साहित्य अर्थात् जन हित की कामना से परिचय कराने वाला तत्व ही साहित्य है। साहित्य अपने समय तथा समकालीन समाज को अपने भीतर आत्मसात कर भावी पीढ़ी के लिए एक चिंतन क्षेत्र प्रदान करता है। साहित्य विभिन्न विधाओं का समष्टिगत रूप है। जब यह अपने व्यष्टि रूप को धारण करता है तो कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, आत्मकथा आदि विधाओं का पर्याय बन जाता है। किसी भाषा विशेष में लिखित साहित्य उस भाषा के प्रारंभ से लेकर वर्तमान तक के विकास को उद्घाटित करता है। इसी प्रकार हिंदी साहित्य हिंदी भाषा की विकास यात्रा के साथ-साथ हिंदी की साहित्यिक संपदा का भी पर्याय है। साहित्य की विभिन्न विधाओं में से निबंध एक आधुनिक एवं नवीनतम गद्य विधा है। जो व्यक्ति के विचारों को वरीयता देकर उसके मानसिक विकारों को एक रचनात्मक पटल प्रदान करता है। यही निबंध जब जीवन की जटिलताओं, समाज की कठोर कुरीतियों, विद्रूपताओं, राजनीति के बढ़ते शिकंजे तथा अर्थव्यवस्था के फैलते जाल को हास्य-व्यंग के साथ जोड़कर लिखा जाता है, तब इसे ‘व्यंगपरक निबंध’ या ‘व्यंग्यात्मक निबंध’ कहा जाता है।

हिंदी साहित्य में रचनात्मक-लेखन की विशाल परंपरा में विभिन्न साहित्यकारों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए मुद्राराक्षस ने साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे- कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, इत्यादि लगभग सभी विधाओं में अपनी सहभागिता सुनिश्चित की। उनके साहित्य में जहां स्वतंत्र भारत के टूटते-बिखरते स्वप्न को दर्शाया गया है वहीं विकास के नाम पर हो रही धांधलेबाजी, घोटाले तथा भ्रष्टाचार को रेखांकित किया गया है। इनके साहित्य में नवनिर्मित भारत में पनपती राजनीति, विश्वविद्यालयों में प्रवेश करती राजनीति, प्रशासन की लापरवाही, व्यवस्था में लचरता, मंत्रियों में सत्ता का मोह, विधायकों की खरीद-फरोख्त तथा चाटुकारिता, साहित्य क्षेत्र में पांव पसारती राजनीति, साहित्यकारों में पुरस्कार के प्रति बढ़ता मोह एवं आकर्षण, व्यवस्था को प्रभावित करता बाजारवाद, आधुनिक विदेशी तकनीकी उपकरणों का अंधानुकरण, समाज में व्याप्त अंधविश्वास, कुरीतियां, मान्यताएं तथा धार्मिक स्थलों में फैली लूटमार आदि विषय उनके लेखन का आधार रहे हैं। मुद्राराक्षस के निबंध ‘ज्ञानोदय’ पत्रिका में प्रकाशित होते रहे हैं। उनके निबंध संग्रह ‘सुनो भई साधो’ की भूमिका में कहा गया है- “साहित्य के अन्य सभी विधाओं के अतिरिक्त व्यंग्य में भी मुद्राराक्षस निरंतर अपनी पहचान बनाए रहे हैं। उनके व्यंग्य “जैनेन्द्र की नई कविता” पुस्तक ने 1956 में बहुत बड़े पैमाने पर लोगों को उलझन में डाल दिया था। इस तरह मुद्राराक्षस के निबंधों का तेज तत्कालीन सरकार पर प्रभावी रहा है।”

मुद्राजी एक ऐसे लेखक के रूप में उभरते हैं, जिन्होंने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, पुलिस प्रशासन, सरकारी तंत्र, न्यायतंत्र, साहित्य आदि सभी विषयों को अपनी लेखनी का आधार बनाया। जहाँ एक ओर वे सरकारी-तंत्र एवं प्रशासन की विसंगतियों पर दृष्टिपात करते हैं, वहीं वे साहित्यकार होकर भी साहित्य-जगत की बुराइयों और असंगतियों पर लिखने से पीछे नहीं हटते।

द्वंद्व का संबंध मूलतः संस्कृत के ‘द्वन्द्वम्’ से है। इसे जर्मनी में ‘Konflikt’, फ्रेंच में ‘Conflit’, इटालियन में ‘Conflitto’, को हिंदी का ‘द्वंद्व’ के पर्याय के रूप में प्रयोग में लाया जाता है । ‘द्वंद्व’ शब्द के कई अर्थ है- ‘संघर्ष’, ‘विरोध’, ‘मुकाबला’, ‘झगड़ा’, ‘युद्ध’, ‘दो परस्पर वस्तुओं का रोध-प्रतिरोध’, ‘कुश्ती’, ‘कलह’ इत्यादि। समाज में उनकी व्याप्ति के आधार पर सामान्यतः द्वंद्व के निम्न रूप देखे जा सकते हैं- राजनीतिक द्वंद्व, सामाजिक द्वंद्व, आर्थिक द्वंद्व, धार्मिक-आध्यात्मिक द्वंद्व तथा मानसिक द्वंद्व।

साहित्य लेखन की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न प्रकार के द्वंद्वों से होकर गुजरती है। समाज में व्याप्त समस्याओं को जब रचनाकार अपनी साहित्यिक कृतियों का विषय बनाता है तब कहीं-न-कहीं समाज को प्रभावित करने वाली विपरीत परिस्थितियां होती है जो रचनाकार  को झकझोर रही होती हैं। इन्हीं से प्रभावित होकर अपनी अनुभूतियों को मथकर तथा दो विपरीत परिस्थितियों के मध्य सामंजस्य स्थापित कर, साहित्यकार एक नवीन कृति का सृजन करता है। इस प्रकार, द्वंद्व साहित्य-निर्माण के मूल में सहायक होता है। मुद्राजी के साहित्य का अध्ययन किया जाए तो उसमें द्वंद्व के भिन्न-भिन्न प्रकारों की अभिव्यक्ति मिलती है।

मानसिक द्वंद्व

द्वंद्व का एक आरंभिक रुप मानसिक द्वंद्व के रुप में देखने को मिलता है। ये एक ऐसा द्वंद्व है जिसमें व्यक्ति आंतरिक उधेड़-बुन में लगा रहता है। मुद्राराक्षस के लगभग प्रत्येक निबंध में मानसिक द्वंद्व की उपस्थिति देखी जा सकती है। मुद्राजी का मानना है कि आज का जनमानस इतना दिशाहीन हो गया है कि वह बड़े-बड़े महापुरुषों में भी कमियाँ निकाल देता है। लोगों में स्वदेश की भावना जगाने वाले महापुरुष में स्वतंत्र आधुनिक पीढ़ी को कमियां नजर आने लगी है। यह विद्रोही अथवा प्रतिकूल मानसिकता का परिचायक है। स्वतंत्रता पूर्व असहयोग आंदोलन के दौरान जिन विदेशी वस्तुओं को त्याग कर होली जला रहे थे, आज स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरा करने से पूर्व ही इन्हीं वस्तुओं के मोहपाश में पड़कर स्वयं का ह्रास कर रहे हैं। मुद्राजी के शब्दों में- “गांधी जी ने तो हमें बुरी जगह ले जाकर मारने की सोची थी स्वदेशी के चक्कर में फंसा गए थे उनकी चलती तो हम चरखा खाते ही रहते कम्प्यूटर का परमानंद कभी न पाते1

एक नेता की मन:स्थिति का वर्णन वे इस प्रकार करते हैं- “मैंने इसलिए संन्यास घोषणा की थी कि लोकतंत्र पर खतरा था लेकिन अब अगर लोकतंत्र पर खतरा नहीं है तो संन्यास नहीं लूंगा”।2 मुद्राजी के अनुसार लोकतंत्र एक ऐसी नकिस-सी चीज़ है जो बैठे बैठाए लोगों को जाने क्या-क्या हरकतें करने पर मजबूर कर देती है। वे इस बात से भली-भाँति परिचित हैं कि नेता लोकतंत्र के नाम से ही जनता को ठगते हैं। गरीब की गरीबी से पूर्णतः परिचित होते हुए भी नेतागण गरीबी की रेखा को फिल्म की रेखा समझने का स्वांग रचते हैं जो कि देश के निम्न वर्ग पर उपहास उड़ाने के समान है- “गरीबी की रेखा की उनकी इस चिंता को तुम अपनी सहानुभूति देना क्योंकि वह भूल से गरीबी की रेखा को फिल्मों की रेखा समझ बैठे हैं”।3

मुद्राराक्षस बताते हैं कि विद्यालयों को लेकर हमारी मानसिकता द्वंद्वग्रस्त है। आज हम शिक्षा की गुणवत्ता नहीं देखते, विद्यालय के नाम से ही प्रभावित हो जाते हैं- “शिक्षण संस्था के आगे पाठशाला जुड़ा हो तो लगता है यहां घरेलू नौकरों के बच्चे पढ़ते होंगे। आगे कान्वेंट शब्द जुड़ा हो तो मामला मम्मी जी के लायक बन जाता है”।4

समाज में पुलिस लोकरक्षक के रूप में कार्यरत है। कई बार पुलिस अपनी जिम्मेदारियों से भागती हुई प्रतीत होती है। मुद्राराक्षस के निबंधों में कहीं-कहीं पुलिस प्रशासन के मनोभाव चित्रित किए गए हैं- “जिनके गुस्सा हो जाने पर निर्दोष भी ठुकाई का आस्वादन करते हैं और जो प्रति ठेला दो रुपए में ही संतुष्ट होते हैं। ऐसे भोले पुलिस को नमस्कार। सब दुखों के मूल और सब दुखों के संग्रहकर्ता पराक्रमी डकैतों के मित्र और कुशल चोरों के सहायक तथा कानून से डरने वाले मूर्खों के शत्रु श्रेष्ठ पुलिस जनों को नमस्कार”।5

वर्तमान में रचना को लेकर नए-नए मुद्दे खड़े हो रहे हैं। आज सभी लेखक बनना चाहते हैं किंतु आलोचना से बचना चाहते हैं। रचना तथा रचनाकार का संबंध अन्योन्याश्रित है। समाज द्वारा साहित्यकार की कृति को जितना सम्मान मिलता है उतने ही सम्मान व आदर का पात्र उसका सृजक भी होता है। वे बताते हैं कि ‘खेद की बात है कि सामंती आपाधापी का युग समाप्त हो जाने पर भी लिख मैं रहा हूं नाम दूसरों का हो रहा है’। इस बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं-“आप मेरे कष्ट का अनुमान लगा सकते हैं आखिर यह चक्कर क्या है कि लोग यह मानने को तैयार नहीं कि मुद्राराक्षस कोई लेखक भी हो सकता है। मम्मट या भट्ट लोलक हो सकता है, मुद्राराक्षस नहीं चलेगा। क्यों भाई?”6 उपरोक्त पंक्तियां मुद्राजी के मन में मची उथल-पुथल को दर्शाती है। यहां वे मानसिक रूप से आहत हुए हैं।

सामाजिक द्वंद्व

सामाजिक द्वंद्व, समाज में व्याप्त दो विपरीत परिस्थितियों के मध्य होता है। इसके दो प्रकार- 1. व्यक्ति और समाज तथा 2. समूह और समूह हैं। सामाजिक द्वंद्व समाज में व्याप्त कुरीतियों, मान्यताओं, आडंबरों, विरोधों तथा विद्रूपताओं को उद्घाटित करने में सहायक है। मुद्राजी के तेज एवं तिक्त व्यंग्य इन सभी पक्षों को उभारने में सहायक हैं। विदेशी वस्तु हमें किस प्रकार प्रभावित करती है, का स्पष्ट शब्दों में चित्रण करते हैं- “पुनर्वास कॉलोनियों में हैजा फैलने पर मुर्दे ले जाने का तरीका हमारा बहुत घटिया है। इन बस्तियों के लोग स्वीडन या हालैंड से तकनीक  आयात करेंगे और ऐसी टिकटियों पर मुर्दे ढोने का सुख लूटेंगे, जो इंपोर्टेड जैसी लगेंगी। अब आप सोचिए हैजा से मरा आदमी फाइबर ग्लास की टिकटी पर जा रहा हो तो महामारी भी उतनी देसी चीज नहीं रह जाएगी। सीवर का पानी पीने वाला आदमी कूड़े के ढेर से खाने का टुकड़ा हाथों से बेशऊरी के साथ खोजे, यह दुर्भाग्य है। हम विदेशी तकनीक की सहायता से उन्हें ऐसी कम्प्यूटर चालित मशीनें उपलब्ध करा सकते हैं, जो कूड़े से खुद-ब-खुद जूठन खोज कर निकाल लें। पहनने के लिए कूड़े-करकट से इसी मशीन के जरिए गरीब लोग ठीक आकार के चीथड़े भी खोज सकते हैं”।7 मुद्राजी अपने एक लेख में गरीब हरिजन के साथ दुर्व्यवहार होने पर भी सरकार के न जागने पर तंज कसते हैं -“कुछ भी हो हम सोते मिलेंगे। सोते मिलना हमारी जिम्मेदारी है। यह सरकार गैर-जिम्मेदार हैं जो जागती रहती हैं और दंगा होने से पहले ही लोगों को बचाने की कोशिश करती हैं। दंगा न हो तो हम बड़े नुकसान में रहेंगे। ऐसा प्रदेश-प्रदेश नहीं बंजर है जहां हरिजन न जलाए जाए”।8

अपने एक अन्य निबंध ‘आलोचना के खतरे’ में वे विदेशी वस्तुओं के बढ़ते प्रयोग और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया पर हास्य व्यंग्य करते नहीं थकते- “ठीक है कि अपना देश, अपना देश है, पर विदेश तो देश भी है और सुंदर भी है। आप बताइए हमारे यहां ‘पब’ कहाँ होता है? मिट्टी से प्यार होना ठीक है पर चेहरे पर मिट्टी नहीं क्रीम ही मली जा सकती है। क्रीम और उसका कुछ फर्क तो होता ही है। बड़ी-बड़ी कंपनियां क्या बौरा गई है कि सुगंधित साबुन बेचती है? वे सब्जी और बटन क्यों नहीं बेचती? इसीलिए कि अभिजात्य वर्ग की अपनी शान और गरिमा होती है”।9

वे प्रशासन द्वारा बनाए गए पुल का ब्यौरा कुछ इस प्रकार देते हैं कि पुल रहस्मय प्रतीत होता है- “आगे बढ़ोगे तो तुम्हें नजर आएगी एक नदी और उस पर बन हुआ पुल। किंतु तुम पुल पर होकर नदी मत पार करना क्योंकि पुल वहां होगा नहीं। दरअसल वे एक ऐसा पुल है जिसके बनने के बाद नदी तो ज्यों-की-क्यों रहती है पर निर्माण मंत्री और इंजीनियरों की सुंदर कोठियां बन जाते हैं। हाँ, कागज पर बने उस पुलवाली नदी की बाढ़ से गांव बचाने के लिए जो तटबंध बने हैं वे तुम अवश्य देखना। क्योंकि सरकारी रपट के मुताबिक उन्हें बकरियां चर गई हैं और अगले वर्ष नया इंजीनियर उन्हें दोबारा बनवाएगा या चरेगा”। आगे अस्पताल की दशा का वर्णन करते हुए बताते हैं कि वह एक कूड़ाघर के समान है। “नदी के उस पार एक कूड़ाघर-सा तुम्हें दिखेगा। मित्र, तुम उसे कूड़ाघर ही न समझ बैठना। यह वहां का एक अस्पताल है जिसमें दवाएं कम मर्ज ज्यादा बैठते हैं और डॉक्टर चीर-फाड़ करके एपेण्डिक्स तो निकाल देते हैं लेकिन अपने जूते मरीज के पेट के अंदर सिल देते हैं”।10

अपने अन्य निबंध ‘देवता किसिम-किसिम के’ में वे बताते हैं कि “अस्पतालों में इंटेंसिव केयर यूनिट नेताओं को जिंदा रखने के लिए लगाए जाते हैं। दवाई सिर्फ मंत्रियों और अफसरों पर असर करती हैं आम आदमी पर नहीं। इसलिए आम आदमी को दवाई नहीं दी जाती”।11 अभी दो वर्ष पूर्व में आई कोरोना महामारी वैश्विक पटल पर घातक सिद्ध हुई इस दौरान हजारों लाखों लोगों ने अपने कार्यक्षेत्र से घर या गांव पलायन किया। इससे बचाव व रोकथाम तो संभव है किंतु इलाज संभव नहीं। इसी प्रकार उस वक्त आई बीमारी ‘एड्स’ का वर्णन करते हुए मुद्राजी बताते हैं- “इसके लिए देश में फटाफट पाँच केंद्र खोल दिए गए हैं । पर इस देश के सत्तर करोड़ लोगों का इन पाँच केंद्रों से क्या काम चलेगा? मिजोरम या कटक या कच्छ का गरीबदास वहां पहुंचेगा कैसे? आगे वे और अधिक स्पष्ट करते हैं कि सरकार ने इस बीमारी के केंद्र उनके लिए खोले हैं जो टैक्सी, कार या हवाई जहाज से वहां पहुंच सकते हैं। ऐसे भाग्यशाली लोग नेता, मंत्री, अफ्सर या बड़े आदमी ही हो सकते हैं”।12

उनके निबंध ‘चौदह बंगले में बाढ़ का सुख’ में कहीं-न-कहीं वर्तमान कोरोनाकाल का चित्र प्रस्तुत है। यहाँ वे बताते हैं जहां गरीब लोगों के लिए जीवन नष्ट करने वाली बाढ़ एक सामान्य आपदा है वहीं अफसर तथा प्रशासन के लिए आपदा एक अवसर है। यहां वे चौदह बंगलों को जिक्र करते हुए बताते हैं कि वह किस प्रकार बने हैं तथा उन पर सत्तावर्ग किस तरह आरूढ़ है। आगे वे समाज में व्याप्त भाई-भतीजावाद, परिवारवाद का वर्णन करते हैं- “एन.सी.एल प्रसाद यानी छेदीलाल प्रसाद नहर विभाग में बहुत बड़े इंजीनियर थे। अगले बरस सेवानिवृत्त होने वाले थे। नहर के किनारे मजबूत कराने की जिम्मेदारी वे कई बरस से निभा रहे थे और उनका ख्याल था कि गांव वाले बदमाश हैं, किनारे का बांध बार-बार काट देते हैं। बदमाशी का सामना वे जितनी बार करते थे उनके फॉर्म में उतने ही एकड़ की बढ़ोतरी हो जाती थी। उनका एक बेटा बिजली विभाग में ठेकेदारी करने लगा था और दूसरा बेटा गेहूं खरीद का बड़ा अफसर हो गया था”। यहां वे प्रशासन में व्याप्त परिवारवाद को दर्शाते हैं। आगे वे बिजली विभाग में व्यापक स्तर पर हुए घोटाले का विवरण करते हैं- “बिजली विभाग के आला अफसर उस वक्त अपने दफ्तर की उस फाइल को निबटा देने की कोशिश में थे जिसमें दो जले हुए ट्रांसफार्मर की जगह नए ट्रांसफार्मर लगाए जाने का मामला दर्ज था। फाइल जरा उलझी हुई थी क्योंकि नए ट्रांसफार्मर कहीं लगे ही नहीं थे क्योंकि पुराने ट्रांसफार्मर जले ही नहीं थे। वे जले इसलिए नहीं थे कि वहां वे कभी लगाए ही नहीं गए थे। दरअसल गलती शुरू में ही हो गई थी। कभी दो ट्रांसफार्मर ऐसी जगह लगाए दिखा दिए गए थे जहां बिजली नहीं थी। प्रशासन की लचरता को दर्शाते हुए वे आगे कहते हैं वह अभी आधी फाइल तक पहुंचे ही थे कि बत्ती चली गई उन्होंने खींचकर अंधेरे में इधर-उधर ताका और बड़बड़ाए- ये साले बिजली वाले… फिर ध्यान आया कि बिजली विभाग के अफसर तो वे खुद ही है”।13

मुद्राराक्षस के निबंध तिक्तता युक्त हैं। ये उनकी कलम का पैनापन ही है जिससे समाज का कोई भी व्यक्ति नहीं बच सका। वे नेता, प्रशासन, बीमा कंपनी, रेल-प्रशासन, कानून-व्यवस्था किसी को नहीं छोड़ते। रेलवे प्रशासन की कमियों का जिक्र करते हुए बताते हैं- “सीट इत्तफाक से मिल ही जाए तो मुमकिन है छत का पंखा चलकर ही न दें। डिब्बे के नलके में पानी गायब हो और दो स्टेशनों के बाद लुटेरों का जत्था आपको कृपापूर्वक लूट ले और एहसान के तौर पर ठुकाई न करें… यह कितनी सुखद स्थिति होगी कि आदमी कंप्यूटर से टिकट लेकर रेलवे रेलगाड़ी की छत पर यात्रा करता है तो कम्प्यूटर से जारी टिकट यह बता देगा किस पुल पर पहुँच कर छत पर यात्री मरेंगे, कौन-से मरेंगे और किसके हाथ-पैर टूटेंगे।”।14

मुद्राजी बताते हैं कि मंत्री किसी को जिंदा जला दें तो वे उसे सती की संज्ञा देकर छूट जाते हैं। उदाहरण के लिए- बिल्किस बानो मामला देखा जा सकता है। जिसमें कैदियों को 15 अगस्त को न केवल रिहा किया गया अपितु उन्हें मिठाई खिलाकर तथा माला पहनकर सम्मानित भी किया गया। अपने निबंध में वे कहते हैं- “हम लोग परंपरा का सम्मान करना जानते हैं इसलिए सती-प्रथा की वापसी ज्यादा समीचीन होती है। जनता पार्टी के राज में बांदा में एक औरत को हमने सती किया था तो एक मंत्री चिता की राख की पूजा कर आए। अभी मथुरा में एक औरत को सती किया तो विधानसभा में वक्तव्य पढ़ा गया कि वह स्वतंत्र देहाग्नि के चमत्कार से जल मरी”।15

वे भारतीय दहेज-प्रथा पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं- “दूल्हा दहेज में एक अदद कम्प्यूटर भी मांगेगा। दहेज एक बिना लागत का व्यवसाय है लेकिन इसमें ज़रा खतरा रहता है। बीवी लाओ और दहेज का सामान भी लाओ। अब बीवी को जितन जल्दी मार सकोगे अगले दहेज का मौका उतनी जल्दी ही आ जाएगा”।16

शिक्षा-पद्धति को वे डिग्री लेने के साधन मात्र मानते हैं। वे विश्वविद्यालयों में हिंदी विभाग में कुछ शोधकार्यों को जूठन का अद्भुत नमून कहते हैं। ‘प्रेमचन्द के नारी पात्र’, ‘नारी चरित्र और प्रेमचन्द’, ‘प्रेमचन्द के उपन्यासों में नारी’, ‘उपन्यासकार प्रेमचन्द और नारी चरित्र-चित्रण’, ‘प्रेमचन्द की दृष्टि में नारी’, ‘नारी और प्रेमचन्द की दृष्टि’ इत्यादि। इतनी महानता हिंदी प्रेमी में ही संभव है कि इन विषयों पर वे मोटे-मोटे शोध-ग्रंथ लिख डालें और उन्हें डॉक्टरत्व की उपाधि सामूहिक रूप से नहीं, हर किसी को स्वतंत्र रूप से मिल जाए। आगे हिंदी शोधार्थी तथा लेखक पर भी कटाक्ष करते हैं- “अगर आप यह कहें कि हिंदी में तकनीकी साहित्य लिखे जाने की क्षमता है तो हिंदी वाला घबरा जाएगा क्योंकि तब उसे विज्ञान,दर्शन, समाजशास्त्र, कानून आदि पर मौलिक किताबें लिखने का कष्ट उठान पड़ेगा”।17 आज शिक्षा पद्धति और राजनीति में बहुत-सी चीजें लगभग समांतर हो गई हैं। मुद्राराक्षस इसी बात को रेखांकित करते हुए अपने लेख ‘बड़ा क्या है: सच्चा सुख या सत्ता सुख’ में कहते हैंमेडिकल कॉलेज और राजनीति में एक बड़ी भारी रकम ले ली जाती है जिसे कैपिटेशन फीस कहते हैं। इससे एक बड़ा लाभ यह होता है कि नीच और छोटे लोग इस में घुस नहीं पाते”। आगे वे मुखर होकर बताते हैं कि “शिक्षा पद्धति और राजनीति में बहुत-सी चीजें आज खासी समांतर है… शिक्षा और राजनीति, दोनों ने ही उद्योग का रूप ले लिया है। मजे की बात यह है कि यह कुटीर उद्योग भी है, बड़ा उद्यम भी और सरकारी उद्यान भी। पान-बीड़ी के खोखे की तरह हर शहर की हर बस्ती की हर गली के चौथे मकान में आपको नन्हा-मुन्ना कान्वेंट स्कूल खुला मिल जाएगा। कोचिंग कॉलेज में मिल जाएंगे जैसे हर सरकारी कारखाने में कुर्सियां ज्यादा, काम कम होता है, वैसे ही सरकारी स्कूलों में भी होता है… ठीक यही हालत राजनीति की है”।18

आधुनिक युग में शहीद-शहीद न होकर राजनीतिक मुद्दा हो गया है। आज लोग नेताजी के चरण स्पर्श करते हैं। वहीं शहीद को केवल शहीदी दिवस या उनकी जयंती पर ही याद किया जाता है। हमारे नेता जनता को शहीद दिवस के दिन भाषण देकर अपनी लुभावनी बातों में उलझाते हैं तथा युवा पीढ़ी को उत्साहित करते हैं कि शहीदों के जैसे बलिदानी, त्याग, समर्पण करना चाहिए। किंतु कभी खुद शहीद होने की बात नहीं कहते। अपितु उनका मत है कि तुम शहीद हो जाओ मैं मेला लगाऊंगा। आगे वे अपनी इन्हीं बातों को और अधिक स्पष्ट करते हैं कि “धीरे-धीरे हमारा ध्यान अब शहीद से हटकर चिताओं और मेलों में केंद्रित होता जा रहा है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि चिता बिस्मिल की है या आजाद की। मेला उत्तम होना चाहिए और मेला कमेटी पर अधिकार पक्का रहना चाहिए बस”।19

आजकल ऐतिहासिक धरोहर का रखरखाव पहले की तरह उत्तम नहीं रह गया है। यदि इतिहास का शोधार्थी शोध करेगा तो उसे उपयुक्त साक्ष्य मिलने में बहुत अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। आज विरासतों का ह्रास किस प्रकार हो रहा है, का चित्र ‘हम कौनौं मध्यप्रदेश वालन से कम थोड़ो अहि’ में किया गया है- “वह भूसामंडी का हाथीखाना है, लखनऊ में। यहां नवाबों के हाथी बंधा करते थे। अब यहां धोबियों के गधे टहलते हैं। समझ में नहीं आ रहा कि यह बात लिखने के बाद धोबियों से माफी मांगू गधों से, क्योंकि नाराजगी उन दोनों के बजाए जिलाधिकारी महोदय ज्यादा दिखाएंगे”।20

राजनीतिक द्वंद्व

मुद्राराक्षस के साहित्य में राजनीतिक द्वंद्व के विविध रुप देखने को मिलते हैं।जहाँ एक ओर वे मंत्रियों की चाटुकारितापूर्ण प्रवृत्ति का वर्णन करते हैं वहीं दूसरी ओर विधायकों की खरीद-फरोख का चित्र पाठक के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। उनके निबंधों में  अध्यक्षता अथवा सत्ता से मोह, भारतीय राजनीति में दलबदल की स्थिति, साहित्यिक क्षेत्रों में बढ़ती राजनीति के साथ-साथ शैक्षणिक संस्थानों की ओर बढ़ते राजनीति के कदम इत्यादि विषय प्रमुख हैं। अपने व्यंग ‘धुंधदूतम्’ में वे पार्टी के हाईकमान के कोप का भाजन हुए एक नेता का कुर्सी के प्रति प्रेम का वर्णन करते हैं- “दिग-दिगन्त में फैली इस राजनीतिक धुंध में कैसी होगी प्राणप्रिया कुर्सी, कौन उस पर इतने प्यार से बैठता होगा है? हो सकता है कोई बहुत मोटा बैठ गया हो नेता और कुर्सी कराही हो” इसमें वे कालिदास के नाटक ‘मेघदूतम्’ के प्रमुख पात्र दुष्यंत के प्रतिरूप में नेता को रखते हैं। जिसमें दुष्यंत अपना संदेश मेघ के द्वारा भेजते हैं वैसे ही यहां नेता अपने संदेश धुंध के द्वारा भेजता है- “चेहरे तुम ताप तत्वों के त्राता और मुसीबत के मारों के छाता हो…मेरा संदेश तुम उन तक न सही अरुण नेहरू तक पहुंचा दो। अब सुनो मैं बताता हूं, कहां तुम्हें जाना है- गंतव्या ते वसतिदिल्लीनाम एमपीश्वराणां-एमपीयों की बस्ती दिल्ली तुम्हें जाना है”। आगे भी विपक्ष के नेता से सचेत करते हुए कुहरे को चेतावनी देते हैं कि “तुम्हें सावधान कर दूं, उस मनोरंजन स्थली से दूर रहना जिसमें विरोधी दलों के नेता वास करते हैं… वे मन्दिर के उन पुजारियों की तरह हैं जिनका ध्यान पूजा की अपेक्षा चढ़ावे पर रहता है”।21

‘डाकू प्रसंग’ में वे सरकार तथा प्रशासन के साथ डाकुओं के संबंधों को उजागर करते हैं। ये संबंध उसी तरह जैसे तत्कालीन सरकार के पास कालेधन के व्यापारियों की सूची तो है पर सामने नहीं आती- “प्रदेश के यानी उत्तर प्रदेश के घरेलू मामलों के मंत्री ने अभी बयान दिया कि उन्हें पता है और उनके पास उन लोगों की सूची है जो डाकू को संरक्षण देते हैं। मगर मंत्रीजी ने यह भी कहा है कि वह किसी का नाम नहीं बताएंगे”।22 आगे जब लेखक डाकू का इंटरव्यू लेता है तो आपका पुलिस और प्रशासन से कैसा संबंध है प्रश्न पर डाकू हत्यारसिंह बताता है कि अन्योन्याश्रित संबंध है। मेरे बिन उनको उन्हें आराम नहीं और उनके बिना हमारा भी काम मुश्किल से चलता है। आगे और भी स्पष्टता के साथ अपने संबंधों को बताता है- पुलिस और प्रशासन में अभी फिलहाल ऐसे बुरे लोग सौभाग्य से कम ही हैं। जो बयान देने के बाद वही कर भी गुजरते हैं। वरना भाई, तुम्हें शायद मालूम नहीं- मेरा शागिर्द बंदूकसिंह दिन में कोतवाली की मुंशीगिरी करता है और रात की शिफ्ट में मेरे साथ ड्यूटी देता है। और यह गंडौसा-यह तो मंत्री का भाई है। यह विरोधी दल में है। पिछली सरकार में यह मंत्री था और उसका भाई मेरे साथ था; इस बार चुनाव में इसका भाई जीत गया”।23

आजकल नेताओं के लिए सत्ता सुख ही वास्तविक सुख है। वे नेता बनकर जनप्रतिनिधित्व करें-न-करें किंतु कुर्सी पर विराजमान होकर नींद का अपूर्व सुख त्याग कर भी पद छोड़ने की स्थिति में नहीं है। ‘सवाल नींद का एक मुख्यमंत्री की’ में वे कहते हैं- “जनता का बड़ा दबाव है वे पद छोड़ दें तो जनता को दूसरा सही आदमी मिलेगा नहीं और ऐसे लोग कुर्सी से लिपट जाएंगे जो हलफनमा देकर कहेंगे कि उन्हें नींद बिल्कुल नहीं चाहिए, सिर्फ कुर्सी चाहिए”।24 अपने अन्य लेख ‘सब कुछ चलता है प्रधानमंत्री के नाम पर’ में वे राजनीतिक द्वंद्वात्मक स्थिति को इस प्रकार बयां करते हैं- “मुख्यमंत्री का दावा होता है कि उसे प्रधानमंत्री के हाथ मजबूत करने हैं इसलिए मैं मुख्यमंत्री बना रहेगा। उसी की पार्टी के कुछ और लोग कहते हैं कि प्रधानमंत्री के हाथ में मजबूत करने चाहते हैं और यह काम मुख्यमंत्री को हटाए बिना संभव नहीं होगा।…फिर सहसा मुख्यमंत्री घोषणा करता है कि उसे प्रधानमंत्री का हाथ मजबूत करना है इसलिए वह मुख्यमंत्री पद छोड़ रहा है”।25 इसी प्रक्रिया में आगे बताते हैं कि मंत्री मुख्यमंत्री का हाथ मजबूत करने के लिए किस प्रकार कार्य करते हैं। अपने मुख्यमंत्री का हाथ मजबूत करने का खेल और ज्यादा जटिल होता है। इस प्रक्रिया में हर मंत्री स्वायत हो जाता है। यानी किसी विकासखंड में सिंचाई मंत्री नलकूप लगा देता है कि मुख्यमंत्री का हाथ मजबूत होगा। लेकिन बिजली मंत्री बिजली के तार ऐसी जगह पहुंचा देता है जहां नलकूप बिजली की चक्की भी न हो क्योंकि वह भी मुख्यमंत्री के हाथ मजबूत करने पर आमादा रहता है। फिर तीसरा मंत्री पत्रकारों के सामने घोषणा करता है शासन इतना निकम्मा हो गया है कि नलकूपों को बिजली तक नहीं मिलती। इस भंडाफोड़ द्वारा वह मुख्यमंत्री के हाथ मजबूत करता है।

‘लौटना एक नेता का वापस घर को’ निबंध में मुद्राजी बताते हैं कि राजनीति और सत्ता में चोली-दामन का साथ होता है- ‘अभी हमारे पास दामन है। चोली हाथ नहीं आई तो जीवन ही बेकार है’। ‘लोकतंत्र का राजयोग’ में वह बताते हैं कि नेता लोकतंत्र लाने का वादा करके टिका रहता है जबकि वहीं लोकतंत्र के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है- “यह रोग जिसे भी होता है वह चीखता है-लोकतंत्र खतरे में है। कभी कभी (और कभी क्या अक्सर) वह लोकतंत्र को दबाकर बैठ जाता है और चिल्लाता है- लोकतंत्र खतरे में है”। इसी प्रकार चतुर नेता गरीबी हटाने का नारा देता है। लेकिन वह उस गरीबी को हटाना ही नहीं चाहता। अगर वह गरीबी हटाएगा तो जनता सुखी हो जाएगी और जब जनता सुखी हो जाएगी तो उसे नेता की आवश्यकता नहीं रहेगी”। यहां पर मुद्राजी कहते हैं कि गरीबी हटाने की बजाय गरीबी पर भाषण देने से नेता ज्यादा दिन तक रह सकता है। इस स्थिति के अपने फायदे हैं। मान लीजिए, आपने गरीबी दूर कर दी तो जिनकी गरीबी दूर करने का परिश्रम आप करेंगे उनसे आपको वोट के अलावा और क्या मिलेगा, धतूरा? वोट ही वे गरीब रहकर भी देंगे और वोट की गरीबी से छूट कर भी देंगे। तब इतनी मेहनत बेकार ही है न”।26

‘दीवाली: क्या यह दीवाला की पत्नी है’ लेख में मंत्रियों के शब्द-प्रयोग पर सूक्ष्म दृष्टि रखते हैं जो वास्तव में कहीं-न-कहीं नेताओं की मानसिकता का भी परिचायक है। यहां बिजली मंत्री के जोशीले भाषण के दौरान बिजली चली जाना प्रशासन में लचरता को उद्घाटित करता है- “हमने जो सपने बना रखे हैं उन्हें जरूर पूरा करेंगे। जल्दी ही आप देखेंगे कि विकलांग वर्ष के इस पर्व के दौरान जल्दी ही हम प्रत्येक परिवार को एक विकलांग दे सकेंगे। यह हमारा लक्ष्य है और यही हमारा संकल्प है। इसके बाद बिजली मंत्री का और जोशीला भाषण होने वाला था लेकिन बत्ती चली गई”।27 व्यंग्य की भाषा में कहा जाए तो बिजली विकलांग हो गई।

वर्तमान सरकार द्वारा अपनाई जाने वाली नीति से किसी का लाभ हो-न-हो किंतु सरकार ने जो किया है वह उससे जन-जन को परिचित करवाकर अपने कार्यों का प्रचार करती है। मुद्राजी के अनुसार- “मैंने पिछले दिनों शासन की उपलब्धियों के एक साल पर कुछ पढ़ी, जो सूचना विभाग ने जारी की है। मैं सोचता हूं इन्हें दर्जा दो से लेकर एम.ए. तक की कक्षाओं में पाठ्यपुस्तकों के रूप में देना चाहिए। सच यह है कि हमें उपलब्धियों के बारे में इन्हीं पुस्तिकाओं से पता चला। लोग इस बात का दूसरा अर्थ न लगाएं”।28 अर्थात आजकल जनता नेता जी के काम को समझने असमर्थ है।

वर्तमान में व्यक्ति केवल अपने वर्चस्व अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहता है। भले ही वह उसके योग्य हो अथवा न हो। यह अध्यक्षता अशोक ऐसा दिव्य सुख है कि जिसके लिए लोग पर्याप्त धनराशि खर्च करने में भी नहीं हिचकते। अच्छा भला आदमी देखते-देखते कब यकायक आपके बीच से उठेगा और किंचित मुदित गौरवांदोलित पदन्यास के साथ जाकर अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठ जाएगा आप नहीं जान सकते। राजनीतिक द्वंद्व का विस्तृत रूप आगे देखने को मिलता है जब अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठकर सबसे पहले यह कहेगा कि वह इस पद के योग्य नहीं है; किंतु दूसरे को अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का अवसर दिए बगैर कुर्सी पर इस तरह धँसेगा जैसे अध्यक्ष के अलावा वह कभी कुछ बना ही नहीं। जब यही अध्यक्ष कितने शोक सभा को संबोधित करते हैं तो वह अपनी अध्यक्षता के आनंद में उन्मत्त होकर भूल कर जाते हैं कि वह शोक सभा में हैं- एक शोक-सभा की अध्यक्षता का आभार उन्हें सौंपा गया तो अपने भाषण में उन्होंने कहा- “यह मेरे लिए हर्ष और गौरव की बात है कि इस शुभ अवसर पर आपने मुझे सम्मानित किया। और इसके बाद अध्यक्षजी ने अपनी कुछ ताजी लिखी कविताएं भी सुन दी”।29 यहां मुद्राजी के राजनीतिक व्यंग का तिक्त वर्णन मिलता है कि शोक-सभा में कैसे हर्ष की चादर उड़ाई जा सकती है।

आज बदलते दौर में जब राजनीति में स्वयं राजनीति ही नहीं बची है तो राजनीति में नैतिकता का प्रश्न एक विचार पूर्ण स्थिति को दर्शाता है। जब जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि विधायक ही दलबदल करते हैं या उनकी खबरों को हम देखते हैं तो मतदान का कोई महत्व नहीं रह गया है। मुद्राराक्षस बताते हैं- “राजनीति का सबसे बड़ा शायद एशिया का सबसे बड़ा राजनीतिक औद्योगिक शहर दिल्ली है राजनीति का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है और देश की मंडियों में राजनीति का माल यहीं से आता है… सट्टा बाजार में विधायकों की खरीद-फरोख्त ही नहीं, समय आए तो राज्यपालों तक की खरीद-फरोख्त का जुगाड़ बैठ सकता है”।30 वही ‘चुनाव चक्र और एकता’ नामक व्यंग में पिता-पुत्र संवाद द्वारा वे नेता होने के विभिन्न लाभ बताते हैं- “बेटा, मैं चाहता हूं तुम कोई नेक धंधा करो। नेता बन जाओ क्योंकि डकैत बंदूकें लेकर जितना नहीं लूट सकता, एक नेता अदद कुर्ता-पायजामा पहनकर उससे कहीं ज्यादा संपत्ति बना सकता है। फिर तस्कर होंगे तो पकड़े भी जा सकते हो। नेता होगे, तो लोग लूट कर भी अपने को अहोभाग्य मानेंगे”।31

मुद्राजी अपने एक अनन्य लेख ‘देवता:किसिम किसिम के’ के प्रारंभ में ही कहते हैं कि विदेश में लोग जो करते हैं अगर वही हमने न किया तो जन्म बेकार है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नेताओं को देवता की संज्ञा से अभिभूत करते हुए कटाक्ष करते हैं- “नेता हो तो विदेश यात्रा जरूरी हो जाती है। नेता विदेश जाते हैं और वहां गरीबी दूर करने के तरीकों का अध्ययन करते हैं। भारत की गरीबी दूर करने का तरीका तब तक पता नहीं चलता जब तक मंत्री किसी नाइट क्लब में न जाए, बेहतरीन कामुक फिल्म न देखें और किसी गोरी सुंदरी के साथ न सोए”। वास्तव में नेता किसी डकैत से कम नहीं। यह नेता जनता द्वारा, जनता के लिए चुने हुए वे डकैत है जिन से स्वयं को ठगवा कर जनता धन्य होती है, अहोभाग्य मानती है। मुद्राजी बताते हैं कि नेता एक चतुर बगुला है जो जानता कि “वह जनता के वोट से जीता है पर वह कहता है कि अमुक देवी या अनूप बाबा की कृपा से जीता है क्योंकि वह जानता है कि यदि वह अपनी जीत का श्रेय जनता को देगा तो जनता उसे पकड़ लेगी और पूछेगी तुमने वादा किया था यहां पीने का पानी ला पहुंच जाओगे इसलिए हमने तुम्हें जिताया अब तुम पीने का पानी पहुंच जाओ। इसलिए झंझट में न पढ़कर सीधे ही कह देता है मैं तुम बाबा के पास गया था। उन्होंने मेरे सिर पर लात मारी और मैं जीत गया। इस बार वे जूता मारने की कृपा करें तो मैं मंत्री भी बन जाऊंगा”।32

निबंध ‘सवाल मुख्यमंत्री की नींद का’ में वे समाज में बढ़ते अपराधों पर सूक्ष्म दृष्टि करते हुए बताते हैं कि उनके बढ़ने के क्या-क्या कारण है- “यह सोना बंद हो जाए या सोने के लिए आरामदेह आसन न होने पर नींद उखड़ी-उखड़ी रहे तो प्रदेश में बड़ी गड़बड़ियां पैदा हो सकती है। बहुत से तो धंधे ही ठप हो जाएंगे। अगर कोई किसी को छुरा मारना चाहता है या मंदिर, मस्जिद के पास कुछ धांधली करना चाहता है तो यह जरूरी है कि वहाँ तैनात दरोगा थोड़ी देर सो ले, ताकि यह काम इत्मीनान से हो सके। वह जागता रहे तो बहुत मुमकिन है कि मुलाहिजे में उसे सीटी बजानी पड़ जाए। इसके लिए हाकिम को कभी-कभी जागते हुए भी सोने की आदत डालनी पड़ती है”।33

‘बड़ा क्या है: सच्चा सुख या सत्ता सुख’ निबंध में वे आधुनिक नेताओं के ज्ञान पर तीखा व्यंग करते हैं। आजकल के नेता जितने आधुनिक सुविधाओं से लैस है उतने ही ज्ञान के क्षेत्र में केवल डिग्री धारक से ज्यादा कुछ नहीं है। पढ़ने के नाम पर वे सिर्फ बयान पढ़ते थे या पार्टी का घोषणा-पत्र। बल्कि विश्वविद्यालय में पढ़ना न पड़े इसलिए वे यूनियन के नेता बन गए थे”। आगे एक नेता का जिक्र करते हैं जो दुकानदार से पूछता है “आपने पढ़ी ही होंगी। कुछ मोटी-मोटी बातें बता दीजिए, जैसे महात्मा गांधी का पूरा नाम क्या था? वह इंदिरा जी के भाई थे या बेटे? नमक सत्याग्रह क्या था? मतलब इस सत्याग्रह में नमक खान छोड़ दिया जाता था य ज्यादा खाया जाता था? भारत कब स्वतंत्र हुआ था अठारह सौ सत्तावन में या आगे-पीछे? चौरी-चौरा कांड में फूलन ने कितने लोग मारे थे? लाला लाजपतराय ने पहला मैच लाला अमरनाथ के विरुद्ध खेला था या पटौदी के विरुद्ध? जनरैलसिंह भिंडरावाले ने जलियांवाला बाग हत्याकांड के कब किया था”?34 नेता अपने जीवन में इतन व्यस्त है कि उसका ज्ञान अस्त-व्यस्त ही नहीं बल्कि ध्वस्त है।

वर्तमान युग में जहां योग्यता व अनुभव नाममात्र के साधन रह गए हैं, वही चयन प्रक्रिया मात्र औपचारिकता रह गई है। वास्तव में चयन आजकल पूर्व निर्धारित होता है योग्यता और अनुभव तो छँटनी के लिए बनाए जाते हैं।‘जरूरत है- सलाहाकार पद को’ में वे बताते हैं- “शैक्षणिक योग्यता बताकर आपका मूल्यवान समय नष्ट नहीं करूंगा, क्योंकि जो सलाहकार होता है उसे सलाह देनी होती है, ट्यूशन थोड़े-ही पढ़ाना होता है। आपको यह विश्वास दिलाता हूं कि कला, विज्ञान, तकनीकी, प्रशासन, व्यवसाय आदि किसी चीज में मुझे आप कोई योग्यता नहीं पाएंगे”। वे आगे बताते हैं कि नेताओं की रचनाधर्मिता किस प्रकार कार्यरत है- “मेरा यह भी काम होगा कि मैं कलाकारों को, साहित्यकारों को उनकी जिम्मेदारी बताऊं और सबकी ड्यूटी लगा दूं कि अपनी कला का दस फीसदी वे मुख्यमंत्री कोष में दे, यानी कवि अपनी दस कविताओं में से एक कविता मुख्यमंत्री के नाम से छपाएगा और चित्रकार अपने दस चित्रों में से एक मुख्यमंत्री द्वारा चित्रित मानेगा। इस तरह कला, विज्ञान, साहित्य जगत् में आपकी छवि उज्ज्वल करने के लिए साल-भर में ही काफी मसाला इकट्ठा कर सकूंगा”।35

राजनीति हमारे समाज में मकड़ी के जाल की तरह फैलती जा रही है। शिक्षा का क्षेत्र हो या खेलकूद का, साहित्य का क्षेत्र हो या फिल्म जगत सभी पर दलगत राजनीति हावी है। आजकल शिक्षा विद्यालय में नहीं कोचिंग सेंटर में दी जाती है। जिसका विज्ञापन मुद्राजी कुछ इस तरह बताते हैं- “‘शर्तिया टिकट दिलवाने की गारंटी’, ‘नेतागिरी की पूरी शिक्षा केवल एक मास में प्राप्त करें’, ‘एक सप्ताह में युवा नेता और दो सप्ताह में वरिष्ठ नेता बनने का पाठ्यक्रम’, ‘कार्बाइन प्राप्त करने और सरकारी जमीन पर कब्जा करने के सरल उपाय इत्यादि”।36 ‘नाम का भेद’ में वे बताते हैं कि सामंती युग समाप्त हो चुका है किंतु साहित्यिक क्षेत्र में ये अभी भी व्याप्त है। लोग नए लेखक को स्वीकार नहीं करते बल्कि उनकी रचनाओं को अन्य बड़े लेखक का नाम दे देते हैं। वहीं दूसरी और साहित्य में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने पद को किसी बड़े रचनाकार की कृति में डालकर आत्म संतोष करते हैं- “इस स्थिति से मुझे एक और खतरा महसूस होने लगा है। जाने किन-किन लोगों ने अपने श्लोक व्यासदेव के महाभारत में घुसा दिए। किसी ने अपना घटिया-सा नीतिग्रंथ चाणक्य के नाम से चला दिया”।37

कला तथा साहित्य में राजनीति के बढ़ते हस्तक्षेप का रेखाकंन इस बात के परिचायक हैं कि ये बौद्धिक क्षेत्र भी राजनीति के प्रभाव  से मुक्त नहीं रहे हैं। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए बताते हैं कि यह साहित्यिक पत्रिकाएं किसी बड़े नाम वाले लेखक अथवा ख्याति प्राप्त पुरुषों के अधीन है वह भोपाल की पत्रिकाओं के विशेषांक की तुलना एक पेड़ से करते हैं- “ऐसा पेड़ होते हैं जिसमें तन होता है ,डाल कोई नहीं होती। बस तन होता है और तने के आसपास कुल्हाड़ियाँ लिए हुए नामवर सिंह या रमेशचंद्र शाह”।38

 साहित्यकार अपनी कृति के एवज में उत्कृष्ट सम्मान की लालसा रखता है। वे पुरस्कार पाने के नए-नए तरीके अपनाता है। जैसे- पुरस्कार कमेटी में घुस जाना और तब तक वहां बने रहना जब तक फैसला अपने पक्ष में न हो जाए। कमेटी या समितियों में घुसने के लिए सामाजिक मूल्यों और मर्यादाओं का त्याग करना पड़ता है या फिर किसी मंत्री को दामादशिप के लिए गांठन पड़ता है। एक तरीका “किसी अच्छे अस्पताल से सांठगांठ के द्वारा भी हो सकता है जिसमें आप को दिल का दौरा पड़ा हो और बिल्कुल मरने वाले हो यदि पुरस्कार मिल जाए तो बच सकते हैं वरना साहित्य जगत् को शोकसभा करनी ही पड़ेगी”।39 आगे बताते हैं कि हमारे प्रदेश में साहित्यकार बड़े कर्तव्य-परायण है खुद ही बता देते हैं कि भाई लाओ अब अंगोछा पाने की उम्र हो गई और अब दुशाला मिलने का नंबर आ गया।… उत्तर प्रदेश का आदमी खड़े आचरण में विश्वास करता है और अनुशासन का प्रदर्शन करता हुआ अपने योग्य सम्मान की लाइन में लग जाता है, थोड़ी बहुत धक्कम-धक्का भले हो, वह धैर्यपूर्वक उसमें हिस्सा लेता है और अंततः पुरस्कार प्राप्त कर गद्-गद् हो जाता है”।40

साहित्य में परिवारवाद के आगमन के लिए वे एक उदाहरण पेश करते है- “शब्द चयन में सावधानी एक और बड़ी शर्त है। हमें बार-बार यह घोषणा करनी होगी कि नई पीढ़ी बहुत अच्छा लिख रही है, मगर हम यह कभी नहीं बताएंगे कि उस पीढ़ी में कौन हैं नाम लेने की जरूरत हो ही जाए तो उसके लिए पहले से ही तैयार रहना होगा। उस नाम को कई बार दुहरा देने के बाद एक नाम अपने भाई या साले का फिट करने में दिक्कत नहीं होती है। पाठक को लगेगा आलोचक ढेरों नाम गिनाने की उदारता बरत रहा है”।41 वे बताते हैं कि चतुर व्यक्ति आजकल साहित्यकार होने से पहले अफसर या मंत्री होता है। इससे उसका कल्याण तुरंत हो जाता है। वास्तव में आजकल साहित्य पर अफसर या मंत्री का ही वर्चस्व है।

‘अपने लेख बड़े बनने का गुर’ में वे बताते हैं कि साहित्य में भी गुटबंदी हो रही है और यह काम वे लोग करते हैं जो एक दूसरे की तारीफ करने का वचन लेकर डुबोने का काम करते हैं। डुबोने का तरीका वे ‘इनाम’ बताते हैं। मगर इस इनाम की शर्त वे बताते हैं इनाम दस हजार का घोषित होगा पर मिलेगा दो हजार। बाकी संयोजक अपने पास रखेंगे। इस प्रकार राजनीति का प्रवेश साहित्य को प्रदूषित कर रहा है। जो कि साहित्य की स्वायत्तता एवं निरपेक्षता के लिए हानिकारक है। मुद्राजी अपने लेख ‘एशियाड: भारतीय स्टाइल’ में बताते हैं कि नेता खेल में भी अपनी मनमर्जी चलाते हैं। खेल में जीत न होना, उनके लिए ठीक उसी प्रकार है जैसे नाच न जानने वालों के लिए आंगन टेढ़ा होना। अपनी कमियों पर प्रशासन इस प्रकार पर्दा डालता है- “अब हमारे खिलाड़ी जीत जाते लेकिन हमारे यहां एस्ट्रोटर्फ नहीं था। इस बार एस्ट्रोटर्फ भी हो गया। सच बात उन लोगों ने कहीं जिन्होंने कहा कि हम खिलाड़ियों का चुनाव सही नहीं करते। दरअसल एशियाड में हमें विधायक और नेता भेजना चाहिए था”।42

वर्तमान जगत में शायद ही कोई क्षेत्र हो जो राजनीति से प्रभावित न हुआ हो शिक्षा हो या संगीत, नौकरी हो या व्यवसाय, मनोरंजन हो या खेल इत्यादि। आज कोई भी क्षेत्र राजनीति के प्रभाव से मुक्त नहीं है। ऐसे में ग्लैमर्स की दुनिया ‘फिल्म जगत’ कैसे अछूता रह सकता है! राजनीति ने फिल्म उद्योग पर भी अपना शिकंजा कसा है। चयन से लेकर फिल्म के रिलीज होने तक राजनीति का प्रभाव क्षेत्र में दृष्टिगोचर होता है। मुद्राजी के अनुसार- “फिल्म बड़ा पवित्र और पुण्य कार्य भी है।… फिल्म भी ऐसा ही पुण्य कार्य है। इसे निर्माता की कोठी खड़ी हो सकती है और लेखक फ्लैट मिल सकता है और यह सब होता है जितनी फुर्ती से सुदामा की किस्मत बदली थी…चावल मेरे पास हैं… मैं निर्देशक को कहानी बाद में सुनाऊंगा, उसके मुंह में मुट्ठी भर चावल पहले झोंक दूंगा”। वही समाज में किसे कितनी वरीयता देनी है इसके लिए ज़ुम-इन तथा ज़ुम-आउट कर कैमरे द्वारा निर्धारित किया जाता है- “आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने छायावाद की वृहत्रयी को इतना ज़ुम-आउट किया कि वे इतिहास के नन्हें-नन्हें बुलबुले दिखने लगे”।43 इस प्रकार फिल्म जगत में द्वंद्व की स्थिति अधिक विचारणीय है।

आर्थिक द्वंद्व

आर्थिक द्वंद्व के अंतर्गत द्वंद्व के अर्थव्यवस्था से संबंधित पहलू पर दृष्टिपात किया जाता है। अर्थव्यवस्था से संबंधित द्वंद्व देश की आर्थिक स्थिति, समाज में अर्थव्यवस्था, आम आदमी के जीविकोपार्जन तथा प्रतिव्यक्ति आय से संबंधित है। सामंतवाद में अक्सर सामंत या गांव का उच्चाधिकारी या प्रधान आमजन पर अपने नियंत्रण रखता था तथा उससे काम करवाने के बदले में कुछ नहीं देता था। ऐसे ही कुछ स्थिति का ब्यौरा मुद्राजी के निबंध ‘गरीबी की रेखा के इधर और उधर’ में देखने को मिलता है। जहां सरकारी अफसर को दो सौ लोगों की गरीबी दूर करनी है। परंतु वह पहले से ही सौ लोगों द्वारा अपने दामाद की गरीबी दूर कर चुका है। गांव का प्रधान जब अपनी पसंद से पाँच लोगों को गरीबी दूर करने के लिए खड़ा करता है तो वहीं उन लोगों में छठवां घुरहू भी शामिल हो जाता है जो प्रधान के यहां बेगारी करता है। किंतु उसे न तो पर्याप्त भोजन मिलता है न ही कोई वेतन। प्रधान के लठैत उसे जोर-जबरदस्ती से धमकाकर अलग कर देते हैं और बाद में गांव से बाहर कर देते हैं- “थानेदार ने घुरहू को न सिर्फ गरीबी की रेखा से बाहर कर दिया बल्कि गांवों से भी खदेड़ दिया। इसके बाद जयकारे के साथ गांव के गरीबों को गरीबी की रेखा से ऊपर लाने का कार्यक्रम संपन्न हुआ और देखते ही देखते नहरसिंह प्रधान के भाई से लेकर सुगनचंद और लेनदेनराम तक की गरीबी दूर हो गई”।44

सरकार लाखों टन अनाज खरीदती है। कभी वह दावा करती है कि अनाज बारिश से खराब हो गया तो कभी कहती है कि अनाज चूहे खा गए। इसी द्वंद्वात्मक स्थिति को मुद्राजी बताते हैं- “सरकार ने लाखों टन अनाज खरीदा। खरीद के लिए करोड़ों का भुगतान हुआ। पर सरकारी गोदाम को कोई कष्ट नहीं हुआ। वह खाली का खाली पड़ा रहा। नैतिक दृष्टि से यह गोदाम की लूट हुई पर तकनीकी दृष्टि से कहे तो लूट नहीं हुई। गोदाम में अनाज आया ही नहीं। नहीं तो लुटता क्या? लूट फिर भी हो गई। यह लूट-कला स्थूल से सूक्ष्म की ओर यात्रा है”।45 आगे वे सरकारी राशन की दुकानों की स्थिति एवं लोगों को मिलने वाले राशन की गुणवत्ता से पाठक को परिचित कराते हैं- “राशन कार्ड इस बात की गारंटी तो नहीं देता कि शिवजी को राशन मिल ही जाएगा लेकिन बाकी बहुत काम आएगा। यानी इसके जरिए में मिट्टी का तेल खरीद सकेंगे। इसकी सहायता से उनका नाम मतदाता सूची में भी जाएगा। वैसे राशन भी कभी-कभी तो मिल ही जाया करेगा जिसमें उन्हें कुछ ऐसे कंकड़-पत्थर थैले में दिए जाएंगे जिसमें काफी तादाद में ऐसे गेहूं के दाने भी हो जिन्हें घुनों ने पूरा न खाया हो। ऐसी चिपचिपी-सी चीज अलग थैले में ला सकते हैं जिससे थैले से झाड़ तक नहीं निचोड़ कर देखें तो वह कुछ चीनी जैसी वस्तु होगी”।46 इस वे यहाँ सरकारी राशन की दुकानों पर मिलने वाले गेहूँ, चावल, चीनी की गुणवत्ता का चित्रण करते हैं।

इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करते भारत में बढ़ती गरीबी को लेकर मुद्राजी चिंतित प्रतीत होते हैं। वे गरीबी तथा भुखमरी जैसी समस्याओं पर विचार करते हैं कि जब अनाज खाद्य पदार्थ के बजाए दर्शनीय वस्तु रह जाएगा तो इन चालीस करोड़ भुक्खड़ों को भी अपनी आदत बदलनी पड़ेगी। वह अच्छी तरह जानते हैं कि पेट की आग में अच्छे-से-अच्छे व्यक्ति का ईमान डोल जाता है। इसलिए वे आगे भुखमरी के कारण बढ़ते अपराधों की ओर इशारा करते हैं- “जब बगल में पोटली होगी ही नहीं तो भुजाचोर को अपनी प्रकृति बदलनी पड़ेगी… डकैत सेठ को पीटते हुए यह नहीं कहेगा कि बता जेवर कहां गाड़े गए हैं, अपहरणकर्ता डाकू की चिट्ठी में लिखा होगा- अगर अपने बेटे की खैर चाहते हो तो पाँच सौ दाने बासमती चावल के फलाँ जगह चुपचाप रख जाओ”47 वही गरीबी के कारण भोजन तक न जुटा पाने वाले लोगों के लिए मुद्राजी नए-नए लोकोक्ति मुहावरे गढ़ते हैं। जैसे- रोजी-रोटी चल रही है, की जगह वह कहेंगे बंधु दाना दर्शन हो रहा है, दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले नाम की जगह वे कहेंगे दाने-दाने पर लिखा है देखने वाले का नाम।

भुखमरी के सापेक्ष एक समस्या और उभरती है जिसे कालाबाजारी की समस्या कहते हैं। उस वक्त व्यक्ति अपनी तथा अपने-अपनों की जाना बचाने के लिए कुछ भी कर सकता है। दो रुपए की चीज चार सौ तक में खरीद सकता है। वे कहते हैं- “पड़ता की दर और ज्यादा बढ़ाने के लिए माल बहुत दिन तक अगले-पिछले दोनों द्वारों से निकलना बंद कर देना चाहिए। तब विपत्ति में पड़े लोग दो रुपए की चीज़ दो सौ में नहीं चार सौ में भी इस तरह खरीदेंगे गोया मुफ्त हो”।48

वहीं देश में अकाल तथा भुखमरी से मरने वाले लोगों के विषय में सरकार अक्सर मौन साधे रखती है। कोरोनाकाल में बाँटे गए मुफ्त राशन की स्थिति में भी लगभग उपरोक्त स्थिति जैसे ही थी और महामारी से मरने वाले लोगों की संख्या का उपयुक्त आंकड़ा सरकार के पास नहीं है। मुद्राजी इसी स्थिति से पाठक को अवगत कराते हैं- “ज्यादा सर्दी हो या गर्मी का मौसम आ जाए तो सौ-पचास मौतें बड़ी साधारण बात है। अकाल और भुखमरी से मरने वालों की संख्या सरकार कभी स्वीकार नहीं करती। भुखमरी से सौ-पचास आदमी भी मर जाए तो उस पर न रपट लिखी जाती है न जांच कमीशन बैठता है। क्योंकि यह न्यूयार्क, पेरिस या लंदन की समस्या नहीं है”।49

अपने अन्य निबंध में वे दर्शाते हैं कि सत्ता अर्थ को कैसे प्रभावित करती है। एक तरफ जहां प्रशासन में घोटालेबाज़ी, भ्रष्टाचार, दलाली कायम है वहीं कुछ नेता ऐसे भी हैं जो प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री के हाथ मजबूत करने का दम भरते हैं। उन्हें मतलब नहीं कि उसके कार्य से क्या प्रगति और क्या क्षति हो रही है। किंतु वह सब करते हैं प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के नाम पर जो पहले से ही मजबूत व्यवस्था में है- प्रधानमंत्री के हाथ मजबूत करने की प्रक्रिया के बीच कहीं बेहतरी के इंतजाम में हर तकलीफ झेलता आम आदमी हुकूमत के दायरे से बिल्कुल बाहर जा पड़ा है। जनसाधारण के प्रति जिम्मेदारी ने अपने सही अर्थ ही खो दिया है और मरते हुए आदमी को पीने का पानी भी इसी शर्त पर पहुंचता है कि उससे प्रधानमंत्री का हाथ मजबूत हो सके। इसका विद्रूप उस वक्त और तीखा हो जाता है, जब मरते आदमी की मदद इस तर्क पर रोकी भी जा सकती है कि इस तरह प्रधानमंत्री के हाथ मजबूत होंगे50 हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना है कि यह सब उस नेता के लिए होता है जिसे जनता चुनकर सत्ता की कमान संभालने की जिम्मदारी देती है।

‘ऋणंकृत्वा चर्बी पिवेत’ में उन्होंने घी में की जाने वाली मिलावट का वर्णन किया हैं। इसमें वे व्यंग्य करते हैं कि घी में आजकल इतनी चर्बी मिलाई जा रही है कि घी तो शुद्ध है परंतु चर्बी शुद्ध नहीं मिल रही है अर्थात घी में चर्बी की खपत ज्यादा होने से चर्बी बाजार में नहीं मिल रही है- “मंत्री जी ने इसका जोरदार प्रतिवाद किया, बोले, यह सरासर झूठ है। घी में चर्बी कहीं नहीं मिली। घी बिलकुल शुद्ध बिक रहा है। बस कुछ असामाजिक तत्वों ने इधर गड़बड़ी फैला दी और चर्बी में घी मिला दिया है। सच तो यह है कि शुद्ध चर्बी नहीं मिल रही है और पत्रकार लोग उल्टा-सीधा कुछ भी छापे चले जा रहे हैं।” आगे वे बताते है कि किसान-मजदूर सरकार से सहायता के लिए कुछ राशि कर्ज लेता है तो उसका कुछ अंश नेता तथा अफसर लोग अपने पास रख लेते हैं ताकि किसान व मजूदर के चर्बी न बढ़े- “हम आम आदमी का कितना ध्यान रखते हैं! अगर उसे खेती के लिए चार हजार कर्ज मिले तो हम चैक में से उसे सावधानी और स्नेह बरतते हुए केवल दो हजार देते हैं। बाकी दो हजार स्वयं रख लेते हैं। किसान चार हजार पा जाए तो दो बैल खरीदेगा और खेती में आराम तलब हो जाएगा। उसकी चर्बी बढ़ेगी और उसे दिल का दौरा पड़ेगा। दो हजार पाता है तो हल में एक तरफ बैल होता है दूसरी तरफ वह स्वयं”।51

मुद्राजी बताते हैं कि भारतवर्ष में आज बहुत तरह के मेले लगे हैं। मेले कहीं-न-कहीं हँसी-खुशी, हर्षोल्लास, उत्साह एवं अर्थ का प्रतीक हैं। परंतु यदि इसमें नकारात्मक तत्व भी शामिल हो जाए तो यह द्वंद्वपूर्ण स्थिति को उद्घाटित करता- “मेला तो पूरे देश में लगा हुआ है, काले बाजार का मेला, मुनाफाखोरी का मेला, धनकुबेरों के धंधे का मेला, मंत्रियों के भाषणों का मेला, डकैतों की लूट का मेला और एक बहुत भारी चिता यहां जल रही है जिसमें शहीद ला-लाकर जलाए जा रहे हैं। बेरोजगार शहीद, भूखे शहीद, नंगे शहीद, हरिजन शहीद, गरीबी की रेखा के नीचे जीने वाले शहीद”।52

धार्मिक द्वंद्व

धार्मिक द्वंद्व व्यक्ति के धार्मिक विश्वास तथा मान्यताओं से संबंधित है। धर्म के बदलते स्वरुप दिखावा, बाहरी साधनों आदि के साथ-साथ रुढ़ियों के संदर्भ में धर्म की व्याख्या करना धार्मिक द्वंद्व कहलाता है। अपने निबंध ‘काशीनाथ शासकीय नियमावली’ में  वे धार्मिक द्वंद्व का वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हैं। वे बताते हैं कि भगवान शिव के मंदिर से उन पर चढ़ा सोने का पतरा चोर द्वारा उतारने पर सरकार ने मंदिर अपने अधीन ले लिया और अब भगवान एक सरकारी कर्मचारी की तरह कार्य करेंगे- “सरकार अनुशासन को सर्वप्रथम मानती है इसलिए भगवान शिव वल्द नामालूम को ड्यूटी का पाबंद होना पड़ेगा”। उन्हें अब पहले की तरह कहीं भी कभी भी आने-जाने की स्वतंत्रता नहीं होगी। वे आगे बताते हैं कि किसी-किसी भक्त को महीनों चक्कर काटने होता है फिर भी उसकी मुराद पूरी नहीं की जाती। इसका लिखित हिसाब रखना होगा और मुराद पूरी न कर पाने के उचित और विश्वसनीय कारण फाइल पर दर्ज करने होंगे।” अब ईश्वर की भी सरकार के प्रति जवाबदेही होगी का अनूठा वर्णन किया गया है। मुद्राजी बताते हैं कि ईश्वर को सरकार ने सरकारी कर्मचारी बनकर उनकी वेशभूषा तक परिवर्तित करवा दी है। यहां भगवान शिव का मानवीकरण कर बताया गया है कि एक सरकारी कर्मचारी को किस प्रकार की यातनाएं झेलनी पड़ती हैं, का तथ्यात्मक ढंग से व्याख्यायित किया गया है- “उत्तर प्रदेश सरकार के सांस्कृतिक कार्य विभाग द्वारा समय-समय पर आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शिव और पार्वती को निशुल्क भाग लेन होगा इन अवसरों पर उन्हें किस प्रकार के कार्यक्रम प्रस्तुत करने हैं इसका आदेश उन्हें विदेशक सांस्कृतिक कार्य निदेशालय से प्राप्त करना होगा। हालांकि उक्त कलाकार युगल नृत्य के कार्यक्रम ही देते रहे हैं किंतु मंत्रियों के आदेश पर उन्हें ग़ज़ल आदि गाने के लिए तैयार रहना होगा”। आगे भी शिवजी के सेवा में हाजिर भूत-प्रेतों को भी प्रशासन में नियुक्त करने का फरमान सुनते हैं- “ऐसा सुन गया है कि भगवान शंकर को कुछ भूत-प्रेत सिद्ध है और उन्हें तंत्र-मंत्र भी आता है। तो ने प्रशासन को अपनी सेवा में नियुक्त सभी भूत-प्रेतों की सूची पते सहित देनी होगी। यह भूत आवश्यकता पड़ने पर सरकारी आदेश पर बुलाए जा सकेंगे और ऊँचे अफ्सर या मंत्री के शत्रु के विरुद्ध अनुष्ठान का प्रबंध करेंगे”।53

धर्म के नाम पर जनता के विश्वास के साथ खिलवाड़ तथा राजनीति का धर्म में हस्तक्षेप द्वारा उत्पन्न परस्पर वैषम्यपूर्ण स्थिति का इन पंक्तियों में स्पष्ट रुप से रेखांकन किया गया है- “यह मंदिर बहुत कुछ तिरुपति देवस्थानम की पद्धति पर चलाया जाएगा यानी इसकी आय से एक चिकित्सालय चलाया जाएगा। जहां उन नेताओं की हृदय चिकित्सा होगी जो कुर्सी छूट नहीं आन मिलने का आघात रहते हैं। इससे कुछ ऐसी सड़कें बनाई जाएंगी जिनकी मौत का रुपया तक संबंधित फाइलों की खरीद का माही जाए। ऐसी बसें चलाई जाएंगी जो यात्री गाड़ी कम मुर्दा-गाड़ी ज्यादा लगे। ऐसे स्कूल भी खोले जाएंगे जिनके खुलने से पढ़ाई बंद हो जाती है और प्रबंधकों की तकदीर खुल जाती हैं”।54

धर्म के नाम पर फैले अंधविश्वास का वर्णन में अपने लेख ‘कम्प्यूटर क्रांति’ में करते हुए बताते हैं- “जैसे किसी जगह एक मूर्ति रखकर त्रिशूल गाड़ दीजिए या थोड़ी-सी ईटें लेकर कब्र बन लीजिए तो आप थोड़े समय में सुखपूर्वक एक ऐसे मंदिर या मजार कॉमेपलेक्स के मालिक हो सकते हैं जो सड़क के बीचों-बीच भी बन हो तो कोई हटाने वाला नहीं”। आगे भी तकनीकी उपकरण के संबंध में उनकी वैज्ञानिक दृष्टि अत्यधिक तिक्त हो जाती हैं- “यह भी विचित्र मसखरापन है। हम रेडियो टेलिस्कोप लगाते हैं तो उसका इस्तेमाल करने से पहले फूल चढ़ाकर उस पर तिलक लगा देते हैं। हम नई टेक्नोलॉजी अपनाते हैं लेकिन यह विश्वास नहीं छोड़ते की बुरी आत्माएं आसपास है और टेक्नोलॉजी से उद्देश्य सफल नहीं होगा। पूजा पाठ से हो जाएगा”।55

अपने निबंध ‘दीवाली: क्या दीवाला की पत्नी है’ में वे दीपावली के अगले दिन मनाए जाने वाले उत्सव गोवर्धन का तर्कपूर्ण वर्णन करते हैं- “दिवाली के आने पर गोवर्धन पूजा होती है। दरअसल यह भी बिगड़ा हुआ शब्द है। पूजा में गोबर का ढेला बनाया जाता है और यही इस पूजा का रहस्य है। शब्द है गोवर्धन। गोबर गैस की तर्ज पर की गोवर्धन है। हमें मान लेना चाहिए कि हमारा धन गोबर है, नोट नहीं। लोग परेशान होते हैं कि महंगाई भत्ता नहीं बढ़ा। बोनस नहीं मिला। ये लोग दिग्भ्रमित है। हमें गोबर की खोज करनी चाहिए, भत्ते की नहीं। असली धन तो गोबर ही है। अब नोट के ढेर में और गोबर के उपले में अंतर समाप्त कर दिया गया है। आपके पास भत्ते वाले नोट आ गए तो वे भी गोबर ही हैं।”56

इस प्रकार मुद्राजी कृत निबंध-साहित्य द्वंद्व के विविध रूपों की सशक्त अभिव्यक्ति है। उनके संपूर्ण निबंध साहित्य में द्वंद्व के विविध रूप सम्मिलित हैं। मानसिक द्वंद्व के द्वारा व्यक्ति के मनोभावों चाहे वे ईश्वर हो या राजनेता, साहित्यकार हो या आम आदमी सभी के मनोवेगों का उपयुक्त चित्रण करते हैं। सामाजिक द्वंद्व में जहाँ वे समाज में व्याप्त व्यक्ति और व्यवस्था के द्वंद्व को चरितार्थ करते हैं वहीं राजनीतिक द्वंद्व में वे राजनेता के चेहरे से भले मानस का मुखौटा हटाते हैं। आर्थिक द्वंद्व में जहां गोदामों में अनाज का वर्णन करते हैं वही भारत में गरीबी, भुखमरी, बेगारी, बेरोजगारी इत्यादि समस्याओं पर भी दृष्टिपात करते हैं। धार्मिक-सांस्कृतिक द्वंद्व में वे धर्म के नाम पर फैले अंधविश्वास तथा मंत्रियों में व्याप्त वोट की प्रवृत्ति को दर्शाते हैं। विषय चाहे कोई भी रहा हो, सभी पर मुद्राजी ने अपनी पैनी कलम चलाई। प्रशासन और अपने समकालीन साहित्यकारों से निडर होकर उनका व्यंग्यकार कहीं भी समझौता नहीं करता अपितु वह मुक्त भाव से विसंगतियों और विद्रूपताओं पर प्रहार करता है। अतः मुद्राराक्षस का निबंध-साहित्य विविध समस्याओं के साथ-साथ समस्या के कारणों को पाठक के समक्ष अभिव्यंजित करता है तथा समस्याओं के समाधान हेतु पाठक को एक वैचारिक पटल पर लाकर छोड़ देता है। यही उनके निबंधों का सार-पक्ष है और यही उसकी सार्थकता है ।

संदर्भ ग्रंथ

  1. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-8
  2. सुनो भई साधो, मुद्राराक्षस, किताबघर, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1984, पृष्ठ-111
  3. वही, पृष्ठ-25
  4. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-9
  5. वही, पृष्ठ-25
  6. सुनो भई साधो, मुद्राराक्षस, किताबघर, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1984, पृष्ठ-07
  7. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-8
  8. वही
  9. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-39
  10. सुनो भई साधो, मुद्राराक्षस, किताबघर, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1984, पृष्ठ-11
  11. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-126
  12. वही, पृष्ठ-127
  13. वही, पृष्ठ-132-33
  14. वही, पृष्ठ-102
  15. सुनो भई साधो, मुद्राराक्षस, किताबघर, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1984, पृष्ठ-86
  16. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-104
  17. वही, पृष्ठ-84
  18. वही, पृष्ठ-80-81
  19. वही, पृष्ठ-79
  20. सुनो भई साधो, मुद्राराक्षस, किताबघर, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1984, पृष्ठ-87
  21. वही, पृष्ठ-22
  22. वही, पृष्ठ-46
  23. वही, पृष्ठ-50
  24. वही, पृष्ठ-74
  25. वही, पृष्ठ-73
  26. वही, पृष्ठ-109-110
  27. वही, पृष्ठ-104-05
  28. वही, पृष्ठ-106
  29. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-21
  30. वही, पृष्ठ-35
  31. वही, पृष्ठ-53
  32. वही, पृष्ठ-127-29
  33. वही, पृष्ठ-75
  34. वही, पृष्ठ-79
  35. सुनो भई साधो, मुद्राराक्षस, किताबघर, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1984, पृष्ठ-58-59
  36. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-80
  37. सुनो भई साधो, मुद्राराक्षस, किताबघर, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1984, पृष्ठ-08
  38. वही, पृष्ठ-55
  39. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-11
  40. सुनो भई साधो, मुद्राराक्षस, किताबघर, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1984, पृष्ठ-85
  41. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-38
  42. सुनो भई साधो, मुद्राराक्षस, किताबघर, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1984, पृष्ठ-95
  43. वही, पृष्ठ-15
  44. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-67
  45. वही, पृष्ठ-56
  46. सुनो भई साधो, मुद्राराक्षस, किताबघर, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1984, पृष्ठ-29
  47. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-144
  48. वही, पृष्ठ-47
  49. वही, पृष्ठ-127
  50. सुनो भई साधो, मुद्राराक्षस, किताबघर, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1984, पृष्ठ-73
  51. मथुरादास की डायरी, मुद्राराक्षस, जगतराम एण्ड संस, संस्करण-1994, पृष्ठ-41,44
  52. वही, पृष्ठ-79
  53. वही, पृष्ठ-28-29
  54. वही, पृष्ठ-31
  55. वही, पृष्ठ-101
  56. सुनो भई साधो, मुद्राराक्षस, किताबघर, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1984, पृष्ठ-107
चंचल
(शोधार्थी)
पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय