अकबरी दरबार के कवियों में रहीम (1556-1638) का विशेष स्थान है । ये बैरम खां खानखाना के पुत्र थे और इनकी माँ हुमायूँ की पत्नी की छोटी बहन थी । अल्पायु में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण अकबर ने इनका पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा अपनी देखरेख में करवाई थी । बड़े होने पर पहले उन्हें पाटन की जागीर दी गई और फिर अजमेर की सुबेदारी और रणथम्भौर का किला दिया गया । अकबर ने इन्हें अपने नवरत्नों में स्थान दिया था । “ जहांगीर के शासनकाल में भी इनका सम्मान बना रहा किन्तु अंतिम दिनों में शहजादा खुर्रम का समर्थन करने के कारण इन्हें नूरजहाँ का कोप भाजन बनना पड़ा । वह अपने दामाद शहजादा शहरयार को भावी शासक बनाने का स्वप्न देख रही थी । उसके आदेश से इन्हें कैद कर लिया गया । बाद में जहांगीर ने इन्हें क्षमा कर दिया । फिर भी इनके जीवन के अंतिम दिन कुशलता के साथ व्यतीत नहीं हुए ।”1
रहीम अरबी, फारसी और संस्कृत के अच्छे ज्ञाता और हिंदी के सुकवि थे । इन्होंने ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही काव्य रचना प्रारम्भ कर दी थी । इनकी रचनाओं में दोहावली, नगरशोभा, बरवै नायिका भेद और मदनाष्टक प्रमुख हैं । “कहा जाता है कि इन्होने सतसई की रचना की थी, किन्तु सम्प्रति इनके नीति सम्बन्धी प्राय: तीन सौ दोहे ही मिलते हैं । एक अनुमान के अनुसार कदाचित् इन्होंने श्रृंगार रस के दोहे भी लिखे होंगे, जिनके योग से सतसई बनती । जो भी हो इनके नीति सम्बन्धी दोहे सर्व प्रसिद्ध है और उनमें जीवन की विविध अनुभूतियों का मार्मिक चित्रण हुआ है ।”2 लेकिन यहाँ हम केवल उनके प्रेम सम्बन्धी दोहों का ही वर्णन करेंगे जो इस प्रकार हैं :-
रहीम का मानना है कि प्रेम और विरह की अग्निअंतर्मन में ही सुलगती है । यह किसी को दिखाई नहीं देती । इसका धुआं भी अदृश्य होता है । यह ऐसी असाधारण आग है जो प्रेमी को ही पीड़ित करती है । यही भाव व्यक्त करते हुए रहीम कहते हैं –
“अंतर दावलगी रहै, धुआँ न प्रगटै सोइ ।
कै जिय आपने जानहीं, कै जिहि बीती होइ ।।”3
इस प्रकार एक अन्य स्थान पर रहीम का मानना है कि जब एक दीपक के प्रकाश में सारी वस्तुएं स्पष्ट दिखने लगती हैं, तो फिर नयनों के दो-दो दीपक के होते तन मन में बसे स्नेह प्रेम को कोई कैसे भीतर छिपाकर रख सकता है । अर्थात दो नेत्र रूपी दीपकों से हृदय में बसा प्रेम दिख जाता है, छुपा नहीं रहता । यही भाव व्यक्त करते हुए रहीम कहते हैं कि:-
“कहि रहीम इक दीप ते, परगट सबै दुति होय ।
तनसनेह कैसे दुरै, दृग दीपक जरू दोय ।।”4
एक अन्य स्थान पर रहीम कहते हैं कि यह संसार प्रेम और स्नेह से आज रिक्त हो गया है । यहाँ दुर्जन लोग भरे पड़े हैं, जो केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगे हैं, इसलिए प्रीति (प्रेम) इस दुनिया को छोड़ गई है । यही भाव व्यक्त करते हुए रहीम कहते हैं कि:-
“कह रहीम य जगत तै, प्रीति गई दै टेर ।
रहि रहीमनर नीच में, स्वारथ स्वारथ हेर ।।”5
रहीम का मानना है कि प्रेम के आगे स्वर्ग का सुख भी तुच्छ है । वे कहते हैं कि- मुझे स्वर्ग का सुख नहीं चाहिए और कल्पवृक्ष की छाँव से भी कोई लेना देना नहीं है । रहीम कहते हैं कि मुझे वह ढाक का वृक्ष अति प्रिय है जहाँ मैं अपने प्रीतम के गले में बाँह डालकर बैठ सकूँ । यही भाव व्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि:-
“कहा करौ बैकुंठ लै, कल्पवृक्ष की छाँह।
रहिमन दाख सुहावनो, जो गल पीतम बाँह ।।”6
आगे रहीम कहते हैं कि कुशलता, हत्या, खांसी,ख़ुशी,दुश्मनी,प्रेम और मदिरापान ये बातें लाख कोशिश करके भी छिपाई नहीं जा सकती है । फ़ौरन सब जान लेते हैं। अर्थात् जो अंतर्मन में होता है, वह छिपतानहीं है, प्रकट हो जाता है । यही भाव व्यक्त करते हुए रहीम कवि कहते हैं कि:-
“खैर, खून,खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान ।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान ।।”7
आगे रहीम कहते हैं कि प्रेम का मार्ग बहुत ही कठिन होता है , मानो मोम के घोड़े पर सवार होकर अंगारों पर चलना । जिसमें विश्वास हो, लगन हो, पक्का इरादा हो, वही ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ सकता है । अर्थात् प्रेम भक्ति का मार्ग बहुत कठिन होता है । इसकी कठिनाइयों को पार कर लेने वाला मुक्त हो जाता है । यही भाव व्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि:-
“चढ़िबो मोम तुरंग पर, चलिबो पावक मांहि।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं ।।”8
एक अन्य स्थान पर रहीम प्रेम अग्नि का वर्णन करते हुए कहते हैं कि– लकड़ियों में आग लगती है और बुझ जाती है । बुझकर फिर नहीं लगती । लेकिन प्रेम अग्नि एक ऐसी आग होती है जो बुझती है और फिर सुलगती है और यह चक्र निरंतर चलता रहता है । जब यह अग्नि प्रभु प्रेम की अग्नि बन जाती है तो मनुष्य का कल्याण हो जाता है :-
“जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहि ।
रहिमन दोहे प्रेम के , बुझि बुझि के सुलगहि ।।”9
प्रेम की महत्ता समझाते हुए कवि रहीम कहते हैं कि धन्य है वह मछली जो जल से अलग होते ही प्राण त्याग देती है और धिक्कार है ऐसे भौरें को जो एक फूल का रस पीते ही दूसरे पर जा बैठता है । अत: प्रेम करो तो मछली की तरह करो । यही भाव व्यक्त करते हुए रहीम कहते हैं:-
“धनि रहीम गति मीन की , जल बिछुरत जिय जाय ।
जिअत कंज तजि अनत बसि, कहाभौंर को भाय ।।”10
रहीम कहते हैं कि जब नेत्रों में प्रेमी या प्रेमिका की छवि बसी हो तो किसी और छवि के लिए स्थान ही कहाँ बचता है । ठीक उसी प्रकार जब धर्मशाला यात्रिओं से भरी हो तो नया यात्री स्वत: लौट जाता है । यही भाव व्यक्त करते हुए रहीम कहते हैं:-
“प्रीतम छवि नैनन बसि, पर छवि कहा समाय।
भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिरि जाय ।।”11
आगे रहीम कहते हैं कि प्रेम का धागा या प्रेम का बंधन बहुत ही नाजुक होता है , इसलिए इस बंधन का निर्वहन बहुत ही सावधानी से करना चाहिए क्योंकिज़रा सी भी ठेस लगने से यह चक्कर टूट सकता है : फिर इसमें गाँठ पड़ जाती है जो सदा उस टूटन की याद दिलाती रहती है । फिर प्रेम में वैसी नरमाहट नहीं रहती । अत: इसमें विशेष सावधानी बरतनी चाहिए । यही भाव व्यक्त करते हुए रहीम कहते हैं कि :-
“रहिमन धागा प्रेम का , मत तोड़ो छिटकाय।
टूटे से फिर न मिले , मिले गाँठ परि जाय ।।”12
आगे रहीम कहते हैं कि प्रेम जैसा बाहर से करो वैसा ही भीतर से । प्रेम में छल कपट का कोई स्थान नहीं है । खीरे जैसा प्रेम कभी मत करो , जो बाहर से तो एक दीखता है लेकिन उसके भीतर तीन फांके होती हैं । अत: प्रेम बाहर और भीतर दोनों से निर्मल होना चाहिए :-।
“रहिमन प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।
उपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन ।।”13
रहीम कवि का मानना है कि प्रेम का मार्ग बहुत फिसलन भरा है । यहाँ चलते चलते चींटी तक फिसल जाती है और लोग यहाँ पर बैल लादकर ले जाना चाहते हैं । अर्थात् प्रेम का मार्ग बड़ा कठिन होता है । निर्मल लोग ही यहाँ सफलता पाते हैं । जो लोग इसे व्यापार के रूप में देखते हैं, उनका यहाँ निर्वहन नहीं होता ।-
“रहिमन पैडा प्रेम का , निपट सिलसिली गैल।
बिछलत पाँव पिपीलिका , लोग लदावत बैल ।।”14
आगे रहीम कहते हैं कि- जो प्रेम किसी के साथ मिलकर और गहरा हो जाये , उसकी सराहना करनी चाहिए । जैसे हल्दी और चूना मिलते हैं तो दोनों अपने अपने रंग त्यागकर एक तीसरा ही चटख रंग तैयार करते हैं,जो बड़ा मनभावन होता है । अर्थात् प्रेम वही सच्चा होता है जो अहम् त्यागकर किया जाये ।-
“रहिमन प्रीति सराहिये , मिले होत रंग दून।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून।।”15
प्रेम सम्बन्धी नीति का वर्णन करते हुए रहीम कहते हैं कि जब तक मान सम्मान बना रहे , तभी तक किसी स्थान पर रुकना चाहिए । जब लगे कि प्रेमसम्बन्ध में गर्माहट घटने लगी है तो तुरंत उस स्थान को छोड़ देना चाहिए :-
“रहिमन रहिबो वा भलौ,जो लौ सील समूच।
सील ढील तब देखिये , तुरत कीजिए कूच ।।”16
आगे रहीम कहते हैं कि जिनसे हमें बहुत प्रेम होता है , उसका क्रोध सहकर भी हम उसे त्यागते नहीं है , क्योकि सच्चा प्रेम त्यागा नहीं जाता । जैसे नींद को लाख भगाओ , लेकिन मौका मिलते ही वह फिर चली आती है , हमें छोड़कर नहीं जाती :-
“रहिमन रिस सहि तजत नहि, बड़े प्रीति की पौरि ।
मूकन मारत आवई, नींद बिचारि दौरी।।”17
प्रेम में एकाग्रता का वर्णन करते हुए रहीम कहते हैं कि- सामान्य पक्षी किसी एक स्थान विशेष पर नहीं बसते । दाने पानी की तलाश में एक सरोवर से दूसरे और दूसरे से तीसरे पर ठिकाना बनाते रहते है । लेकिन हंस केवल मानसरोवर पर ही बसते है । ये भक्त प्रेमी पक्षी बार बार ठिकाना नहीं बदलते, इनकाचित्त एक की ही भक्ति में लीन होता है :-
“सरवर के खग एक से , बाढ़त प्रीति न धीम ।
पैमराल को मानसर , एकै ठौर रहीम ।।”18
इस प्रकार रहीम कृत दोहावली में उपर्युक्त दोहों में हमें प्रेम का वर्णन देखने को मिलता है ।
रहीम मूलतः नीति कवि हैं लेकिन प्रेम सम्बन्धी दोहे भी उनकी दोहावली में देखने को मिलते हैं, जोकि संख्या में कम हैंलेकिन हैं अवश्य । अत: रहीम के उपर्युक्त दोहों में हमें उनका प्रेम विषयक दृष्टिकोण देखने को मिलता है ।
सन्दर्भ ग्रंथ सूची –
- हिंदी साहित्य का इतिहास, संपादक – डॉ नगेन्द्र , सह संपादक डॉ हरदयाल , पृष्ठ संख्या -231
- वही, पृष्ठ संख्या -232
- रहीम ग्रन्थावली , संपादकविद्यानिवास मिश्र , गोविन्द रजनीश , दोहा संख्या -4,पृष्ठ संख्या -69
- वही, दोहा संख्या -30पृष्ठ संख्या -72
- वही, दोहा संख्या -32, पृष्ठ संख्या 72
- वही, दोहा संख्या -40, पृष्ठ संख्या -73
- वही, दोहा संख्या -49, पृष्ठ संख्या -74
- रहीम दोहावली , संपादक – वाग्देव, पृष्ठ संख्या 49
- रहीम ग्रन्थावली , संपादक विद्यानिवास मिश्र , गोविन्द रजनीश , दोहा संख्या 70, पृष्ठ संख्या 76
- वही, दोहा संख्या -113, पृष्ठ संख्या -80
- वही, दोहा संख्या -129, पृष्ठ संख्या -82
- वही, दोहा संख्या -212, पृष्ठ संख्या -91
- वही, दोहा संख्या -220, पृष्ठ संख्या -92
- वही, दोहा संख्या 222, पृष्ठ संख्या -92
- वही, दोहा संख्या -223, पृष्ठ संख्या -92
- वही, दोहा संख्या -238, पृष्ठ संख्या -94
- वही, दोहा संख्या -243, पृष्ठ संख्या -94
- वही, दोहा संख्या 275, पृष्ठ संख्या 97