वैश्वीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो नवउदारवादी ताकतों के द्वारा विकासशील मुल्कों के विकास के नाम पर अपने लाभ को हासिल और निरंतर बनाये रखने की व्यवस्था करता है | इसलिए इस दौर में उन तमाम माध्यमों और साधनों पर प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष रूप से एकाधिकार कने की कोशिशें शुरु हुई | भाषा और मिडिया भी उन्हीं में से हैं | भाषा चुकी सबसे मजबूत माध्यम है इसलिए उसे निशाना बनाया गया | सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाने के लिए भाषा को आधार बनाना भी उन्हीं में से एक है | मीडिया का लगभग हर माध्यम अपनेअपने स्तर पर महत्वपूर्ण प्रभावकरी हैं इसलिए इनको चुना गया | नोम चोमस्की, रेमंड्स विलियम, प्रभाष जोशी, प्रंजय गुहा ठाकुरता आदि ऐसे अनेक नाम हैं विदेशों से लेकर भारत  तक इस संदर्भ में बहस और विमर्श को जमीन देने का काम किया | भारत जैसे विकासशील, बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश के संदर्भ में इनको लेकर बहुत ही महत्वपूर्ण बहस और शोध की आवश्यकता है | भारत का जन मानस अपने शुरुआती दिनों से ही सत्ता के प्रति प्रायः समर्पण का भाव रखती है जब तक कि कुछ असह्य न हो जाए | साथ ही लोकतंत्र की स्वघोषित पैरोकार समकालीन मीडिया आज के भूमंडलीकृत नई विश्वव्यवस्था में सरकार और समाज के बीच की कड़ी वाली अपनी वास्तविक भूमिका से सरक कर ‘सरकारबाजमीडिया’ बन चुकी है  विकास और राष्ट्र के नाम पर उपजे मौसमी पक्षकारों की जमात के पैन्तारावाजी से जनता बस ‘सक्रियमूकदर्शक’ बनाई जा रही है !

अस्सी  के दशक के  बाद कई अखबारों के मालिकों की अगली पीढ़ी जो विदेशों में मैनेजमेंट पढ़ करआई थी, ने अखबारों के दफ्तर स्वयं संभाल लिए। वे जानते थे कि भारत में पत्रकारिता एकउभरता और पैसा कमाने की असीम सम्भावनाएँ रखने वाला व्यवसाय है। इसलिए पैसे की उगाहीको बढ़ाने और मुनाफों को कई गुणा बढ़ाने के लिए उन्होंने भारत की पत्रकारिता के ढ़ांचे में बड़ेबदलाव कर डाले। जिसने पत्रकारिता को न केवल पूर्ण व्यवसाय या उद्योग में बदल दिया बल्किउसकी वास्तविक प्रतिष्ठा और परिभाषा को भी बदल डाला। यहाँ पत्रकारिता के मिशनरी कर्म केएजेण्डा को तिलांजलि दे दी गई। पत्रकारिता की विरासत को इन नए दिग्गजों ने आखिरी सलामकिया और उसकी ओर पीठ करके खड़े हो गए। क्योंकि उद्योग और मिशन साथ-साथ नहीं चलसकते। उद्योग तो मुनाफा कमाने की भावना है और मिशन खुद को लुटाने की। अब पत्रकारिता कोनाक की सीध में आगे बढ़ना था और यहीं से आगे बढ़ने की एक नई दिषा की दौड़ चल पड़ी।पिछले बीस वर्षों में वैश्वीकरण और उदारीकरण के माध्यम से जो विदशी बहुराष्ट्रीयकम्पनियां भारत में पधारी हैं, उन्हें अपने माल को बेचने के लिए विज्ञापन पर अच्छा खासा खर्चकरना पड़ता है। जिसका सीधा फायदा मीडिया कम्पनियों और अखबारों को मिलता है। जिसउपभोक्तावादी संस्कृति को ये कम्पनियां अपने साथ लाई हैं, उसका उनके उत्पादों के साथनाभि-नाल का सम्बन्ध है। इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पादों को बेचने और उनके लिएसकारात्मक माहौल बनाने के लिए जनसंचार माध्यम ही औजार बन सकते हैं और बन रहे हैं।

टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम भी इन्हीं उत्पादों की संगति के हैं और अखबारोंके समाचार भी। विज्ञापनों का बड़ा कारोबार इस प्रकार फल-फूल रहा है। विज्ञापन की महत्ता कोये अनुभवी – ‘खायी-खेली’ हुई कम्पनियां खूब अच्छी तरह जानती और समझती हैं। अतःविज्ञापन पर ढेरों पैसा लगाने में इन्हें जरा भी गुरेज नहीं है। विज्ञापन दर्षक की मानसिकता कोन केवल अपने पक्ष में बनाते हैं बल्कि दूसरे के पक्ष से विमुख करने, किसी नई चीज़ के प्रतिस्वीकारोक्ति बनाने, नई-नई चीज़ों के प्रयोग के लिए आकर्षित करने जैसे काम करते हैं। यहजनता के बड़े निर्णयों को भी प्रभावित करते हैं। विज्ञापन वस्तु के बाजार के लिए अनिवार्य शर्तबन चुके है। आज वही चीज बिकेगी जो विज्ञापित होगी।इसलिए हर बड़ी-छोटी कम्पनी अपने उत्पाद का विज्ञापन करती है और फलतः अखबारों औरटेलीविजन चैनलों और रेडियो को इसके लिए मोटी रकम भी चुकाती है। पिछले कुछ सालों की विभिन्नसमाचार या संचार माध्यमो में विज्ञापनों के कारोबार का बढ़ता दायरा कुछ हद तक हमें चौंका देने वाला है

2009 में भारतीय विज्ञापन कारोबार 22,000 करोड़ रुपए का था। जो कि 2015 तक42,600 करोड़ रुपए तक पहुंच जाने का अनुमान है। टेलीविजन ने 2009 में साढे आठ करोड़रुपये का विज्ञापन का कारोबार किया है जो अगले पांच वर्षों में 18,150 करोड़ रुपये तक पहुंचनेकी उम्मीद है। वहीं प्रिंट मीडिया का 2015 में 10,300 करोड़ रुपये का विज्ञापन का बाजार थाजो 2020 तक 20 हजार 640 करोड़ तक पहुंचने की उम्मीद है।

विज्ञापन का बोलबाला

विज्ञापन आज बिक्री की अनिवार्य शर्त है। यदि विज्ञापन होगा तो ही बिक्री होगी अन्यथालोगों को उस वस्तु से न तो परिचित करवाया जा सकता है और न ही वस्तु को खरीदने के लिएमानसिक रूप से तैयार किया जा सकता। अतः जिस प्रकार कम्पनियां मांग बढ़ाने के लिए विज्ञापनपर खर्च करती है और विज्ञापन पर निर्भर करती है। उसी प्रकार मीडिया विज्ञापन से होने वालीबड़ी आय के कारण विज्ञापनों पर निर्भर करने लगा है।विज्ञापन का इतना बड़ा कारोबार विदेषी पूंजी के आगमन से ही संभव हुआ है।उत्तर-उदारीकरण के दौर में इक्का-दुक्का बड़े औद्योगिक समूहों को छोड़कर भारतीय मीडियाउद्योग जहाँ असंगठित, निजी पारिवारिक स्वामित्व वाले लघु या मंझोले कारोबार की तरह था। वहींउदारीकरण के साथ आयी बड़ी विदेषी पूंजी ने इसे एक संगठित, बड़े और पूरी तरह कारपोरेटउद्योग में तबदील कर दिया है।विज्ञापन से इन मीडिया समूहों की आमदनी इतनी है कि आज ये मुफ्रत में अखबार बांटकर या जितनी चाहे उतनी कीमतें घटा कर भी अखबार चलाने का धंधा कर सकते हैं। वे‘प्राइसवार’ के लिए सक्षम हैं। वे किसी छोटे या नए अखबार को न पनपने देने में सक्षम हैं।इतनी बड़ी आमदनी और मुनाफे के मद्देनज़र अखबार के सांस्थानिक ढांचे में कईमहत्त्वपूर्ण फेर बदल किए गए। कोई भी चीज जो विज्ञापन, विज्ञापन दाताओं और मीडिया समूहोंके बीच आई उसे बदल दिया गया है। कोई भी अड़चन जो मुनाफे के रास्ते में आती दिखी उसेहटा दिया गया। अखबारों को इस नई बड़ी पूंजी के लायक बनाया गया है, और एक ब्रांड बनादिया गया है।आज अखबारों के दफ्तर पुरानी टूटी-फूटी मेज-कुर्सियों वाले नहीं बल्कि शीषे जड़ी इमारतेहैं। जिनमें चमचमाता फर्नीचर है। केबिन्स हैं और कम्पयूटरीकृत माहौल है। जिनकी कमानमैनेजमेंट जानने वाले कुषल चीफ एग्ज़ीक्यूट्विस और मैनेजिंग डायरेक्टरस के हाथों में हैं।बड़ी पूंजी के आगमन ने ही इस ऐतिहासिक घटना को अंजाम दिया है जिसके तहत आजहम देखते हैं कि भारतीय मीडिया एक कारपोरेट बन गया है। अब यह विषुद्ध व्यापार और उद्योगहै। बाजार के साथ सुर से सुर मिलाकर चल रहा है तथा विषुद्ध बाजार के कोण से ही खबरोंको छापता है।ब्रांड मैनेजर और मैनेजिंग डायरैक्टर समय-समय पर उप-सम्पादकों, सह सम्पादकों औरपत्रकारों के साथ मीटिंग करके

आज अखबारों के विभिन्न कम्पनियों के साथ प्राइवेट ट्रीटी के समझौते हैं। किसी के सौके साथ किसी के दो सौ के साथ। ऐसे में विषयवस्तु का क्या हाल होगा। समस्या तो पत्रकारोंके लिए है, क्यूंकि वे ऐसे किसी उत्पाद के बाजार में नकारात्मक प्रभाव को उजागर नहीं कर सकेंगेंजिसके साथ उनके अखबार की प्राइवेट ट्रीटी है। यहाँ पी. साइनाथ का यह सवाल वाजिब है कि‘‘जो अखबार 240 कम्पनियों का आंषिक हिस्सेदार बन चुका है, तो क्या वह अखबार रह भीजाता है। या फिर एक इक्विटी फर्म में तबदील हो जाता है ? 240 कम्पनियों में शेयर मामूलीबात नहीं हैकृ… यह संयोग नहीं है कि अगर आप भारतीय मीडिया कम्पनियों में स्वामित्व औरहिस्सेदारी के पैटर्न को तलाषने चलें, तो निष्चित तौर पर आप पागल हो जाएंगे।यह प्रवृत्तिआज किसी एक अखबार की नहीं है बल्कि एक आम प्रवृत्ति बन चुकी है।

इसे ”बेन बैगडिकियनने अपनी पुस्तक मीडिया मोनोपली में ‘कॉरपोरेट इनसेस्ट’ (निकट के संबंधियों के बीच व्याभिचार)के भीतर कॉरपोरेट इनसेस्ट कहा है।पी.साइनाथ इसे मीडिया की झूठ बोलने की और झूठलिखने की सरंचनागत बाध्यता कहते हैं क्यूंकि जिन अढ़ाई सौ कम्पनियों के साथ अखबार औरमीडिया कम्पनियों की प्राईवेट ट्रीटी है और इन शेयरों की रिटर्न कीमत अरबों में है और अचानकमंदी आ जाती है तो इनके शेयर कौड़ियों के हो जाएंगे। इसलिए स्वयं के बचाव के लिए ये मीडियाकम्पनियां झूठ बोलेंगीं और कहेंगी कि मंदी नहीं है। नहीं तो वह स्वयं बर्बाद हो जाएंगी। इसलिएझूठ बोलना पड़ेगा कि बाजार तेजी से बहाली की ओर है। मंदी का कोई असर नहीं हो पा रहा।यही झूठ बोलने की सरचंनागत बाध्यता है। क्यूंकि भारतीय ग्राहक में निवेष का उत्साह बहुत है।जैसा कि पिछले दिनों आई.सी.आई.सी.आई. की मैनेजिंग डायरैक्टर का इन्टरव्यूहिन्दुस्तानटाइम्स ने छापा।इसीलिए देश के सबसे बड़े अखबारों ने अपने डेस्क पर फतवा जारी कर दिया कि ‘मंदी’शब्द का इस्तेमाल ही नहीं करना है। डेस्क को बताया गया कि भारत में तो मंदी है ही नहीं,अमेरिका में है। उत्पादक कम्पनियों का अपना पी-आर विभाग यानि जन संपर्क विभाग यहकार्य भी देखता है। दूसरी ओर मीडिया प्रबंधन अपने निर्देषों पर इन कम्पनियों के लिए खबर याफीचर लिखवाते हैं। यानि पैसे का लेन-देन अब ऊपरी ढांचे और संगठन द्वारा किया जाता है जोकि स्वयं अखबार की नीति निर्धारण की ताकत भी रखता है। अतः पैसे का यही लेन-देन अखबारकी नीति निर्धारण को भी सीधे तौर पर प्रभावित करता है। धन उगाही के इन्हीं तरीकों के एकप्रत्यक्ष उदाहरण के रूप में हमने हाल ही में ज़ी न्यूज और ज़ी बिजनेस के सम्पादकों को नवीन

जिंदल से 100 करोड़ रूपयों के बदले उसकी कोयला खदानों के विषय में नकारात्मक रिपोर्टिंगन करने का वादा करने का पूरा प्रकरण देखा है।अखबारों की इस धन उगाही की प्रवष्त्ति पर कई वरिष्ठ पत्रकारों ने अपनी चिंता व्यक्तकी है। ‘‘द हिंदू’’ अखबार में 18-19 मार्च 2010 को दो खंडों में लिखे लेख में वरिष्ठ पत्रकारमष्णाल पांडे ने कहा- ”खबरों के पुनर्निधारण व अखबारों में इनके प्रसार के बारे में हाल में लिएगए कई फैसले बेहद जल्दबाजी में सम्पादकीय विभागों की सलाह के बगैर लिए गए हैं। उन्होंनेसंभव है कि पूरे तंत्र में अदष्ष्य व खतरनाक वायरस को पैदा कर दिया है। जो अखबारों का क्षरणकरते हुए अंततः उन्हें नष्ट कर देंगे। भाषाई मीडिया हो सकता है कि इस नई प्रवष्त्ति के कारणफिलहाल अपनी गरीबी दूर होने को लेकर खुश हो पर उन्हें अब नए प्रकार की गरीबी का दष्ढ़ताव निर्णायक ढंग से सामना करना होगा और वह है कामकाज से जुड़ी नैतिकता व उसूलों कीगरीबी।प्रिंट मीडिया की विज्ञापन पर अति निर्भरता और उस पर प्राइवेट ट्रीटीज़ की आड़में जन भावनाओं के साथ खिलवाड़ और समाचार सम्बन्धी निर्णयों का प्रबन्धन के हाथ में सौंपदिया जाना पत्रकारिता के वर्तमान और भविष्य के बारे में अच्छे संकेत नहीं हैं।

सम्पादक और पत्रकार की स्थिति

टाइम्स ऑफ इंडिया समाचार पत्र समूह के मालिक समीर जैन ने टाइम्स ऑफ इंडिया कीगद्दी संभालते ही एलान किया था कि समाचारपत्र सिवा एक उत्पाद के कुछ नहीं है। उसके अनुसारसमाचार किसी भी अन्य उत्पाद की तरह है, जिसे बेचा जा सकता है। जहां एक ओर खबर परउनकी यह राय थी वहीं सम्पादक भी उनके लिए अनावष्यक व्यक्ति था। समीर जैन ने हीसम्पादक के पद को अपने अखबार से समाप्त कर दिया क्यूंकि उसके अनुसार ‘‘सम्पादक में कुछभी विशिष्ट नहीं है। 1993 के बाद टाइम्स ऑफ इंडिया में कार्यकारी सम्पादक, सह-सम्पादक,विभिन्न पृष्ठों के सम्पादक इत्यादि तो मिल जाएंगे परन्तु कोई प्रधान सम्पादक नहीं मिलेगा।पत्रकारिता के इतिहास में सम्पादक किसी भी पत्र की सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी था। सम्पादकका चरित्र और व्यक्तित्व पत्रों की प्रसार संख्या तक को प्रभावित करते रहे हैं। पत्रों की साखसम्पादक की साख से तय होती थी। विष्णु पराडकर, गणेश शंकर विद्यार्थी, बालकृष्ण भट्ट,बालमुकुन्द गुप्त, भारतेन्दु, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रताप नारायण, बालगंगाधर तिलक, प्रेमचंद जैसेसम्पादकों के नाम, पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में  लिखे हुए हैं। सम्पादकों से ही पत्रहुआ करते थे। सम्पादक का कद बड़ा तो था ही उनकी ज़िम्मेदारियां भी बड़ी थीं।

परन्तु मौजूदादौर में अखबारों और मीडिया समूहों के विराट विकराल रूप और जबरदस्त ताकत हासिल करलेने के बाद सम्पादक की ताकत का क्षेत्र भी काफी बढ़ गया। मीडिया मालिकों की इस ताकत केखेल में सीधा षामिल होने की इच्छा ने सम्पादक के पद को समाप्त कर दिया। अतः कई अखबारोंमें हम देखते हैं कि स्वयं मीडिया मालिक और संचालक ही सम्पादक भी बने हुए हैं। इस तरहवह अपनी ताकत का भरपूर इस्तेमाल अपने मीडिया समूह या समाचार पत्र के आर्थिक हितों केअनुरूप कर सकते हैं।यहाँ महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पत्रकारिता का नैतिक आधारभूत ढांचा, क्यूंकि अब बदलगया है।

पत्रकारिता जिसकी नीवं सच्चाई, जनतांत्रिक मूल्यों, समानतावादी समझ, लिंग बराबरी,साम्प्रदायिक सदभाव जैसे ऊँचे नैतिक मूल्यों से मिलकर बनी थी उन मूल्यों में मिलावट अब साफदिखाई देती है। उन्हें पूर्णतया बदल देने का एक स्तर पर अभियान और एक दूसरे स्तर परषडयन्त्र चल रहा है। पत्रकारिता के इसी नैतिक ढांचे का सबसे आवष्यक पहलू जो कि एकसम्पादक था। उसकी आवश्यकता ठीक उसी प्रकार समाप्त हो गई या कर दी गई जिस प्रकारपत्रकारिता के उस नैतिक ढांचे की। सम्पादक का पद गैर जरूरी हो गया और पत्रकारिता कानैतिक कर्म भी। सम्पादक की जगह मैनेजर बैठाए गए हैं जो सब कुछ मैनेज करते हैं। विज्ञापनप्राप्त करने के लिए क्या करना है, से लेकर मुनाफे के हित में किसी समाचार को हटाने तक केनिर्णय इन मैनेजरों पर छोड़ दिए जाते हैं।

मिसाल के तौर पर टाइम्स ऑफ इंडिया है – इस समूहमें अखबारों को ब्रांड कहा जाता है। इसके संचालन में सम्पादक से ऊपर ब्रांड मैनेजर की भूमिकाआती है। सम्पादक अपना काम ब्रांड मैनेजर के मार्गदर्षन में करता है।मष्त्युंजय अपने लेख ”औद्योगिकता की ओरमें  लिखते हैं कि अखबार में सम्पादक औरपत्रकार की भूमिका सीमित कर दी गई है। किसी भी अखबार के लिए अब सम्पादक और पत्रकारकागज़ की छाँट की तरह गैर-जरूरी हो गये हैं। उद्योग बन रही पत्रकारिता को सम्पादक की नहीं,मैनेजर की जरूरत होती है। बदली हुई परिस्थिति में कुछ सम्पादक और पत्रकार भी यह भूमिकानिभा रहे हैं।समाचार पत्रों में हो रहे इन संस्थागत बदलावों का सबसे महत्त्वपूर्ण इषारा यह है किसमाचार पत्र अब विवेक और विचार पैदा करने के माध्यम नहीं हैं। उनका एजेण्डा तटस्थ रहकरसमाज को कोई सकारात्मक दिशा देने का अब नहीं है।

सम्पादक के पद को समाप्त करना भीइसी बात का प्रमाण है कि समाचार पत्र अब समाज के आईने के रूप में काम नहीं करना चाहते।इस विवेक को धारण करने वाली सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी ‘सम्पादक’ को वे इसीलिए बाहर कर चुकेहैं। समाज के आगे अब वे अपनी कोई जवाबदेही नहीं समझते। पत्रकारिता अब उनका अन्यउद्यमों जैसा ही एक उद्यम है जिसमें वे अच्छा-खासा निवेष कर चुके हैं इसलिए उससेमुनाफाकमाना उनका अधिकार है। ऐसा वे मानते हैं।इन हितों को साधने के लिए न केवल सम्पादक पद को समाप्त किया गया है। बल्किपत्रकारों के व्यवसायिक व्यक्तित्व निर्माण के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। उनकी बिजनस सेंस जागष्तकी जा रही है। अखबारों का प्रबंधन विभाग अपने उप-सम्पादकों, कार्यकारी सम्पादकों, ब्यूरोप्रमुखों और पत्रकारों को जो निर्देश देते हैं। उनका जिक्र रामशरण जोशी अपने लेख असंतोषऔर असुरक्षा के साये में करते हैं। रामशरण जोशी लिखते हैं -एक युवा पत्रकार का कथन- हमें निर्देश  हैं कि प्रथम पृष्ठ पर सिर्फ राजनीतिक और अन्यमसालेदार खबरें छापें। इन खबरों में संगीत व सौंदर्य प्रतियोगिताएं, बॉलीवुड के सितारे, नगरउद्योगपति, कमिषनर, कलेक्टर, एस.पी., बलात्कार, सैक्स कांड जैसी घटनाएं और विषेष व्यक्तिशामिल रहने चाहिएं।पत्रकारों को निर्देश दिए जाते हैं कि ”जनसंघर्ष, हड़ताल, सत्याग्रह, धरना, आलोचना औरसाहित्यिक गतिविधियों की खबरों को प्राथमिकता न दी जाए। अधिक पढ़ने और विश्लेषण कीआवश्कता नहीं है। विज्ञापन की कीमत पर समाचार या लेख प्रकाशित नहीं किए जाएं।यहपत्रकारिता के प्रति दिल बैठा देने वाला तथ्य है कि पत्रकार को पत्र के प्रसार को बढ़ाने के लिएजनता की भावनाओं को उत्तेजित करने वाले समाचार मुख्य पष्ष्ठ पर छापने के लिए कहा जाताहै। बलात्कार, सामूहिक दुष्कर्म के समाचार हम हर रोज के पत्रों के मुख्य पृष्ठों पर इसीलिए पातेहैं क्यूंकि इन खबरों को पाठक ज्यादा गौर से पढ़ता है। ये खबरें एक साथ तीन काम कर रहीहोती हैं।पाठक का मनोरंजनउसे भीतर से इन घटनाओं के प्रति संवेदना शून्यबनानापत्र की प्रसार संख्या बढ़ानाऔर इसलिए एक पत्रकार को निर्देष है कि यही मुख्य पष्ष्ठ पर छपेगा। कुछ अन्य युवापत्रकारों के आगे बताए गए कथन पत्रकारों की पत्रों में स्थिति को ब्यान करता है -”हमें व्यवस्था विरोधी समाचारों और लेखों को प्रकाषित करने कीकतई इजाजत नहीं है। विष्व, राष्ट्रीय, प्रदेश आदि स्तर की बड़ीखबरों में कोई स्थानीय दखल नहीं होता। सब ऊपर से तयषुदाऔर प्रायोजित होता है। हम तो केवल भड़ैती हैं। सवाल नहीं करसकते। अब सम्पादक ब्रांड प्रबंधक के मातहत है। सम्पादक, ब्यूरोप्रमुख और विशेष संवाददाता केवल राजनीतिक दलाल और ‘लाइजनिंग’की भूमिका निभाते हैं। मंत्रालयों और विभागों में मालिकों केगैर-पत्रकारीय हितों की देखभाल करते हैं। अब हम ठेके पर हैं।असहमति व्यक्त नहीं कर सकते। सहमति ही हमारा कवच है।युवा पत्रकारों के ये कथन एक बात यह स्पष्ट करते हैं कि आज के अखबार व्यवस्था केविरोध में कुछ प्रकाषित करने के पक्षधर नहीं हैं। न ही वे विपक्ष और तीसरे मोर्चों के हड़ताल,धरनों या मुद्दों को कोई स्पेस देना चाहते हैं। कारण यही है कि इससे उन्हें अपने ‘क्लाइटंस’ केसाथ सामजंस्य बैठाने में दिक्कत आती है। धरने- प्रदर्शनों उन नीतियों के खिलाफ होते हैं, जोसरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पक्ष में बना रही होती है। अतः धरने व प्रदर्शनों को कवरेज देकरबहुराष्ट्रीय कम्पनियों को नाराज करना कोई अखबार नहीं चाहता। ऐसे में पत्रकार के पास अपनीरचनात्मकता के प्रयोग करने या कुछ भी नया करने का कोई स्पेस नहीं बचता। सभी प्रकारकी सहमतियों के बीच असहमति पैदा कर सकने का विवेक, हौंसला और बुद्धिजीविता रखने वालेसकल दिमागों का हश्र आज यही है कि वे आर्थिक असुरक्षा के माहौल में ठेके पर काम करनेको मजबूर हैं। वे असहमति व्यक्त नहीं कर सकते। और जो ठेके पर न होकर अच्छी पोजीषनपर रहकर पत्रकारिता कर रहे हैं, वे भी अपने मालिकों के गहरे दबाव में निर्विरोध, निर्विघ्नविषययी पत्रकारिता कर रहे हैं। मुस्कुराकर हाँ में हाँ मिलाने के अलावा उनके पास भी कोई विषेषविकल्प नहीं है।

मीडिया और सामाजिक सरोकार

पत्रकारिता की मौजूदा दौर की अगली चुनौती है मीडिया सक्रेदंण, क्रास मीडिया स्वामित्वऔर मीडिया स्वामित्व में विविधता और बहुलता की कमी यानि मीडिया पर एकाधिकार। हम पिछलेअध्यायों में यह जिक्र कर चुके हैं कि पिछले लगभग पच्चीस वर्षों में कई नए मीडिया चैनल भारतमें उभरे हैं। कई नए अखबार भारत में शुरु हुए हैं। और उन सभी ने अच्छा खासा व्यवसाय भीकिया है। नए पत्रों और उन्हीं की तर्ज पर पुराने पत्रों ने भी पत्रकारिता में विषुद्ध व्यावसायिकतादिखाते हुए, उन पत्रों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जिन्होनें उनकी दौड़ में शामिल होने मेंसंकोच किया। हालांकि कुछ पत्रों ने विवेक सम्मत ढंग से चुनौतियों और परिस्थितियों को समझतेहुए कुछ बदलाव किए और अपनी अस्तित्व रक्षा की। व्यावसायिकता के रास्ते पर चलते हुएएक-एक समाचार पत्र ने अपने कई-कई संस्करण शुरु किए और एक-एक चैनल ने अपनेकई-कई नए चैनल खोल लिए। इतने तक ही उनकी क्षुधा षान्त नहीं हुई। उन्होनें पत्रकारिता सेमिलने वाले मुनाफे को अन्य उद्योगों में निवेष किया। यही कारण है कि आज समाचार पत्रों औरटेलीविजन चैनलों का कारोबार चलाने वाले उद्योगपतियों और मीडिया मालिकों के देष और विदेषोंमें कई तरह के कारोबार चल रहे हैं। मसलन ‘‘सहारा समूह का हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय सहारा केसाथ-साथ अंग्रेजी दैनिक सहारा टाइम निकलता है। उर्दू का रोजाना राष्ट्रीय सहारा, और दो अन्यउर्दू पत्रिकाएं निकलती हैं। समय चैनल, सहारा समय, सहारा वन, ‘फिल्मी’ चैनल सहारा समूहके ही हैं। सहारा मोषन पिक्चरस, जिओन स्टूडियो, आलमी सहारा उर्दू का समाचार चैनल भीइसी का है। इसके अतिरिक्त पूरे भारत में इनके कई सिनेमा हाल हैं और अपनी फिल्म सिटीहै। सहारा म्यूचुअल फंड, जीवन बीमा और हाऊस फाईनैंस का कार्य भी करता है और इन सबसेइतर सहारा के अन्य उद्योगों की एक लम्बी सूची है। जूट, सिल्क, सोना, कपड़ा, फर्नीचर, जवाहरात, पत्थर, लकड़ी, चमड़े से सम्बन्धित कई उद्योग सहारा परिवार चला रहा है। सहारा क्यूपूरे भारत में है जो सामान के उत्पादन से लेकर पैकिंग तक के कार्य करती है। सहारा रियल इस्टेटमें भी निवेषक है और कई मैगा क्वालिटी टाउनषिप का निर्माण सहारा ने किया है। देष विदेषमें सहारा के पांच सितारा होटल और अस्पताल हैं।

अब बात करते हैं टाइम्स समूह की। टाइम्स समूह यानि बैनेट कोलमैन एंड कंपनी। लिमिटेडहिन्दुस्तान के सबसे बड़े मीडिया कान्गलोमेरेट यानि विभिन्न मीडिया फर्मों के सबसे बड़े समूहों में सेएक है। इसके पास दुनिया की सबसे ज्यादा प्रसार संख्या वाला अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडियाहै। इंडियन रीडरशिप सर्वे के मुताबिक इसकी प्रसार संख्या अस्सी लाख तक पहुंच चुकी है। इस समूहके पास हिन्दी के नवभारत टाइम्स समेत करीब एक दर्जन दैनिक प्रकाशन है। तीस कामयाब पत्रिकाएं, बत्तीस एफ.एम, रेडियो स्टेशन, दो न्यूज चैनल, एक लाइफ स्टाइल चैनल, एक फिल्मी चैनल केअलावा इंटरनेट के बाजार के बड़े हिस्से पर भी इसका कब्जा है। भारतीय मीडिया के एक बड़ेहिस्से को टाइम्स समूह नियंत्रित करता है। ‘‘टाइम्स समूह के मुख्य अखबारों टाइम्स ऑफइंडिया, द इक्नोमिक टाइम्स और नवभारत टाइम्स, महाराष्ट्र टाइम्स के अलावा कई अन्य स्थानीयऔर विभिन्न संस्करणों वाले अखबार निकलते हैं। रेडियो मिर्ची टाइम्स समूह का एफ.एम. चैनलहै। टाइम्स नाओ (अंग्रेजी समाचार चैनल जिसका रॉयटर समाचार एजेंसी के साथ करार है), प्लैनेट एम. (म्यूजिक स्टोर), ज़ूम (मनोरंजन चैनल, टाइम्स जॉबस डाट काम जॉब पोर्टल, सिम्पलीमैरी नामक मैट्रीमोनियल पोर्टल इन्हीं के हैं। मैजिक ब्रिक्स डॉट कॉम, रियल इस्टेट प्रेटिल भी इन्हींका है। फैमीना और फिल्म फेयर देष में जिसकी काफी बड़ी प्रसार संख्या है तथा दोनों का हीबी.बी.सी. के साथ करार भी है इन्हीं की पत्रिकाएं हैं और इसके अलावा भी कई पत्रिकाएं, औरकई इलैक्ट्रानिक पत्रिकाएं भी ये निकालते हैं। गाईलाईफ, इदिवा, लक्सप्रैसो इसी तरह कीइलैक्ट्रानिक पत्रिकाएं हैं। इन सबके अलावा विनीत जैन और साहू जैन या समीर जैन के औरभी कई तरह के उद्योग और कारोबार चल रहे हैं। ‘‘दैनिक भास्कर ग्रुप ने 1996 में अपने बिजनेस का विस्तार करते हुए टेक्सटाइल के क्षेत्रमें प्रवेष किया। इनकी कम्पनी डी बी पावर लिमिटेड बिजली उत्पादन और वितरण के क्षेत्र में कार्यकरती है। इनके अपने षॅपिंग मॉल्स और मल्टीप्लेक्स हैं, होटल है और रियल एस्टेट में भी इनकीमौजूदगी है।’’124 जागरण ग्रुप के पास सहारनपुर में 3000 टी.सी.डी. क्षमता की चीनी मिल हैं।अपने स्कूल और जे.आई.एम.एस.सी. के नाम से मल्टी मीडिया और मास कम्यूनिकेषन केषिक्षण संस्थान हैं।ज़ी ग्रुप के देष में कई मंहगे स्कूल हैं। ‘‘एस्सल वर्ल्ड और वाटर किंगडम जैसे मषहूर थीमपार्क है। ई-सिटी रियल इस्टेट प्राइवेट लिमिटेड इनकी कम्पनी है। कम्पनी का इरादा वर्ष 2011 तक रिटेल रियल एस्टेट में 20 मिलियन वर्गफुट जगह का निर्माण और संचालन करने का है।यह केवल कुछ के ही उदाहरण हैं वरना मीडिया से जुड़ी विभिन्न कम्पनियों की बिना किसी अपवादके एक से ज्यादा व्यवसायों में घुसपैठ है। वे एक जगह का मुनाफा दूसरी जगह इस्तेमाल करतेहैं। एक का घाटा दूसरे से पूरा करते हैं।एक ही कम्पनी का एक से ज्यादा सूचना माध्यमों में घुसपैठ होना और इलैक्ट्रानिक व प्रिंट, दृश्य व श्रवय सभी माध्यमों पर आधिपत्य होना मीडिया सकेंद्रण को जन्म देता है। इस प्रकार कीप्रवृतियों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी एक समस्या की तरह अंकित किया गया है। एक-एक मीडियाकम्पनी कई-कई तरह के समाचार माध्यमों के मालिकाना हक रखती है। इससे समाचारों की नकेवल विविधता पर प्रभाव पड़ा है, बल्कि समाचारों का एकरुपीकरण भी हो गया है। इस सब केबावजूद ”मीडिया कम्पनियों के कारोबार का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2011 के शुरुआती आंकड़ों के मुताबिक दक्षिण भारत की प्रमुख मीडिया कम्पनी सन टी.वी. नेटवर्क काबाजार पूंजीकरण बिहार जैसे राज्य के सालाना बजट से ज्यादा हो गया। मीडिया कम्पनियों काबाजार पूंजीकरण हजारों करोड़ रुपयों में है।इससे यह पता चलता है कि मीडिया कम्पनियोंकारोबार तेजी से फैल रहा है जोकि समाज की सूचना की आवष्यकता को बताता है, परन्तुमहत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि मीडिया की बहुलता साथ ही साथ तेजी से कम हो रही है। आजमीडिया चंद घरानों तक सिमट गया है।भारत में मीडिया का सालाना औसत दस फीसदी या उससे भी ज्यादा गति से बढ़ना इसबात की गारंटी नहीं कर पाया है कि मीडिया में बहुलता होगी। पिछले बीस साल भारत में मीडियाके तेज विकास के ही नहीं बल्कि मीडिया संक्रेदण यानी कंसंट्रेषन के साल रहे हैं। इन वर्षों मेंकुछ मीडिया समूह बहुत बड़े हो गए हैं। ये देश की सबसे बड़ी कम्पनियों में शामिल है। एक समयतक यह कहा जाता था कि मीडिया कारपोरेट हितों के लिए काम कर रहा है लेकिन अब मीडियाखुद ही कारपोरेट है और अपने हित में काम कर रहा है।एक मीडिया हाऊस प्रिंट मीडियामें विस्तृत पकड़ रखता है तो साथ ही उसके अपने रेडियो स्टेशन, टी.वी. चैनल पत्रिकाएं भी हैऔर सिनेमा और इंटरनेट में भी हिस्सेदारी है। वहीं टी.वी. चैनल की मालिक कम्पनियांडिस्ट्रीब्यूशन के क्षेत्र में भी पांव पसारे हुए हैं। यहाँ तक की कम्पनियों के अपने डिस्ट्रीब्यूशन स्टेशनऔर सैटेलाइट और केबल सिस्टम भी हैं। यह मीडिया पर एकाधिकार की स्थिति है। जो मीडियाकई अलग-अलग व्यक्तियों और कम्पनियों के पास बंटा हुआ होना चाहिए। वह अब चंद लोगोंऔर कम्पनियों तक सिमटा हुआ है।इस प्रकार मीडिया की लोकतांत्रिक छवि का हृास हुआ है। यह पब्लिक स्फीयर (सार्वजनिकदायरे) के सुचारू रूप से काम करने में बड़ी बाधा है। यह लोगों को स्वतन्त्र रूप से सोचने देनेमें अवरोध का काम करता है। मीडिया संक्रेदंण आम जनता की समझ को एक खास दिशा मेंमोड़ने में आसानी से सफल होता है। यहां बरनेस के इन विचारों के साथ यदि स्थिति काअध्ययन करे तो हम स्थिति की गंभीरता को समझने में सक्षम होगें। बरनेस के अनुसार ”समाज के कुछ ऐसे बुद्धिमान लोग होते हैं जिन पर इतिहास कीधारा को चलाने और मोड़ने की जिम्मेदारी होती है। आम लोगकिसी बात को ज्यादा सोच-विचार किए बगैर ही मान लेते हैं।आम आदमी के विवेक के भरोसे नहीं रहा जा सकता क्योंकि वहभीड़ की तरह सोचता है। उस की अपनी दिमागी संरचना उसेतथ्यों से दूर रखती है। वे आम लोगों को तर्कहीन कहते हैं।यहाँ चंद बुद्धिमान लोग मीडिया में बैठे हुए वरिष्ठ सम्पादक दिवंगत रघुवीर सहाय, प्रभाषजोषी जैसे लोग थे और आज भी कई हैं जो विवेक सम्मत समाचारों को प्रस्तुत करके जनता कीविष्लेषणात्मक समझ का विकास और विस्तार करते हैं। वे मुद्दों को अधखुला, अधबना, अधपकेरूप में प्रस्तुत करके जनता को उत्तेजना और अंधकार में रखने की बजाय उन्हें पूरे विष्लेषण केसाथ, खोलकर, पका कर प्रस्तुत करते हैं ताकि जनता सच्चाई से रूबरू हो सके।लेकिन मीडिया मोनोपली के माहौल में ये वरिष्ठ पत्रकार और सम्पादक इतने स्वतंत्र अबनहीं हैं। जहाँ मीडिया के अपने बहुत से निहित स्वार्थ हों और मीडिया पूर्णतया पूंजीवादी औरमुनाफाखोर हो चुका हो, वहाँ मीडिया की किसी जनवादी भूमिका की कल्पना करना मूर्खता होगी।वहाँ मीडिया उपदेषक की भूमिका तो अदा कर सकता है। परन्तु विष्लेषणात्मक मस्तिष्क बनानेमें नाकाम ही रहेगा। वास्तव में यह न केवल उनके एजेण्डा से बाहर की चीज़ है बल्कि उनकेआर्थिक एजेण्डा की विरोधी चीज़ है। दो विश्व युद्धों के बीच मीडिया की भूमिका का अध्ययनकरके लिपमैन इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ”लोकतांत्रिक भीडतंत्र में मीडिया मैनुफैक्चरिंग ऑफकनसेट“का काम करता है। वह बड़े स्तर पर भीड़ को हांक कर एक ही दिषा में सोचने परमजबूर करता है। यह केवल मीडिया संक्रेदण की अवस्था में ही संभव है, जिसमें सभी मीडियाभोंपू एक सुर में एक ही राग अलाप रहे हों और जनता उसी को अंतिम सच्चाई मान कर उसपर यकीन कर ले। मीडिया आम सहमति बनाने का काम इस लोकतांत्रिक भीडतंत्र में आसानीसे कर जाता है।

संदर्भसूची : 

  1. पी. साईनाथ, ‘‘झूठ बोलने की बाध्यता’’ अनु. अभिषेक श्रीवास्तव, साम्यांतर पत्रिका, सं. पंकज बिष्ट, अंक 5, फरवरी2011, पृ-33
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  3. वही
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  5. पी. साईनाथ, ‘‘झूठ बोलने की बाध्यता’’ अनु. अभिषेक श्रीवास्तव साम्यांतर पत्रिका, सं. पंकज बिष्ट अंक 5 फरवरी2011, पृ-33
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  14. दिलीप मंडल, मीडिया का अंडरवर्ल्ड, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली 2011, पृ-32
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  42. मार्शल मैकलुहान अंडरस्टैंडिंग मीडिया
  43. रॉबर्ट के लोगान अंडरस्टैंडिंग न्यू मीडिया
  44. डॉ जे.वी.विलानिलम, जनसंचार: सिद्धांत और व्यवहार
  45. सुशील त्रिवेदी, मीडिया विविध आयाम
  46. कृष्ण कुमार मालविय, आधुनिक जनसम्पर्क

 

राकेश कुमार दुबे

पत्रकारिता व जनसंचार विभाग

उड़ीसा केन्द्रीय विश्वविद्यालय

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