जिसे हम साहित्य समझकर पढ़ रहे हैं, जिसमें हम तमाम साहित्यिक अवधारणाएँ खोजते हुए फिरते हैं, जो साहित्य जगत में एवं साहित्य के सजग पाठकों के लिए एक उत्कृष्ट रचना है, जो अकेले अवधी भाषा के साहित्यिक महत्व को समझाने के लिए पर्याप्त है, जिस रचना की वजह से तुलसीदास बाबा हो गए, वह रचना समूचे उत्तर भारत में हिंदुओं के घरों में लाल कपड़े में बांधकर आदर के साथ गृह मंदिर में विराजती है।कहा जाता है कि तर्क और आस्था दो विपरीत ध्रुव हैं जो कि सही भी है परंतु रामचरितमानस को दो विपरीत ध्रुवों के मध्य समन्वय के लिए ही जाना जाता है। जहाँ दो विपरीत स्थितियों में टकराव की स्थिति होती है तुलसीदास वहाँ भी समन्वय से एक नई दिशा देने की कोशिश करते हैं। इस रचना में तर्क भी कई बार आस्था का ऐसा आवरण ओढ़कर आता है कि लगता ही नहीं है कि ये दो विपरीत स्थितियाँ भी हो सकती हैं। तुलसीदास और उनका समय हिंदी साहित्य के भक्तिकाल का समय है जहाँ केंद्र में ईश्वर हैं, आस्थाओं का उमड़ता हुआ सैलाब है, मानवीय मूल्य हैं, संवेदनाओं की सुंदर प्रस्तुति है, वहाँ वे कई बार ऐसी बातें भी अपनी कविताई में करते हुए नज़र आते हैं जो आधुनिक मूल्यों की पहचान मानी जाती हैं।
सवाल यह है कि आधुनिक क्या है? आधुनिकता क्या है? क्या इसका सम्बन्ध केवल समय से है? या क्या यह महज़ उन्नीसवीं शताब्दी की घटना है जिसके दूरगामी परिणाम हुए? आधुनिकता समय से निर्धारित होगी या इसका निर्णय बोध से किया जाएगा? यदि इसका निर्धारण समय से किया जाएगा तो नए समय में आई हुई सभी वस्तुएँ आधुनिकता का परिणाम हो जाएँगी। परंतु यदि इसका निर्धारण बोध के स्तर पर किया जाएगा तो इसमें इस नए समय में उन मूल्यों या विचारों की तरफ़ सबकेट किया जाएगा जिस विशेष मूल्य या विचार के कारण यह समय पहले से अलग बन पड़ा है। विचारों की कौंध ने कुछ आया व तार्किक सोचके, बोलने या करने को प्रेरित किया है।आधुनिकता का निर्धारण इतना आसान नहीं है। कहा जा सकता है कि आधुनिकता कई मायनों में काफ़ी उलझी हुई अवधारणा है।डेविड लॉरेंजन के शब्दों में कहें तो-“ टूथब्रश से लेकर एटम बम तक, फ़ासिज़्म से लेकर लिबरल डेमोक्रेसी तक, अली अकबर खान से लेकर हिंदी फ़िल्म संगीत तक, हिंदुत्व से लेकर धर्मनिरपेक्ष अनीश्वरवाद तक, अलक़ायदा से लेकर अमेरिकी साम्राज्यवाद तक, शहरी छिटपुट हिंसा से लेजर अमेनेस्टी इंटरनेशनल तक।”1
परंतु आधुनिकता को केवल समय के रूप में देखने से उसका सम्पूर्ण आशय नहीं निकल पाता है। उसकी पूरी अवधारणा समझने के लिए हमें उसकी विशेषताओं की ओर ध्यान देना ही पड़ेगा।रामविलास शर्मा तुलसी साहित्य में सामंत विरोधी मूल्यों की पड़ताल करते हैं। उस समय के साहित्य में यदि सामंती मूल्य टूट रहे हैं तो यह अपने आप में बड़ी घटना है। आधुनिक काल में यह मूल्य अब लगभग समाप्ति की ही ओर है।लेकिन इसकी शुरुआत हमने मध्यकाल में ही देखी।तुलसी से लेकर जायसी,कबीर,मीरा, सूर और निर्गुण संत कवियों की पूरी परम्परा में आधुनिक मूल्य के कई उदाहरण हैं।
‘तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में सामंती समाज का ढाँचा थोड़ा ढीला पड़ने लगा था। वर्ण व्यवस्था शिथिल हो रही थी और लोग अपने ख़ानदानी पेशे छोड़कर नए पेशे अपनाने लगे थे।तुर्कों के हमलों से यह ढाँचा और कमजोर पड़ा हालाँकि उसे तोड़ने वाली ताक़तें उसके भीतर पैदा हो रही थीं।”2
तुलसीदास के रामचरितमानस को जब आप देखते हैं तो आपको उस समय के समाज के लिए एक बेहतर विकल्प के रूप में, उस समय चल रही शासन व्यवस्था से एक बेहतर शासन व्यवस्था के रूप में देखते हैं।वह समय जो मुग़लों की राजनीति व कट्टरता का दलदल बनता जा रहा था, उसमें तुलसीदास नए मूल्यों के साथ समाज को एकसाथ संचालित करने की प्रेरणा देते हुए नज़र आते हैं। आधुनिकता पर जिन यूरोपीय लोगों ने अपना एकाधिकार समझ रखा था, उनके मतों में और उनके यहाँ हो रही चीजों में बड़ा अंतर दिखाई देता है, जिस समय वहाँ मध्यकाल है उस समय भारत के साहित्य और समाज में आधुनिक मूल्य से प्रेरित घटनाएँ और विचार तैरते हुए नज़र आ जाएँगे। “आधुनिकता को लेकर कुछ आम धारणा ऐसी है कि उसका जन्म औद्योगिक क्रांति के साथ हुआ लेकिन यह एक यांत्रिक समझ है। यह सही है कि आधुनिक विश्वबोध निर्णायक रूप में औद्योगिक क्रांति के साथ स्थापित हो गया लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि इधर चिमनी से धुआँ उठा और इधर आधुनिकता प्रकट हुई- यानी औद्योगिक क्रांति से पहले आधुनिकता के लक्षण अदृश्य थे।अगर ऐसा है तो आधुनिकता महज़ जीवन पद्धति होगी, जीवन मूल्य नहीं।क्या यह कहा जा सकता है कि आधुनिकता केवल जीवन-पद्धति है?यदि आधुनिकता जीवन मूल्य भी है तो इसका विकास क्रमशः हुआ होगा।”3 आधुनिकता जीवन के उन मूल्यों को धारण करती है जो तार्किक और वैज्ञानिक चिंतन को आधार प्रदान करते हैं।उसके केंद्र में यही मूल्य हैं। आधुनिकता तार्किकता के साथ समाज में मानव कल्याण को आगे बढ़ाने का कार्य करती है।
“तुलसी का सृजन युग भक्ति का था। यह भक्ति उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक भाँति-भाँति के नाम रूपों में फैली थी, जैसे वह युग की सामूहिक आवश्यकता हो। तुलसी जैसे समाज चेता कवि के लिए तो वह किसी हद तक समाज सुधार का माध्यम और कविता की राजनीति भी थी।रामचरितमानस के उत्तरकांड में तुलसीदास का प्रयोजन केवल धार्मिक नहीं अपितु वह सामाजिक, राजनीतिक और मानवीय भी है।”4 तुलसी का मानस अनेक स्थलों पर बहुत तार्किकता के साथ प्रहार करता है। यहाँ कबीर जैसी तीक्ष्णता तो नहीं है लेकिन तार्किकता का धरातल कमोबेश वैसा ही है। तुलसी लिखते हैं-
“जासु राज़ प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवस नरक अधिकारी।” 5
यह मध्यकाल है और पूरे मध्यकाल में भगवान पर प्रश्न न उठाने की परम्परा पूरे यूरोप तक रही है। लेकिन भगवान के अलावा अपने राजा पर भी कोई प्रश्न नहीं उठाता था। राजा को नर्क भेजने की बात तो दूर है।तुलसीदास यहाँ राजा के धर्म की याद दिलाते हैं और बताते हैं कि यदि आप अपने कर्तव्यों से च्युत होते हैं, आपकी वजह से आपकी प्रजा दुखी है तो आप नर्क के भागी होंगे।आधुनिक लोकतंत्र में भी यही भाव है। यदि आपके राज़ में प्रजा दुखियारी है तो एक निश्चित समय के बाद आपको वह बदल देती है।यहाँ नर्क केवल अभिधा में नहीं है, यह आपके उस राजसी ठाट-बात से भी है जिस तरह से अभी आप रह रहे थे। यदि आप अपने कर्तव्यों का निर्वहन ढंग से नहीं कर सकते हैं तो आप उस सत्ता के हक़दार नहीं हैं।
तुलसीदास का युग एक घोर सामंती युग था।राजा वहाँ ईश्वर का प्रतिरूप था, वह जो करे सब सही, उसका ही कहा हुआ ईश वचन हुआ करता था, वही क़ानून था। आपको न चाहते हुए भी अपने राजा की आज्ञा का पालन करना ही पड़ता था, उसकी बातें माननी ही पड़ती थीं चाहे वह कितना भी भ्रष्ट या अनैतिक क्यों न हो। सत्ता लोलुपता इस कदर सवार थी कि भाई-भाई की हत्या, पुत्र-पिता की हत्या कर सत्ता को हथिया लेना चाहता था।समाज में अनीति और कदाचार फैल चुका था।ऐसे समय में तुलसीदास रामराज्य का एक ऐसा धरातल तैयार करते हैं जो उस समाज के लिए एक आदर्श के रूप ग्रहण कर सके।राम के रूप में वे एक आदर्श पुत्र और भाई का रूप समाज के सामने रखते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी लिखते हैं- “रामराज्य तुलसी का वह स्वप्न है जिसे वे `अपनी समकालीन दुर्व्यवस्था अर्थात् कलियुग को तोड़कर स्थापित होते देना चाहते हैं।इस दुर्व्यवस्था के नाश और दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से रहित व्यवस्था यानी रामराज्य की स्थापना के माध्यम हैं तुलसी के राम।”6 यह वही रामराज्य है जहाँ “अल्प मृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब विरुज सरीरा।” 7 जहाँ शारीरिक कष्ट नहीं हैं, रोग के कारण अल्प मृत्यु नहीं है।कहने का तात्पर्य यह है कि सभी लोगों को उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त है। आज के आधुनिक समाज में सरकारें बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं को दे देने के लिए लगातार प्रयासरत हैं। वे देश आज विकसित माने जाने लगे हैं जहां आधुनिक और बेहतर क़िस्म की स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध हैं। जहाँ मध्यकाल में ईश्वर केंद्र में है वहाँ तुलसीदास जैसे कवि अपनी कविताओं में मानव और उसकी समस्याओं को लेकर आते हैं। यह आधुनिक मूल्य में दिखाई देता है जिसे तुलसी अपनी कविताओं में हमारे समक्ष रख रहे हैं।
आधुनिक समाज व सामाजिक चिंतन का बड़ा मूल्य है समानता। पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन से लेकर भारतीय राजनीतिक चिंतन में समानता एक ऐसा मूल्य रहा है जिसपर लोगों ने अपने-अपने तरह से बात करने की भरपूर कोशिश की है। स्वयं हमारे भारतीय संविधान में एक मूल्य के रूप में इसे स्थापित किया गया है। हम सबका एक सपना है कि हम समतामूलक समाज के निर्माण की ओर अग्रसर हो सकें। यह एक आधुनिक मूल्य है जहां किसी को उसकी जातिगत या धार्मिक पहचान से ऊपर केवल मनुष्य मात्र मानकर उसके साथ व्यवहार किया जाता है। तुलसीदास यही भाव अपनी पंक्तियों में व्यक्त करते हैं- “बयरु न कर काहू सम कोई। राम प्रताप विषमता खोई।”8 यहाँ राम के प्रताप से समाज में समता की स्थापना होती है। एक समतामूलक समाज से बेहतर कुछ भी नहीं हो सकता है। तुलसीदास जिन मूल्यों को लेकर चल रहे हैं वे आधुनिक मूल्य हैं। उस समय और समाज में जहाँ छुआछूत और जातिगत भेदभाव मौजूद है तुलसीदास राम को शबरी के यहाँ लेकर जाते हैं और केवल लेकर नहीं जाते हैं, उन्हें शबरी के जूठे बेर भी खिलाते हैं जिसको भगवान राम ने बड़े प्रेम से खाया है। तुलसीदास ने यह प्रसंग इतने सुंदर ढंग से लिखा है और इसे जितना स्थान दिया है, उससे तुलसीदास का मंतव्य स्पष्ट हो जाता है कि वे क्या कहना चाह रहे हैं। रामकथा में शम्बूक वध का भी प्रकरण आता है लेकिन तुलसीदास ने अपने मानस में इस प्रसंग को स्थान नहीं दिया है, यदि वे चाहते तो रामकथा के नाम पर उसे भी स्थान दिया जा सकता था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसके पीछे वजह साफ़ थी। वे अपने काव्य के माध्यम से समाज में एक संदेश देना चाह रहे थे, वह संदेश जिन मूल्यों से प्रेरित था, वे मूल्य आधुनिक मूल्यों के बहुत करीब नज़र आते हैं।
पहले राजा महाराजा के यहाँ किसी उत्सव में कितना भी धन खर्च हो कोई मतलब नहीं है, जनता भले ग़रीबी में मार जाए। एक आम जन की कोई ख़ास फ़िक्र वहाँ दिखाई नहीं देती थी, वह ईश्वर और राजा केंद्रित संरचना थी। वहाँ जनता शायद हाशिए पर भी थी यह नहीं, इसे देखना होगा परंतु तुलसीदास लिखते हैं- “नहिं दरिद्र कोई दुखी न दीना।”9 निर्धनता आज भी हमारे समाज के लिए अभिशाप है। आज भी विश्व समाज उसको दूर करने में प्रयासरत रहते हैं।
तुलसी के काव्य परम्परा में देखेंगे तो पाएँगे कि बार-बार वे नीची माने जाने वाली जातियों और समाज में अपने काम से हेय समझे जाने वाले लोगों को भी भगवद्भक्ति से तारने की बात करते हैं।
‘सबरी गीध सुसेबकनि, सुगति दीन्ह रघुनाथ।’10
तुलसीदास पर वर्ण व्यवस्था का समर्थक होने का आरोप लगाया ही जाता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या सच में वर्ण व्यवस्था को सबसे ज़्यादा महत्व देते हैं। क्या उनके अंदर जाति को पकड़े रहने की ही बात नज़र आती है क्योंकि वे सबसे उच्च मानी जाने वाली ब्राह्मण जाति से थे? लेकिन अपने जीवन में वे ब्राह्मणों के द्वारा सबसे अधिक सताए गए। उन्होंने ब्राह्मणों के उसी वर्चस्व को चुनौती के रूप में लेते हुए कहा कि “धूत कहो, अवधूत कहो, रजपूत कहो, जुलहा कहो कोउ।
काहू की बेटी सौं बेटा न ब्याहब काहू की जाति बिगार न सोउ।
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माँगि कै खैबो मसीत को सोइबो लेवे को एक न देबे को दोउ।।”11
तुलसीदास की रामभक्ति का एक प्रमुख कारण यह है कि उनके प्रभु ने जातिहीन व्यक्तियों को अपनाया था। दोहावली का यह दोहा देखिए-
जातिहीन अधजनम महि, मुकुत कीन अस-नारि।
महामंद मन सुख चहसि, ऐसे प्रभुहि बिसारि।।’ ” 12
तुलसीदास हिंदी साहित्य के ऐसे रचनाकार हैं जिनके यहाँ एक बहुत बड़े फलक पर, दूरदर्शिता के साथ रचनाएँ देखने को मिलती हैं। अपनी रचनाओं में वे समानता जैसे उन मूल्यों को लाकर रखते हैं जिसे हम आधुनिक मूल्यों के रूप में देखते हैं। वे मध्यकाल के रचनाकार ज़रूर हैं लेकिन उनकी रचनाओं में आधुनिकता के मूल्य पुष्पित-पल्लवित होते रहे हैं।
संदर्भ ग्रंथ-
1 डेविड लॉरेंजन, आलोचना सहस्त्राब्दी, छियालिसवाँ अंक, पृष्ठ 12
2 डॉ रामविलास शर्मा,भारत की भाषा समस्या,पृष्ठ 84
3 अजय तिवारी, आधुनिकता पर पुनर्विचार,पृष्ठ 12
4 कवि परम्परा तुलसी से त्रिलोचन- प्रभाकर श्रोत्रिय, भारतीय ज्ञानपीठ, संस्करण 2013, पृष्ठ 16
5 रामचरितमानस-तुलसीदास , अयोध्याकाण्ड 5/70
6 लोकवादी तुलसीदास, विश्वनाथ त्रिपाठी, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृष्ठ 39
7 रामचरितमानस-तुलसीदास
8 वही
9 वही, उत्तरकांड, 3/21
10 तुलसीदास-दोहावली, पृष्ठ 22
11 कवितावली-तुलसीदास,पृष्ठ 120, गीतप्रेस, संस्करण २2017
12 रामविलास शर्मा-‘तुलसी साहित्य के सामंत विरोधी मूल्य’ निबंध से