कहानी समृद्ध और लोकप्रिय विधा है। यह ‘छोटे मुँह बड़ी बात करती है।’ यह अपने कलेवर में पूरी दुनिया समेटने की शक्ति रखती है। मानवीय संवेदनाओं के स्वरूप और विकास का वर्णन कथा-साहित्य का उपजीव्य है। टाॅलस्टाॅय, तुर्गनेव, चेखव, मोपाँसा, काफ्का, हेंमिग्वे, सामरसेट माँम आदि ने अपने जीवनानुभवों से इसे समृद्ध किया। प्रेमचन्द, यशपाल, प्रसाद, जैनेन्द्र, अज्ञेय आदि ने इसे हिन्दी की प्रमुख विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया। परन्तु हिन्दी कहानी के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण आन्दोलन ‘नयी कहानी’ के रूप में विकसित हुआ (1955 ई. से 1963 ई. के मध्य)। इसको वैचारिक आयाम प्रदान करने वाले प्रस्तावकों में कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव आदि प्रमुख हैं।
प्रगतिशील परम्परा में जिन कहानीकारों का नाम लिया जाता है उनमें ‘भीष्म साहनी’ सबसे अधिक महत्वपूर्ण और प्रतिबद्ध कहानीकार हैं। ये नयी कहानी के सशक्त हस्ताक्षर हैं, जो नवीन जीवन-मूल्यों, नई मान्यताओं और पाखण्डों से परिपूर्ण अहमन्यताओं को रेखांकित करते हुए ‘मानवीय सम्बन्धों को विश्लेषित करते हैं।’ उन्होंने निम्न एवं मध्यवर्गीय जीवन के अन्तर्विरोध पूँजीवादी प्रवृत्ति, आर्थिक विषमता तथा साम्प्रदायिकता से उत्पन्न प्रश्नों को प्रभावी रूप से उठाया है।
भारतीय मध्यवर्गीय जीवन का खोखलापन, उसकी विकृतियाँ और लोलुपताएँ बेनकाब होकर उनकी कहानियों में व्यक्त हुई हैं। भीष्म साहनी के कथा साहित्य से गुजरना अपने समय को बेधते हुए गुजरना है। उनकी कहानियाँ गहरी संवेदनाओं से जोड़कर हमें जीवित रहने का एहसास कराती हैं। ‘उन्होंने मानवी जीवन की विभिन्न अनुभूतियों को जिस तीव्रता से अपनी कहानियों में अनेक स्तरों पर व्यक्त किया है वैसी तीव्रता बहुत कम कहानीकारों में दिखाई देती है।’ उनकी कहानियाँ समकालीन जीवन, उसके अन्तर्विरोध और दबाब को वहन करती हैं –
“नये कहानीकारों में भीष्म साहनी में एक ही साथ इन दोनों (एकान्वित शिल्प व अन्तर्विरोध) विशेषताओं का सर्वोत्तम सामंजस्य मिलता है। इस दृष्टि से भीष्म साहनी सबसे सफल कहानीकार है। एक इकाई के रूप में उनकी कहानियाँ अत्यन्त गठित होती है; साथ ही प्रायः किसी न किसी प्रकार की विडम्बना को व्यक्त करती हैं और यह विडम्बना किसी न किसी रूप में हमारे वर्तमान समाज के व्यापक अन्तर्विरोधों की ओर संकेत करती हैं। उदाहरण के लिए उनकी ‘चीफ की दावत’ कहानी ही लीजिए।”
‘भीष्म साहनी के कथामानस पर प्रेमचन्द्र, यशपाल, चेखव, मोपासाँ, गोर्की व कैथरीन मेन्सफील्ड की गहरी छाप है।’ उनके 9 कहानी संग्रह हैं। ‘भाग्यरेखा’ (1953 ई.) के बाद ‘पहला पाठ’ (1957 ई.) उनका दूसरा कहानी संग्रह है। इसमें 15 कहानियाँ हैं। इस कहानी संग्रह में भीष्म जी ने जीवन को विषमता, खोखलापन व निरर्थकता को उजागर किया है। इस संग्रह की पहली कहानी ‘चीफ की दावत’ है। भीष्म साहनी की असली पहचान उनकी इसी वजनदार और चर्चित कहानी से शुरू होती है। इस कहानी में ‘शामनाथ’ के माध्यम से मध्यवर्गीय जीवन के अन्तर्विरोध, स्वार्थता, महत्वाकांक्षा, अवसरवादिता, संवेदनहीनता, मानवीय मूल्यों का विघटन, झूठी प्रदर्शनप्रियता, अपनों से दूर होते जाने की प्रक्रिया, आधुनिकता का भोंडें अनुकरण को बहुत सूक्ष्मता से उद्घाटित किया गया है-
“‘चीफ की दावत’ कहानी में साहनी ने रूढ़िविहीन मध्यवर्ग के व्यक्ति की निजी महत्वाकांक्षाओं का जो सामान्य चरित्र बनाया है उससे आधुनिक भारत के नौकरशाह और बाबूवर्ग का मिलाजुला स्वत्वहीन किन्तु आवेगपूर्ण और दिखावटी चरित्र स्पष्ट होता है।”
इसमें शामनाथ के माध्यम से समाज के खोखलेपन व असंवेदनशीलता पर तीखा व्यंग्य किया गया है। भीष्म साहनी की कहानी चीफ की दावत का मुख्य उद्देश्य ‘शामनाथ’ के माध्यम से मध्यवर्गीय व्यक्ति की अवसरवादिता, उसकी महत्वाकांक्षा में पारिवारिक रिश्ते के विघटन को उजागर करना है। औद्योगीकरण के विकास के साथ मध्यवर्ग का तेजी से विकास हुआ। शिक्षा प्राप्तकर अच्छी नौकरी पाकर या आजीविका का अन्य साधन पाकर निम्नवर्ग का व्यक्ति मध्यवर्ग में पहुँचकर उच्चवर्ग की संस्तुति के लिए उच्च वर्ग की ओर ताकने लगा। शामनाथ भी उनमें से एक है।
इस कहानी का नायक शामनाथ दफ्तर की नौकरी पाकर ‘उच्च्पद पाने की महत्वाकांक्षा’ रखने लगा और उसकी पूर्ति के लिए अपने दफ्तर के विदेशी चीफ की खुशामद में लग गया। चीफ की दावत का प्रबन्ध अपने घर करता है और अपनी बूढ़ी माँ का, फालतू समान की तरह उपेक्षा करता है। महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए माँ के साथ उसका खून का रिश्ता भी गौण हो जाता है। आधुनिक परिवारों में बूढ़ों की किस प्रकार उपेक्षा की जाती है। यह शामनाथ के व्यवहार से समझा जा सकता है।
‘आधुनिक दिखने की चाह’ में मध्यवर्गीय व्यक्ति (शामनाथ) ‘प्रदर्शन प्रिय’ हो गया है और बूढ़ी माँ चीफ की दावत के समय प्रदर्शन योग्य वस्तु नहीं, बल्कि कूड़े की तरह कहीं छिपाने की वस्तु हो गयी है। इस झूठी प्रदर्शनप्रियता और छद्मआधुनिकता को शामनाथ के चरित्र में स्पष्टतः देखा जा सकता है।
‘चीफ की दावत’ पारिवारिक जीवनमूल्यों के विघटन को स्पष्ट करने के उद्देश्य को लेकर लिखी गयी कहानी है। लेकिन माँ की ममता और उसके महत्व की स्थापना के माध्यम से लेखक ने माँ के रूप तथा स्वस्थ पुरानी परम्परा को वरेण्य सिद्ध किया है। शामनाथ जिस माँ को उपेक्षित होने लायक वस्तु मान रहे हैं उसी के माध्यम से उसकी पदोन्नति होती है।
दावत के दिन शामनाथ और उसकी पत्नी घर की सजावट के लिए विशेष चिन्तित है। आधुनिक दिखने के लिए उच्चवर्ग के विदेशी चीफ की नज़रों में सुसंस्कृत दिखने के लिए, ‘है नहीं’; यह प्रदर्शन प्रियता उनके लिए आवश्यक हो गयी है-
“अब घर का फालतू समान अलमारियों के पीछे पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा।”
सुसंस्कृत होने का दिखावा शामनाथ करता है। उसकी रूचि सम्पन्नता और सांस्कृतिक बोध वहाँ अपने असली रूप में आता है, जहाँ शामनाथ की बूढ़ी माँ उसके लिए छिपाने की वस्तु बन जाती है। जब कूड़े और माँ में कोई अन्तर नहीं रहता-
“तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गयी, माँ का क्या होगा।”
“‘चीफ की दावत’ में अपनी निरक्षर और बूढ़ी माँ ही एक समस्या बन गयी जैसा घर के ‘फालतू सामान’; बल्कि सामान से भी बड़ी समस्या। सामान को छिपाना आसान, लेकिन इस जीवित सामान का क्या करे? और इस तरह शामनाथ एक कूड़े की तरह अपनी माँ को एक कमरे से दूसरे कमरे में छिपाया फिरता है।”
उस समय शामनाथ की सुरूचिसम्पन्नता और आधुनिकता बोध नहीं उसके ‘व्यक्तित्व की फूहड़ता और टुच्चापन’ प्रकट होता है, उसके सुसंस्कृत होने की कलई खुल जाती है व उसकी प्रदर्शनप्रियता व छद्म आधुनिकताबोध प्रकट हो जाता है।
शामनाथ ने अपनी सुविधा के लिए अपनी माँ को अकेलेपन का शिकार बना दिया है-
“नहीं, मैं नहीं चाहता उस बुढ़ियाँ का आना-जाना यहाँ फिर शुरू हो।”
माँ को लेकर वह कोई जिम्मेदारी महसूस नहीं करता, जिसने उसके लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, “माँ जिसने जन्म दिया, स्नेह दिया, अपना तन-मन-धन अर्पण कर दिया, वही माँ आज फालतू सामान हो गयी है।”
“अच्छी भली यह भाई के पास जा रही थी। तुमने यू ही खुद अच्छा बनने के लिए बीच में टाँग अड़ा दी।”
शामनाथ दिखावे की संस्कृति जीता है। वह ‘अच्छा है नहीं, होने का दिखावा करता है।’
शामनाथ जब माँ को छिपा नहीं पाया तो माँ को ही प्रदर्शन की वस्तु (शो पीस) बनाने से परहेज नहीं करता-
“यूँ नहीं माँ, टाँगें ऊपर चढ़ाकर नहीं बैठते। यह खाट नहीं है।”
“और खुदा के वास्ते नंगे पाँव नहीं घूमना। न ही खड़ाऊँ पहनकर सामने आना।”
‘माँ’ को आदेश देता है-
“माँ जल्दी सो नहीं जाना। तुम्हारे खर्राटें की आवाज़ दूर तक जाती है।” और आदेश कभी-कभी तो धमकी में तब्दील हो जाता है-
“किसी दिन तुम्हारी खड़ाऊँ उठाकर मैं बाहर फेंक दूँगा।”
यह अत्यधिक संवेदनहीन व्यक्ति हो गया है साथ ही अपने नैतिक मूल्य, परम्परा, कर्तव्यों को उसने ताक पर र9ख दिया है। माँ की पीड़ा व असमर्थता- (‘क्या करूँ बेटा, मेरे बस की बात नहीं है, जब से बीमार हुई हूँ नाक से साँस नहीं ले सकती’ ) को समझना तो दूर, उन पर क्रोध से झुंझला उठता है-
“क्षोभ और क्रोध में वह फिर झुँझलाने लगे।”
शामनाथ पुरानी पीढ़ी के त्याग व अवदान के प्रति कृतघ्न है। माँ ने जेवर बेचकर जो त्याग और वात्सल्य का प्रमाण दिया था, उसके उल्लेख मात्र से वह खिन्न हो गया-
“यह कौन-सा राग छेड़ दिया, माँ… जितना दिया था, उससे दुगुना ले लेना।”
पूरा जीवन समर्पित करने के बाद उसका मूल्य शामनाथ रुपयों में तौलता है। पश्चिम का पूँजीवाद व बाजारवाद उस पर हावी हो गया है। माँ रोज गुमसुम रहती है उसकी परवाह नहीं पर आज साहब आ रहे हैं उनसे उसका स्वार्थ सिद्ध होगा इसलिए-
“माँ, रोज की तरह गुमसुम बन के नहीं बैठी रहना।”
माँ से अब काम नहीं, माँ अब किसी काम की नहीं इसलिए माँ गौण हो गयी है। चीफ से काम निकलवाने के लिए चीफ की चापलूसी करता है-
“चीफ को बुरा लगा तो सारा मजा जाता रहेगा।”
माँ को बुरा लग रहा है या नहीं इसकी किसको चिन्ता? उसके लिए माँ झमेला है-
“माँ का झमेला ही रहेगा।”
यह है अवसरवादी शामनाथ की असलियत, जिसके मूल्य सम्बन्धों को भी बाजारवादी नजरिये से तौलते हैं।
माँ से शामनाथ बेहद अमानवीय ढंग से पेश आता है। अपनी माँ को वह हुक्म देता रहता है उसका हुक्म अपने माँ के लिए ही ‘फतवा’ बन जाता है-
“माँ का जी चाहा कि चुपचाप पिछवाड़े विधवा सहेली के घर चली जाए। मगर बेटे के ‘हुक्म’ को कैसे टाल सकती है।”
“माँ का दिल हमेशा बैठा रहता है, डरा रहता है। ‘बड़े-बूढ़ों के लिए परिवेश का यह परिवर्तन उसकी मानसिक मौत से कम नहीं।’
दावत के समय भोजन से .पहले शराब का दौर रात के लगभग साढ़े दस बजे तक चलता है यह पश्चिमी सभ्यता का सूचक है। सभी पश्चिमी रंग में रंगे दिखाए गए हैं।
गिलासों को खाली करने के बाद जब चीफ खाने के लिए चले तब माँ बरामदे में कुर्सी पर बैठी, सोती हुई खर्राटे लेती हुई चीफ के सामने पड़ गयी। उस समय सभी संवेदनहीन होकर माँ की दयनीय स्थिति पर हँसते हैं, सिवाय चीफ के; जो उनके लोकगीतों व हस्तशिल्प से प्रभावित होता है। इस दौरान पश्चिमी रंग में ढला अपनी परम्परा से कटा शामनाथ माँ को आदेश देता रहता है-
“माँ हाथ मिलाओ”
“कहो माँ, हौ डू यू डू”
संवेदनहीन शामनाथ को उपहास का केन्द्र बना देता है। परन्तु विडम्बना की स्थिति यह रही कि शामनाथ अपने पश्चिमी अन्धानुकरण से चीफ को आकर्षित नहीं कर पाते वरन् माँ अपने लोकगीतों से सहज ही कर देती है; बरामदा तालियों से गूँज उठता है। अचानक माँ के उपयोगी हो जाने से शामनाथ को अपनी सम्भावनाएँ दिखने लगती हैं। साहब को माँ के द्वारा बनायी गयी फुलकारी पसन्द आती है। माँ के कहने-
“अब मेरी नजर कहाँ है बेटा? बूढ़ी आँखें क्या देखेंगी”?
पर भी शामनाथ माँ की बात काटते हुए, उपेक्षा करते हुए कहता है- “वह जरूर बना देगी।”
माँ की असमर्थता और विवशता के बावजूद शामनाथ की साहब की खुशी चाहिए क्योंकि साहब खुश होंगे तो तरक्की होगी। उसके व्यक्तित्व में संवेदनहीनता व स्वार्थपन का चरम रूप दिखाई देता है। वह अवसरवादिता की साक्षात् मूर्ति है।
दावत के बाद माँ अपनी कोठरी में चली गयीं और अश्रु की नदी में डूब गयी। जब बेटे ने दरवाजा खटखटाया- ‘माँ का दिल बैठ गया, क्या बेटे ने अभी तक क्षमा नहीं किया।’ इससे यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि अपने बेटे (शामनाथ) के घर में ही माँ किस कदर घुट-घुट कर जी रही है। वह इस घुटन से मुक्ति के लिए हरिद्वार जाना चाहती हैं लेकिन शामनाथ अपने बदनामी के डर से व अपने स्वार्थ के लिए- “तुम चली जाओगी तो फुलकारी कौन बनाएगा।”
माँ को नहीं जाने देता। शामनाथ के ऐसे व्यवहार के बावजूद वात्सल्यमयी माँ बेटे की तरक्की देखकर अपनी लाचारी भूल गयीं।
शामनाथ की माँ वात्सल्य की प्रतिमा हैं तो शामनाथ मध्यवर्ग का दुनियादार, महत्वाकांक्षी, चापलूस, प्रदर्शनप्रिय, घोर स्वार्थी, अवसरवादी, दिखावटी, सुसंस्कृत, संवेदनहीन व्यक्ति है। मिस्टर शामनाथ पश्चिमी सभ्यता के रंग में डूबा आधुनिक चरित्र का सूचक है, जिसकी आधुनिकता खोखली है। शामनाथ आधुनिक मध्यवर्गीय-अवसरवादिता, मानवीय मूल्यों के विघटन, पारिवारिक मूल्यों के प्रति बदली अनास्था, आधुनिकता के भोंडें अंधानुकरण की प्रवृत्तियों; परिस्थितियों से उपजा प्रतिनिधि पात्र हैं: जो बड़ी सहजता से हमें अपने इर्द-गिर्द मिल सकता है।
युवा पीढ़ी के लिए, आधुनिक समाज में बूढ़े माता-पिता एक अड़चन के समान लगते हैं। इनके कारण उनके स्टेटस में अन्तर आ जाता है। इसी से परिवार में बुजुर्गों की उपेक्षा की जाती है और बुजुर्ग अपने आप को कोसते रहते हैं। ‘चीफ की दावत’ में शामनाथ व उसकी माँ की यही वस्तुस्थिति है। यह कहानी मनुष्य के स्वार्थी वृत्ति के एक अलग ही रूप को प्रस्तुत करती है। कहानी का नायक शामनाथ चाहता है उसे तरक्की मिले और इसलिए वह अपने चीफ को दावत के लिए बुलाता है। सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए माँ को काम करने के लिए मजबूर कर देता हैं यह कहानी परिवार में बूढ़े लोगों की उपेक्षा पर व्यंग्य करती हुई नई पीढ़ी के यथार्थ को दर्शाती है।
‘चीफ की दावत’ छद्म आधुनिकता के ट्रैजिक तनाव से बुनी कहानी है। इसमें एक प्रकार की क्रूरता है जो बेगानेपन का भाव पैदा करती है…। ‘चीफ की दावत’ में वह (शामनाथ) उसे (माँ को) फटे कपड़े की तरह छिपा देना चाहता है।
मानवीय सम्बन्ध ओर संवेदनाओं को अंकित करने वाली भीष्म साहनी की कहानियों में जीवन मूल्यों को बड़ी सूक्ष्मता और गहराई से चित्रित किया गया है… बिखरते जीवन आदर्श, नैतिक मान्यताओं को उनकी कहानियाँ मुखरित करती है… मानवीय सम्बन्ध आत्मीय न होकर औपचारिक हो गए हैं साथ ही स्वार्थ से संचालित, अवसरवादी भी, भीष्म साहनी के कहानियों के चरित्र इन परिस्थितियों को संवेदनात्मक गहराई के साथ जीवन्त कर देते हैं।
‘भीष्म साहनी’ की कहानियों में लगातार अमानवीय होती जा रही सामाजिक परिस्थितियों के खिलाफ क्षोभ और गुस्सा है… रिश्ते के टूटन व बिखराव को सम्भालने की छटपटाहट है… भारतीय मूल्यों के प्रति निष्ठा है… उनके पात्र इन परिस्थितियों के हिस्सेदार हैं। वे युग-सापेक्ष सामाजिक यथार्थ से जुड़े हुए हैं। उनकी कहानियाँ छद्म आधुनिकता को उजागर करती है। हम इन्कार नहीं कर सकते इस बात से कि जिस दौड़ के हम हिस्से हैं, जिसमें हम बहुत कुछ पाने का दावा कर रहे हैं, उसमें हमने बहुत कुछ गँवा दिया है, बहुत कुछ पीछे छोड़ दिया है। हमने अपनी इन्सानियत ताख पर रख दिया है और एक अमानवीय दुनिया अपने चारों तरफ निर्मित कर दिया है। भीष्म साहनी की कहानियाँ बराबर हमें इस और इंगित करती रही हैं, सजग करती रही हैं। ‘चीफ की दावत’ भी उसी कड़ी का हिस्सा है जो हमें झकझोंरती है और हमसे अपील करती है कि हम रिश्तों की पवित्रता को न भूले, माँ के निस्वार्थ प्रेम को समझे और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को न भूले।
सन्दर्भ –
- कहानी नयी कहानी: नामवर सिंह; लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 18
- भीष्म साहनी की कहानियों में मानवीय सम्बन्ध: डाॅ. संजय गडपायले; शुभम् प्रकाशन, पृष्ठ 8
- भीष्म साहनी व्यक्ति और रचना: (सं.) राजेश्वर सक्सेना, प्रताप ठाकुर, पृष्ठ 93
- कहानी नयी कहानी: नामवर सिंह; लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 25
- हिन्दी गद्य साहित्य: डाॅ. रामचन्द्र तिवारी: विश्वविद्यालय प्रकाशन, पृष्ठ 308
- भीष्म साहनी व्यक्ति और रचना: (सं.) राजेश्वर सक्सेना प्रताप ठाकुर, पृष्ठ 83
- प्रतिनिधि कहानियाँ: भीष्म साहनी, राजकमल पेपरबैक्स, पृष्ठ 15
- वही; पृष्ठ 15
- नयी कहानी सन्दर्भ और प्रकृति: देवीशंकर अवस्थी; राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 69
- प्रतिनिधि कहानियाँ: भीष्म सहनी; राजकमल पेपरबैक्स, पृष्ठ 15
- नयी कहानी नए सवाल: सत्यकाम; अनुपम प्रकाशन, पृष्ठ 101
- प्रतिनिधि कहानियाँ: भीष्म साहनी; राजकमल पेपरबेक्स, पृष्ठ 15
- वही, पृष्ठ 15
- वही, पृष्ठ 16
- वही, पृष्ठ 16
- वही, पृष्ठ 16
- वही, पृष्ठ 17
- वही, पृष्ठ 16
- वही, पृष्ठ 16
- प्रतिनिधि कहानियाँ: भीष्म साहनी; राजकमल पेपरबैक्स, पृष्ठ 17
- वही; पृष्ठ 17
- वही; पृष्ठ 17
- वही; पृष्ठ 18
- कहानी स्वरूप और संवेदना: राजेन्द्र यादव; वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 70
- प्रतिनिधि कहानियाँ: भीष्म साहनी; राजकमल पेपरबैक्स, पृष्ठ 19
- वही; पृष्ठ 21
- वही; पृष्ठ 21
- वही; पृष्ठ 22
- वही; पृष्ठ 22