आज मानव जीवन अनेक विसंगतियों एवं विडम्बनाओं से जूझ रही हैं। एक समय हुआ करता था जब लोग प्रेम, स्नेह, सद्भावना के साथ जीवन यापन किया करते थे। एक दूसरे के सम्मान तथा बढ़ोत्तरी के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने को तैयार रहते थे, परंतु वर्तमान समय बिल्कुल विपरीत हो चुका है। आज प्रेम-सद्भावना की जगह छल-कपट, ईष्या-द्वेष तथा स्वार्थ ने ले लिया है। धार्मिक, सामाजिक, नैतिक मूल्यों एवं मर्यादाओं का ह्रास होता हुआ नजर आ रहा है। स्वार्थ एवं पाखंड के कारण मानव जीवन मूल्यहीन हो चुका है। फलस्वरूप समाज में विश्रृंखलता उत्पन्न हो रही है। परंतु यह भी सत्य है कि जब जब पाप, अत्याचार, अधर्म, शोषण, बर्बरता, हिंसा जैसे सामाजिक बुराईयों ने अपना सिर उठाकर मानवता का शिकार करना चाहा है तब तब उसके सिर को कुचलने के लिए किसी न किसी रूप में महामानवों का आगमन इस पवित्र धरा पर अवश्य हुआ है। त्रेता युग में राम का आगमन इस बात का उत्कृष्ट उदाहरण है। रामकथा में जिस राम का चित्रण किया गया है वे एक मर्यादित व्यक्ति हैं, नैतिकता के पुजारी हैं, धर्म तथा संस्कृति के रक्षक हैं, समस्त मानवीय मूल्यों एवं गुणों के प्रतिष्ठापक हैं, श्रीराम मर्यादापुरूषोत्तम हैं। अत: वे व्यक्ति तथा समाज एवं विश्वमानव के लिए प्रेरणा स्वरूप हैं। समाज में व्याप्त जघन्य समस्याओं को मिटाने हेतु, नैतिकता एवं मानवता की रक्षा हेतु राम एक आदर्श हैं। राम के सद्गुणों, उनके आदर्शो की पावनधारा प्रवाहित करने वाली ‘रामकथा’ ज्ञान की ज्योति जलानेवाली एवं कभी न खत्म होने वाली प्रकाशपुंज है।
‘रामकथा’ एक ऐसा शब्द, जिसे सुनते ही हमारे मन में ‘रामायण’ और ‘रामचरितमानस’ जैसे महाकाव्यों के प्रसंगों की छवि बन उठती हैं। लेकिन इनके अलवा भी बहुतरे ऐसे ग्रंथों का उल्लेख मिलता है जिनका मुख्य विषय रामकथा है। “रामकथा का आधार मूलरूप से वाल्मीकि रामायण ही रही है।” 1 वाल्मीकि रामायण वह केंद्र बिंदु है जिसके ईद-गिर्द समस्त रामकथा सौरमंडल के ग्रहों की तरह घूमती रहती है। तुलसी कृत ‘रामचरितमानस’ जिसे संपूर्ण उत्तर भारत का मेरूदंड कहा जाता है, रामकथा की सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ मानी जाती है।
भारत विविधताओं से भरा एक विशाल देश है जहां विभिन्न प्रांतों एवं राज्यों की अपनी अपनी भाषाएँ तथा सभ्यता-संस्कृति हैं। अलग-अलग प्रांतों की संस्कृतियों की प्रतिछवि रामकथा में देखने को मिलती है। राम-सीता कहीं जनजातीय परिधान में दिखलाये पड़ते हैं, तो कहीं क्षेत्र विशेष की पारम्परिक वस्त्र धारण किए हुए तथा उन क्षेत्रों से सम्बंधित पारंपरिक मान्यताओं का पालन करते हुए दिखलाए देते हैं। उनके रंग-रूप, वेश-भूषा, खान-पान, रहन-सहन, जीवन-शैली आदि में भिन्नता देखने को मिलती है। भले ही अलग-अलग प्रदेशों की सांस्कृतिक प्रभाव के कारण रामकथा में भिन्नता के दर्शन होते हैं किंतु भाव की दॄष्टि से सभी में एक समता ही परिलक्षित होती है। राम हर रामकथा में राजा दशरथ के ही पुत्र हैं, राम सीता के स्वामी तथा लक्ष्मण के बड़े भाई हैं, धर्म के रक्षक तथा प्रजा के हितैषी एवं मर्यादापुरूषोत्तम ही रहे हैं।
आधुनिक युग एक ओर जहां सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के साथ-साथ वैज्ञानिक चिंतन का युग है तो दूसरी ओर वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन मूल्यों के विघटन का भी दौर है। आज मानव विचलित और आतंकित दिखलाई दे रहा है। हर तरफ अनीति तथा अत्याचार का बोलबाला है। आय दिन ऐसी घटनाएँ तथा खबरें सुनने व पढ़ने को मिलती रहती है जिससे दिल दहल उठता है। ऐसे में एक ही सवाल जनमानस के हृदय में शूल बन कर चुभती है कि क्या वर्तमान समय मानवीय मूल्यों के पतन का दौर है? आज चाहे धर्म के नाम पर हो, सामाजिक स्तर पर या पारिवारिक जीवन में सभी नैतिक एवं मानवीय मूल्यों की हत्याएँ नित्य की जा रही है। इसके मूल में है स्वार्थपूर्ति की भावना। मानव स्वार्थ पूर्ति में इतना पागल हो गया है कि उसमें मानवीयता लेशमात्र भी नहीं बची है। समाज का संतुलन बिगड़ चुका है। समाज में संतुलन एवं स्थिरता लाने तथा मानवीय मूल्यों की पुन:स्थापना के लिए आज दरकार है पीछे देखने की अर्थात उन परंपराओं, मान्यताओं, मूल्यों, आदर्शों एवं मर्यादाओं के अनुसरण की, उनसे शिक्षा लेने की, जिनकी स्थापना हमारे पूर्वजों ने समाजिक संतुलन, न्याय, समता की स्थापना के लिए कर गए हैं। यदि चलते समय मार्ग में छोटा सा गड्ढा सामने आ जाए तो वापस लौटने की बजाए उस गड्ढे की सीमा का अनुमान कर कुछ कदम पीछे चलने के बाद दौड़ लगाकर पूरी शक्ति के साथ छलांग मारते हुए गड्ढे को पार कर जाते है, ठीक उसी प्रकार यदि जीवन में कोई समस्या आए, तो हमें अपनी प्राचीन परंपराओं की ओर रूख करनी चाहिए क्योंकि उनमें जीवन की अनेक समस्याओं के समाधान का मंत्र छुपा होता है, जिनसे हमारे टूटे एवं निराश मन को शक्ति मिलती है क्योंकि वे संजीवनी का काम करती है। रामकथा भी उस संजीवनी का भंडार है जिसमें मूल्यों, आदर्शों, मर्यादाओं तथा नैतिकता के एक से एक उदाहरण मौजूद हैं। रामकथा ‘राम’ नाम के एक ऐसे महामानव की गाथा है जो मानवीय मूल्यों एवं गुणों के साक्षातमूर्ति है।
मानवीय मूल्य के परिप्रेक्ष्य में राम
मूल्य, समाज में मानव द्वारा निर्मित कुछ नियमों की श्रृंखला है। समाज में संतुलन कायम रखने के लिए ही मानव द्वारा निर्मित ये मूल्य ‘मानवीय मूल्य’ कहलाते हैं। जब कोइ व्यक्ति इन मूल्यों की कसौटी पर खड़ा उतरता है तभी उसकी मनुष्यता सिद्ध होती है और वह सामाजिक जानवर की श्रेणी से ऊपर उठकर नैतिक एवं मानवीय प्राणी कहलाने का अधिकारी बनता है।
आज समाज की स्थिति विकृत होती चली जा रही है। बाजारवादी एवं पूंजीवादी स्वार्थी दौर ने मानव को मानवीय मूल्यों से कोसों दूर कर दिया है। आज मनुष्य भावनाओं से कम और बुद्धि से अधिक काम लेने लगा है। अपने फायदे के लिए वह जीवन मूल्यों की अवहेलना करने लगा है। जब-जब किसी ने स्वार्थवश जान-बूझकर या फिर अनजाने में ही सही मानवीय मूल्यों की अवहेलना करनी चाही है, समाज में असंतुलन स्थापित करनी चाहा है तब-तब उसे दुख एवं कष्ट के सिवा कुछ नहीं मिला है। आज संपूर्ण मानव समाज विनाश की ओर बढ़ रहा है क्यों ? इसके मूल में है शाश्वत नियमों एवं मूल्यों की अवहेलना। जिसके चलते छल-प्रपंच, हिंसा, घृणा, अनाचार, व्याभिचार, भ्रष्टाचार, शोषण, जातियतावाद, सांप्रदायिकता जैसे समाज तथा राष्ट्र को खोखला करने वाली भावनाएँ उठ रही हैं। मानवीय मूल्यों के अभाव में मनुष्य का चारित्रिक पतन हो रहा है जिसके कारण उसकी भावनाएँ कुत्सित हो रही है और वह जघन्य से जघन्य अपराध को अंजाम दे रहा है।
ऐसे पतनमुखी समाज एवं क्षत-विक्षत होते मानवता की रक्षा हेतु मानवीय मूल्यों जैसे- प्रेम, सम्मान, परोपकार, दान, श्रद्धा, तप आदि की स्थापना की जरूरत है। अत: राम का चरित्र पूर्णत: मानवीय गुणों से परिपूर्ण है। मानव जीवन के प्रति सही आस्था, प्रेम, महत्व आदि उचित मूल्यों का विचार राम के चरित्र से ही मिलते हैं। राम का चरित्र समस्त मानवीय मूल्यों का वहन करते हुए मानव मानव के बीच उचित सम्मान एवं प्रेम मूल्यों को दर्शाती है। रामकथा में इसका स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है। ऐसे अनेक प्रसंग रामकथा में भरे पड़े हैं जो समाज तथा राष्ट्र में मानवीय एवं नैतिक मूल्यों को जीवित रखने में सक्षम है। “राम के जन्म के साथ ही देवताओं में एक संतोष की लहर दौड़ गयी है कि अब संसार से अनैतिकता और अनाचार समाप्त हो जाएगा। ” 2
मर्यादा के परिप्रेक्ष्य में राम
‘मर्यादा’ कहने को एक छोटा सा शब्द है किंतु मानव जीवन का संपूर्ण आदर्श इससे जुड़ा हुआ है। समाज में संतुलन बनाए रखने के लिए हर रिश्तों की एक मर्यादा निर्धारित की गई है। आज चिंता का विषय है कि ध्वस्त होती मर्यादाओं के कारण समाज दयनीय स्थिति से गुजर रही है। अहंकार, लालच से लबरेज आज का मानव मर्यादा की हर सीमा लांघ चुका है। रिश्तों के मायने खत्म होता हुआ दिखलाई दे रहा है, बडों का सम्मान तथा शिष्टाचार की सीमा को तोड़ते हुए मर्यादाहीन जीवन ढोने को तल्लीन है।
राम का जीवन वर्तमान मानव के लिए अनुकरणीय है क्योंकि राम अनेक मर्यादित गुणों से परिपूर्ण हैं, जिसका उल्लेख रामकथा में मिलता है। बचपन से लेकर जीवन के अंतिम समय तक कहीं भी उन्होंने धर्म तथा मर्यादा का उल्लंघन किया हो, ऐसा देखने को नहीं मिलता है। विचारों तथा व्यवहारों में कहीं भी उन्होंने मर्यादा नहीं छोड़ी। यही कारण है कि उन्हें ‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’ कहा जाता है। “मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने अपने माता की बातों का मान रखते हुए वनवास जाने का निर्णय लिया और अपने माता-पिता की बातों को न काटते हुए अपना विचार नहीं रखा, यह मर्यादा है। ” 3
आदर्श के परिप्रेक्ष्य में राम
‘रामकथा’ विश्वमानव के हृदय को छूती है, इसलिए नहीं कि यह एक सांस्कृतिक धरोहर है, बल्कि इसलिए कि इसमें एक आदर्श जीवन के दर्शन मिलते हैं। चाहे विद्यार्थी जीवन के गुरू-शिष्य, पिता-पुत्र, माता-पुत्र, पति-पत्नी, स्वामी-सेवक, राजा-प्रजा अथवा भाई-भाई आदि सभी रिश्तों में सर्वत्र राम के द्वारा एक ही नियमित आदर्श जीवन-दर्शन ही दिखलाई देता है। राम के लिए माता-पिता के वचन क्या मायने रखते हैं यह उनके द्वारा सारे सुख-वैभव को ठुकराकर वनगमन का प्रसंग एक उत्कृष्ट उदाहरण है। लक्ष्मण भी बड़े भाई की सेवा का मार्ग चुनते हुए एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। राम-लक्ष्मण दोनों भाईयों का प्रेम ऐसा है मानो दो अलग-अलग देह जरूर है पर उनकी आत्मा एक है। एक शिष्य के रूप में भी राम ने सदैव गुरू के आज्ञा का सम्मान किया है। मित्रता निभाते हुए कभी भी उन्होंने मित्र पर संदेह व संकोच की भावना नहीं रखी, चाहे शत्रु का भाई ही क्यों न हो। “जब सेना के नेतृत्व की बात आती है तो कहीं भी वे स्वामित्व अथवा आधिपत्य जमाने का भाव नहीं आने देते। वे उनको संगठित कर स्वावलम्बी बनाते हैं और उनमें उनके कौशल का श्रेष्ठ जागृत करते हैं।” 4
अधिकर मिलते ही क्षमता का दुरूपयोग करना वर्तमान समय में मानव की नियति बन चुकी है। राम अयोध्यापति होते हुए भी अपने जीवन में कभी राजधर्म व राजशक्ति का दुरूपयोग नहीं किया। “राज-धर्म में तो वे एक ऐसा मापदंड निर्धारित करते है कि आज भी शासक राम-राज्य को ही आदर्श लक्ष्य मानते हैं।” 5 पद का मोह, धन की लोलुप्ता से वर्तमान मानव बच नहीं पाया है खासकर सत्तावर्ग । त्याग, बलिदान की भावना लेशमात्र भी उनमें दिखलाई नहीं पड़ती है। “वसंत के आगमन के समय जब सारी वन-स्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार जमाने का रूख नहीं पहचानते और जब तक नयी पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।” 6 द्विवेदीजी की ये पंक्तियाँ उन भ्रष्ट नेताओं की पोल खोलती है जो सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं। राम ने एक समय स्वयं कहा है “अब वह समय आ गया जब अगली पीढ़ी को राज संभाल लेना चाहिए, हम सबों को समय भी तो बहुत हो गया।” 7 राम एक उदार, परोपकारी राजा थे, जिन्होंने कभी किसी राज्य पर शासन नहीं किया, बल्कि प्रजा के हृदय पर राज किया। लंका जीतकर विभीषण को सौंपना तथा किष्किंधा विजय के बाद सुग्रीव को राजा बनाना श्रीराम के स्वभाव की उदारता को ही दर्शाती है। “तुलसी के राम एक ऐसे राजा का आदर्श प्रस्तुत करते हैं जो परम उदार है, पर दुख कातर है, प्रजा वत्सल है, बिना कुछ लिए ही दीनों के प्रति सहानुभूति दिखाते हैं, उनका उद्धार करते हैं। शासक के रूप में ऐसे राजा की अनिवार्यता हर युग को रहेगी।” 8
पारिवारिक संदर्भ में भी रामकथा एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है। आज की नयी पीढ़ी एकांगी जीवन में ही सुख का अनुभव कर रहा है। पारिवारिक विघटन के कारण संयुक्त परिवार की धारणा बिल्कुल सिमटकर रह गई है। परिवारों के टूटने के कारण नयी पीढ़ी के लोग पारिवारिक संबंधों तथा संस्कारों से पिछड़ती चली जा रही है। “आज परिवारों में संस्कारों का ह्रास होता जा रहा है। समाज संस्कृति से dooर हो रहा है। संस्कारों के अभाव में वृद्ध माता-पिता को बोझ मानकर संतानें उनके साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार कर रही है। जिसके मूल में हमारा धर्म से विमुख होना है। रामायण मानवमात्र को धर्ममय, मर्यादित, संस्कारवान जीवन जीना सिखाती है।” 9 रामकथा में जितने भी रिश्तों का उल्लेख मिलता है जैसे माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र, भाई, बंधु, सास-बहु, सेवक-स्वामी आदि सभी विषम परिस्थितियों में तप कर ही खरे उतरे हैं। “आज जब रिश्तों में बिखराव आ गया है और व्यक्ति अकेलेपन की यातनाओं से जूझ रहा है तब वे रिश्ते और भी महत्वपूर्ण हो उठते हैं।” 10 रामकथा में उल्लेखित हर एक चरित्र आदर्शनीय है, बशर्ते सकारात्मक सोच के साथ उन्हें समझें, उनसे शिक्षा ग्रहण करें और उनके जीवन आदर्शों को अंगीकार कर समाज के विकास एवं उन्नति में भागीदर बनें।
निष्कर्ष
‘रामकथा’ जनमानस को सदैव प्रभावित करनेवाली एक पावनधारा है। भारतीय समाज में इसका विशिष्ट स्थान है। यह ज्ञान का अक्षय भंडार है। यह सत्य है पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों ने लीला के रूप में रामायण (रामकथा) को बार-बार जिया है और उससे मिलने वाले मूल्यों और संस्कारों को नवीकृत करते हुए अपनाया भी है। राम के महान चरित्र का अनुसरण करते हुए मानव समाज मानव सेवा का मार्ग अपना सकता है, देश तथा विश्वभर में समन्वय की भावना स्थापित कर सकता है। परन्तु चिंता की बात यह है कि ‘राम’ नाम का जयकारा लगाना एक फैशन बनता जा रहा है। “तुलसी जी बोले- हिंदु धर्म संकट में नहीं है, तुम लोगों का स्वार्थ ही संकट में है। प्रभु राम की ओट में स्वार्थ है। कुर्सी का स्वार्थ है। इसलिए तुम्हें श्रीराम का ‘ओट’ लेना पड़ा है। सच कहने से घबड़ाते हो। पर इतना जान लो श्रीराम की मर्यादा तक इस तरह तुम लोग नहीं पहुंच सकते। प्रभु श्रीराम ‘वोट’ के नहीं ‘प्रेम’ क़े भुखे हैं।” 11 राम को किसी भी एक धर्म से जोड़कर देखना एक संकुचित सोच होगी, बल्कि राम को मानव धर्म के साथ जोड़ा जाना चहिए। अंतत: यह कह सकते हैं कि रामकथा की वजह से ही राम हमारे रोम-रोम में बसते हैं। आज अगर समाज में मानवीय मूल्यों, मर्यादाओं तथा आदर्शों को जीवित रखना हैं तो रामकथा से बढ़कर कोई सुरक्षा कवच नहीं है।
संदर्भ सूची –
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२. युग पुरूषराम, अक्षय कुमार जैन, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, 1973, पृ. 144
3. http://gyanapp.in, मर्यादा क्या होती है, अर्जुन प्रसाद
4. www.pragyata.com , मर्यादा पुरूषोत्तम राम, by Anju Juneja, posted on 14 march 2018
5. वही
6. युग पुरूषराम, अक्षय कुमार जैन, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, 1973, पृ. 198
7. शिरीष के फूल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, आरोह (भाग-2), पृ. 146
8. तुलसी का रामराज्य और वर्तमान में उसकी प्रांसगिकता, डॉ. संजीव कुमार, अभिव्यक्ति, 19 मार्च 2012
9. दैनिक भास्कर, 13/02/2017, www.dainikbhaskar.com
10. हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, बच्चन सिंह, राधाकॄष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ. 144
11. गद्य कथा आलोक, डॉ. अलख निरंजन सहाय, महावीर पब्लिकेशन, डिब्रूगढ़, 2010, पृ. 58