पुरुष वर्चस्ववादी समाज में आज भी महिलाओं की दुनिया घर की चारदीवारी के भीतर सिमट कर रह जाती है।ऐसे वातावरण में महिला फिल्मकारों द्वारा उस चारदीवारी को तोड़कर पितृसत्तात्मक समाज में लाखों की भीड़ में न जाने कितने और किस-किस तरह के गतिरोधों का सामना करते हुए स्वयं को इस मुकाम पर स्थापित करना अपने आप में बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है। महिला फिल्मकारों ने अपने अनुभवों अध्ययन और कर्तव्यनिष्ठा के बल पर फिल्मों के माध्यम से नई दृष्टि के संचार में मुख्य भूमिका अदा की और फिल्म के चेहरे को बदला।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महिला फिल्मकारों की फिल्मों से स्पष्ट होता है कि जब वे फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में आयी या तो उन्होंने लीक से हटकर फिल्में बनायीं या फिर प्रचलित विषयों के इर्द-गिर्द रहीं। वे कभी भी प्रचलित विषयों की भीड़ में शामिल नहीं हुई ।उन्होंने बनी बनायी परिपाटी को तोड़ा है। उनकी ज्यादातर फिल्में नारीवादी दृष्टिकोण को व्यक्त करती हैं। इस सन्दर्भ में विनोददास का कथन उल्लेखनीय है। “अपर्णा सेन, साई परांजपे, मीरा नायर, दीपा मेहता सरीखी अनेक महिला निर्देशकों की फिल्म पारिदृश्य में सक्रिय उपस्थिति से स्त्री विमर्श को एक नया आयाम मिला है। इन्होंने स्त्री जीवन के संबंधों, अन्तर्द्वन्दों और मुक्ति से संबंधित अनेक सवालों को गहरी अंतर्दृष्टि के साथ उठाया है। अपर्णा सेन की फिल्म परमा भारतीय सिनेमा में एक नयी स्त्री का आविर्भाव है। जो पर पुरुष से प्रेम करने के बावजूद अपराध बोध से मुक्त दिखाई देती है।”[1] पुरुष फिल्मकारों द्वारा निर्मित फिल्मों में हमेशा औरतों को ही दोषी ठहराया जाता है।जैसे‘कोरा-कागज’, ‘श्रीमान-श्रीमती’,‘स्वर्ग-नरक’,‘अनुभव’,‘गृह प्रवेश’,दूरियाँ’,‘ये कैसा इंसाफ’ आदि । पति पत्नी के बीच तनाव के जिन कारणों को इन फिल्मों में दिखाया गया है, उसका सामाजिक यथार्थ से संबंध तो है लेकिन उनकी प्रस्तुति में पुरुष प्रधान दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। पति पत्नी के बीच किसी तीसरे व्यक्ति का प्रवेश और उससे उत्पन्न गलतफहमियाँ (अनुभव,गृह प्रवेश) पति पत्नी दोनों के द्वारा नौकरी और उससे उत्पन्न तनाव (दूरियाँ, ये कैसा इंसाफ) पति या पत्नी के घर के किसी अन्य सदस्य के द्वारा पति पत्नी के संबंध में दरार पैदा करने की कोशिश ( कोरा कागज ) पति पत्नी के भिन्न जीवन मूल्यों से उत्पन्न तनाव ( श्रीमान-श्रीमती, स्वर्ग-नरक) ये कुछ खास कारण हैं जिनसे दाम्पत्य सम्बन्धों में दरार पैदा की गयी है। मगर इन फिल्मों में अक्सर औरत को ही पुरुष के आगे हार माननी पड़ती है। प्राय: ऐसी फिल्मों में स्त्रियों द्वारा नौकरी करना, स्त्रियों का शक्की स्वाभाव, स्त्रियों का पश्चिमी जीवन शैली को अपनाना, स्त्रियों की झगडालू प्रवृत्ति आदि ही दाम्पत्य संबंधों की टूटन के मुख्य कारण होते हैं।जिन फिल्मों में पति को किसी दूसरी स्त्री की ओर आकृष्ट दिखाया जाता है वहां पत्नी से यह अपेक्षा की जाती है किवह धैर्य, प्रेम और त्याग के द्वारा पति की इस दुष्प्रवृत्ति को बदले न कि उससे सम्बन्ध विच्छेद कर ले। पत्नी का जोआदर्श रूप इन फिल्मों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है वह परम्परागत पतिव्रता स्त्री का ही आदर्श रूपहै। इस सन्दर्भ में प्रो.जवरीमल्ल पारख का दृष्टिकोण उल्लेखनीय है “स्पष्ट है कि स्त्री पुरुष संबंधों के सन्दर्भ में नैतिकता के सारे मानदंड स्त्री के लिए है पुरुष के लिए नही। सारे सामाजिक बंधन स्त्रियों के लिए हैं,पुरुष के लिए नहीं। सतीत्व, पातिव्रत्य, वैधव्य, वेश्यावृत्तिजैसीअवधारणाएँस्त्रियों के लिए गढ़ी गई हैं। और सबको यौन संबंधों के परिप्रेक्ष्य में ही परिभाषित किया गया है ताकि स्त्री की कोख पर पुरुष का अधिकार बना रहे।”[2]
इस तरह आठवें दशक तक भी हिंदी का व्यावसायिक सिनेमास्त्री पुरुष संबंधों को परम्परागतढांचे में ही देखता रहा। इस सच्चाई को सामने रखने की हिम्मत नही जुटा सका कि कोई तलाकशुदा औरत किसी अन्य पुरुष के साथ भी घर बसा सकती है।इस सन्दर्भ में विनोद दास का कहना है कि “व्यावसायिक सिनेमा में स्त्रियों को एक बिकाऊ वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसके बरक्स सार्थक सिनेमा में स्त्री जीवन की सच्चाईयों का विचारोत्तेजक चित्रण मिलता है।”[3]
इस तरह एकनिष्ठ त्यागमयी गृहिणी और मातृत्व को ही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य समझने वाली नारी को ही आदर्श पत्नी के रूप में फिल्में प्रक्षेपित करती हैं। स्त्री की भी कोई व्यक्तिगत जिन्दगी हो सकती है, उसे ऐसी फिल्में स्वीकार करने को तैयार नही हैं। क्योंकि ऐसा होना ही उनकी नज़रों में पारिवारिक अशांति का कारण है। जाहिर है लोकप्रिय सिनेमा अभी भी स्त्रियों को दो रूपों में ही चित्रित कर रहा है, या तो सौन्दर्य के साधन के रूप में या फिर देवी के रूप में निश्चय ही ऐसे बहुत सेफिल्मकार हैं जो स्त्रियों को इन दोनों रूपों से भिन्न दिखा रहे हैं। लेकिन ऐसे फिल्मकारों की संख्या बहुत कम है। ऐसीफिल्मों में ‘चित्रलेखा’, ’महल’, ’दहेज़’, ’बिरज बहू’, ’मदर इंडिया’, ’सुजाता’, ’मै चुप रहूंगी’, ’बंदिनी’ , ’काजल’, ’ममता’, ’साहब बीबी और गुलाम’, ’पाकीजा’ ,’परिणीता’, ’गुड्डी’, ’आंधी’, ’जूली’, ’मौसम’, ’राम तेरी गंगा मैली हो गई’, ’तवायफ’, ’निकाह’, ’उमरावजान’, ’अभिमान’ आदि कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्में हैं। इन फिल्मों में स्त्री अपने अधिकारों और अस्मिता के लिए तनकर खड़ी तो होती है लेकिन अगले ही पल सामाजिक बन्धनों की जकड़न में आ जाती है। अधिकांश फिल्में नायक प्रधान होती हैं और ‘नायकत्व’उनकी शारीरिक बल में निहित होता है। यह पुरुष बल शत्रु का दमन करने के लिए है। पुरुषों द्वारा रक्षित होकर स्त्रियाँ उनका मन बहलाती हैं, उनकी यौन क्षुधा शांत करती हैं और उनके लिए वारिस उत्पन्न करती हैं।जाहिर है कि पुरुष समाज द्वारा निर्धारित इन भूमिकाओं के ही इर्द-गिर्दफिल्मों में स्त्री जीवन का चित्रण होता है। 1980 के बाद जरूर स्त्री चेतना से लैस हिंदी फिल्मों का निर्माण हुआ। जिसमें समानांतर सिनेमा ने मुख्य भूमिका निभायी। समानांतर सिनेमा ने स्त्री की उन्मुक्त भावनावों को नया आयाम दिया। ऐसी फिल्मों में ‘मंडी’, ’बाज़ार’, ’भूमिका’, ’मिर्च मसाला’, ’महापात्र’, ’इजाजत’, ’प्रतिघात’,’ रिहाई’ आदिहैं।
1990 के बाद का हिंदी सिनेमा भूमंडलीकरण और उदारीकरण के प्रभाव से तेजी से बदलता है। नये निर्देशकों ने अपनी नयी विचारधाराओं के द्वारा हिंदी सिनेमा को नया आयाम दिया और स्त्री सम्बन्धी प्रश्नों को मुखरता से उठाया। दिशा, तर्पण,बवंडर, गॉडफादर, वाटर, अर्थ, कामसूत्र, मातृभूमि, सत्ता, चमेली, अस्तित्व, जुबैदा, चाँदनीबार, मृत्युदंड, फैशन, हिरोइन, नों वन किल्ड जेसिका, इश्कियाँ जैसी फिल्मों ने स्त्री विमर्श को नया आयाम दिया है। इतना ही नहीं इन फिल्मों में स्त्री की बदलती छवि को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया है।
वे फिल्में जिनमें स्त्रियाँ पुरुषों की अनुपस्थिति में पूरे परिवार का लालन पालन अकेले करती हैं। ‘मदर इंडिया’ भिन्न परिवेश और भिन्न ढंग से कही गई ‘चाँदनीबार’ को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है।
वे फिल्में जहाँ स्त्री घर की चारदीवारी में रहने से इनकार करती है और अपने जीवन को सार्थक बनाने का मार्ग स्वयं खोजती है, ‘सुबह’ इस तरह की प्रतिनिधि फिल्म है।
वे फिल्में जहाँ स्त्रियाँ अपने पर होने वाले उत्पीड़न कामुकाबला खुद करती हैं ‘मिर्च मसाला’ और मृत्युदंड’ को इसके उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।
चौथे प्रकार की फिल्में वे हैं जिनमें स्त्रियाँ त्याग, पतिब्रत धर्म, सेवाआदि मूल्यों को मानने से इनकार करती हैं। यौन भावनावों के प्रति अपराधबोध से ग्रस्त नहीं होती ‘फायर’, ‘अस्तित्व’, ‘सत्ता’, ‘परमा’, इस तरह की फिल्मों के उदाहरण हैं।
पांचवें तरह की फिल्में उन्हें कहा जा सकता है जिनमें स्त्रियाँ अपने बलबूते पर वह मुकाम हासिल करती हैं जो पुरुषों के वर्चस्व वाली इस दुनिया में प्राप्त करना उनके लिए कभी आसन नही रहा। ‘आंधी’, ‘गॉडमदर’, ‘सत्ता’ आदि इसी तरह की फिल्में हैं। लेकिन इसी श्रेणी की एक फिल्म ‘स्वराज’ भी है जो किसी एक स्त्री के हाथ में सत्ता आने की उसकी निजी उपलब्धि को नहीं बल्कि स्त्री जाति की स्वतंत्र होती चेतना को दिखाती है।
उपरोक्त वर्णित वे फिल्में जिनमें नायिका अपने पति के उत्पीड़न के खिलाफ पूरी ताकत से उठ खड़ी होती है इसमें‘मृत्युदंड’ सहित दीपा मेहता की ‘फायर’ कल्पना लाजिमी की ‘दमन’, ‘लज्जा’, ‘सत्ता’, ‘अस्तित्व’ जैसी कई फिल्मों में पतिव्रत धर्म के मिथक को तोड़ा गया है। खास बात यह है कि इन फिल्मों के कथानक अलग-अलग तरह के समाजों और वर्गों से लिए गए हैं। ‘मृत्युदंड’ और ‘दमन’ में यदि वह सामंती किस्म का समाज है तो ‘फायर’ और‘सत्ता’ में महानगरीय मध्यवर्गीय समाज और ‘लज्जा’ में अपनी ही पत्नी की हत्या चाहने वाला पति बहुत बड़ा उद्योग पति है। जिसका व्यवसाय अमरीका तक फैला हुआ है। एक तरह से ये फिल्में बताती हैं कि सामंती और पूंजीवादी दोनों तरह के समाज स्त्री को न सुरक्षा दे सकते हैं और न समानता और स्वतंत्रता।
स्त्री निर्देशकों ने अपनी फिल्मों में हिंदी सिनेमा में प्रस्तुत रूढ़ छवि को तोड़ने का साहस किया है। साईं परांजपे, अपर्णा सेन, कल्पना लाजिमी, मीरा नायर, दीपा मेहता जैसी निर्देशिकाओं ने पम्परागत नारी छवि को तोड़कर उस स्त्री को पर्दे पर जीवंत किया जो अंदर ही अंदर सुलग रही थी। जिसमें स्त्रियाँ त्याग, पतिब्रत, सेवा जैसे मूल्यों को मानने से इनकार करती हैं और यौन भावनावों के प्रति अपराधबोध से ग्रस्त नही होती। अपर्णा सेन की ‘परमा’ फिल्म की नायिका पति के रहते हुए एक फोटोग्राफर से शारीरिक सम्बन्ध बनाती है, क्योंकि उसके अति व्यस्त पति के पास उसके लिए समय नहीं है। ‘सत्ता’ फिल्म की नायिका पति के रहते हुए दूसरे व्यक्ति से सम्बन्ध बनाती है। क्योंकि खुद उसके पति का कई स्त्रियों से सम्बन्ध हैं। दीपा मेहता की फिल्म ‘फायर’ में दो विवाहित स्त्रियों के बीच दैहिक सम्बन्धों को कहानी का विषय बनाया गया है जबकिइसी विषय पर बाद में ‘गर्लफैंड’ नामक फिल्म भी बनाई गयी है। ‘वाटर’ में दीपा मेहता ने हिन्दू विधवाओं के जीवन को लिया है। हिन्दू विधवाओं की दयनीय दशा के बारे में आधुनिक युग में भारतीय साहित्य खासकर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्धमें काफी कुछ लिखा गया है। विधवाओंकी दयनीय स्थिति पर ‘वाटर’ से पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं। विधवाओं की त्रासदी को जिस सम्बेद्नशीलता के साथ अभिव्यक्त करती है वह दर्शकों को भीतर तक झकझोर देती है। ‘वाटर’ में धर्म को स्त्री का शोषण ही नही अपितु स्त्री को पशु से भी बत्तर जीवन जीने के लिए विवश कर देने वाली संस्था के रूप में चित्रित किया गया है। चुहिया जो कि सात साल की लड़की है का चित्रण किया गया है। यह विधवा बच्ची इस फिल्म में बड़े-बड़े सवाल उठा-ती है। जैसे- आदमी विधवाओं का आश्रम कहाँ है? यह पुरुष सत्ता से किया गया सवाल ही नही है बल्कि धर्म सत्ता से किया गया सवाल भी है। धर्म के कारण ये स्त्रियाँ विधवा का जीवन जीती हैं। एक वक्त खाती हैं लेकिन वहीँ धर्म की आंड़ में इनसे देह व्यापार करवाया जाता है। कल्याणी देह व्यापार करके आश्रम की स्त्रियों का पेट भरती है। इस फिल्म में धर्म सत्ता के खिलाफ मजबूती से आवाज उठायी गयी है और धर्मों के समानांतर स्त्री की आजादी को खड़ा किया गया है। इसीलिए अंत में चुहिया को आश्रम से निकाल कर नारायण के साथ भेज दिया जाता है। धर्म ने ही स्त्री को वर्जनाएं दी हैं और धर्म का विरोध इन वर्जनाओं को तोड़ने का प्रयास है।
दीपा मेहता हिंदी सिनेमा की अलसाई और मादक स्त्री छवि को तोड़कर हिंदी सिनेमा को एक नए कैनवास पर नए रंगों से चित्रित करती हैं। वह अपनी फिल्मों में स्त्री पुरुष के उन समंधों को उधेड़ती और बुनती हैं, जिसे सामाजिक लोकलाज की बात कहकर छुपा लिया जाता है। ‘फायर’ उनकी एक ऐसी ही फिल्म है। ‘फायर’ फिल्म स्त्री जीवन के उस पहलू को उठाती है जिसे समूची मानव सभ्यता स्पष्ट नकारती रही है। उनकीफिल्मों में स्त्रियाँ ब्रांड बन जाने की इच्छाओं के लिए नहीं जीती हैं। बल्कि अपनी मानसिक और शारीरिक ऊष्मा को जीवित रखने के लिए संघर्ष करती हैं। ‘फायर’ में अपने पतियों द्वारा उपेक्षित कर दिए जाने के बाद अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लैंगिक समानता की परम्परा को चुनौती देती हुई दोनों स्त्रियाँ एक दूसरे की मानसिक और शारीरिक वेदना को सहलाती हैं। इस तरह के विषय पर फिल्मों का निर्माण पुरुषों ने कभी नहीं किया। ‘फायर’ मात्र समलैंगिकता के सवाल को नही उठाती बल्कि उसके पीछे स्त्रियों को विवश करने वाले कारणों को भी बारीकी से खोलती है। ‘फायर’ की कहानी का मुद्दा यही है कि-‘क्या पुरुष का सत्य ही स्त्री का सत्य है?’ दीपा मेहता को इसके सच से अधिक इसका प्रभाव पता है इसीलिए वह इस सच को दिखाने का सहस करती है। ‘फायर’ की दोनों नायिकाएं- अपनी एकांत जीवनशैली की नीरसता को तोड़ने के लिए परम्परागत ढांचे को तोड़ती हैं। यह फिल्म पुरुषवादी सत्ता की उस मानसिकता को लज्जित करती है, जिसे यह लगता है कि तिरस्कार स्त्री को झुका सकता है। दोनों नायिकाएं अपनी सैक्सुअलिटी की पूर्ति के लिए किसी पुरुष का सहारा नहीं लेती हैं बल्कि स्वयं में एक दूसरे की इच्छापूर्ति का साधन खोज लेती हैं। एक दूसरे को पानी पिला कर करवाचौथ का व्रत तोड़ती हैं। अपनी टूटी खुशियों को आपस में मिलकर फिर से जोड़ती हैं। यह वह सम्बन्ध है जिसे सामाजिक स्वीकृति नहीं है। इसी फिल्म का संवाद है-“कोई शब्द नही है जो यह बता सके कि हम दोनों का रिश्ता क्या है?”[4] दरअसल इस रिश्ते को कभी सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली क्योंकि यह परम्परा से सम्बद्ध रिश्ता नही है। दीपा के निर्देशन की एक विशेषता यह भी है कि उनके चरित्र भावनात्मक होकर भी भावना के स्तर पर निर्णय नही लेते हैं।अपने रिश्तों का खुलासा होने पर वह कहती हैं-“नहीं हमने कोई भूल नहीं की”[5] इस तरह का साहस निश्चित रूप से कोई पुरुष निर्देशक द्वारा संभव नही है। दीपा मेहता की फिल्में स्त्री जीवन की उन तमाम बंधनों की मुक्ति का रास्ता दिखाती हैं जहां मान-सम्मान और सफलता से अधिक मायने उनके मनुष्य होने में है और स्वयं के स्वीकार किये जाने में है। उनके पात्र अपने लिए सम्मान की बलवती इच्छा कम ही रखते हैं पर उपेक्षा भी नहीं चाहते अगर उपेक्षा हुई तो तथाकथित सामाजिक संरचना को तोड़ देने में हिचकेंगे नहीं। ‘वाटर’ भी इसी तरह के मुद्दे को उठाती है। विधवाओं के जीवन पर बनी यह फिल्म न केवल विधवाओं की समस्या को उठती है बल्कि उसका फायदा उठाने वाली राजनीतिक और धार्मिक संस्थाओं की भी पोल खोलती है। ‘परमा’ की नायिका अपनी दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर पुरुष से सम्बन्ध बनाती है। और पकड़े जाने पर प्रताड़ित भी की जाती है पर अपने होशो हवास में उसका कहना कि ‘मेरे मन में कोई अपराधबोध नहीं है’[6]। भारतीय समाज की तमाम महिलाओं के लिए संभव नहीं है। यह जवाब एक ऐसी स्त्री का है जिसे यह अहसास हो चुका है कि उसकी देह पर सिर्फ उसका अधिकार है किसी अन्य का नहीं। अपर्णा सेन जानती है कि स्त्री को मुक्ति का पाठ अभी तक पुरुषों द्वारा ही पढ़ाया जा रहा था जिससे उसका मानसिक पतन हो रहा था। यह दोनों ही अपनी फिल्मों में पारम्परिक चरित्रों की छवियों को तोड़कर किसी ऐसे चरित्र को जन्म देती हैं जो हमारी चेतना को झकझोरते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक और व्यवहारिक सच है कि समाज का प्रत्येक वर्ग, जाति, समुदाय या मनुष्य अपनी आवश्यकता और अभिव्यक्ति को जितने प्रामाणिक तरीके से स्वयं प्रस्तुत कर सकता है कोई अन्य नहीं –“यह सच है कि स्त्री के बारे में इतना प्रामाणिक विश्लेषण एक स्त्री ही दे सकती है। बहुधा कोई पाठिका जब अपने बारे में पुरुष के विचार और भावनाएं पढ़ती है, तब उसे लेखक की नीयत पर कहीं संदेह नहीं होता है। ‘अन्ना केरेनिना’ पढ़ते या शरतचंद्र का ‘शेष प्रश्न’ पढ़ते हुए हम भूल जाते हैं कि इस स्त्री चरित्र को पुरुष गढ़ रहा है, पर यह बात भी मन में आती है कि यदि अन्ना का चरित्र किसी स्त्री ने लिखा होता तो क्या वह अन्ना को रेल के नीचे कट कर मरने देती? यदि देवदास की पारो स्त्री ने गढ़ा होता तो क्या वह यूं घुट-घुट कर मरती।”[7]
सेन परमा के माध्यम से स्त्री देह के कुछ बुनियादी प्रश्नों को भी खड़ा करती हैं। उनकी नायिकाएँ परंपरा से बंधी होती हैं फिर भी मुक्ति के कई रास्तों के लिए तैयार रहती हैं।परमा यह सवाल उठाती है कि स्त्री की अपनी देह पर अधिकार किसका हो? अपर्णा सेन के पास इसका एक ही उत्तर है-‘स्वयं का’ परमा यही सन्देश देती है कि स्त्री की देह पर सिर्फ उसका अधिकार होना चाहिए। वह भी यह फैसला लेगी कि वह स्वयं को किसे सौपे। परमा की कहानी स्त्री की स्वतंत्रता के उन रास्तों को खोलती है जहाँ से भारतीय स्त्री के रास्ते बंद हो जाते हैं।
अत: कहा जा सकता है कि महिला फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में स्त्री की छवि को मजबूती तो दी ही साथ ही उसे हिंदी सिनेमा के कुछ पूर्वाग्रहों से भी मुक्त किया। हालांकि उन्हें इसके लिए बाकायदा विरोध भी सहना पड़ा परन्तु इन हिम्मती फिल्मकारों ने अपना काम बखूबी किया। इन फिल्मकारों की संख्या बहुत ही कम है परन्तु उनके द्वारा निर्मित फिल्मों की संवेदना इस 100 वर्षों के पुरुषवादी दृष्टि से पेश की गई स्त्रियों से काफी अलग है। स्वयं का भोगा और महसूस किया हुआ यथार्थ जब पर्दे पर जन्म लेता है तो उसकी संवेदना भी सच लगती है। ये फिल्मकार अपनी नयी चेतना से नए अर्थों को प्रस्तुत करने वाले सिनेमा को जीवित कर रही हैं। महिला फिल्मकारों ने अपने चरित्रों का निर्माण सच के बहुत करीब लाकर किया है उनकी फिल्मों के पात्र वेदना और अस्मिता का नया पाठ प्रस्तुत करते हैं।
आधार ग्रंथ –
[1]विनोद दस , भारतीय सिनेमा का अंत:करण , पृ. सं. 10
[2] जवरीमल्ल परख, भारतीय सिनेमा का समाजशास्त्र, पृ. सं. 134
[3]विनोद दास, भारतीय सिनेमा का अंत:करण, पृ.सं. 10
[4] ‘फायर’ फिल्म का संवाद
[5] ‘फायर’ फिल्म का संवाद
[6] ‘परमा’ फिल्म का संवाद
[7] सिमोन द बोउआर, स्त्री उपेक्षिता, हिंदी पॉकेट बुक्स, 2002, पृ. सं. 15