उत्तराखंड के पहाड़ों के बीच एक जगह थी रामगढ़ …रामगढ़ माने तल्हा से मलहा तक की दुनिया …ऊंचाई से निचाई का संयोग…जीवन से बर्फ़ का मिलन और बर्फ़ से गर्माहट का प्रेम भी। वो ऊंचाइयों का देश था जहां हम ज़िन्दगी भर की सांस लेने निकल पड़े थे। दूर तक फैले ऊंचे बादलों के बीच हमने ख़ुद को बिसराया नहीं था, वे हर बढ़ती ऊंचाई के साथ अपने होने को ओर करीब करते जाते थे। कई घुमावदार रास्ते और रास्ते से गुज़रते कई छोटे गाँव-गाँव में दूर तक फैली लम्बी सड़क और उस पर हँसमुख चेहरे के साथ स्कूल जाते गोल-मटोल मुस्काते नन्हे -मुन्ने बच्चे जिनकी आँखों में कई किलोमीटर लंबे सपने झांका करते हैं। क्या वे कभी मैदानों के बारे में सोचते होंगे ? एक मंदिर के पास जब हमारी गाड़ी रुकी तो वे ठंड में एक जगह जमा हो बस की प्रतीक्षा कर रहे थे। एक छोटी लगभग दस साल कि लड़की से अनावश्यक ही मैं ये सवाल पूछ बैठी “क्या तुमने कभी मैदानों के बारे में सोचा है ?वहां जाने के बारे में ?” वो कुछ वक्त तक हतप्रभ मेरे चेहरे को देखती रही …मैंने सवाल फिर दोहरा दिया …प्रतिउत्तर में मेरे हाथ कुछ नहीं लगा …साथ के कुछ बच्चों ने उसकी जगह प्रतिक्रिया दी ‘मैम वो कम सुनती है ‘ !ओह तो अब मैंने सवाल को पास नीली जर्सी में खड़े बच्चों के सामने फिर दोहरा दिया  “भला बताओ ज़रा तुम मैदान के बारे में क्या सोचते हो ? एक पंद्रह साल के बच्चे ने बेहद तेज़ आवाज़ में जवाब दिया ..वहाँ स्कूल पास होतें हैं ….बर्फ़ नहीं गिरती और दूर लकड़ियां चुनकर नही लानी होती। जाने क्यों आप सब लोग इधर पहाड़ों में चले आतें हैं ? हम सब भी आपकी तरह मैदानी ज़िन्दगी चाहते हैं। एक अजीब सी सरसराहट हवाओं में तैरने लगी थी मेरी आँखों के सामने दूर दो पहाड़ों को जोड़ता एक पुल आ खड़ा हुआ था …दूर विशाल पहाड़ों के बीच दो जगहों को जोड़ता एक पुल जिससे न जाने कितने नीचे एक नदी तेज़ प्रवाह में बह रही थी । वो पुल सुनसान था ..सुबह के आठ बज चुके थे और अब बस ने हॉर्न दे दिया था सभी बच्चे उस पर चढ़ गए थे। उनकी आँखों में अभी भी चमक बरकरा थी मानो वे देव दूत हो और अपनी और राहगीरों की यात्राओं को सुगम बनाते चलते हो ।मेरे पास खड़े एक दोस्त ने कहा ..पहाड़ो की जान अक्सर इन्हीं में होती है तुम कहीं कि भी यात्रा पर निकलो वे नन्हे बच्चे हिमाचल,देहरादून हर जगह रास्तो में जाते गहरी राहत की तरह लगते हैं पर जैसे ही ये बड़े हो जातें है पहाड़ छोड़ मैदानों का रुख करने लगते हैं ,और एक हम मैदान वाले हैं हम अक्सर ही पहाड़ों की ओर भाग आना चाहते हैं। मैं उसकी बात सुन रही थी औचक मुझे याद आया मोनिका की दी चाय अब ठंडी हो गयी थी और गाड़ी में प्रभा अब लगभग ऊँघने लगी थी ..और आशीष ड्राइवर से कह रहा था अभी और कितना रस्ता बाक़ी है भैया ? वो हँस रहा था और लंबी यात्रा होने की वजह से हर बार पूछे जाने पर कहा करता बस अभी कुछ ही दूर है।इस बार मैं उन सबको देख कर हँस दी थी …गर्म चाय का कप अब ठंडा हो चुका था ..यात्रा एक बार फिर शुरू हो गयी थी ।
गोल होते रास्ते में हम सब अपने-अपने साथ और संगीत से घिरे हुए थे और एक दूसरे के संगीत से भी ..!संगीत जो हर किसी के भीतर हिलोरे मार रहा था वो फूट पडा था और लंबी यात्रा अब छोटी जान पड़ती थी हममें से किसी ने भी अब ड्राइवर से ये पूछने की ज़हमत नहीं उठाई कि रास्ता और कितना लंबा है …सबने रामचरितमानस के पद,हनुमान चालीसा और पुराने गाने ,गाने शुरू कर दिए। जैसे-जैसे हम ऊपर जातें है कानों में सुनना कम होता जाता बाहर की हवा रास्ते का परिचय देती चलती …दूर तक के घुमावदार रास्ते ..सामाने आता हर एक पहाड़ मानो अपनी यात्रा का साक्षी ही बना लेना चाहता हो ..! क्या यात्राएं यूँ ही चलती है ? मैंने सोचा  और मेरे करीब एक पूरी ज़िंदगी आ खड़ी हुई  …क्या जीवन भी पहाड़ नहीं होता चढ़ते हुए एक लंबी थकान सी लगती है और उतरते हुए एक अजीब सी शांति मानो तुम किसी घुमावदार जगह से उतर रहे हो और हर सीढ़ी तुम्हें कहती हो बस एक कदम और ….!अचानक तेजी से झटका लगा और हम सड़क के एक दम किनारे जा लगे ।एक पहिया हवा में झूलने लगा…धरती और आसमान के बीच की दूरी तब मैंने पहली बार महसूस की  दूर तक लगे तिब्बत के झंडों ने शायद हमें बचा लिया ..ड्राइवर अनुभवी था और वो कई बार इन रास्तों पर अपना हाथ आजमा चुका था .ड्राइवर यदि अनुभवी हो तो रास्ता आसान हो जाता है…और इस बीच गाड़ी फिर चल पड़ी थी। पीछे की सीट पर बैठे दोस्तों के लिए वो जगह अब मोटर की आवाज में घुल गयी ऐसी रह -रह कर आवाज करता और वे उसके चुटकले बना सुनाने लगते कि देखो मोटर फिर चल गई है लगता है पानी खत्म हो गया है .ड्राइवर हर बार बात सुनता और टाल जाता…उनका अपनी गाड़ियों से बेहद लगाव होता है पूरी ज़िंदगी एक गाड़ी में बिताते हुए वे उसके प्रेम में पड़ जाते हैं और जीवन उसकी आदत सा जान पड़ता है .एक बार आदत लग जाये तो कहां जाती है ? गाड़ी अब एक और मोड़ पर आ गयी …मुड़ते हुए सामने एक मंदिर दिखाई दिया जहाँ जोरों-शोरों से संगीत के स्वर गूंज रहे थे सामने हाथ मे ढोलक और मंजीरे की थाप और एक और कुछ पहाड़ी औरते बड़ी सी नथ पहने झूम रही थी …सारा रास्ता किसी अलग देश सा जान पड़ता जिसमें तुम जाते हो तो सब कुछ स्वप्न सा लगता है …दूर तक का भरम जो सदियों तक नहीं उतरता …शराब का नशा तो एक बार उतर भी जाये पर पहाडों का नशा वो कभी भी नहीं उतरता,तुम जितना उसमें जाते हो उतना खोते चले जाते हो ….धीरे -धीरे आता हर एक पहाड़ मानो सौ ज़िन्दगियों से गुजर तुम्हारे सामने खड़ा होता है किसी विशालकाय मनुष्य सा ….दूर तक अपने मद में डूबा …वो ऊपर आसमां को देखते हो ? उसपर रख छोड़ा है किसी ने गोल रोटी जैसा चाँद कि किसी को पुकारने की जरूरत ही न पड़े !

रात होते -होते सबकी आँखें लग गयी ..मैं अब भी ऊपर तो कभी नीचे होते आसमाँ को निहार रही  …!
ड्राइवर अब गाने चला कुछ -कुछ बातें करने में लगा  …पहाड़ का रास्ता चाँद ,तारे ,पेड़ और सन्नटों में तब्दील हो गया  ….धीरे-धीरे जाने कब मेरी आँख भी लग गई …।

सुबह अबअपनी आँखें खोल आसमां पर छा गयी और हम अब रामगढ़ की बाहों में आ गए..दूर का गोल रास्ता ।उस पर ऊनी कपड़ों में ढके लोग सच में पहाड़ से जान पड़ते।पर यदि उन पर ध्यान नहीं जाता तो ये इलाका कुछ-कुछ मैदानी होता जाता ।टिन से बनी दुकानों पर मैदानी इलाकों सी दुकानों के पैकेट टके थे ।कहीं गर्म चाय पर चर्चाएं जारी  ।जीपीएस  के बाद भी ड्राइवर अपना रास्ता भटक गया और देखते ही देखते मोनिका ने सबके फोन का जीपीएस खुलवा दिया  ,पर फिर भी कोई रास्ते को पहचान नहीं पाया ।आशीष ने झट से कहा कि भैया आप किसी से पूछ लीजिये और प्रभा हर बार कि तरह मोनिका को इस बार भी चिढ़ा रही थी कि देखो मैंने पहले ही बोला था तुमसे नहीं होगा मोनिका ! वो एक दूसरे से ऐसे ही प्रेम जताती पर लड़ते हुए उनकी आँखों में चमक उतर आती। ड्राइवर ने अब गाड़ी एक दुकान के सामने रोक दी एक दुकानदार को मधुवन का नाम बताया दुकानदार ने बेहद धीमी आवाज़ में कहा आप ऊपर की ओर चले जाइये। ऊपर की और माने और ऊपर का रास्ता। अब मैंने और आशीष ने भी फोन पर लीड लगा गाने सुनने की ठानी। प्रभा और मोनिका पहले ही हेड फोन कानों में लगा चुकी थी। कुछ दूर चलने पर हमें नीचे बहती नदी दिखी और सबकी आँख चमक उठी नीचे की कलकल ने खुद ही संगीत को जन्म दिया। ड्राइवर एक कदम आगे आ गया, फिर उसने पूछना शुरू किया गाड़ी को बेक गियर पर लिया और फिर एक टूटे खड़े रास्ते पर उसे चढ़ाने लगा। गाड़ी ऊपर चढ़ती अचानक बन्द हो गयी, पहाड़ की ढालना पर गाड़ी का बंद हो जाना हमें भीतर तक डराने लगा अगर वो नहीं चली और फिसल गई तो ? तो क्या होगा भला ? तो हम आश्रम जाए बिना ही स्वर्ग की और जा सकेंगे …!और क्या ….सबकी साँसे थम गई पर ड्राइवर ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी उसे अपने प्रेम पर पूरा विश्वास था उसने एक बार फिर चाभी घुमाई और गाड़ी दूसरे गेयर में लगा दी !हमने राहत की सांस ली विवेक अब आंखों ही आँखों में खुश हो गया। यात्रा समाप्त हुई हमारे आगे ..ऊपर तक जाती ढलान थी, एक दूरी तक जाता घुमावदार रस्ता। हर बार की तरह मेरा बैग इस बार भी मेरी संभाल में नहीं आ रहा था। ऊपर की और उठाने पर वो बार -बार मुझे नीचे की ओर धकेलता जाता। बाक़ी सबके हाथों में ट्रॉली भरे बैग रहे ड्राइवर मुझे देख कर मुस्कान भरता रहा।
अगली कड़ी सीढ़ियां चढ़ने की रही, इतनी खूबसूरत सीढ़ियां शायद ही किसी ने पहले कभी देखी। सीढ़ियों पर रात की रानी लिपटी हुई थी, हर कदम मानो स्वर्ग की दुनिया में जाता।
हम ऊपर की और आ गए, सामने से कुछ लोग रिसीव करने आ पहुँचे, सहज और शांत आवाज़ में हमें आश्रम के कानून समझा दिए गए। सामने से एक हृष्ट-पुष्ट बुजुर्ग मुझे आता दिखा, उसने जाने क्यों मुझे हेल्लो कहा..हम भीतर-ही-भीतर फूलों से भरे रास्तों से निकलते एक जगह आ खड़े हुए। सामने की तरफ़ दुनिया से अलग दो छोटे कॉटेज थे, एक पर लड़कियों के रहने की और दूसरे पर लड़कों के रहने की व्यवस्था की गई।
भीतर के कमरों से होस्टल की दुनिया याद आती, पूरी सफाई से रखा हुआ सब कुछ किसी सपने सा लगता। कमरे में सामने की ओर एक गेट था जिसे खोलते ही एक भरा पूरा पहाड़ आँखों में भरा जा सकता। बालकनी से लगे लम्बे-लम्बे पेड़ों की शाख पर रंगबिरंगी चिड़ियों का कलरव दुनिया को अलौकिक करता जाता।
मधुबन की हर सुबह ताज़गी लिए हुए थी, दूर बहुत दूर तक फैले पहाड़ सब कुछ खुद में समेट लेते। हर पहाड़ पर एक गाँव था और वहीं कहीं ऊपर किसी गाँव में थी’ दादी ‘ दादी माने रामगढ़ की जान। हर आने-जाने वाले का हाल लेती दादी! रामगढ़ के राह गुज़र के लिए दादी गर्म चाय थी। जो भी इस ठंडी राह से निकलता दादी की चाय की स्टॉल पर जरूर रुकता। नाक में बड़ा सा पहाड़ी छल्ला ऊपर से नीचे तक पहाड़ी पोशाक में सजी दादी किसी परी सी लगती। हम जब भी मधुवन से नीचे की ओर आते तो दादी फट से पहाड़ चढ़ती और उतरती मिल जाती।
“क्या मधुवन आये हो ? ”
पहली बार जब हम मधुवन से सुबह 6 बजे नीचे नदी की ओर निकले तो दादी ने सवाल किया।
हाँ हम सभी एक स्वर में कह उठे।
यहां वही एक जगह है देखो यहां से नीचे ठीक-ठीक उस पगडंडी से निकल जाना सामने ही नदी आ जायेगी।
हममें से कोई भी पहाड़ चढ़ने और उतरने का आदि न था पर दादी वो तो एक दम ही रफ़्तार के साथ एक एकदम फिर दूसरा कदम रखते हुए नीचे उतर गई। मैंने, प्रभा बहुत देर तक दादी को एकटक देखते रहे। सँकरी सी गली से निकलते हुए अब हम थोड़े बड़े पत्थरों तक आ गए, मुझे लगा मैं बस फिसल ही जाऊँगी ,इतने में दादी ने मेरा हाथ थाम लिया।
“अरे आप ” मैंने कुछ सकपका सी गयी ,आप तो अभी गयीं ही थी ?
दादी के अधरों पर फिर धीरे-धीरे आँखों तक एक चमक तैरती गयी “तुम पहाड़ को जितना अपना मानती हो वो उतनी ही तेज़ी से तुम्हें अपनाता जाता है। अब लो, आराम से बस खुद को नीचे की तरफ़ ठेलते जाओ उतरने में आसानी होगी।
इस बार दादी अपने हाथों में कुछ सामन लेकर आई थी। एक ढक्कन लगा जग और एक टोकरी। दादी इसमें क्या है कुछ पानी है तो मिलेगा क्या ? प्रभा ने थकते हुए कहा। दादी मुस्काई फिर हल्के से एक छोटी बोतल हाथ में थमा दी लो इसे साथ ही ले जाओ पर हाँ बाद में सामने वो देखती हो …उन्होंने सड़क की तरफ इशारा किया जहां उन्हीं दुकान थी ….”वहां 20 रुपए दे जाना। हम तीनों खिलखिला दी। टोकरी कुछ सामान से भरी हुई थी ….फिर दादी ने कहा कुछ चाहिए तो नीचे वो घर दिखता है न वहां से ले आना। देखते ही देखते दादी सड़क के ऊपर पहुँच गई थी और हम अभी तक आधा रस्ता ही तय कर पाए थे जैसा कि दादी ने कहा, हमने ठीक वैसा ही किया। धीरे -धीरे नीचे के घर तक हम पहुँच गए। हमारे साथ मधुवन में मिले दो पहाड़ी कुत्ते भी नदी किनारे आने लगे। वे कब कैसे आ गए किसी को पता भी नहीं चला।
जिस नदी की आवाज़ पूरी रात पहाड़ों में मधुरता घोल रही थी वो अब जीवन्त रूप में एक दम सामने थी। क्या सब कुछ नदी नहीं होता भीतर की तरलता,मधुरता,संगीत,जलवाष्प और जीवन के गीत!मैंने सोचा कि औचक ही नदी से बहता  ठंडा पानी मेरे पैरों से आ लगा। हमने अपनी नजरें नदी के चारों ओर घुमाई हम सिर्फ़ नदी ही नहीं बल्कि चारों तरफ़ से पहाड़ से घिरे हुए थे। मध्यम-मध्यम सब कुछ मानो नदी हो रहा हो। आकाश में अब हल्के बादल छाने लगे ये संकेत था कि अब वापस हमें मधुवन लौट जाना होगा।
“बारिश के साथ ही ये नदी घातक हो जाती है, आप ऊपर की तरह लौट जाए।
पास के गाँव में रहती एक महिला ने कहा और हमने ऊपर की तरफ अपनी रफ़्तार बढ़ा ली ,अब हम उसी रास्ते से ऊपर की ओर आ गए जहां से दादी ऊपर आईं। दो कुत्ते जो साथ गए वे मार्गदर्शक की भूमिका में आगे-आगे चलते रहे। हल्की बूंदों ने अब टिप-टिप-टिप गिरना शुरू कर दिया। शांत पहाड़ नदी और बारिश के संगीत में अब सब कुछ घुलने लगा। दूर तक सड़क अपने होने को और क़रीबी से महसूस करती रही। हल्की बरसात में हमने दादी की दुकान में शरण लेने श्रेष्ठ समझा। अरे भीतर आ जाओ बरसात शायद अभी और होगी। अपनी तोतली सी आवाज़ और टूटी फूटी हिंदी में दादी ने कहा और तब मेरी नज़र बचे खुचे उनके कुछ दांतों पर गई वे जितने भी बचे थे एक दम सफ़ेद चमक रहे थे।
” चाय ” …..
चाय पीनी है ?दादी ने फिर सवाल किया ?
पर हममे से किसी की झोली में एक कौड़ी भी नहीं ?
कोई बात नहीं शाम को मैं मधुवन आऊँगी वहीं से ले जाऊँगी ।
दादी के कहे से जान पड़ता कि वे पैसे की बड़ी पक्की हैं और उतनी ही पक्की चाय बनाने में भी हैं। इलाइची की इतनी स्वाद चाय शायद ही मैंने कभी पी।
दादी के हाथों में प्रकृति का स्वाद था। सब कुछ सधा हुआ। बूंदे हर तरफ़ पड़ दुनिया को और खूबसूरत बनाती जाती देर तक दादी के किस्सों की बारिश बूंदों के साथ होती रही वे बताती रही कि कैसे वे पौड़ी गढ़वाल से यहां आई, कैसे बच्चे बड़े हुए और सब छोड़-छाड़ कर मैदान में चले गए बच्ची का किया प्रश्न फिर उन्होंने दोहराया ‘जाने क्यों तुम सब पहाड़ में चले आते हो ? और उनकी आँखों में कुछ बूंदें तैरने लगी। कुछ देर बाद बूंदें थम चुकी थी दादी का मन भी अब हल्का हो गया, हम बस ऊपर की ओर जाने को हुए थे दादी ने कहा ‘मैं हमेशा ही ऐसी आज़ादी चाहती थी आज शायद वो मिल गयी। अब हम ऊपर की तरफ़ आ गए थे मिट्टी में कुछ गीलापन था दूर तक कहीं गिरे हुए पहाड़ नज़र आने लगे। पता है पहाड़ों की ज़िंदगी उतनी आसान नहीं होती प्रभा ने कहा और मैंने हूँ में हामी भर दी। अब सामने फिर मधुवन था पर मैं अभी भी मधुवन से दूर दादी के करीब खुद को उस स्टॉल में छोड़ आई थी। पूरा दिन हममें से किसी का कहीं जाने का मन नहीं हुआ फिर बारिश भी हो गई। सबने कल किसी गाँव में जाने का तय किया। एक पूरी रात फूलों के बीच चाँद की रौशनी में महकती रही और दादी वो मेरे भीतर। न  जाने उनकी आँखों में क्या था, कभी दर्द नज़र आता तो कभी मुक्तता ‘क्या खुद को मुक्त करना भी दर्द देता है मैंने पूरी रात सोचा था फिर कमरे तक जाते-जाते मेरी आँख लग गई।
सुबह दरवाज़े पर थाप पड़ती रही और मोनिका और प्रभा उसे खोलने पर लड़ती रही
‘प्रभा देख मुझे मत उठा ,तू ही खोल दे ना ”
उफ़्फ़ मोनिका तुम हर बार ऐसा करती हो !
इतनी आवाजों के बीच मेरी आँख खुल गयी, उठते हुए मैं दरवाज़े की ओर गई और सामने दादी को पाया। और दरवाज़े के खुलते ही वे झटपट बोल उठी दो …….
मेरे चाय और पानी के पैसे।
अक्सर मैदानों में चाय के पैसे वसूली वाले मांगा करते पर पहाड़ों में तो हमारे सामने प्यारी सी दादी खड़ी थी।
दादी पहले अंदर तो आइए।
मोनिका दादी को गहरी मुस्कान के साथ देख रही थी दादी मुस्काई अरे ये तो चाय पीने आई ही नहीं ?चलो तुम आज आना  दादी ने मोनिका को देखते हुए कहा
“हाँ जरूर दादी फिर नदी भी तो देखनी है ‘” उसका पूरा चेहरा उत्साह से भर गया। प्रभा अभी भी बिस्तर पर ऊंघ रही थी दादी चली गई। मैंने हल्के से दरवाज़ा लगा दिया और बालकनी की तरफ़ चली आ।
एक नाज़ुक सी डाली पर तीन रंग की चिड़ियाँ फुदक रही थी, कभी इस डाल तो कभी उस डाल सामने पूरा साफ़ आसमान खड़ा था, मेरी नजरें अचानक घड़ी की तरफ़ गई आठ बज चुके थे ये खाने का समय था। मधुवन की ये अच्छी आदत थी कि सब खाना खुद ही परोसते और ख़ुद ही बर्तन साफ़ करते। हमारे साथ वहां दो परिवार और थे ,जिनमें से एक कपल्स था जो हर छुट्टियों में घूमने जाता और एक कोई और परिवार जो अभी  कल ही आया था। उनकी खिलाई जलेबियों से हमें उनके होने का पता चला। अब हम फिर से यात्रा पर निकल गए थे इस बार हमें ऊपर की तरफ़ जाना था ऊपर कुछ एक लोग रहा करते थे, ऊपर जाने का रास्ता बेहद सँकरा था इतना कि बस एक पैर भर की जगह ही बचती मैंने जैसे तैसे पैर रखा पर मैंने बार -बार फिसल जाती। ऊपर की और तीन घर और एक मंदिर था जिसकी आरती की आवाज़ पूरी रात आती और नदी के संगीत में घुलती जाती। चप्पल निकाल मैं उसकी कुछ घण्टियाँ बजा आई थी ,जिससे पूरा वातावरण संगीतमय हो गया। इतनी ऊंचाई पर जहां हम बामुश्किल पहुँचे, वहां हमें पहले से दो गाय बँधी हुई दिखी। ये हमारे लिए काफ़ी आश्चर्य की बात रही एक पूरा बगीचा था जिसमें सब्जियों से लेकर तमाम चीज़े लगी हुई। ज़िन्दगी कहीं भी जगह बना लेती है यदि वो जीवित रहना चाहे, फिर ऐसी जगह कौन जीना नहीं चाहेगा ? अब हम नीचे की ओर निकल आए शाम अपने आगोश में सब कुछ समेटने को तैयार खड़ी थी।
जैसे -तैसे हम नीचे उतर आए ,और साँस में साँस आई। कब शाम हुई और कब रात नीचे आते हुए ये मालूम ही न हो सका। अब खाने का समय था, आज फिर ताज़ा जेलेबियाँ थी इस बार सब ने पूछ ही लिया किसका जन्मदिन था ?
जवाब था अवि का ! अवि सामने अपनी नानी से न खाने के लिए लड़ रहा था ,उसकी थाली में अभी भी दाल और चावल बाक़ी था जो उसकी नानी उसे हाथों से खिलाने में लगी हुई थी। नानी जैसे ही हाथ बढाती अवि मुँह फेर लेता।
फिर आवाज़ आयी “ओके यू नीड देन सम जलेबी ”
अचानक उसकी आँखों में जलेबी तैरने लगी और ये भी तय हो गया कि वो जलेबी ही खायेगा।
माँ और दादी अब जा चुकी थी, अवि एक लड़की के साथ चुप-चाप बैठा रहा फिर जैसे ही वो नीचे कूदने लगा, एक आवाज़ फिर आयी बिहेव अवि तुम अच्छे बच्चे हो न ?
अब हम एक दम उन दोनों के सामने आ गए सबने अवि को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएँ दी। उनसे दोनों का नाम पूछा सारे उत्तर शाम्भवी ने ही दिए इतने में उनकी माँ और नानी भी आ गई और बातों का दौर चल पड़ा। मोनिका, प्रभा और आशीष सब अवि के अच्छे दोस्त बन गए थे खाना खत्म हुआ और हम सब निकलने लगे ‘अवि अब अपने गाने की धुन पर सबको थिरकाने लगा “ले गई दिल गुड़िया जापान की “वो गाता जाता और भी कई हिंदी पुराने गाने सब अब उसका गानों में साथ देने लगे थे, शाम्भवी अब अवि को चेयर कर रही थी। मैंने उसके पास जाकर बैठ गयी, थोड़ी सी दोस्ती हुई फिर उसने बताया कि वो क्लासिकल गाना और भरत नाट्यम सीख रही है, महज़ आठ साल में वो अपनी उम्र के बच्चों से ज़्यादा सिंसियर और गुणवान लगी अवि अब कुछ और गाने लगा था, फिर एक बार गुड़िया जापान गाने की माँग उठी और वो गाने लगा गाते हुए वो जरूर बताता कि ये गाना “ए नाईट इन पेरिस का है और सब खिलखिला उठते। आज पूरे चाँद की रात थी और आसमां में पूरा चाँद अपने उत्कर्ष पर था,इतना खूबसूरत की बस आँखों में भरा जा सके और सम्पूर्ण जीवन स्मरण रहे ।हमें पता लगा कि ऊपर की ओर दूरबीन लगी है और हम वहां से चाँद को देख सकते हैं ,ऊपर वही बुजुर्ग दूरबीन सेट कर रहे थे पर वे आज बिल्कुल भी बूढ़े नहीं लगे ,अवि और शाम्भवी भी अब ऊपर की तरफ आ गए हम सब ने पहली बार चाँद को घूमते इतने क़रीब से देखा ,सूर्य की रोशनी उसके वक्र पर एक दम तेज़ की तरह पड़ती जाती और वो अलमस्त सा अपनी धूरी पर घूमता जाता। सामने की तरफ़ मुझे एक टूटता तारा दिखा और मैंने उसे आँखों में भर लिया इस वक़्त उससे मैं कुछ भी मांगना नहीं चाहा ,रात गहराने लगी हम सब अपने -अपने कमरों की ओर आ गए अवि बार -बार पीछे मुड़कर देखता और बाय बोलता जाता। कल सुबह वे यहां से जाने वाले थे , ये उनका आख़री दिन था।
सुबह हुई और हम सब एक बार फिर खाने की जगह आ गए नन्हा अवि नाश्ता कर रहा था शाम्भवी को जुकाम हो चला था ,खाने के बाद हमने उनसे अंतिम विदा ली और ऊपर महादेवी के घर की ओर निकल गए।
दादी अब कभी -कभी ऊपर चली आती, उनका मन वहीं लगने लगा, फिर एक दिन उनका आना अचानक बन्द हो गया। दुकान भी कई दिनों तक नहीं खुली। सब अब कहीं न कहीं घूमने निकल जाते मैं कॉटेज में ही रहती बहुत दिन से दादी की कोई ख़बर नहीं मिली ….वो कहाँ हैं न ही आश्रम में योगा करने आई न सुबह की प्रार्थना में ही? इस बार मैंने वहीं काम करने वाले एक भैया से पूछ लिया। दादी अब यहां नहीं रहती ,बारिश के बाद वो कई दिन तक बीमार रही फिर एक दिन पहाड़ उतरते उनका पैर कुछ फ़िसल सा गया और थोड़ी चोट आई उनके बेटे को ख़बर कर दी गई कुछ दिन वो नैनीताल के अस्पताल में रही फिर उन्हें उनका बेटा अपने साथ शहर ले गया। मेरे पास शब्द नहीं बचे, मैं कुछ देर स्थिर खड़ी पहाड़ों को देखती रही ….अब आसपास कोई भी नहीं था न दादी, न दादी की चाय। मन पर एक अजीब सी उदासी छाने लगी ,क्या वो सही कह रहा था ? एक दिन सबको मैदान की जरूरत पड़ती ही है ?जो दादी अपने 89 वर्षों में कभी पहाड़ की मिट्टी को छोड़ कर नहीं गई थी उसी मिट्टी ने अब उन्हें पहाड़ से दूर कर दिया। गाँव घूम कर अब सब लोग आ गए ,प्रभा के हाथों में बड़ा सा खीरा मौजूद था इतना बड़ा मैंने कभी नहीं देखा। शाम की चाय सबका इंतजार करने लगी हम फिर एक बार खाने की मेज पर आ गए इस बार अंदर न बैठ कर बाहर ही बैठ गए, पूरा मधुवन खाली हो गया, अब बस हम ही बचे, कुछ अंतिम पलों की याद स्वरूप हमने भी कुछ फ़ोटो खिंचाव ही डाली, रात की स्तब्धता अब धीरे-धीरे अपने रंग पसारने लगी, सबका समाना पैक हो चुका था। जाने का वक्त आ गया ,अवि,दादी की तरह हम भी मैदान की तरफ़ अब लौटने लगे। आते हुए पहाड़ जितना आकर्षित कर रहे थे छूटते हुए उतना ही रुआँसा भी मैंने अब अपनी आँखें बंद कर ली थी, गाड़ी में एक बार फिर संगीत बजने लगा फ़र्क इतना था इस बार नए गानों और ग़ज़लों कि जगह “ले गई दिल गुड़िया जापान की “गाया जा रहा था ,दादी रामगढ़ की दादी जापान की कोई सुंदर गुड़िया ही तो थी।

पूर्णिमा वत्स

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *