आधुनिक कालीन हिंदी राम काव्य में मैथिलीशरण गुप्त रचित साकेत महाकाव्य का जहाँ अपना विशिष्ट महत्व है वहीं पंडित नित्यानंद शास्त्री विरचित रामकथा- कल्पलता अपनी शैली, मौलिक उद्भावना, उदात्त कथानक, सुगठित ग्रंथन ,काव्य शास्त्रीय सिद्धांत -अनुपालन, सजीव शब्द चित्रांकन एवं उक्ति वैचित्र्य- निरूपण आदि की दृष्टि से एक विशिष्ट ग्रंथ है। हिंदी के सुविख्यात आलोचक डॉ.करुणाशंकर उपाध्याय का कहना है कि-“ आधुनिक राम काव्यों में ‘साकेत ‘के बाद दूसरा स्थान ‘रामकथा- कल्पलता ‘ का ही है ।“ विलक्षण प्रतिभा के धनी पंडित नित्यानंद शास्त्री जी मूलत:संस्कृत के कवि हैं और उनके द्वारा विरचित रामकथा- कल्पलता हिंदी साहित्य का एक अद्भुत ग्रंथ है । रामकथा- कल्पलता हिंदी रामकाव्य परंपरा में एक महत्वपूर्ण बिंदु है जिस पर हिंदी आलोचना ने अपेक्षित ध्यान नहीं दिया है ।
संपूर्ण ग्रंथ कुल 24 प्रतानों में विभक्त है। परंपरा का पालन करने के साथ ही कई स्थानों पर कवि ने मौलिक प्रयोग किए हैं। इस दृष्टि से हम देखते हैं कि मंगल दोहावली में ही कवि की मौलिकता झलक उठी है। कवि ने मंगल दोहावली का श्रीगणेश वैदिक मंत्र-“ विश्वानिदेव सवितर दुरितानि यद् भद्रं तन्न आसुव” से किया है। इस मंत्र में 24 अक्षर हैं ।24 अक्षरों को आधार बनाकर कवि ने 24 दोहे और फिर उन दोनों से क्रमशःचौबीस प्रतानों की परिकल्पना कवि की मौलिकता का परिचायक है। रामकथा- कल्पलता में निहित मौलिकता,चरित्रगत नवीनता तथा शिल्पगत वैशिष्ट्य अपना अलग महत्व रखता है।
रामकथा–कल्पलता में चित्र यथार्थ बोध:- राम कथा कल्पलता 19वीं शताब्दी की रचना है। भले ही कवि ने इसमें पौराणिक कथा को स्थान दिया है परंतु वह अपने समय के यथार्थ का अतिक्रमण नहीं कर सका है ।इसमें तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक यथार्थ का विधिवत चित्रण मिलता है।
- राजनीतिक यथार्थ:- यद्यपि पंडित नित्यानंद शास्त्री जी का समय अंग्रेजी सत्ता के दौर से गुजर रहा था। भारत की जनता अंग्रेजों की गुलामी रूपी जंजीरों में पूरी तरह जकड़ी हुई थी। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियाँ प्रजा के अनुकूल नहीं थी। ऐसे विषम समय में शास्त्री जी रामकथा- कल्पलता का प्रणयन कर इसमें राजा और प्रजा के मध्य समानता की बात करते हैं तो निश्चित रूप से यह महान कार्य था। रामकथा -कल्पलता में पौराणिक कथा को लेकर राजा और प्रजा के मध्य समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया गया है। तेरहवें प्रतान में वृद्धावस्था के कारण एक दिन वैतालिक के सांकेतिक कथन से राजा दशरथ के मन में राम को युवराज बनाने का विचार आता है। वे राज्यसभा में निवेदन करते हैं कि इक्ष्वाकुवंशी राजकुल- परंपरा का यथाशक्ति निर्वाह करते हुए उन्होंने अब तक शासन कार्य किया है किंतु अब शरीर की शिथिलता के कारण वे ज्येष्ठ पुत्र राम को युवराज बनाकर भार- मुक्त होना चाहते हैं:-
“ यौवराज दे सुपटु राम को ,अतः चाहता मैं विराम को।
यों तो वे मम कार्य -भार को , बंटा पालते निजाचार को।।“
दशरथ यह कार्य जनता की अनुमति एवं परामर्श लेकर करना चाहते हैं। राजा का यह औदार्य राजा और प्रजा के बीच समदर्शिता को स्थापित करता है।
दशरथ का प्रजा के प्रति यह संबोधन दर्शनीय है:-
“ किंतु नियम से पद न दिया है, शिशु ने माँ पन स्वयं पिया है।
यदि जनता की अनुमति पाऊं, तो मैं सफल- काम हो जाऊं॥”
दशरथ अपनी बात प्रजा के समक्ष रख कर चुप हो जाते हैं ।जनता अक्षत बरसाते हुए ध्वनिमत से इस प्रस्ताव का अनुमोदन कर देती है ।राम के राज्याभिषेक की घोषणा से अयोध्या में आनंद छाया हुआ है किंतु भरत ननिहाल में हैं, यह बात कौशल्या को खटक रही है क्योंकि यह युवराज पद जनता द्वारा पोषित है ।यहाँ ये पंक्तियां दर्शनीय हैं:-
“ जब से मैंने सुना सु-घोषित , यौवराज्य -पद जनता -पोषित
तब से मुझे भरत- अनुपस्थित, खटक रही है ,क्यों हो प्रस्थिति।।”
यद्यपि जहाँ वाल्मीकि का समय राक्षसों से पीड़ित था तो तुलसी का समय मुगल साम्राज्य से आक्रांत था वहीं शास्त्री जी का समय अंग्रेजी हुकूमत से त्रस्त था। उस समय के भारतीय राजाओं में भी आपसी कलह मचा हुआ था। कहना न होगा कि तत्कालीन शासन -व्यवस्था भी षड़यंत्र से अछूती नहीं थी। शास्त्री जी ने अयोध्या में राम के राज्याभिषेक को लेकर हुए आंतरिक कलह के माध्यम से तत्कालीन राजनीतिक यथार्थ को व्यक्त किया है।
मंथरा, कैकई को भड़काते हुए कहती है कि राज्याभिषेक के बाद राम तो शांतिपूर्वक राज्य करेंगे और लक्ष्मण भी मंत्री पद पर आसीन हो जाएंगे किंतु भरत तो सिर्फ गुप्तचर ही रहेंगे। इस प्रकार मंथरा द्वारा अनिष्ट की सूचना पाकर कैकेयी कोपभवन में जाकर लेट जाती है। दशरथ जब कैकेयी के निवास में जाते हैं तो वहीं पास में ही उसे कोपशाला में लेटी हुई देखकर सशंकित हो जाते हैं कि कुछ दाल में काला है। वे कैकेयी से कोप भवन में इस प्रकार लेटने का कारण पूछते हैं तब कैकेयी कठोर वचनों का प्रयोग करते हुए पुराने दो वरदानों की मांग करती है:-
“ हा! कैकेयी यह दृढ़ बांध बोली ,मानो पिलाने विष-गुप्ति खोली।
जो हैं पुराने वर-दान थाती, उन्हें अभी मैं स्मृति -मार्ग लाती ॥
यह मैं अभी माँग रही कि, भैया – द्वितीय खेवें यह राज्य- नैया।
संन्यस्त श्रीराम रहें वनों में- चतुर्दशाब्दांत ,न बंधनों में॥”
इस प्रकार कैकेयी के कारण अयोध्या की शांति भंग हो जाती है, जिसके परिणाम स्वरूप राम को वनवास तथा तथा दशरथ की मृत्यु होती है।
- सामाजिक यथार्थ:- वस्तुतः सामाजिक यथार्थ से तात्पर्य सामाजिक परिस्थितियाँ, सामाजिक वातावरण, रीति-रिवाज, परंपराएं ,संस्कार आदि से है। शास्त्रीजी के समय की सामाजिक परिस्थितियाँ बहुत कुछ समाज के अनुकूल नहीं थीं। एक ओर जहाँ देश अंग्रेजों से आक्रांत था वहीं सामाजिक धरातल पर समाज, उच्च और निम्न दो वर्गों में विभक्त हो चुका था ।जातिगत भेद, छुआछूत का खाज पूरे समाज में फैला हुआ था। ऐसी विषम परिस्थिति में यदि कोई कवि अपनी रचना के माध्यम से समाज में जातिगत या अर्थगत समरसता स्थापित करने का प्रयास करता है तो निश्चित रूप से वह एक महत कार्य है ।शास्त्रीजी जाति से ब्राह्मण थे किंतु उन्होंने उक्त ग्रंथ के माध्यम से जातिगत व अर्थगत विषमता को दूर करने का प्रयास तो किया ही है साथ ही तत्कालीन सामाजिक रीति- रिवाज, परंपराओं एवं संस्कारों को भी अपने ग्रंथ में यथोचित स्थान दिया है।
तीसरे प्रतान में दशरथ द्वारा यज्ञ में पूर्णाहुति के पश्चात उनको दिव्य पायस कलश प्राप्त होता है जिसे वे तीनों रानियों को प्रदान करते हैं, तत्पश्चात रानियां गर्भधारण करती हैं। रानियों के गर्भधारण करने के पश्चात पुंसवन व सीमंतोत्सव मनाए जाने की परंपरा का उल्लेख कवि ने इस प्रकार किया है:-
“ सीमंतोत्सव भूप के भवन में वैसा मनाया गया,
पुत्रोत्पत्ति- महोत्सव प्रथम ही मानो जनाया गया।
आशा से अवलोक लोक जिसको भूले हुए स्नेह से ,
देने जन्म बधाइयां चल पड़े फूले हुए गेह से।”
दसवें प्रतान में सीता व बारात की विदाई के समय सीता का पशु- पक्षी, लता- वृक्ष जैसे समस्त प्रकृति के साथ प्रेम तो व्यक्त ही हुआ है साथ ही बेटी की विदाई के समय का तत्कालीन समाज का करुण यथार्थ भी व्यक्त हुआ है:-
“बेटी !तू ससुराल को जब विदा होगी ,मिलूंगी न मैं,
मैं हूँ कातर कातरा तब तुझे बेटी? करूंगी न मैं ।
तू संतुष्ट सिधारना ,तव रहे सौभाग्य स्थायी घना,
सीता को यह मात्र- वाक्य सुमिरे सिद्धार्थ होते बना॥”
आज का युवक उत्तर आधुनिकता की चकाचौंध में दिग्भ्रमित हो अपने माता-पिता की जहाँ उपेक्षा कर रहा है वहीं राम का आदर्श प्रस्तुत कर शास्त्री जी ने अपने समय के सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत किया है। पंद्रहवें प्रतान में संध्या वंदन के पश्चात प्रतिदिन राम नियमानुसार पिता दशरथ को प्रणाम करने जाते हैं। उन्हें नियत स्थान पर न पाकर माता कैकेयी के यहाँ जाते हैं। पिता को विषण्ण अवस्था में देखकर वे माता कैकेयी से पिता के दुख का कारण पूछते हैं, परस्थिति का पूरा आभास होने पर श्री राम पिता की आज्ञा मानकर वन जाने को तैयार हो जाते हैं। पिता दशरथ की आज्ञा पालन का यह चित्र अत्यंत मार्मिक है ।इसी क्रम में राम, वन -गमन के समय सीता के पतिव्रत धर्म एवं लक्ष्मण का भ्रातृ धर्म तत्कालीन व आज के समाज के लिए अनुकरणीय बन पड़ा है ।राम को वन जाने के लिए उद्यत देख सीता कहती हैं’-
“सीता बोली- आर्यपुत्र! क्या मुझे छोड़ जाएंगे ? I
सहचर्या- नियम को आज ही तोड़ जाएंगे ? I
सौभाग्य है अहो! मेरा, जो ऐसी घटना घटी।
क्यों हटूँगी सुहठ से मां भी न हठ से हटी।
तरुणी परखी जाती पड़े दुर्दैव -दृष्टि के।
शास्त्रीजी का समय एक और जहाँ अंग्रेजी शासन से भयाक्रांत था, वहीं सामाजिक विषमता एवं छुआछूत अपने चरम पर था। सोलहवें प्रतान में राम, गुहराज निषाद को अपनाकर उसका आतिथ्य स्वीकार करते हैं यहाँ पर कवि ने गुहराज निषाद और राम की मैत्री द्वारा सामाजिक विषमता को दूर करने का सफल प्रयास किया है:-
“ गुहराज चरणों में चिपट बोले, विनय सुन लीजिए,
इस दास की कलुषित कुटी को नाथ, पावन कीजिए।
यों कह पदाब्ज पखारकर पादाम्बु को चट पी गए,
बोले कि हम भव-भीति से मरते हुए अब जी गए।
संकेत कर जन वर्ग से फल, कंदमूल मँगा लिए,
मन- कर्म -वचनों से सभी के प्रीति से स्वागत किए।
प्रभु ने कहा, हे मित्र! हार्दिक प्रेम- हेतु कृतज्ञ हैं,
गुह साश्रु बोले आप तो सर्वज्ञ हैं, हम अज्ञ हैं।”
इसी प्रकार श्रीराम द्वारा सबरी को अपनाना, _ वानरराज सुग्रीव से मैत्री, गिद्धराज जटायु को सद्गति, विभीषण को शरण देने जैसे प्रसंग सामाजिक यथार्थ के उदाहरण देखे जा सकते हैं।
- सांस्कृतिक यथार्थ:- प्रथम प्रतान में सरयू के तट पर बसी मुक्ति नगरी ,अयोध्या की भव्यता का विशद वर्णन है। वहाँ के लंबे -चौड़े बाजारों की शोभा, नर -यान (पालकी) वायुयान, मुख्य बाजार ,व्यापारिक बाजार, पण्यशालाओं के वर्णन में सांस्कृतिक यथार्थ की झांकी अत्यंत मनोरम बन पड़ी है:-
“खूब चौड़े और लंबे क्या अहा! बाजार थे,
चित्रशाली, शिल्पवाली कांति के आधार थे।
दीखते चलते जहाँ नित विविध रथ भूमी – तले,
मध्य में नर -यान, नभ में वायु-यान भले -भले।
राज-वीथी थी मनोहर पण्य- वीथी से सजी,
पण्यवीथी पण्य-शाला- द्वार-वीथी से सजी ।
पण्य – शाला द्वार आमूलान्त पण्यों से भरे,
पण्य मणि -भूषण -वसन -धान्यादि नाना छवि धरे॥”
इसी क्रम में अयोध्या के गगनचुंबी रत्न जड़ित स्वर्णिम प्रासादों एवं वज्र से दृढ़ उच्च नगर द्वार, वहाँ की यज्ञशाला, पाठशाला, धर्मशाला, वैद्यशाला, यंत्र शाला हजरत हस्तिशाला, अश्वशाला, शस्त्रशाला, अजायबघर एवं नाट्यशाला के वर्णन में सांस्कृतिक यथार्थ की झांकी देखी जा सकती है।तीसरे प्रतान के उपप्रतान (१) में राम जन्म के अवसर पर गणिकाओं का नृत्य -गान सांस्कृतिक -यथार्थ की झांकी प्रस्तुत करता है:-
“ उस हर्षोत्सव में गणिकायें यदपि सु-रूप बहुत सी-
रहीं उपस्थित, किंतु दीखने लगी वही अद्भुत – सी I
उत्सव- सर की उन लहरों ने नव नव नृत्य दिखाया,
उस रसाल-वन की पिकियों ने सुमधुर गान सुनाया॥”
नवें प्रतान में श्री राम सीता के विवाह के अवसर पर सज-धज कर बाराती, हाथी, घोड़े, पालकी, रथ ,ऊंट, खच्चर आदि वाहनों से जनकपुरी के लिए प्रस्थान करते हैं। इस सौंदर्य छटा एवं उल्लास के वर्णन में नित्यानंद शास्त्री ,कालीन सांस्कृतिक यथार्थ की झांकी बड़ी ही मनोहारी बन पड़ी है:-
“ कुंकुम- रंगी शिरोवस्त्र पर तुर्रा और किलंगी,
एक-एक के सिर पर सोहै ज्यों अनंग रति संगी॥”
… बारात के प्रस्थान के समय की प्रसन्नता ,जल- पूर्ण घट लिए पनिहारिन का मिलना, शुभ शकुन के रूप में अहीरिन का दधि -पूर्ण घट लिए मिलना तथा विप्रों द्वारा स्वस्ति- वाचन ,सांस्कृतिक यथार्थ की सुंदर झांकी है:-
“प्रस्थान करते समय सबके हृदय की कलियां खिली,
जल -पूर्ण घट सिर पर धरे पनिहारिने सम्मुख मिलीं ,
शुभ स्वस्तिवाचन- पाठ करते वटुक आये सामने,
जय गर्जना की जोर से नि:शंक पण्ढ- ललाम ने ॥
हरिणावली हर्षित तथा क्षेमंकरी थी दाहिनी,
निकली अहीरिन भी सुहागिन पूर्ण -दधि- घट- वाहिनी॥”
दसवें प्रतान में श्री राम की बारात एवं बारातियों की उमंग और सजधज का आलंकारिक शैली में वर्णन तत्कालीन सांस्कृतिक यथार्थ का मनोरम चित्रण होने के साथ ही मिथिला में जिस मंगल -मण्डप की रचना की गई है वह वर्णनातीत है:-
“ मिथिला के मंगल-मण्डप की मुझसे हो न बड़ाई,
स्फटिकांगण में नीलम की थी जागृति-जनक जड़ाई I
. मानो सित सुरासिन्धु-सोत में यमुना-संगम नीला,
वा भूमी का हृदय हुआ वह सीता-राम रंगीला ॥
पन्ने के केले कल्पित थे उसके कोने-कोने,
पद्म राग के दाडि़म-कुल को छेड़ा कहीं शुकों ने ।”
इसी क्रम में श्री राम द्वारा तोरण-वंदन होता है, महिलाएं मधुर गीत गाती हैं और श्रीराम की आरती करके उनका स्वागत करती हैं। मांगलिक मुहूर्त में सीता जी के साथ श्री राम अग्नि-प्रदक्षिणा करते हैं, सप्तपदी का उच्चारण होता है। श्री राम सीता की माँग में सिन्दूर भरते हैं। इस प्रकार विवाह होने के अनन्तर वर-वधू की रस्म-रीतियाँ होती हैं, कुल- वधुएँ शुभ गीत गाती हैं। इसके बाद कुँवर- कलेवा का अत्यन्त विनोद पूर्ण शैली में चित्रण है। रात्रि भोजन के समय विविध-व्यंजनों की विपुलता है।
- धार्मिक यथार्थ:- यद्यपि धार्मिक यथार्थ के अंतर्गत रामचरितमानस की ही भांति राम कथा- कल्पलता में भी यज्ञ -धर्म( धार्मिक अनुष्ठान )पुत्र -धर्म , पित्र -धर्म ,मातृ धर्म,पति- धर्म, पत्नी- धर्म , भ्रातृ- धर्म, गुरु -शिष्य धर्म, स्वामी -सेवक धर्म, राज -धर्म, समाज -धर्म आदि का यथार्थ चित्रण देखा जा सकता है। प्रथम प्रतान में राजा दशरथ द्वारा पुत्रेष्टि-यज्ञ के अनुष्ठान में धार्मिक यथार्थ की झलक यत्र- तत्र देखी जा सकती है:-
“ शुभ वहीं पर याज्ञिक वाट था, मति विमंडित -पंडित ठाट था।
सकल आंगन गोमय लिप्त था ,हरित सारित साधु सुगन्ध था ॥
द्विज- समूह वहाँ गत- स्वार्थ थे, विमल सात्विक होम- पदार्थ थे।
मृदुल थी भरती- मन को टिका ,रसिकता सिकतामय वेद का।।
दशरथ नृप ने यों पूर्णता से रचा था-
वह हवन ,धरा में कौन आते बचा था?
.उस मख-महिमा को क्या कहें ,देवता भी-
तज अमृत टिके थे यज्ञ से पूर्ण- लाभी ॥”
इसी क्रम के 19 वें प्रतान में मुनि पत्नी अनुसूया और सीता के मध्य पत्नी- धर्म का परम कल्याणकारी संवाद होता है। यहीं पर सीता गौ पूजा का संकल्प लेती हैं:-
“मासान्त- स्थिति में सजी सतत गौ शार्दूल-विक्रीड़िता-
पूजूँगी इस शांति केलि वन में, स्वरधेनु- सी ईड़िता।“
- आर्थिक यथार्थ:-
वस्तुतः सन १६०० ईस्वी में अंग्रेज व्यापार के उद्देश्य से भारत आए और ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की । वे यहाँ की सभ्यता संस्कृति एवं वैभव को देखकर लट्टू हो गए। इस प्रकार धीरे-धीरे संपूर्ण भारत में फैल गए और अपनी जड़े जमा ली। कवि ने प्रथम प्रतान में सरयू के तट पर अवस्थित अयोध्या नगरी की भव्यता का विशद वर्णन करने के साथ ही वहाँ के व्यापारिक बाजारों का वर्णन करके तत्कालीन आर्थिक यथार्थ को इस प्रकार प्रस्तुत किया है:-
“ खूब चौड़े और लंबे क्या अहा! बाजार थे,
चित्र शाली शिल्प शाली कांति के आधार थे ।
राज-वीथी थी मनोहर पण्य वीथी से सजी,
पण्यवीथी पण्य-शाला – द्वार-वीथी से सजी’
पण्यशाला द्वार आमूलान्त पण्यों से भरे,
पण्य मणि -भूषण -वसन धान्यादि नाना छवि धरे।।
विविध वैदेशिक वणिक निज देश से आकर यहाँ ,
वस्तुओं का क्रय तथा विक्रय किया करते जहाँ ,
विविध भावों से रिझा इस देश को गुण सीखती –
जाति गौरांगी सफल हो घर बनाए दीखती।।
चारु चौपड़ के सदृश बाजार चौपड़ था वहाँ ,
था मिलन नर- नारियों का शारियों का -सा जहाँ॥”
इसी प्रकार तेईस वें प्रतान के उप प्रतान-(5) में मारवाड़ की महिमा का उल्लेख करते हुए वहाँ के स्थानीय परिवेश- पल्लवित संस्कार एवं तत्कालीन यथार्थ को निम्नलिखित पंक्तियों में कवि ने व्यक्त किया है:-
“ इधर-उधर से मधुर- मधुर मधु संचय कर मधु पायी –
स्व मधु कोष ज्यों भरते रहते सहते विपदा आयी।
उसी भांति ये भांति-भांति के प्रांतों से धन भारी-
संचित करके समृद्ध करते मरु को मरू व्यापारी ॥,
इस प्रकार हम देखते हैं कि विवेच्य ग्रंथ में यत्र- तत्र यथार्थ- चित्रण की झांकी देखने को मिलती है।
संदर्भ– ग्रंथ
- रामकथा- कल्पलता—————- पंडित नित्यानंद शास्त्री दाधीच
(प्रधान संपादक- डॉ. वीरेन्द्र शर्मा)
प्रकाशक :- आचार्य नित्यानन्द स्मृति संस्कृति शिक्षा एवं शोध संस्थान, गिरिजा निकेतन, ए- १३६, लेक गार्डन्स , कोलकाता-७०००४५
डॉ. दिनेशकुमार
सिद्धार्थ,कला,विज्ञान एवं वाणिज्य
महाविद्यालय बुद्धभवन, फोर्ट मुबई:-२३