इन दिनों चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी की जीवन-गाथा भारतीय जनमानस को झकझोर रही है । संजय लीला भंसाली बम्बईया फिल्मों के मझे हुए डायरेक्टर हैं जो अक्सर ऐतिहासिक किरदारों में अपनी फैंटेसी से बालीवुड के रंग भरते हैं। ताजा कान्ट्रोवर्सी उनकी सेंसर बोर्ड के सामने विचाराधीन ‘पद्मावती’ फिल्म की पब्लिक रिलीज को लेकर है ।
‘पद्मावती’ को लेकर पहला सवाल उसके ऐतिहासिक संदर्भ से टकराता है । फिल्म ‘पद्मावती’ को कुछ समीक्षक सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी की रचना ‘पद्मावत’ पर आधारित मानते हैं । जायसी मूलतः सूफी मत के साधक थे और सूफी साधना के माध्यम से इस्लाम को भारतीय जनमानस से जोड़ना चाहते थे । जायसी उस दौर में तलवार के दम पर इस्लाम को फैलाने की बजाय रोमांटिक सूक्ष्म प्रेम साधना के ज़रिए इस्लाम की पैठ बनाने के ख्वाहिश मंद थे। इसलिए वे हिन्दू लोक-जीवन में मौजूद कथाओं में सूफी रंगत के सहारे अपने उद्देश्य को साधते थे। ‘पद्मावत’ ग्रंथ की नायिका ‘खुदा’ की प्रतीक है। जिसे पाने के लिए साधक को इश्क -मिज़ाज़ी से इश्क- हकीकी जैसी अवस्थाओं के रहस्यवाद से गुजरना पड़ता है। हिंदी के विद्वान् आलोचक इसे अन्योक्ति काव्य के रूप में व्याखायित करते हैं | पद्मावत, राजा रत्नसेन की पूर्व पत्नी नागमती, राघव-चेतन, गोरा-बादल, अलाऊद्दीन खिलजी आदि पात्र इस ग्रंथ की कथा-योजना में शामिल हैं । ग्रंथ की कथावस्तु लोक-जीवन में उपलब्ध चित्तौड़ की महारानी पद्मावती के इर्द-गिर्द घूमती है। लोगों का मत है कि पद्मावत या रानी पद्मिनी की कहानी दरअसल जायसी के पद्मावत से निकलकर लोकगाथाओं से होते हुए किले, मोहल्लों में रच-बस गयी। जबकि सूफी परम्परा के अध्येता मानते हैं कि जायसी ने लोक-परम्परा में मौजूद रानी पद्मिनी की शौर्य-गाथा को अपने ग्रंथ का आधार बनाया।
जायसी अवधी के कवि थे, अवधी भाषा में लिखी गई ‘पद्मावत’ से चित्तौड़ के लोक जीवन में रानी पद्मिनी के रचने-बसने की कल्पना, तर्क से परे है क्योंकि भाव-भाषा के स्तर पर चित्तौड़ राजपूतानी शान का ऐतिहासिक केन्द्र रहा है और राजस्थानी भाषा बोलने वाले लोगों पर अवधी की किसी रचना का इतना अधिक प्रभाव अखरता है । स्पष्ट होता है कि रानी पद्मिनी की जौहर-गाथा लोक-जीवन में पहले से मौजूद थी जिसे सूफी कवि जायसी ने इस्लाम के भीतर मौजूद ‘सूफी मत’ को फैलाने के लिए इस्तेमाल किया है।
पद्मावत को लेकर कुछ इतिहासकारों की शोध-दृष्टि बेहद अंधकारमय और उलझी हुई है । 1540 के आसपास लिखी गई पद्मावत से लगभग 200 साल पहले 1303 के आसपास दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर हमला किया। भयंकर युद्ध में चित्तौड़ की हार हुईं। हारने वाला चित्तौड़ का राजा कौन था ? इतिहासकार – चुप..! क्यों ? क्योंकि बर्नी ने उसका नाम नहीं बताया। अगर बर्नी ने नहीं बताया तो भी चित्तौड़ में हारने वाला कोई राजा तो ज़रूर था। यह उतना ही सच है जितना आप अपने दादाजी के दादाजी के दादाजी का नाम बेशक न जानते हों लेकिन वे थे ज़रूर। यह जानना भी रोचक है कि ऐतिहासिक सत्य की मर्मानुभूति इतिहास लिखने और लिखवाने वाले की दृष्टि में बसती है। हारने वालों को इतिहासकारों ने कोई तवज्ज़ों नहीं दी है। लेकिन अपने वतन की रक्षा के लिए प्राणों को न्यौछावर करने वाले वीर योद्धाओं का इतिहास तत्कालीन समाज से गुजरता हुआ लोकगाथाओं, किंवदंतियों, लोकगीतों, कहावतों में जिंदा रहता है। यह किसी इतिहासकार द्वारा लिखित पुर्जे से अधिक शक्तिशाली और महत्त्वपूर्ण होता है। यद्यपि इसमें अतिरंजना का पुट इसको अधिक रोचक और जीवंत बनाता है, तो भी यह देश-काल की सीमाओं से परे चला जाता है। व्यापक अर्थों में ऐसे मिथकों का निर्माण करता है जो युगों-युगों तक मानव-चेतना को नयी ऊर्जा देता है। इस अर्थ में मिथक अतिरंजित और किसी हद तक काल्पनिक होकर भी इतिहास से अधिक व्यापक और ताकतवर हो उठता है । देशकाल की सीमाएँ पीछे छूट जाती हैं। पद्मावती या पद्मिनी रानी एक ऐसा ही ऐतिहासिक चरित्र है जिसने देशकाल की सीमाएँ लाँघकर आस्था और सत्ता से आप्लावित मिथक का रूप ले लिया है। यद्यपि यह तय है कि सारा मिथक साहित्य इतिहास नहीं हो सकता तब भी मिथकों में, साहित्य में, लोक-चेतना में इतिहास के तत्त्व बिखरे पड़े हैं, इसमें संदेह नहीं होना चाहिए । कहा भी गया है कि इतिहास में डे, डेट, घटना के अलावा कुछ भी सत्य नहीं होता जबकि साहित्य में डे, डेट, घटना से अलग सभी कुछ सत्य होता है । वह अपने समय का दस्तावेज होता है । जिसमें मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ समाहित होती हैं । युगीन मूल्य मौजूद रहते हैं । इतिहास अपने मूल चरित्र में तथ्यों के अन्वेषण पर बल देता है जबकि लोकजीवन में रचा–बसा साहित्य और मिथक व्यापक अर्थों में मानव मन के भीतर घटित सत्य के अधिक निकट होता है|इस रूप में इतिहास-राजाओं के युद्धों का, हार-जीत का सिलसिलेवार वर्णन करता है और लोक-गाथाएँ तथा श्रेष्ठ साहित्य – अपने समय के समाज के क्रिया-व्यापार का, रीति-रिवाज़ का मान्यताओं और जीवन-मूल्यों का सजीव चित्रण होता है । इसलिए लोक-परम्परा से अपनी फिल्मों का कथानक चुनकर उससे व्यवसाय करने वाले कलाकारों को अधिक सजग होकर चलने की अपेक्षा है । आप अपनी फिल्मों में इतिहास की नयी कलात्मक व्याख्याएँ करके लोकमानस को आस्था के स्तर पर विचलित करने का कार्य नहीं कर सकते । नयी पीढ़ी को मल्टी मीडिया के माध्यम से इतिहास और लोक-जीवन का घालमेल कर अपना ‘क्रिएटिड छद्म इतिहास’ नहीं परोस सकते।`
कथित इतिहासकारों की दृष्टि का उलझाव एवं भटकाव इतना विकट है कि उन्होंने स्वयं तो इस संदर्भ में अपेक्षित रिसर्च की ही नहीं, जो उपलब्ध तथ्य, साक्ष्य, सूत्र-किलों, मंदिरों, साहित्य या लोक-गाथाओं में बिखरे पड़े थे उन्हें भी सिरे से नकार दिया । यहाँ तक कि पद्मावती और उनसे जुड़े घटनाक्रम को कोरी कल्पना की बकवास घोषित कर दिया । हैरानी होती है कि एक ओर तो इतिहासकार प्राचीन भारत के संदर्भ में अपनी रिसर्च को दमदार और फलदायी बताते हुए उपलब्ध साहित्य के सूत्रों का उपयोग कर कथित रूप से प्राचीन भारत के जीवन-चिंतन को,हिंसा प्रेरित प्रमाणित करने के लिए आतुर हैं । भारतीय-चिंतन के चरम-मूल्य ‘अहिंसा’ को गाँधी का ‘क्रिएटिव मिथक’ घोषित करते हैं और दूसरी और चित्तौड़गढ़ के किले, साहित्य, लोक-परम्परा इत्यादि में कोई ऐतिहासिक सूत्र नहीं खोज पाते । यहाँ उल्लेखनीय है कि साहित्य, स्थापत्य, पुरातत्व इत्यादि इतिहास सम्बन्धी शोध के प्रमुख सूत्र माने जाते हैं । यदि टीपू सुल्तान के पास राकेट जैसे हथियार थे जो कि उनसे सम्बन्धित चित्रों से ज्ञात होता है, तो महारानी पद्मिनी के महल, आज भी उपलब्ध जौहर-स्थल, लोक-साहित्य को चित्तौड़ के इतिहास का अंग मानने में भला एतराज़ क्यों है ? पद्मिनी के सौंदर्य की चर्चा प्रायः भारत भर के हर घर तक चली आयी है । नयी नवेली सुन्दर दुल्हन के ससुराल में आने पर आज भी गाँव-देहात की औरतें उसे पद्मिनी रानी जैसी सुन्दर बताती हैं । दरअसल बात यह है कि विदेशी पैमानों और औज़ारों से इतिहास की मरम्मत करने वाले विचारकों का मूल मंतव्य भारतीय मन से जुड़ता ही नहीं है । सोलह हज़ार वीरांगनाओं के साथ इतिहास का सबसे बड़ा जौहर करने वाली पद्मावती को आत्मदाह या पति वियोग में विलाप करके दम तोड़ती औरत के रूप में व्याख्यायित करते हैं । स्त्री-स्वाभिमान, नारी के सतीत्व का सम्मान, प्राण देकर भी पति के प्रति एक निष्ठता का प्रण निभाना, राष्ट्र के ऊपर पहले अपने वीर योद्धा पति की कुर्बानी फिर गोरा-बादल जैसे वीर सैनिकों का युद्ध-भूमि में वीरगति को प्राप्त करना और नारी अस्मिता की रक्षा के लिए स्वयं भी जिंदा अग्नि-स्नान कर लेना पश्चिमी दृष्टि-धारक इतिहासकारों की समझ से परे की बात है । यह स्पष्ट रूप से कथित बुद्धिजीवियों के आम जनमानस से कटे हुए होने की घटना है या जनता द्वारा विदेशी मानसिकता से लिखे गए अपने पुरखों की परम्पराओं, इतिहास और दास्तानों को नकार देने की बात है ।
कहते हैं कि ‘मदर इंडिया’ फिल्म को ‘आस्कर’ नहीं मिलने का एक कारण यह था कि ज्यूरी के एक सदस्य को यह समझ ही नहीं आया कि क्यों नायक के घर वापिस न आने की स्थिति में नायिका (राधा) ने विलेन के शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया । जबकि विलेन उसके दो बेटों की ज़िम्मेदारी भी उठाने को तैयार था । जरा सोचिए अगर नायिका ने विलेन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता तो वह भारतीय माँ अर्थात् ‘मदर इंडिया’ के त्याग-तपस्या-बलिदान वाले चरित्र से कितनी दूर निकल गयी होती। दरअसल ‘पद्मावती’ फिल्म के इस विवाद के बहाने से इतिहास और परम्पराओं की उचित व्याख्या तथा उन पर भारतीय दृष्टि से अनुसंधान करने की आवश्यकता स्पष्ट हुई है । संजय लीला भंसाली जैसे फिल्मों से जुड़े कलाकारों, व्यावसायियों को कलात्मक पुनर्सृजन का अधिकार तो है । लेकिन उन्हें समझना होगा कि यह प्रेम-सौंदर्य से भरी स्त्री-पुरुष संबंधों की एक और कलात्मक प्रस्तुति या रोमांटिक फेंटेसी नहीं है, बल्कि इतिहास से आगे चलकर जन-मन में रच-बस गए आस्था, विश्वास, श्रद्धा, वीरता और उत्सर्ग जैसे मूल्यों की स्त्रोत-वाहिनी,चित्तौड़ की पूज्य महारानी पद्मिनी की जौहर-गाथा है जिसे न तो 500 करोड़ या 1000 करोड़ के नफ़े-नुकसान के व्यवसाय से ही समझा जा सकता है और न ही ‘जिसे पसंद नहीं हो, वह न देखे’ जैसी बचकानी तर्कबाजी से|फिर भारतीय चिंतन और मेधा तो आस्था,विश्वास,अध्यात्म की यात्रा है|जब तक कथित इतिहासकारों और प्रोग्रेसिव कलाकारों को,खिलजी ने किस राजा को हराकर चितौड़ जीता ? जैसे प्राथमिक -बुनियादी सवालों के जवाब नहीं मिलते तब तक तो रानी पद्मिनी की जौहर गाथा से सम्बंधित अहिंसक जन मानस की आस्था और विश्वास से हिंसक छेड़खानी नहीं करनी चाहिए |
डा. वीरेन्द्र भारद्वाज
एसोसिएट प्रोफेसर
दिल्ली विश्वविद्यालय