गोस्वामी तुलसीदास भारतीय मनीषा की श्रेष्ठ उपलब्धि के रूप में सदियों से ख्यात रहे हैं। समस्त भारतीय भाषाओं में तुलसी सदृश प्रतिभा विरल है। उनका काव्य शक्तिमत्ता, सूक्ष्म निरीक्षण की निष्ठा तथा जीवन दर्शन की व्यापकता से अनुप्राणित है। तुलसी की रचनात्मकता मानव जीवन में सनातन और स्थायी मूल्यों के निरूपण में निहित है। तुलसी की कविता समन्वय की संस्कृति का प्रतिरूप है। कवित्व, आदर्श और सामाजिक जागरुकता — इन सभी दृष्टियों से तुलसी भारतीय साहित्य के अप्रतिम कवि सिद्ध होते हैं। यूँ कविता उनके लिए साधन है, साध्य है रामभक्ति।
शोधोपरांत विद्वानों ने तुलसीदास विरचित 40 ग्रंथों का निर्धारण किया है और नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्ट के आधार पर तुलसी की 37 कृतियों के नाम मिलते हैं, पर डाॅ. ग्रियर्सन और पंडित रामगुलाम द्विवेदी ने तुलसी द्वारा रचित मात्र 12 ग्रंथों को ही प्रामाणिक माना है — रामचरितमानस, विनय पत्रिका, गीतावली, कृष्ण गीतावली, कवितावली, दोहावली, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, रामाज्ञाप्रश्न, रामललानहछू, वैराग्य संदीपनी और बरवै रामायण।1
तुलसीदास द्वारा रचित इन सभी ग्रंथों में जीवन में श्रेष्ठता, गुणवत्ता और महत्ता की दृष्टि से जो कुछ भी आवश्यक व उपयोगी है, उसे सूक्ष्म रूप में चित्रित किया गया है। तुलसी की रचनाएँ वस्तुतः गहरे आत्म-मंथन से निःसृत है। यहाँ दैन्यता एवं आत्मनिरीहता के साथ निर्णय का अद्भुत विवेक दिखता है। मानव मूल्यों की एक लंबी सूची है, राम के पावन चरित्र में। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, प्रेम, करुणा, सत्य निष्ठा, शरणागत वत्सलता, दया, स्नेह के मूर्तिमंत प्रतीक हैं। ये गुण उनके चरित्र की पूँजी और भारतीय संस्कृति की विरासत हैं। तुलसी ने प्रस्तावित किया कि इस परमात्मा को प्रेम के द्वारा पाया जा सकता है — हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम तें प्रकट होहिं मैं जाना।2 महात्मा गांधी ने सत्य को ईश्वर माना, उसी प्रकार तुलसी ने प्रेम को ईश्वर माना और वह प्रेम ही सत्य है, अलौकिक है। अतः राम ही जीवन मूल्य हैं आर उन्हें पाने के लिए भक्त पवित्र प्रेम को माध्यम बना सकता हैै।
गोस्वामी तुलसीदास की कविता सृजनशीलता की वह कालजयी शिष्ट दृष्टि है, जिसने मनुष्य जीवन की समग्रता को अंतःसूत्रित किया। तुलसी काव्य में निहित धर्म दृष्टि अपने संपूर्ण दर्शन और काव्यात्मकता की वैष्णवता के द्वारा मानवीय जगत के चिंतन और व्यवहार का अविभाज्य अंग बनी। निस्संदेह तुलसी की कविता हमारे समय के महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक अनुभवों में से एक है।
तुलसीदास की काव्य सृष्टि में भारतीय धर्म-साधना और संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ आयाम स्वतः सुरक्षित हो गए। तुलसी साहित्य में संपूर्ण संस्कृति के समन्वय से एक नई ऊर्जा विकीर्ण हुई। हमारे सदियों के जीवनानुभवों का एक भरा-पूरा संसार जीवन के पुनर्भाष्य के रूप में आलोकित हो उठा। वस्तुतः तुलसी की कविता-विधि और जीवन-विधि में कोई पार्थक्य नहीं मिलता। उनकी विनम्रता और दृढ़ता में कोई विपर्यय नहीं है। इसी तरह उनकी सहजता और साहसिकता मंे मौजूद अविरोध महत्वपूर्ण हैं। तुलसी को हम जब भी पढ़़़ते-गुनते हैं तो बिना असर के अपनी चेतना में तुरंत लौट आएँ, ऐसा हो ही नहीं सकता। सवाल उठता है कि तुलसी के कवित्व में अंतर्निहित वह कौन-सा अदभुत असकारक रसायन है? तुलसी की कविता से वैश्विक स्तर पर पाठकों की बहुत गहरी आंतरिकता निर्मित होने की आखिर क्या वजह हो सकती है? धर्मबोध, मूल्यबोध, लोक विश्वास, आत्म पीड़ा, स्वांतःसुखाय, सत्यनिष्ठा, करुणा, अपार-अगाध प्रेम, चरम भक्ति, गहन समर्पण या यह सब कुछ और इन सबको एकीभूत करता मनुष्यतर होने की बड़ी उम्मीद।
वस्तुतः तुलसी की कविता में यथार्थ की ठोस भौतिक स्थितियाँ और विचार-निर्मितियाँ मौजूद हैं। लोककथा, लोक स्वभाव, लोक नीति, लोक धर्म, लोक मर्म से तुलसी ने अपने कवित्व का जीवत्व ग्रहण किया। संपूर्ण तुलसी साहित्य में लोक का जितना आत्मीय उजास और उसके स्वाभाविक आह्लाद की उदात्तता मौजूद है, उसकी तुलसी में भक्ति की शास्त्रीयता, दार्शनिकता और विचार-सरणियों की उपस्थिति बहुत कम है। तुलसी की कविता में मौजूद लोक का स्वर बड़ा प्रखर, प्रामाणिक, गहरा और मार्मिक है। लोक बुद्धि और भक्ति बुद्धि की यहाँ निरंतर आवाजाही है, फलतः लोकानुभव और आध्यात्मिक अनुभव के भीतर आत्म विसर्जन और आत्मलब्धि का भेद ही मिट जाता है। भक्ति का प्रयोजन और काव्य का प्रयोजन एक हो उठता है। कवि आत्मबोध खो कर अपना कवि सत्य प्राप्त करता है। कवि कर्म का यही यथार्थ है — कवि का चरम सत्य और अभेद की साधना। रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार, ‘‘संस्कृत को छोड़कर फिर संस्कृत की शास्त्रीय परंपरा का निर्वाह किस तरह हो सकता है, तुलसी का काव्य इसका बढि़या उदाहरण है। शास्त्रीयता को लोक-गाह्य कैसे बनाया जाए, यह तुलसी की मुख्य रचना समस्या है, जिसमें वे हर दृष्टि से सफल हुए हैं। ‘भाखा’ में काव्य-रचना करके वे लोक में प्रिय होते हैं और शास्त्रीय मर्यादा का निर्वाह करके क्रमशः पंडितों में। प्रबंध और मुक्तक, मुक्तक की विविध शैलियाँ, काव्यभाषा में दोनों प्रमुख आधार-अवधी और बृजभाषा, संस्कृत के प्रति आरंभिक श्लोकों की रचना करके सम्मान-प्रदर्शन और फिर भाखा में रचना, जिसमें संस्कृत की यथावश्यक मिलावट रहे, वर्णाश्रम व्यवस्था के प्रति पूरा सम्मान पर उसके लिए कट्टरता नहीं, सगुण में आस्था किंतु निर्गुण-सगुण के अभेद पर बल-सांस्कृतिक संकट के ऐसे सघन समय भी तुलसी की जैसी भरपूर व्यवस्था अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकती।’’3
ऐसा लगता है कि तुलसी ने अपनी कविता में अपने जीवनकर्म का, अपने लौकिक और लोकोत्तर विश्वासों का बड़ा ही प्रामाणिक अनुवाद किया है। इसीलिए तुलसी के कवित्व में कवि का जीवन और उसके समग्र सृष्टि बोध का विस्तार समाहित है। कवि का अस्तित्व बोध दिक्-काल निरपेक्ष अनंत चेतना से स्वतः ही जुड़ जाता है। फलतः तुलसी का कवि-कर्म इस सृष्टि के मूलभूत एकत्व की ओर सहज ही लक्षित और उन्मुख है और उनकी चेतना मुक्तिकामी, समताधर्मी और जनतांत्रिक है।
डाॅ. नामवर सिंह ने लिखा है कि ‘‘राजसत्ता भक्तों के लिए सर्वथा उपेक्षा की वस्तु थी — उसके प्रति भक्तों के मन में न तो किसी प्रकार की भक्ति का भाव था न विरोध का।’’ पर भक्त कवियों ने सत्ता की अधीनता स्वीकार न करते हुए सत्य और मानव मूल्यों की अधीनता स्वीकार की। इसलिए पूरा भक्ति साहित्य शब्द की सत्ता के साथ मौजूद है। क्या यह असाधारण साहित्यिक प्रतिभा और अपूर्व निर्भीकता का प्रमाण नहीं है कि तुलसीदास अकबर की संस्कृति के समानांतर राम-राज्य की संस्कृति की प्रस्तावना करते हैं। तुलसी जब यह कहते हैं कि —
जासु राजु प्रिय प्रजा दुखारी।
सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।4
तो यहाँ साहित्य सत्ता का धर्म तय करता है और राजनीति के कुचक्र को तोड़ता है। तुलसी कभी भी नर के मनसबदार होना कबूल नहीं करते।
सारे संसार में मानव मूल्य और सांस्कृतिक विरासत के विकास हेतु ही तुलसीदास ‘राम राज्य’ की प्रस्तावना करते हैं और उसी आकांक्षा को आधुनिक युग में गांधी के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। वस्तुतः ‘राम राज्य’ एक कवि की कोरी कल्पना नहीं थी, न ही एक राजा की व्यक्तिगत शासन व्यवस्था। बल्कि ‘राम राज्य’ नीतिशास्त्र है, शासन शास्त्र है, लोकतंत्र का नीति निर्देशक सिद्धांत है। राम एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनमें पूरा लोक समाया हुआ था। लोकाराधन उनका अभीष्ट मंत्र था, लोकरंजन और लोकसंग्रह उनका उद्देश्य था। राम-कथा इसका साक्ष्य है कि राम का राजतंत्र वास्तविक गणतंत्र का द्योतक था। सत्ता कैसे दीर्घजीवी हो, ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता पर किस तरह काबिज रहा जा सकता है — आज सारे संसार में यह कुप्रवृत्ति दृष्टिगत हो रही है, पर राम राज्य में कुर्सी की लालसा किसी भी भाई में नहीं दिखाई देती। इसी तरह, राम राज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से प्रजा तापित नहीं थी। लोग सवाल उठाते हैं कि जब हमारा शरीर आधि-व्याधि का घर बताया जाता है तो यह कैसे संभव हो सकता है —
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।
सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।5
वस्तुतः आज भी यदि व्यक्ति का खान-पान, रहन-सहन, सोच-विचार, भाषा-भूषा संतुलित हो तो यथासंभव रोगों से बचाव हो सकता है। राम राज्य में पर्यावरणीय संतुलन, संयमित जीवन, नियमित चर्या और मर्यादित चिंतन की संस्कृति थी। परहित सबसे बड़ा धर्म और परपीड़ा सबसे बड़ा पाप है — यह भावना जन-जन को स्वीकार्य थी —
परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।6
फलतः भोगजन्य रोगों से दूरी और मानसिक विकृतियों से बचाव कोई चमत्कार नहीं था। राम राज्य में चतुर्दिक समृद्धि थी। वैर-भाव का अभाव था। धर्म अपने चारों चरण-सत्य, सेवा, दान, दया के साथ रक्षित था और यह सब राम जैसे लोक हितकारी राजा के शील एवं धर्माचरण का सहज सुफल था।
राम-राज्य की आत्मा लोकतंत्रात्मक थी। राज्य के सारे निर्णय सामूहिक सहभागिता से लिए जाते थे। मंत्रियों, गुरुओं, सुहृदों की सलाह से शासन का कार्य-व्यापार निष्कंटक चला करता था। वनवास के दौरान भी राम ने हमेशा सुग्रीव, अंगद, हनुमान, विभीषण, लक्ष्मण से न केवल परामर्श लिया, बल्कि निर्णय की प्रक्रिया में उनके सुचिंतित पक्ष को प्रमुखता दी। राम ने राजा को तानाशाह नहीं, लोकनिष्ठ बनाया और मंत्रियों, भाइयों, गुरुओं से निवेदन किया कि अनीति के पथ से मुझे विरत करने हेतु रोकने में कभी संकोच न करें —
जौं अनीति कछु भाषौं भाई।
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।7
राम-राज्य में सबको जोड़ा गया। कोल-किरात, भील-आदिवासी सभी की प्रतिभा को प्रतिष्ठित करने और हाशिए को हमेशा ही पाटने की संस्कृति पोषित हुई। फलतः कोई विषमता नहीं रही — ‘‘राम प्रताप विषमता खोई।’’8
इस तरह, राम-राज्य के पूरे वर्णन में तुलसी के सांस्कृतिक व्यक्तित्व की झलक मिलती है। तुलसी ने अपने समय के प्रचलित सभी मतों, संप्रदायों और मान्यताओं के समन्वयन द्वारा राजनीतिक संस्कृति को राम-राज्य में बदल दिया। श्रीराम उनके इस लोक मत के एकमात्र अग्रणी पुरुष बने। सामाजिक संस्कृति के अंतर्गत तुलसी ने सर्वप्रथम पारिवारिक संस्कृति के पारस्परिक संबंधों का परिष्कार कर आदर्श रूप प्रदान किया। भाई-भाई के बीच, पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी, राजा-प्रजा के मध्य संबंधों की जो आत्मीयता और परस्पर विश्वास की श्रेष्ठ स्थिति सोची जा सकती है, उसे तुलसी ने व्यावहारिक रूप में प्रकट कर सारे संसार के समक्ष मानव मूल्यों और सांस्कृतिक गरिमा की परमोज्ज्वलता प्रमाणित की।
तुलसी की कविता इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसने समाज की चिंतनधारा पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। तुलसी ने व्यापक मानवीय जीवन के आधार पर धर्म भावना को प्रतिष्ठित किया और अपने अनुभव का बहुलांश ईश्वर विषयक चिंता और मनुष्य की व्यापकता के परिप्रेक्ष्य में उपस्थित किया। तुलसी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के ऊपर राम पद प्रीति को ही जीवन मूल्य मानते हैं —
अरथ न धर्म न काम रुचि, गति न चहऊँ निरवान।
जनम जनम रति राम पद, यह वरदान न आन।।9
राम व्यक्ति चरित्र नहीं, मूल्य चरित्र हैं। मानव मूल्यों के समग्र-साकार विग्रह हैं। तुलसी की कविता सभी की चिंता को लेकर रचित है। यद्यपि उनका काव्य ‘स्वांतः सुखाय’ की प्रतिज्ञा को लेकर लिखा गया, पर उनके ‘स्व’ में ‘पर’ भी पूरी तरह समाहित है। कवि की मान्यता कितनी उदात्त है —
कीरति भनिति भूति भली सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।10
अर्थात् कीर्ति, कविता और संपत्ति वही उत्तम है, जो गंगा की तरह सभी का हित करने वाली हो। इस कसौटी पर तुलसी की कविता एकदम सही उतरती है। इस तरह सारे संसार के लिए मानव मूल्यों एवं सांस्कृतिक चेतना का स्वत्व एक विरासत के रूप में तुलसी काव्य में अंतर्भूत है।
संदर्भ –
- तुलसीदास और उनका साहित्य, डाॅ. विमल कुमार जैन, पृ. 38
- रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, बालकांड-184-5,
- हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृ. 56
- रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, अयोध्याकांड-71-2
- रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, उत्तरकांड-21-3
- रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, उत्तरकांड-41-1
- रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, उत्तरकांड-43-3
- रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, उत्तरकांड-20-4
- रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, अयोध्याकांड-204
- रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, बालकांड-14-5