1945 से 2010 तक अनवरत साहित्य साधना करने वाले श्रीलाल शुक्ल का लेखन काल लगभग 65 सालों का रहा है । आजादी के बाद के भारत के गांवो ,शहरों ,कस्बों की गरीबी, अमीरी, नीतियों, योजनाओं ,संप्रदायिकता राजनीति, शिक्षण व पुलिस व्यवस्था, न्यायव्यवस्था, स्वास्थ्य, भूदान आंदोलन सहकारिता आदि में व्याप्त विद्रूपता , विसंगति, विकृति को पूरी गंभीरता और बौद्धिकता के साथ श्री लाल शुक्ल ने यथार्थ की जमीन पर अन्वेषण किया है ।उनके साहित्य में आजादी के बाद के भारत के सारे वर्गों के पात्र जीवंतता के साथ शामिल होते हैं।
राग दरबारी लोकतंत्र की संस्थाओं से मोहभंग की कथा है कथा के केंद्र में वैघ जी हैं । उनके इर्द-गिर्द उनके प्रबंधन और नेतृत्व में चलने वाला छंगामल विद्यालय इंटरमीडिएट कॉलेज है। कॉलेज में गुटबंदी है, खन्ना मालवीय मास्टर का अपमान व शेषण है, कॉलेज से येन केन प्रकारेण खन्ना मास्टर का निष्कासन है । प्रिंसिपल व क्लर्क की अनवरत चापलूसी है, षड्यंत्र है, कुप्रबंधन है, मोती मास्टर के आटे चक्की की दुकान है। विद्यार्थियों की कक्षा व्यवस्था को पटरी से उतारकर स्थानीय डकैती, हड़ताल, गुंडागर्दी आदि में झोंकने के लिए वैघ जी के बेटे रूप्पन बाबू हैं। युवाओं को बर्बाद करने के लिए उपयुक्त मंच छंगामल कॉलेज है। जिसमें लड़के की तरह आप अपने जीवन से उदास, निराश, हताश युवाओं के लिए “आशा का संदेश” देती वैघ जी की पुड़िया है।
इन सबके बीच पर्यवेक्षक आब्जर्वर की तरह शिवपालगंज जैसे देश के लाखों गांव पात्रों देशकाल, को देखती दिखाती ,गुजरती- गुजारती श्रीलाल शुक्ल की दृष्टि रंगनाथ है जिसके आँखों देखा हाल है राग दरबारी। देश की आजादी के लिए शहीद हुए नेताओं की बलिवेदी भारत में उग आए कुकुरमुत्तो की तरह के छुटभैये नेताओं की स्वर्थाध व सडाध पैदा करती राजनीतिक केंद्रीयता है, जो लोकतंत्र की संस्थाओं के आदर्शवाद को दीमक की तरह चाट कर लगातार देश को खोखला कर रहे हैं। वैघ जी साक्षात रूप में वह राजनीतिक संस्कृति है जो प्रजातंत्र और लोकहित के नाम पर हमारे चारों ओर फल फूल रही हैं लोकतंत्र की संस्थाओं पर नियंत्रण रखते हुए।
21वीं सदी के तीसरे दशक में कदम रख चुके भारत की तस्वीर में भी राग दरबारी के पात्र उनकी समस्याएं सामाजिक, शैक्षणिक, जातीय संरचना, किसानों की स्थिति गांव की हालत भ्रष्टाचार गबन 1968 के मुकाबले में बदली नहीं है, बल्कि विद्रूपताओं, विसंगतियों और विकृतियों में वृद्धि ही हुई है।
राग दरबारी में शिक्षा व्यवस्था पर बहुत गंभीरता से बहस छेड़ी गई है, सवाल खड़ा किया गया है। शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त खामियों, विकृतियों , गुटबंदियो को सामने लाने का प्रयास किया गया है।छंगामल विद्यालयों की स्थापना का उद्देश्य विधानसभा लोकसभा चुनाव की जमीन तैयार करने के लिए आज भी स्थानीय तथाकथित जननायक कर रहे हैं जिसका एक उद्देश्य कुछ मास्टरो और सरकारी अनुदानों का शोषण करना है। साक्षरता आंदोलन के बाद मुँह बाए खड़ी बेरोजगारी पर सवाल ‘राग दरबारी’ में ज्वलंत रूप में खड़ा हुआ है “कुछ दिन पहले इस देश में शोर मचा था कि अपढ़ आदमी बिना सींग- पूँछ का जानवर होता है उस हल्ले में अपढ़ आदमियों के बहुत से लड़कों ने देहात में हल और कुदालें छोड़ दीं और स्कूलों पर हमला बोल दिया…. शिक्षा के मैदान में भभड़ मचा हुआ था अब कोई यह प्रचार करता हुआ नहीं दिख पड़ता था कि अपढ़ आदमी जानवर की तरह है। बल्कि दबी जुबान में यह कहा जाने लगा कि ऊँची तालीम उन्हीं को लेनी चाहिए जो उसके लायक हो, इसके लिए स्क्रीनिंग होनी चाहिए। इस तरह से घुमा फिराकर इन देहाती लड़कों को फिर से हल की मूँठ पकड़ा कर खेत में छोड़ देने की राय दी जा रही थी।…. जाओ बेटा, जाकर अपनी भैंस दुहो और बैलों की पूँछ ऊमेठो: शैली और कीट्स तुम्हारे लिए नहीं है। (1) आज भारत में कुकुरमुत्तो की तरह फैले और स्थापित हुए स्ववित्तपोशी, स्वायत ,स्कूलों ,कॉलेजों , विश्वविघालयों की हालत और हालात छंगामल कॉलेज के प्रबंधन, प्रबंधक वैघ जी, स्टूडेंट लीडर रुप्पन बाबू, प्रिंसिपल-क्लर्क, खन्ना मालवीय-मोती मास्टरो के कुचको ,षड्यंत्रो, गुटबंदियो का ही शिकार है। कॉलेजों के प्रिंसिपल कॉलेज के पीछे गधे तक को बाप कहते हैं। डिसिप्लिन बनाते हैं-“ सरकारी बसवाला हिसाब लगाओ मालवीय। एक बस बिगड़ जाती है तो सब सवारियाँ पीछे आने वाली दूसरी बस में बैठा दी जाती है। इन लड़कों को भी वैसे ही अपने दर्जे में ले जाकर बैठा लो ।…. पर यह तो नवाँ दर्जा है। मैं वहाँ सातवें को पढ़ा रहा हूं। हमका अब प्रिंसिपली करै ना सिखाव भैया। जोनु हुकुम है- तौन तू चुप्पै कैरी आउट करो। समझयो कि नाहीं? (2) इसमें आश्चर्य नहीं है कि प्रिंसिपल की भाषा प्रबंधक की भाषा हो गई है। शिक्षा तंत्र में प्रबंधकों द्वारा कुंठा, समझौता परस्ती, आर्थिक शोषणकारी नीतियाँ लगातार थोपी जाती रही हैं। सरकार दर्शकदीर्घा मैं बैठकर निजीकरण को बढ़ावा देती जा रही हैं छंगामल कॉलेज के मैनेजर हैं वेघजी सभी प्रकार के भ्रष्टाचार के कर्ता धर्ता ।उनके बेटे रुप्पन बाबू कॉलेज के युवा नेता है जो दसवीं कक्षा में 3 बार से लगातार फेल हो रहे है। पर्यवेक्षक पात्र रंगनाथ की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है-“ किसी भी सामान्य मूर्ख की तरह उसने एम.ए. करने के बाद तत्काल नौकरी न मिलने के कारण रिसर्च शुरू कर दी थी पर किसी भी सामान्य बुद्धिमान की तरह वह जानता था कि रिसर्च करने के लिए विश्वविद्यालय में रहना और नित्यप्रति पुस्तकालय में बैठना जरूरी नहीं है।“(3) भारत के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों का हाल अब ऐसा है कि रोना कम हंसना ज्यादा आता है । हमने रवीश कुमार के यूनिवर्सिटी सीरीज में देखा कि नेताओं ने देश के बच्चों को बर्बाद करने का कितना फूलप्रूफ इंतजाम कर रखा है। बिहार के बी.एन. मंडल विश्वविद्यालय में तो बी.ए. के तीन साल की डिग्री 6 साल में मिलती है। उच्च शिक्षा को लेकर रंगनाथ और प्रिंसिपल साहब का संवाद सुनिए-“ मेरे कई थर्ड क्लास दोस्त यूनिवर्सिटी में ही लगे हैं मुझे वहां यूनिवर्सिटी में जगह ना मिली… और सच पूछो तो मुझे यूनिवर्सिटी में लेक्चरार ना होने का भी कोई गम नहीं है। वहां तो और भी नरक है ।पूरा कुंभीपाक ! दिन रात चापलूसी कोई सरकारी बोर्ड दस रुपल्ली की ग्रांट देता है और फिर कान पकड़कर जैसी चाहे वैसी थीसिस लिखा लेता है। जिसे देखो कोई ना कोई रिसर्च प्रोजेक्ट हथियाए है ।कहते हैं कि रिसर्च कर रहे हैं; पर रिसर्च भी क्या जिसका खाते है उसी का गाते हैं। कहलाते हैं बुद्धिजीवी ।तो हालत यह है कि है तो बुद्धिजीवी, पर विलायत का एक चक्कर लगाने के लिए यह साबित करना पड़ जाए कि हम अपने बाप की औलाद नहीं तो साबित कर देंगे। चौराहे पर दस जूते मारलो पर एक बार अमेरिका भेज दो-यह है बुद्धिजीवी!(4)
जड़ों से खोखले और चतुर्दिक बांह फैलाए बरगद वृक्ष की तरह के बुद्धिजीवियों की पोल खोलती कहानियों का विविध: प्रसंगों में जिक्र हुआ है राग दरबारी में।
राग दरबारी ‘हिंदुस्तान के गांव की हालत ,यहां के पुलिस थानों अफसरों स्कूलों विद्यार्थियों प्रिंसिपलो गांव के राजनीतिज्ञों और भ्रष्ट नीतियों को उभारती है। “बाकी सब पिछड़ा इलाका था ।वहां के सभी निवासी जानते थे कि अगर उनका पिछड़ापन छीन लिया गया तो उनके पास कुछ और न रह जाएगा। ज्यादातर किसी से मिलते ही वे गर्व से कहते थे कि साहब, हम तो पिछड़े हुए क्षेत्र के निवासी हैं।“(5) यह पिछड़ापन जीवन के कई स्तरों पर दिखता है गाँव के किनारे एक छोटा सा तालाब था जो बिल्कुल “अहा ग्राम जीवन भी क्या है’ था ।गंदा कीचड़ से भरा पूरा बदबूदार । बहुत शूद्र, घोड़े ,कुत्ते, गधे, सूअर उसे देखकर आनंदित होते थे कीड़े मकोड़े और भुनगे, मक्खियां और मच्छर परिवार नियोजन की उलझनों से उन्मुक्त वहां करोड़ों की संख्या में पनप रहे थे और हमें सबक दे रहे थे कि अगर हम उन्हीं की तरह रहना सीख ले तो देश की बढ़ती हुई आबादी हमारे लिए समस्या नहीं रह जाएगी।
गंदगी की कमी को पूरा करने के लिए दो दर्जन लड़के नियमित रूप से शाम सवेरे और अनियमित रूप से दिन को किसी भी समय पेट के स्वेच्छाचार से पीड़ित होकर तालाब के किनारे आते थे और ठोस द्रव तथा गैस तीनों प्रकार के पदार्थ उसे समर्पित करके हल्के होकर वापस लौट जाते थे ।(6)“यह है ग्रामीण जीवन की गंदगी का यथार्थ। 21वीं सदी के दूसरे दशक तक भी स्वच्छता अभियानो, शौचालयों के निर्माण के बावजूद भारतीय ग्रामीण जीवन के अभिन्न अंग के रूप में गंदगी स्वीकार कर ली गई है।
आजादी के बाद बने लिखे संविधान और शिक्षा के प्रचार के कारण सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था और छुआछूत की समस्या कमजोर तो हुई लेकिन खत्म नहीं हुई। नेताओं ने लोकतंत्र के नाम पर वोट बैंक के लिए जाति व्यवस्था को लगातार हवा दी ।गाँव सभा के चुनाव में लोकतंत्र की असफलता साफ नजर आती है ।रामनगर गाँव के चुनाव का जिक्र देखिए “गांव सभा के चुनाव में रामनगर में एक बार दो उम्मीदवार खड़े हुए थे: रिपुदमनसिंह और शत्रुघ्नसिंह। दोनों एक ही जाति के थे, इसलिए जाति के ऊपर वोटों का स्वाभाविक बंटवारा होने में दिक्कत पड़ गई। जो ठाकुर थे वह इस पसोपेश में पड़ गए कि यह भी ठाकुर और वह भी ठाकुर किसे वोट दें और किसे ना दें जो ठाकुर ना थे, वे इस चक्कर में आ गए कि यह जब अपनी जाति के ही नहीं है तो इन्हें वोट दिया तो क्या और ना दिया तो क्या। (7) किसी नवादावाला तरीके का जिक्र जाति आधारित वोट के लोकतांत्रिक ढोंग को और भी स्पष्ट करती है। वहां कई जातियों के लोग चुनाव लड़ने के लिए खड़े थे- कुछ दिन बाद बात उसी पुराने स्तर पर आ गई थी बताओ ठाकुर किसन सिंह ,हमें छोड़ कर क्या अब तुम उस चमार को वोट दोगे?(8) लोकतंत्र में जाति की जो विष घोली जा रही है उसको रोकने के लिए संविधान बना लेकिन निरक्षर और मूर्ख जनता के हिस्से सिर्फ धर्म आया।“ चमरही गाँव के एक मोहल्ले का नाम था जिसमें चमार रहते थे। चमार एक जाति का नाम है ।जिसे अछूत माना जाता है। अछूत एक प्रकार के दुपाए का नाम है जिसे संविधान लागू होने से पहले छूते नहीं थे। संविधान एक कविता का नाम है जिसके अनुच्छेद 17 में छुआछूत खत्म कर दी गई है क्योंकि इस देश में लोग कविता के सहारे नहीं, बल्कि धर्म के सहारे रहते हैं और क्योंकि छुआछूत इस देश का एक धर्म है, इसलिए शिवपालगंज में भी दूसरे गाँवो की तरह अछूतों के अलग-अलग मोहल्ले थे और उनमें सबसे ज्यादा प्रमुख मुहल्ला चमरही था।“(9) स्वातंत्रयोत्तर भारत के गाँवो में यह जातिवाद हर एक जगह पर विद्यमान है। जाति, धर्म, अंधविश्वास ग्रामीण संस्कृति का अभिन्न अंग बन चुका है।
किसान आंदोलनों के बीच भारत की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था व समस्याएं उजागर होती रही हैं किसानों को ‘अधिक अन्न उपजाओ’ के निर्देश अमूमन मिलते रहते हैं। किसानों की गरीबी, तकनीकी विकास ,सिंचाई ,चकबंदी और मूलभूत समस्याओं पर तो किसी नेता या अधिकारी का ध्यान नहीं होता। चुनावी वादों, विज्ञापनों और भाषणों के ढकोसलों के द्वारा सरकारी तंत्र का प्रचार ही मुख्य लक्ष्य रहता है। “तुम खेतीहर हो, तुमको अच्छी खेती करनी चाहिए, अधिक अन्न उपजाना चाहिए। प्रत्येक वक्ता इसी संदेह में गिरफ्तार रहता था कि काश्तकार अधिक अन्न पैदा नहीं करना चाहते। लेक्चरो की कमी विज्ञापनों से पूरी की जाती थी।….अगर अपने लिए अन्न नहीं पैदा करना चाहते तो देश के लिए करो।…. मलेरिया को खत्म करने के लिए हमारी मदद करो, मच्छरों को समाप्त हो जाने दो ।यहां भी यह मानकर चला गया था कि किसान गाय, भैंस की तरह मच्छर भी पालने को उत्सुक हैं और उन्हें मारने के पहले किसानों का हृदय परिवर्तन करना पड़ेगा। हृदय परिवर्तन के लिए रोब की जरूरत है रोब के लिए अंग्रेजी की जरूरत है। (10) विकास के तमाम वादों और दावों के बीच नेहरू युग से मोदी काल तक किसानों की हालत गरीबी कुपोषण जहालत के दायरे में सिमटी हुई है। ‘विकास’ की कहानी की पहचान राग दरबारी में होती है।
शहरी जीवन में व्याप्त उचित अनुचित किसी भी प्रकार के साधन से सत्ता को हथियाने वाली नेताशाही से भारतीय गाँव की राजनीति पूर्णत: प्रभावित होती जा रही है। वैघ जी कॉलेज के मैनेजर, कोऑपरेटिव सोसाइटी के डायरेक्टर तथा पंचायत के सर्वेसर्वा है। वैघजी स्वार्थप्रियता अवसरवादिता, भाई- भतीजावाद ,गुटबंदी, गुंडागर्दी ,मारपीट, गाली-गलौज आदि गुणों में सिद्धहस्त है। वैघ जी का कॉलेज में भाई- भतीजावाद आदि की बातों का विरोध होने पर भी तमंचे के जोर पर दोबारा चुनाव जीतते हैं। कोआपरेटिव में गबन के मामले में वैघ जी का विरोध होने पर वे स्वयं त्यागपत्र देकर अपने ही बेटे बद्री बाबू को डायरेक्टर बनवाकर समस्त सत्ता हथिया लेते हैं ।जब गाँव सभा के बंजर जमीन के पट्टे और शक्कर, मैदा के कोटा से आमदनी बढ़ने की उम्मीद बांधती है तो अपने कठपुतले, दास सनीचर को ग्राम प्रधान बनवाते हैं ।वैघ जी उन शहरी नेताओं की तरह है जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य कुर्सी है।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार का एक नमूना कालिकाप्रसाद है जो वैघ जी के गिरोह के थे। उनका ‘राग दरबारी’ में परिचय देखिए-“ कालिका प्रसाद का पेशा सरकारी ग्रांट और कर्ज खाना था। वे सरकारी पैसे के द्वारा सरकारी पैसे के लिए जीते थे। उनका पूरा कर्म योग सरकारी स्कीमों की फिलॉसफी पर टिका था। मुर्गीपालन के लिए ग्रांट मिलने का नियम बना तो उन्होंने मुर्गियां पालने का ऐलान कर दिया। एक दिन उन्होंने कहा कि जाती पाती बिल्कुल बेकार की चीज है और हम बाँभन और चमार एक हैं ।यह उन्होंने इसलिए कहा कि चमड़ा कमाने की ग्रांट लेकर अपने चमड़े को ज्यादा चिकना बनाने में खर्च भी कर डाली। खाद के गड्ढे को पक्का करने के लिए, घर में बिना धुएँ का चूल्हा लगवाने के लिए नए ढंग का संडास बनवाने के लिए कालिका प्रसाद ने यह सब ग्रांट ली और इनके एवज में कारगुजारी की जैसी रिपोर्ट उनसे मांगी गई वैसे ही रिपोर्ट उन्होंने बिना किसी हिचक के लिखकर दे दी। उनके पास पांच बीघे खेत थे, जो अकेले ही पचासों तरह के कर्जो और तकावियो की जमानत संभाले हुए थे।(11) “लोकतंत्र का मजाक उड़ाने वाला ये सामंतीवर्ग है ।वर्तमान में नीरव मोदी, ललित मोदी, विजय माल्या, कालिकाप्रसाद के आधुनिक संस्करण लगते हैं। वंशवाद, कुनबापरस्ती, चापलूसी, जातीप्रेम, राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण आदि वे सभी विकृतियाँ जो आज भारतीय जनतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है ,राग दरबारी में उन सभी मुद्दों की गहरी शिनाख्त की गई है।
न्याय व्यवस्था में व्याप्त घूसखोरी, अन्याय ,शोषण के मकड़जाल को लंगड कथा के प्रसंग से समझा जाना। शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्ति पर भी न्यायपालिका रहम करके न्याय नहीं करती, बल्कि व्यक्ति के भ्रष्ट ना होने पर उसे सजा देती है। नकल लेने के सब कायदे रट डालने, फीस का पूरा चार्ट याद करने, कई बार की असफलता और बीमारियों में पढने के बावजूद उसे ‘लंगड़ऊ’ बोला जाने लगता है, उपहास का पात्र हो जाता है। लंगड़ होना और सत्य की लड़ाई लड़ना उस समाज में उपहासास्पद हो जाता है। लंगड के ठीक उलट वैघजी, जोगनाथ, छोटे पहलवान का न्याय ही न्यायपालिका को सही जवाब है जो न्याय व्यवस्था को सबके सामने अंधा बना कर धूल झोंक कर सच्चे को झूठा साबित करते जाते हैं। खन्ना मास्टर ग्रुप, गयादीन की बेटी बेला, दरोगाजी के खिलाफ झूठों के पक्ष में न्यायपालिका फैसला सुनाती है। वैघजी की बैठक में लोकतंत्र की सारी संस्थाएं घिसटती, मजबूर, गिड़गिड़ाती सी नजर आती है। रुप्पन रंगनाथ से कहते भी हैं कि कहां तक भागोगे दादा ! सारे मुल्क में यही शिवपालगंज ही फैला हुआ है और असल में “असली शिवपालगंज वैघ जी की बैठक में था।… बैठक का मतलब ईंट और गारे की बनी हुई इमारत भर नहीं है। नंबर 10 डाउनिंग स्ट्रीट, वाइट हाउस, क्रमलीन आदि मकानों के नहीं, ताकतों के नाम है ।“(12) ‘राग दरबारी’ भारत भर में फैले वैघजी नुमा नेताओं प्रबंधको, सामंतों के लूट तंत्र की कथा का सार है। श्रीलाल शुक्ल राग दरबारी में लिखते हैं-“ सभी मशीनें बिगड़ी पड़ी हैं। सब जगह कोई-न-कोई गड़बड़ी है। जान पहचान के सभी लोग चोट्टे हैं। सड़कों पर सिर्फ कुत्ते, बिल्लियां और सूअर घूमते हैं। हवा सिर्फ धूल उड़ाने के लिए चलती है। आसमान का कोई रंग नहीं, उसका नीलापान फरेब है। बेवकूफ लोग बेवकूफ बनाने के लिए बेवकूफो की मदद से बेवकूफो के खिलाफ बेवकूफी करते हैं। घबराने की जल्दबाजी में आत्महत्या करने की जरूरत नहीं। बेईमानी और बेईमान सब ओर से सुरक्षित हैं ।“(13)
दरअसल राग दरबारी के वैघ जी सारे कथा पात्र और खुद शिवपालगंज एक प्रतीक भर है। जिसमे पूंजीवादी प्रजातंत्र, सामंती मानसिकता की गुटबंदी, भाई- भतीजावाद, भ्रष्टाचार, चोरी लूट, खुशामदीपन के तंत्र के सामने रोज संवैधानिक- लोकतंत्र की हत्या की जा रही है। आजादी के बाद के भारत में संसद से सड़क तक ‘राग दरबारी’ का राग अनवरत आज तक जारी है।
संदर्भ सूची
- श्रीलाल शुक्ल -राग दरबारी पृष्ठ 23 राजकमल प्रकाशन
- वही पृष्ठ 21
- वही पृष्ठ 48
- वही पृष्ठ 191
- वही पृष्ठ 109
- वही पृष्ठ 195
- वही पृष्ठ 200
- वही पृष्ठ 204
- वही पृष्ठ 100
- वही पृष्ठ 58
- वही पृष्ठ 146
- वही पृष्ठ 27
- वही पृष्ठ 258