितृसत्ता व देह विमर्श तक ही सीमित कर दिया था जबकि नारी विमर्श बहु आयामी व व्यापक विमर्श की मांग करता है।
महादेवी वर्मा 26 मार्च 1907 को फर्रूखाबाद (उ0प्र0) में शिक्षक पिता गोबिन्द प्रसाद व माँ हेमरानी के घर जन्मी तथा उन्हें हिन्दी, संस्कृत शिक्षा संस्कारों में व साहित्यिक प्रेरणा विरासत में मिली। अब उनके निर्वाण के तीन दशकों बाद उनके साहित्य का नारी विमर्श के विशेष प्रकाश मंे मूल्यांकन ही मेरा अभीष्ट है साथ ही उनके साहित्य में सांस्कृतिक परिवेश का अनुशीलन भी शोध दृष्टिकोण से आवश्यक है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा जाये तो भारतीय मध्य वर्ग की यह विडम्बना ही है कि वह जीवन शैली व संस्कृति के बाह्य रूपों में हो रहे तीव्र परिवर्तनों व विकास को तो आत्मसात कर लेता है किन्तु जीवन के धार्मिक व मूल संस्कारों को लेकर वह प्रायः रूढिवादी व परम्पराग्रस्त ही बना रहता है। नौ वर्ष की अल्पायु में विवाह व पति की उपेक्षाग्रस्त पीडा को उन्होंने शैक्षिक संस्कारों से पाटते हुए आजीवन अकेली रहकर शिक्षार्थियों का विशाल परिवार बनाया, जिसमें कई पीढियों के शोधार्थी व साहित्यकार शामिल थे। उन्होंने अपने जीवन के कई दशक इलाहाबाद (प्रयाग) में बिताये, नेहरू व इन्दिरा जी से अच्छे सम्बन्ध रहे, गाँधीजी से आजीवन प्रेरणा ली किन्तु स्वतंत्रता संघर्ष में भाग न लेकर शिक्षण व साहित्य साधना में ही लीन रहीं तथा साहित्यकार संसद का प्रथम राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद से प्रारम्भ कराया। यहीं आपके साहित्यकार साथियों ने प्रसाद, पंत, निराला, धर्मवीर भारती, राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय, दूधनाथ सिंह जैसों के साथ होली के अपने जन्मदिन की खुशियाँ मनायीं। आपने अनेक वैदिक ऋचाओं व कालीदास के महाकाव्य अभिज्ञान शाकुन्तलम के हिन्दी अनुवाद किये तथा कालजयी रचना यामा पर सर्वोच्च साहित्य पुरूस्कार ज्ञानपीठ प्राप्त हुआ।
महादेवी जी का सम्पूर्ण साहित्य ही वैसे तो मानवीय संवेदना का उन्नयन व प्रगतिशीलता का आधुनिक मार्ग प्रशस्त करता है किन्तु उनका निबन्ध संग्रह ’श्रृंखला की कडियाँ’ नारी विमर्श व महिला सशक्तिकरण की पुरजोर मांग करता है। जिसे ’’1942 में लोकभारती द्वारा प्रकाशित किया गया तथा उसे भारतीय नारी समस्याओं का विवेचन व जन्म से अभिशप्त, जीवन से संतप्त किन्तु अक्षय वात्सल्य, वरदानमयी भारतीय नारी को समर्पित किया तथा उसे पवित्र देव मन्दिर की अधिष्ठात्री देवी के साथ ही स्वग्रह के मलिन कोने की बन्दनी भी कहा।,,3 हालांकि यह उनके निजी संस्मरणों का आभास देता हुआ भी एक अद्वितीय निबन्ध संग्रह है- ’’जिन्हें महादेवी जी ने चाँद नामक साहित्यिक पत्रिका में 1930 के दशक में लिखा और 1935 में इसी पत्रिका के विदुषी अंक का संपादन भी किया।,,4 उनके समग्र साहित्य से इतर कुछ कविताओं व ंश्रृंखला की कडियाँ के नारी विमर्श के दृष्टिकोण से समाजशास्त्रीय शोध में हमें एक विशेष सांस्कृतिक आयाम देखने को मिलता है जिसमंे भारतीय हिन्दु नारी की अतीत मंे सबला से अबला के निम्न स्तर को विभिन्न पहलुओं से वर्णित कर पुनः सबला बनने की तीव्र उत्कंठा में उसकी शिक्षा व चेतनाजन्य शक्ति बनने की प्रेरणा प्रदान की गई है इसलिए उन्होंने मनुस्मृति की आलोचना की जो स्त्री को स्वतंत्रता की अधिकारिणी न मानकर समाज मंे उसे पत्थर से भी निकृष्ट बनाती है- ’’हम पशु पक्षियों को, पाषाणों को अपनी सहानुभूति बांट सकते हैं। नारी को निर्मम आदेश के अतिरिक्त और कुछ नहीं दे पाते हैं। देवता की भूख को हम समझ सकते हैं परन्तु मानवी की नहीं।,,5
भारतीय अतीत के ही प्रसंगों मैत्रेयी याज्ञवल्क्य, राम सीता और बुद्ध यशोधरा आदि के सामाजिक सम्बन्धों में सामंजस्य की बात करते हुए महादेवी जी कहती हैं- ’’गोपा भी बुद्ध की छायामात्र नहीं थी क्योंकि उसका व्यक्तित्व बुद्ध से भिन्न व उज्जवल था। निराशा, गिलानी या उपेक्षा में भी उसने न तो आत्महत्या की और न ही पति का अनुसरण।,,6 नारी विमर्श की उसी कडी में उन्होंने भारतीय समाज की दोनों प्रकार की स्त्रियों की आलोचना भी की है जिनमें वे जो मानव समुदाय की सदस्य होकर भी अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व का ज्ञान न होने से पुरूषों को अर्थहीन अनुसरण करती हैं और वे भी जो पुरूषों की दृष्टि से संसार को देती हैं और उनके गुणों अवगुणों सभी का अंधानुकरण करती हैं। स्त्रियों के ये दोनों ही प्रयास समाज की श्रृंखला को शिथिल तथा व्यक्ति बंधनों को दृढ़ करते हैं। मध्यकालीन भारतीय सांस्कृतिक व्यव्स्था में हिन्दु स्त्री पुरूष समानता का स्तर निरन्तर गिरता हुआ पितृसत्ता के शिकंजे में स्त्री पराधीनता तक पहुँच गया, जिसके परिणाम पर्दाप्रथा, बालविवाह, बहुपत्नी प्रथा, सती प्रथा व देवदासी प्रथा के रूप में निकले।
हालांकि विद्वान समाजशास्त्रियों ने इसके अनेक कारण बताये जिनमें विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा युद्धों में स्त्रियों पर अत्याचार व हीनतावश उन्हें उपरोक्त कुप्रथाओं की बेडियाँ डालना भी प्रमुख है इसीलिए महादेवी जी ने युद्ध का तीव्र विरोध करते हुए कहा- ’’स्त्री का जीवन युद्ध के अनुकूल नहीं। पुरूष का जीवन संघर्ष से शुरू होता है किन्तु स्त्री का समर्पण से। युद्ध रक्त लोलुपता व राज्य विस्तार की भूख में होते हैं।,,7 उनका व्यक्तित्व नारीवादी के रूप में यों ही निर्मित बल्कि वे स्वयं भी एक परित्यक्ता के रूप में संतप्त व भोक्ता रही इसीलिए उन्होंने 1934 में खुलकर लिखा- ’’समाज पुरूष प्रधान है, अतः पुरूष की दुर्बलताओं का दण्ड स्त्री को मिलता है जिसे देखकर वह स्वयं दुर्बल हो उठता है और यह स्त्रियों का दोहरा अभिशाप बन जाता है। उन्हें जीवन के सारे कोमल स्वप्न, आदर्श मूल्य व मधुर इच्छाएं कुचलनी पडती हैं। साथ ही सामाजिक व्यक्ति के अधिकारों से भी वंचित होना पडता है।,,8 उन्होंने ससुराल में स्त्री की आशंका, संदेेह, उपेक्षा व शोषण के शिकार होेने की पाँच प्रमुख दशाएं भी बतायीं जैसे विद्वान पति के मनोनुकूल विदुषी न होना, पति के इच्छानुसार सुन्दर अप्सरा न होना, पुत्र की सेवा न दे पाना, रूग्ण या बीमार होना, पति की अप्रसन्नता मंे कोपभाजन बनना आदि।
महादेवी जी ने भारतीय स्त्री के संदर्भ में पुरूष का भर्ता नाम भी सांस्कृतिक यथार्थ के रूप में उजागर किया क्योंकि वह स्त्री, पुत्री, पत्नी व माता सभी रूपों में आर्थिक दृष्टि से पुरूष की आश्रित है परन्तु क्यों यह कोई नहीं जानता? उन्हीें के शब्दों में- ’’वास्तव में स्त्री की स्थिति समाज का विकास मापने का एक मापदण्ड कहा जा सकता है। उन्होंने 1935 में आगाह किया- ’’समाज यदि स्वेच्छा से स्त्री पुरूष की आर्थिक विषमता की ओर ध्यान न दे या उसमें आवश्यक परिवर्तन न समझे तो भविष्य में स्त्री विद्रोह दिशाहीन आंधी जैसा जोर पकडता जायेगा और तब यह समाज विध्वंस के अतिरिक्त कुछ नहीं पा सकेगा।,,9 उनका उपरोक्त कथन डा0 अम्बेडकर के उस प्रसिद्ध विचार का भावसाम्य है जिसमें उन्होंने कहा था- ’’मैं किसी समाज की प्रगति का अनुमान इस तथ्य से लगाता हूँ कि उस समाज में महिलाओं की प्रगति कितनी हुयी है।,, महादेवी जी के उक्त निबन्ध संग्रह की तरह ही उनकी अनेक कविताओं में एक प्रसिद्ध नारीवादी कविता ’मैं हैरान हूँ’ का भी संदर्भ लिया जा सकता है, जिसमें उन्होंने लिखा- मैं हैरान हूँ यह सोचकर/
किसी औरत ने क्यों नहीं उठाई उंगली?/तुलसीदास पर जिसने कहा
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी/ये सब ताडन के अधिकारी।10
इसी कविता में उन्होंने जहां एक ओर मनुस्मृति राम व पाण्डवों को स्त्री की दुर्गति के लिए आलोचना की वहीं महाभारत, देव, अंधश्रृद्धा आदि को भी गुलामी की पराकाष्ठा कहा है। अंत में उपरोक्त समाजशास्त्रीय विवेचन में प्रसिद्ध नारीवादी फ्रांसीसी लेखिका सिमोन द बोउवा के संदर्भ लिये जा सकते हैं। जिन्होंने अपने ग्रन्थ ’द सेकंड सेक्स’ में प्रस्थापना दी- ’’स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बना दी जाती है अर्थात् समाज अपने मूल्यों व परम्पराओं से उसकी एक खास छवि व भूमिका गढ़ता है।,,11 तब लिंग लिंगभाव में बदलकर स्त्री विभेद का शिकार तथा जैविक विभिन्नता सांस्कृतिक निर्मिति में बदलकर समाजीकरण की प्रक्रिया में उसका घरेलूकरण, पालतूकरण, परम्पराकरण व न्यूनीकरण कर घर की सीमाओं में कैद कर लिया जाता है। उपरोक्त अध्ययन में स्त्री विमर्श के सांस्कृतिक आयाम का फलक उस समय और विस्तृत हो जाता जब महादेवी जी पुरूषसत्ता पर लिखती हैं- ’’शक्ति से केवल शासन हो सकता है समाज नहीं बन सकता किन्तु यह भी सत्य है कि निरंकुश शासन, शासक का तो अंत करता ही है, उसकी मानवता को भी समाप्त कर देता है।,,12
संदर्भ ग्रंथ –
1. आलोक श्रीवास्तव, स्त्री मन की चितेरी महादेवी (आलेख), फेमिना विकीपीडिया- 19 नवम्बर 1918
2. सुभाष शर्मा, नारी विमर्श की गहरी जडें (आलेख), आजकल मासिक नई दिल्ली- मार्च 2021
3. महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ (संग्रह) लोकभारती नई दिल्ली- पृष्ठ 11
4. महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ (संग्रह) लोकभारती नई दिल्ली- पृष्ठ 41
5. महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ (संग्रह) लोकभारती नई दिल्ली- पृष्ठ 41
6. सुभाष शर्मा, नारी विमर्श की गहरी जडें (आलेख), आजकल मासिक नई दिल्ली- मार्च 2021
7. सुभाष शर्मा, नारी विमर्श की गहरी जडें (आलेख), आजकल मासिक नई दिल्ली- मार्च 2021
8. महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ (संग्रह) लोकभारती नई दिल्ली- पृष्ठ 97
9. महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ (संग्रह) लोकभारती नई दिल्ली- पृष्ठ 110
10. समाज वीकली- 24 अप्रैल 2019 (गूगल पेज)
11. सुभाष शर्मा, नारी विमर्श की गहरी जडें (आलेख), आजकल मासिक नई दिल्ली- मार्च 2021
12. महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ (संग्रह) लोकभारती नई दिल्ली- पृष्ठ 143