भक्ति आंदोलन हिन्दी साहित्य के इतिहास का अत्यंत गौरवपूर्ण कालखंड है। भक्त कवियों ने विभिन्न प्रदेशों को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांधने का जो महान कार्य किया उसका मूल्य आंकना सहज नहीं है। भक्ति काव्य की लोक धर्मिता के फलस्वरूप ही यह भावनात्मक एकता कायम हो सकी थी, जिसका आधार था भक्त कवियों का सर्वत्र लोक जीवन और लोक भाषाओं से गहरा संबंध| भक्ति साहित्य सामंत विरोधी लोक-जागरण का साहित्य है। सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दि‌यों में व्यापारिक पूंजीवादी के विकास के समानांतर उभरने वाली ये नई शक्ति है–व्यापारी, जुलाहे, कारीगर और गरीब किसानों का ऐसा विराट जनसमूह जो ‘कलि बारहें बार दुकाल परै’1. और, ‘खेती न किसान को भिखारी को न भीख’2. के रूप में उस युग में व्याप्त शोषण, विषमता और व्यक्तित्व हनन के घोर सामंती मूल्यों को चुनौती दे रहा था।

भक्तिकाल की रामभक्ति शाखा के कवि तुलसीदास को हिन्दी का जातीय कवि कहा जाता है। तुलसी राम के सगुण भक्त थे। उन्होंने वाल्मीकि और भवभूति के राम को पुनः प्रतिष्ठित नहीं किया। उन्होंने मानस में जिस राम को निर्मित किया, वे ब्रह्म होते हुए भी ऐतिहासिक स्थितियों के आधार पर व्यक्ती हैं। ये अपार मानवीय करुणा वाले हैं, गरीब निवाज़ हैं, दरिद्रता रूपी रावण का नाश करने वाले और पेट की आग को बुझाने वाले हैं। तुलसी के राम, तुलसी के व्यक्तिगत संघर्ष और उनके युग की विषमता के आलोक में प्रकाशित हैं। रामचरितमानस में हमारा देश, उसकी प्रकृति, वन, नदियां, पशु-पक्षी, फसलें, भाषा, वन, मुहावरे, सौंदर्य, कुरुपता सब बिखरे पड़े हैं। यद्यपि तुलसी को तत्कालीन नगर-जीवन का पर्याप्त अनुभव रह होगा, किन्तु वे प्रधानतः किसान जीवन के कवि हैं। चित्रकूट के कोल-किरातों का उन्होंने बड़ी आत्मीयता के साथ वर्णन किया है। इसी प्रकार उन्होंने नारी-जीवन के विविध चित्र खींचे हैं। मध्यकाल में शायद ही किसी कवि ने नारी की पराधीनता का इतना स्पष्ट उल्लेख किया है-

“कतविधि सृजी नारि जग माँही।

           पराधीन सपनेहुँ, सुख नाहीं।।“3.

तुलसीदास की भक्ति भावना मूलतः लोक संग्रह की भावना से अभिप्रेरित है। जिस समय समसामयिक निर्गुण भक्त संसार की असारता का आख्यान कर रहे थे और कृष्ण भक्त कवि अपने आराध्य के मधुर रूप का आलम्बन ग्रहण कर जीवन और जगत में व्याप्त नैराश्य को दूर करने का प्रयास कर रहे थे उस समय तुलसी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के शील, शक्ति और सौन्दर्य से संवलित अद्भुत रूप का गुणगान करते हुए लोकमंगल की साधनावस्था का पथ प्रशस्त किया। उनके काव्य की सफलता उनकी अपूर्व समन्वय शक्ति में है। मानस में जहाँ लोक-विधियों के सूक्ष्म अध्ययन का प्रमाण मिलता है, वहीं शास्त्र के गंभीर अध्ययन का भी परिचय मिलता है। इस महान समन्वय का आधार उन्होंने रामचरित को चुना है। इससे अच्छा चुनाव हो नहीं सकता था। लोकप्रचलित काव्यरूपों के साथ जीवन के बड़े लक्ष्य और आदर्श का योग हो जाने के कारण तुलसी साहित्य में अपूर्व तेजस्विता आ गई है। सामान्य रूप से समग्र तुलसी साहित्य तथा विशेष रूप से मानस के वैशिष्ट्य को देखते हुए आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने तुलसीदास जी के विषय में उचित ही लिखा है- “भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय का अपार धैर्य लेकर आया हो।………. उनकी काव्य-पद्धति का अध्ययन करने से उनकी अद्‌भुत समन्वयात्मिकता बुद्धि का परिचय मिलता है।“ 4.

तुलसी द्वारा प्रतिष्ठित लोक चेतना के स्वरूप और महत्व को तभी ठीक से समझा जा सकता है जब हम उसे उनके युग-जीवन की सापेक्षता में देखें। तुलसीदास का युग राजसत्ता की दृष्टि से बड़‌ा विपन्न युग था। इसका प्रभाव परिवार और समाज के जीवन पर बहुत बुरा पड़ रहा था, रामचरितमानस में इसकी  ओर तीखे संकेत हैं। राजनीति की सताई हुई जनता को उस समय धर्म द्वारा भी कोई बल-आश्वासन नहीं मिल पा रहा था। तुलसी स्पष्ट लिखते हैं-

“कलिमल ग्रसे धर्म सब, लुप्त भये सद्ग्रंथ”5.

सामान्य जन आर्थिक दृष्टि से भी पीड़ित थे। कठोर परिश्रम करने पर भी जनता के हाथ कुछ नहीं लगता था, राजा और सामंत, अधिकारी आदि उसकी गाढ़ी  कमाई चट कर जाते थे। इस तमाम अव्यवस्था और अनाचार से पारिवारिक जीवन भी मर्यादा खो रहा था। ऐसे समाज के मानस का संस्कार करके गोस्वामी जी को नयी श्रेयस्कर चेतना को जागृत करना था। अपने समय के रुग्ण यथार्थ को संजीवन प्रदान करने लिए ही उन्होंने रामचरित की रचना की। गोस्वामी जी लोक यथार्थ को, समग्र बोध को अंतश्चेतना उन्नयन के लिए आवश्यक मानते हैं। इसलिए उन्होंने यथार्थ के भीतर रहकर और उसी के माध्यम से लोक चेतना का संस्कार और उत्कर्ष करना सही समझा, केवल आदर्श प्रस्तुत करना नहीं। मानव की विवेक शक्ति को पारमार्थिक और व्यावहारिक, सूक्ष्म और स्थूल दोनों स्तरों पर पैनी एवम् निर्भ्रांत बनाने के उद्देश्य से गोस्वामी जी ने “मानस” में आध्यात्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और नैतिक आदि जीवन के सभी रूपों के बारे में उपयोगी ज्ञान प्रदान किया है। वे मानव और मानवता की महत्ता में विश्वास रखते हैं और इसीलिए लिखते हैं.

“मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा“6.

वैदिक युग में ही भारतीय चिंतकों तथा व्यवस्थापकों ने व्यक्ति के जन्म से मरण तक कई संस्कार-कर्मों का विधान किया जिनसे न केवल जीव की अंतः चेतना के विकास में सहायता मिलती है अपितु इनका प्रभाव सामूहिक जीवन पर भी पड़ता है। परिवार, गोत्र और समुदाय ऐसे अवसरों पर एकत्र होकर पारस्परिकता की वृद्धि करते हैं। मानस में राम तथा अन्य राजकुमारों के जन्मोत्सव, चूड़ाकर्म, नामकरण, यज्ञोपवीत आदि संस्कारों का तुलसी ने बड़े मनोयोग से वर्णन किया है। इसी प्रकार शिव-पार्वती तथा राम-सीता के विवाहोत्सव का वर्णन भी बड़े उल्लास के साथ किया है। भोजन के समय नारियों द्वारा दी जाने वाली मांगलिक गाली-गीतों और उन पर बारातियों की मुग्धता का सुंदर वर्णन किया गया है-

“जेवंत देहिं मधुर धुनी गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी।

समय सुहावनी गारि बिराजा। हँसत राउ सुनी सहित समाजा।।“7.

सामूहिक सौहार्द केवल आनन्दोत्सव के अवसर पर ही नहीं, आपत्ति के समय भी भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य रहा है। राजा दशरथ के परिवार पर विपत्ति आयी तो सारा नगर उसमें सहभागी बन बैठता है। इस पर दुःख-कातरता से लोक चेतना का उत्कर्ष होता है। मानस में जहाँ-जहाँ ऐसे प्रसंग आये हैं, वहाँ तुलसी ने बड़े प्रभावशाली ढंग से वर्णन किया है। गोस्वामी जी ने व्यक्ति को सामूहिक-सामाजिक जीवन जीने की बराबर प्रेरणा दी है। इसलिए आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि “गोस्वामी जी व्यक्तिवाद के विरोधी और लोकवाद (सोशलिज्म) के समर्थक से लगते हैं।…….. पर उनके लोकवाद की भी मर्यादा है।……. वे व्यक्ति की स्वतंत्रता का हरण नहीं चाहते….. वे व्यक्ति के आचरण पर इतना ही प्रतिबंध चाहते हैं जितने से दूसरों के जीवन-मार्ग में बाधा न पड़े और हृदय की उदात्त वृतियों के साथ लौकिक संबन्धों का सामंजस्य बना रहे। 8.

तुलसीदास अवतार-पुरुष के उपासक-सेवक थे। अवतार शोषण, अनाचार एवम आसुरी शक्तियों के नाश के लिए होता है। गोस्वामी जी ने रामचरितमानस के आरंभ से अंत तक दुराचारी व्यक्ति के सामाजिक विरोध का संस्कार हमारी अंतश्चेतना पर डाला है, यह उनकी बहुत बड़ी देन है। वे कहते हैं, ‘खल परि हरिउ स्वान की नाई’, खल सन कलह न भल नहि प्रीति’ “दुष्ट उदय जग आरति हेतू’, ‘दुष्ट संग जनि देहि विधाता’ आदि। तुलसीदास ने जन-जन में दुष्टाचार के विरोध में जागृति उत्पन्न करके एक प्रबल लोक चेतना के निर्माण का सराहनीय कार्य किया है। यही कारण है कि राम-रावण का युद्ध भगवान और राक्षस के बीच का युद्ध नहीं, वरन मानव का ही दुष्ट मानव के प्रति लड़ा गया युद्ध बन जाता है। तुलसी ने मानस के आरम्भ से अंत तक दुराचारी व्यक्ति के सामाजिक विरोध का संस्कार हमारी अन्तश्चेतना पर डाला है और एक प्रबल लोकचेतना के निर्माण का सराहनीय कर्म किया है।

तुलसीदास जी ने लोक चेतना के उत्कर्ष के लिए मानस रोगों की स्पष्ट व्याख्या तथा उन्हें दूर करने के मनोवैज्ञानिक उपाय सुझाना जरूरी समझा है। मानस के आरंभ में ही मन के संस्कार को ध्यान में रखते हुए वे लिखते हैं-

“मन करि विषय अनल बन जरई।

           होइ सुखी जौं एहिं सर परई।।“9.

सारा मानव-जगत मानसिक रोगों से पीडित है और इनके मूल में है मोह। इन रोगों को समूल नष्ट करने का एकमात्र उपाय है रामभक्ति। गोस्वामी जी ने अपने युग और बाद के युगों की मानवता के चारित्रिक औदात्य के लिए मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा की। करुणा, अहिंसा, शुचिता, सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भाव आदि उदात्त मानवीय गुणों के संस्कार तुलसी लोक-मानस में कथा प्रवाह के साथ डालते चलते हैं। जिन प्रसंगों से लोक-मानस पर कुसंस्कार पड़ने की जरा सी सम्भावना दिखाई पड़ी, उनको या तो सांकेतिक रखा गया है अथवा उनका परिमार्जन कर दिया गया है। मानव जीवन में सफलता और श्रेय की उपलब्धि के लिए मानस की ये पंक्तियां हिन्दी साहित्य में बेजोड़ हैं-

“सौरज धीरज तेहि रथ चाका।

          सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।,

बल विवेक दम परहित घोरे।

          क्षमा कृपा समता रजु जोरे।।“10.

मानस मुख्यतः कर्म क्षेत्र की कथा है जो कर्म संघर्ष में पड़े गृहस्थों के लिए ही है। तुलसी चाहते हैं कि गृहस्थ धन धान्य से सुखी रहें और कर्मठ बनें। पारस्परिक प्रेम पर आधारित सम्पन्न गृहस्थ-परिवार जो समाज की सुदृढ़ इकाई बन सके गोस्वामी जी को अभीष्ट है। वे मानव के सर्वतोमुखी विकास के हिमायती हैं। इसीलिए तुलसी ने जनकपुर तथा अयोध्या के नागरिकों के सम्पन्न तथा सुखी जीवन के चित्र उरेहे हैं। अयोध्या में “नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।“11. इसी प्रकार जनकपुर के संबंध में वे लिखते हैं-

“बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहंइं लोभाई।।“12.

गोस्वामी जी अपने युग की राजनीतिक स्थिति से भी पर्याप्त खिन्न थे, इसलिए राजनीतिक संस्कार भी उन्होंने बड़ी जागरूकता के साथ किया है। उनकी यह उक्ति अत्यंत प्रसिद्ध है-

“जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी॥“ 13.

इसके साथ ही मानस में नैतिक संस्कार डालने वाली इतनी उक्तियां हैं कि किसी भी प्रकार के पारिवारिक, सामाजिक सम्बन्ध के निर्वाह के अवसर पर अथवा मनोवैज्ञानिक संकट में तुलसीदास का कोई न कोई नीति वाक्य सहायता कर जाता है। इन उक्तियों ने लोक-चेतना के उत्कर्ष में काफ़ी योग दिया है। सत्यपालन की प्रेरणा देने में तुलसी की यह उक्ति बेजोड़ सिद्ध हुई-

“रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाय पर बचन न जाई।।“ 14.

गोस्वामी जी सम्प्रदाय-मुक्त, जाति-पांति से निरपेक्ष, शोषण-अनाचार के विरुद्ध तथा दलितों पीड़ितों के प्रति अपार रूप से करुणार्द् थे क्योंकि यद्यपि वे ब्राह्मण कुल में पैदा हुए थे पर उन्हें निर्धनता और अभिजात वर्ग द्वारा प्रदर्शित तिरस्कार के कटु अनुभव थे। वनवास के समय राम की सेवा कोल किरात जिस स्नेह के साथ करते हैं वह देखने योग्य है। भरत और अयोध्यावासियों के चित्रकूट पहुंचने पर कोल, किरात और भिल्ल आदर के साथ सबको कन्द-मूल-फल देकर उनका आतिथ्य करते हैं। राम को अपने तथा लोक-सामान्य के हित-सम्पादन में केवल निम्न वर्ग के व्यक्तियों तथा वानर, भालुओं आदि से ही प्रत्यक्ष सहायता मिली। इनके बीच, इन्हीं के समान बनकर एवं रहकर राम ने इनकी चेतना  का उत्कर्ष किया तथा इनमें इतना ओज, साहस और संकल्प भर दिया कि रावण की लंका पर ये पूरे उत्साह से चढ़ गए। उनकी चेतना में ऐसा क्रान्तिकारी परिवर्तन ज्ञान का उपदेश देकर नहीं वरन‌् उनके साथ रहकर तथा उनकी  सहायता से उपकृत होकर ही राम ने प्रस्तुत किया।

मानस पर बात हो और तुलसी की नारी-विषयक उक्तियों की चर्चा न हो, यह संभव नहीं। उनकी नारी-विषयक उभय भावनाओं को यह कहकर समन्वित किया गया है कि उन्होंने वैरागी दृष्टि से और सामाजिक हित की दृष्टि से प्रमदा नारी की निंदा की है तथा व्यक्ति एवं समाज के लोक-कल्याण हेतु धर्मनिष्ठ-मर्यादित नारी के प्रति आदर-भाव प्रदर्शित किया है। वस्तुत: गोस्वामी जी जीवमात्र के अभ्युदय के आकांक्षी थे।

गोस्वामी तुलसीदास ने अवतार भावना द्वारा, अर्थात् अवतार-पुरुष राम के नाम-रूप-गुण और लीला द्वारा लोक चेतना को उत्कर्ष के उस स्तर पर पहुंचाना चाहा है जहां भोग और योग, लोक और परलोक, यथार्थ और परमार्थ की समरस स्थिति जीवन में सहज रूप से उपलब्ध हो जाती है, अर्थात् कर्म योग की पूर्णता प्राप्त हो जाती है। रामचरितमानस के पाठ और मनन से ही चेतना में यह उत्कर्ष पैदा हो सकता है, क्योंकि तुलसी का कहना है कि-

“यह गुन साधन तें नहिं होई।

              तुम्हरी कृपा पाव कोई कोई।।“15.

तुलसीदास उपदेशक या समाज सुधारक नहीं थे वरन् वे मानव चेतना में बुनियादी परिवर्तन द्वारा उच्चतर स्तर पर उसे प्रतिष्ठित करना चाहते थे। उन्हें बाहृय साधनों या उपचारों की तथा परोक्ष ज्ञान की व्यर्थता का पूर्ण एहसास था इसलिए वे अन्त:करण को निर्मल कर मानव के हृदय, बुद्धि और इन्द्रिय व्यापारों को लोक और परलोक की समरस साधना में सशक्त बना मनुष्य के सर्वांगीण उन्नयन के समर्थक और प्रेरक थे।

संदर्भ:

  1. रामचरितमानस, उत्तरकांड, पृ.सं. 522
  2. कवितावली, पृ.सं. 116 गीताप्रेस 2017
  3. रामचरितमानस, बालकाण्ड, पृ.सं. 66
  4. हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास, पृ.सं.13
  5. मानस, उत्तरकाण्ड, पृ.सं. 520
  6. मानस, उत्तरकाण्ड, पृ.सं. 536
  7. मानस, बालकाण्ड, पृ.सं.166
  8. तुलसीदास, सं. उदयभानु सिंह, पृ.सं.175
  9. मानस, बालकाण्ड
  10. मानस, लंकाकाण्ड
  11. मानस बालकाण्ड
  12. मानस बालकाण्ड
  13. मानस अयोध्याकाण्ड
  14. मानस, अयोध्याकाण्ड
  15. मानस, किष्किंधाकाण्ड
                               डॉ. शगुन अग्रवाल
                               एसोसिएट प्रोफेसर
                         श्यामा प्रसाद मुखर्जी महिला महाविद्यालय