भारतीय नवजागरण में राष्ट्रवाद का दार्शनिक व आध्यात्मिक आधार विवेकानन्द ने रखा। राजनीतिक क्षेत्र में बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रवाद को परिभाषित किया तथा हिन्दी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने राष्ट्रवादी द्वीप प्रज्ज्वलित किया। जिस प्रकार द्विवेदी जी हिन्दी साहित्य के केन्द्र में थे उसी प्रकार मैथिलीशरण गुप्त जी कविता के केन्द्र में थे। हिन्दी साहित्य में सिर्फ दो ही रचनाकार ऐसे हुए हैं जिन्हें राष्ट्रकवि होने का गौरव प्राप्त हुआ है मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर। गुप्त जी को यह उपलब्धि महात्मा गांधी ने दी थी जिसे पूरे देश ने पूरी शिद्दत से स्वीकारा जबकि दिनकर जी को यह विरुद्ध हिन्दी समाज ने दिया और पूरे राष्ट्र ने इसे अंगीकार किया। इसके पीछे दिनकर जी के काव्य का राष्ट्रवादी स्वर ही प्रमुख था। गुप्त जी कभी सत्ता के विरुद्ध नहीं रहे, न ही सत्ता के प्रति विरोध भाव को उनसे प्रोत्साहन ही मिला, पर पराधीन भारत में स्वाधीन भारत की एक कल्पना प्रतिमा उनके अन्तर्मन में सदा प्रतिष्ठित थी जिसका स्वतन वह निरंतर करते रहे और जिसे जनमात्र के सामने रखकर वह उसे निरंतर प्रेरणा देते रह सके। स्वाधीन भारत के आदर्श की सतत साधना ने ही उन्हें राष्ट्रकवि के पद पर आसीन भी तो कराया था। राष्ट्रकवि गुप्तजी द्विवेदी युग के प्रमुख कवि थे। द्विवेदी युग विद्रोह का युग था। साहित्य और कला के क्षेत्र में बलिदान, संघर्ष, प्रतिरोध, क्षोभ, आत्मसम्मान, वीरता, साहस, त्याग और नवजागरण का स्पष्ट दृश्य इस युग में दिखाई पड़ने लगा था। जब देश गुलाम होता है तब अतीत का चिन्तन परीक्षण और वर्तमान के अनुकूल उसका नवीनीकरण उभरता है। विदेशी शासक का विरोध और विनाश करने तथा उसका उल्लंघन, प्रतिकार उवं उसके प्रतिकूल आक्रोश प्रकट करने की भावना राष्ट्रीयता का अंग बन जाती है। मैथिलीशरण गुप्त ने अपने युग के अनुरूप कविता को सृजित किया। भारत भारती एक अकेली ऐसी पुस्तक है जिसने असंख्य भारतीयों के मन में ऐतिहासिकता का बोध जागृत किया, राष्ट्र का रूप उजागर किया और उसके लिए प्राणों की आहुति को सहज वरणीय कर्त्तव्य और नियति के रूप में अधिष्ठातित किया। भारत भारती ने जेलों में भी कैद बन्दियों को पढ़ने के उपरान्त साहस प्रदान किया और अनेकों इसे पढ़कर सहर्ष जेल गए।
राष्ट्रवादी कवि अपनी जन्मभूमि के प्रति प्रेम का उत्कट भाव रखता है। अपनी राष्ट्रभूमि को ’पुत्रोऽहं पृथिव्यां’ के समान प्रेम करता है। अपनी जन्मभूमि का स्तुति करता है। कोई राष्ट्र पुत्र अपने देश पर गर्व करता है। ’भारत भारती’ में भारतवर्ष की श्रेष्ठता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है-
भू-लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां?
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल जहाँ?
सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन? भारतवर्ष।
मैथिलीशरण गुप्त की ’भारत भारती’ का अतीत खण्ड सम्पूर्ण द्विवेदी युगीन काव्य में भारत के अतीत गौरवगान का श्रेष्ठतम अंश है-
वे आर्य ही थे जो कभी अपने लिए जीते न थे।
वे स्वार्थरत हो मोह की मदिरा कभी पीते न थे।।
देश की आजादी के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले युद्धवीर या धर्मवीर, मर्कवीर या दानवीर अथवा दयावीर, सत्य, अहिंसा और शील के लिए बलिदान हो जाने वाले वीरों की विविध ढंग से पूजा अर्चना की है।
थे भीष्म तुल्य महाबली, अर्जुन समान महारथी
श्री कृष्ण लीलामय हुए थे आप जिनके सारथी।
गुप्तजी के काव्य में राष्ट्रीय जागरण का ओजस्वी स्वर दिखाई पड़ता है। ’स्वदेश संगीत’ में गुप्त जी ने लिखा है-
धरती हिलकर नींद भगा दे
वज्रनाद से व्योम जगा दे
दैव और कुछ लाग लगा दे।
’साकेत’ के जरिए गुप्तजी ने विदेशी शक्ति से देश की रक्षा के लिए संकल्पित नजर आ रहे हैं-
पुण्य भूमि पर पाप कभी हम सह न सकेंगे
पीड़क पापी यहां और अब रह न सकेंगे।
राष्ट्रीय भावना के विकास में ’जन्मना जाति सिद्धान्त’ बहुत बड़ा बाधक है। वर्तमान सूचना युग में भी तब जबकि जाति की भावना समाज से लगभग गायब हो चुकी है बावजूद इसके भी लोग जातीय सीमा से घिरे नजर आते हैं। गुप्तजी का मानना था कि जाति की बेड़ियां तोड़े बिना गुलामी की बेड़ियां नहीं टूटेंगी। इसीलिए गुप्तजी ने ’अनघ’ काव्य में लिखा है कि-
इसका भी निर्णय हो जाए
नहीं अछूत मनुज क्या हाय करे अशुचिता
सबकी दूर, उनसे घृणा करें सो क्रूर।
अछूतों के मन्दिर प्रवेश पर उठने वाले सवालों पर भी गुप्तजी ने कटाक्ष किया है-
मन्दिर का द्वार जो खुलेगा सबके लिए
होगी तभी मेरी वहां विश्वंभर भावना।
समाज में व्याप्त असमानता व रूढ़वादिता को प्रश्रय परोक्ष रूप में राजनीति ही दे रहा है और यही आमजन के तबाही का कारण है। राम नरेश त्रिपाठी के ’पथिक’ में भी यह बात दृष्टिगत होती है-
खाते हैं गम और आंसुओं से ही प्यास बुझाते
लेकर आयु विविध रोगों की हैं दिन रात बिताते।
फटे पुराने चिथड़ों से ही ढंके किसी विधि तन हैं
कैसे सिएं सुई धागे से भी नितांत निर्धन हैं।
राष्ट्रकवि दिनकर ने भी लोकतंत्र में केन्द्रीकृत सत्ता की आलोचना जमकर की है-
फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है
दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अंधियाला है।
अटका कहां स्वराज? बोल दिल्ली तू क्या कहती है?
तू रानी बन गई, व्रदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग दबा रक्खे हैं, किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई वंदिनी बता किस घर में?
गुप्तजी मानववाद के ही सहयात्री नहीं थे, आधुनिक चेतना के साथ चलते हुए उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को सर्जनात्मक रूप देते हुए ईसा और मुहम्मद की जीवनी को भी काव्यबद्ध करने का सफल उपक्रम किया। राष्ट्र और राष्ट्रीयता का सीधा सरोकार एक निश्चित भूखण्ड के भीतर रहने वाली मानव जाति की उन समग्र प्रवृत्तियों से होता है जिनका सृजन और श्रृंगार भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक स्रोतों के समन्वय से होता है। इन्हीं स्रोतों के रसास्वादन से राष्ट्रीय संवेदनशीलता का विकास भी होता है जिसमें उस भूखण्ड के लिए जीने मरने, सोचने समझने, बनने बनाने, जागने जगाने से लेकर जीवन की आखिरी सांस तक उसी के लिए उत्सर्ग की भावनाओं से प्रत्येक पीढ़ी के जुड़ने का सिलसिला जारी रहता है।