(1) एक आदिवासी की घोषणा…

आदिवासी कह रहा है

हमें नहीं चाहिए तुम्हारा विकास!

नहीं चाहिए तुम्हारे कंक्रीट के जंगल!

हमें नहीं चाहिए बोतल वाला पानी!

तुम मत काटो

हमारे पेड!

ताकि मिट्टी का कटाव न हो.

और, खेत जुड़े रहें !

और हम भी

जुड़े रहे अपने खेतों से!

कि अगर तुम हमारी जमीन

ले लोगे तो तुम लगाओगे

उस पर अपने कारखाने!

 

कारखाने का धुंआ

घोंट देगा हमारा दम!

 शोर से फट जाएंगें

हमारे कान!

और पीना होगा

हमें भी गंदा पानी!

मत करो हमारी नदियों को दूषित

कि हमारी मछलियाँ मर रहीं हैं

जब हमारे जंगल बचे रहेंगे

तब  हम उनसे चुनकर

लाएंगें लकडियाँ

और बेच आएंगें

बाजारों में!

और उन्हीं लकडियों पर

डभकाएंगें

मीठा-मीठ भात!

और पियेंगे अपनी नदियों

का साफ- मीठा पानी !

बचे रहने दो हमारी नदियों का

साफ और मीठा पानी!

हमें रहने दो अपने जंगलों के साथ,

हमारी नदियों के साथ!

हम चुन लेंगें महुआ के फूल

और हम रुखा- सूखा, और

बासी भी खा लेंगें!

हम मना लेंगें अपने

पर्व करमा

और  सोहराय,  !

 हमें जीनो दो मांदर

 के संगीत के साथ  !

 तुमसब लौट जाओ

हमें नहीं चाहिए  विकास!!

 

(2)जब जरूरत हो हमें बुला लेना, हम फिर चले आएंगे

वो चल पडे हैं

अपने कंधों पर

दुखों का पहाड़ लादे !

कि उनके कंधे पर

लदे हैं छोटे-छोटे बच्चे!

कुछ माल – और असबाब  !

चलते- चलते पैरों में

पड गए हैं छाले!

और रिसने लगा है लोहू!

बनाते – बनाते और करते करते काम

घिस गई हैं, हाथ की रेखाएँ

कि अब उनमें  नहीं दिखता कोई भविष्य

और वर्तमान!

जबकि शहर को  हमने बनाया

और बसाया!

लेकिन, शहर ने पीठ फेर लिया है हमसे!

सुख, का साथी पूरा शहर था

लेकिन, दुख केवल हमारा होकर रह

गया है!

कोई दया दिखाकर केले दे देता है !

कोई दे देता है एक डूभा भात!

हम जा रहें हैं लेकिन,

अगर हम बच गए और

जब कल को फिर से

शहर बसाना होगा  !

हमें आवाज देना हम फिर चले

आएंगे

तुम्हारे शहर बसाने!!

 

(3) नदी का सवाल

नदी पूछ रही है

कि जिस तेजी से मैं सूख रही हूं

तुम कहां जाओगे..?

जब तुम्हें करना होगा

अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार!

नदी पूछ रही है कैसे होगा

तुम्हारे पूर्वजों का तर्पण

जब गया के घाट सूख जाएंगे!

तब कैसे चुकाओगे  अपने

पूर्वजों का ऋण भार!

 नदी पूछ रही है कैसे होगी

 गंगा की आरती

मणिकर्णिका घाट पर

जब मैं सूख जाऊंगी  ?

कि कैसे जलेंगें

मेरे तट पर लाखों दीये

जब मैं सूख जाऊंगी!

कि नदी पूछ रही है

कि जब मैं सूख जाउंगी

तो कैसे दोगे चैती और कार्तिक

छठ पर्व में अर्घ्य !

नदी पूछ रही है

फिर कहां विसर्जन करोगे

अपनी पूजा की मूर्तियां  !

सोच लो, अभी भी वक्त है!!

 

(4) जब जंगल नहीं बचेंगें

हम कैसा विकास कर रहें हैं?

जहां अब हवा भी साफ नहीं है!

जहां नदियों की छातियां सूख गई हैं !

कि जहां पहाड़ हो रहें हैं खोखले!

और काटे जा रहे हैं लाखों

लाख पेड!

नदियां व्यथित है !

मानव – मलमूत्र और

कारखानों के कचरे को

ढोकर !

दामोदर की वनस्पतियों

और जडीबूटियों में

समा गई हैं जहरीली बारूदी

गंध !

 

कारखानों से निकलने वाले

बारुदी कचरे से

मछलियाँ त्याग रहीं है जीवण!

आखिर कैसा भविष्य गढ रहें  हैं हम

जहां कंक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं ??

कि जहाँ नहीं बचने वाले पोखर

और तालाब!

कि जहाँ शहर बसाने

के लिए गाँव तबाह

किए जा रहें हैं!

सोचो हम किस तेजी से

कंक्रीट के जंगलो की

ओर बढ़ रहें हैं !

जहाँ न कल खेत बचेंगें ,

न चौपाल, न नदी ना तालाब

न ही होंगें झरनें!

फिर कहां करेंगे वनभोज,

कहां  गाने जाएंगे चैता और कजरी

कहां होगी फागुन के गीतों की बयार!

फिर, चित्रकारों के चित्रों

में ही  सिमट कर रह जाएंगे

 गांव, पहाड़, नदियाँ और झरनें और

तालाब!!

 

(5) भूख की जाति क्या है… 

पूछो सवाल उनसे जो हमें

आपस में  लडवाते हैं !

पूछो सवाल उनसे कि भूख की जाति

क्या है?

और पसीने की जाति क्या है ?

और, क्या होती है खुशबू की जाति?

 क्या होती है बारिश के बूंदों की जाति ?

और, दर्द की जाति  क्या होती है ?

 फिर, दुख की जाति क्या है ?

और क्या है होती है प्रेम की जाति  ?

 

महेश कुमार केशरी
बोकारो, झारखंड

 

 

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