आज जिस दौर में हम रह रहे हैं वहाँ कदम-कदम पर भाषा की समस्या से रुबरू होना पड़ रहा है, कोई अंग्रेजी की महत्ता की बात कर रहा है तो कोई अपनी मातृभाषा के महत्व की बात करता है इस कारण आजतक हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई है इसी ज्वलंत विषय पर सहचर टीम ने एकसाथ हिंदी के दो मर्मज्ञ विद्वान प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय एवं प्रो. हरिशंकर मिश्र से ‘राष्ट्रभाषा और हिंदी’ विषय पर बातचीत……….
सहचर टीम : नमस्कार ! सहचर टीम पहली बार दो व्यक्तियों को साथ लेकर बातचीत कर रही है, इससे पहले हम किसी विषय विशेष पर एक ही व्यक्ति से बात-चीत करते थे । करूणाशंकर जी, का धन्यवाद जिन्होंने राष्ट्रभाषा जैसे जरूरी विषय पर बात करने की सलाह दी । पहला सवाल करूणाशंकर जी आपसे ही है। भारत जैसे देश में जहाँ 78% से अधिक लोग हिंदी बोलते-समझते हैं, वहाँ हिंदी राष्ट्र्भाषा नहीं है क्यों ? जबकी अन्य सभी राष्ट्रीय प्रतीक यहाँ मौजूद है ?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : निश्चित रूप से किसी देश की पहचान का प्रमुख साधन उसकी राष्ट्रभाषा से है व वहाँ की संस्कृति उससे जानी जाती है । निश्चित रूप से हिंदी सबसे बड़ी भाषा है व 78% लोग हिंदी बोलने समझने की स्थिति मे हैं,स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी की सबसे बड़ी भूमिका रही है।गांधी, तिलक,गोखले, सुभाषचंद्र बोस व दक्षिण के राजगोपालाचारी स्वंय हिंदी की भूमिका से अवगत थे व हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने को प्रयासरत रहे । हिंदी को संविधान में राष्ट्रभाषा के बजाय राजभाषा के रूप में शामिल होने के पीछे गांधी जी की हत्या भी एक उत्तरदायी कारण है अगर उनकी हत्या न हुई होती तो संभव था व हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कराने के लिये अमरण अनशन करते । विश्व के किसी भी देश मे राष्ट्रभाषा व राजभाषा मे कोई अंतर नहीं किया जाता “मंदारिन को भी चीन की राष्ट्रभाषा नहीं घोषित किया गया है, जापानी को जापान में, कोरियन को कोरिया में घोषित नहीं किया गया”, ज्यादातार आधिकारिक भाषा शब्द क ही उल्लेख है व्यक्तिगत तौर पर मैं राजभाषा व राष्ट्रभाषा मे कोई अंतर नहीं मानता । हमने अपने दो न्यायमूर्तियों डॉ. चंद्रशेखर धर्माधिकारी व डॉ. डी.आर धानुका से बात की व निष्कर्ष निकाला कि अगर हम यह मानते है कि मराठी महाराष्ट्र की राजभाषा है वहाँ की प्रादेशिक भाषा भी है इसीप्रकार गुजराती,कन्न्ड़,तमिल,तेलगू,उड़िया,मलयालम आदि तमाम राज्यों की राजभाषा ही वहाँ की प्रादेशिक भाषा मानी जाती है। जिस विधान के अनुसार हम इन प्रादेशिक भाषाओं को राजभाषा मान रहें है उसी विधान के अनुसार हिंदी अगर राजभाषा है तो राष्ट्रभाषा भी है इसलिए दोनों को एक मानकर हमे हिंदी के विकास व संवर्धन के लिये प्रयास करना चाहिए ।
सहचर टीम : 12 सितंबर 1949 को संविधान सभा की बैठक शुरू हुई और लगातार 48 घंटे चलने के बाद 14 सितंबर 1949 तक चली उसमे स्वंय राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि मैं चाहता तो हूँ कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बना दिया जाए लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण नहीं बना पा रहा हूँ कहीं ऐसा तो नहीं कि उत्तर भारत के लोग ही हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने मे हस्तक्षेप करते रहे जबकि गांधी जी, राजगोपालाचारी जो स्वंय हिंदी भाषी नहीं थे हिंदी के संवर्धन मे कार्य किया।
प्रो. हरिशंकर मिश्र : स्वतंत्रता से पूर्व हमारे जननायकों ने संगठित होने के लिए एक भाषा को चुना था वह भी हिंदी। उन्हें हिंदी का महत्व अच्छे से पता था भारत उस समय तक राष्ट्र नहीं था पंरतु हिंदी की स्थिति राष्ट्रभाषा वाली ही थी जैसा कि उपाध्याय जी ने बताया कि अगर गांधी जी होते तो इसे राष्ट्रभाषा का ही अभिधान देते, राष्ट्रभाषा की ही संज्ञा देते क्योंकि वह मानते थे कि बिना राष्ट्रभाषा के राष्ट्र गूंगा है।गांधीजी की इस संकल्पना के सभी समर्थक थे लेकिन जब संविधान सभा की बैठक शुरू हुई तो कुछ राज्य के लोगों द्वारा राजनीतिक मुद्दा बना दिया गया,कई राष्ट्रीय प्रतीक तो बने परंतु भाषा राष्ट्रभाषा नहीं बनी। वहाँ प्रश्न उठा कि हिंदी को अगर राष्ट्रभाषा माने तो अन्य भाषाओं को क्या गैर राष्ट्र की भाषा मानेंगे? अन्य प्रांतीय भाषाओं की तरह हिंदी भी प्रांतीय भाषा थी। ऐसे में हिंदी भाषी राज्यों की भाषा राष्ट्रभाषा तो हिंदी बन जाती लेकिन गैर हिंदी भाषी राज्यों की राष्ट्रभाषा को लेकर यह विवाद उत्पन्न हुआ। इसे शांत करने के लिए राजभाषा का दर्जा हिंदी को दिया गया, अंग्रेजी में इसे “ऑफिशयल लैंग्वेज” कहा गया जिसका अनुवाद ‘राजभाषा’ हुआ, साथ ही कहा गया कि संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाएँ राजभाषा हैं उस समय हिंदी वाले इतने जागरूक नहीं थे ।
सहचर टीम : बड़ी विडंबना है कि जब हम हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश करते है तो बात आती है कि दक्षिण भारत व पूर्वोत्तर प्रांत भी अभिन्न भाग है भारत के, वहाँ हिंदी नहीं बोलते–समझते क्या? ऐसे मे अगर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाते हैं तो इसका प्रतिवाद किस रूप में किया जा सकता है?
प्रो. हरिशंकर मिश्र : भारत एक संघीय व्यवस्था से संचालित राज्य है यहाँ लादने जैसी बात नहीं हो सकती है जैसे यदि राष्ट्रपति है तो किसी प्रांत विशेष से होगा, प्रधानमंत्री है तो कोई एक भाषा-भाषी विशेष से होगा, उसमें यह नहीं कहा जा सकता कि उसे क्यों उस पद बैठाया गया? वह राष्ट्र का पद है ठीक उसी प्रकार जिस भाषा का स्वतंत्रता मे बड़ा योगदान हो, संपर्क मे योगदान हो, अधिक बोल-समझी जाती हो, उसे वरीयता देना चाहिए। एक उदाहरण लेकर बात करते हैं कि यदि भारत के किसी जगह पर विभिन्न प्रांतों के लोग कार्य कर रहें हो तो वहाँ संपर्क के लिए बंगाली, गुजराती नहीं समझेगा तमिल वाला मराठी नहीं समझेगा, वहाँ हिंदी काम आएगी अगर वे लोग अंग्रेजी नहीं जानते। इसलिए हिंदी को स्वीकार कर इसे विकसित करना होगा।
सहचर टीम : 1949 ई. मे तय हुआ कि हिंदी के साथ अंग्रेजी सहभाषा के रूप में कार्य करेगी परंतु आज ऐसा लगता है कि हिंदी सहभाषा के रूप में संपर्क कर रही है और अधिकतर भारतीय हिंदी मे सोचते हैं, कुछ लोग बोलते भले ही अंग्रेजी में हैं। हमारा फार्मूला भी है कि काम-काज मे निजभाषा का प्रयोग होना चाहिए। भारतेंदु ने कहा था “निज भाषा उन्नति है सब उन्नति को मूल”।करूणाशंकर जी आप तो गैर हिंदी भाषी समाज मे रहते हैं। क्या आपको कहीं हिंदी में काम करने में कोई दिक्कत महसूस हुई है ?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : महाराष्ट्र हिंदी को बढावा देने वाले राज्यों में प्रमुख है । इस समय अगर हिंदी से एम.ए करने वाले बच्चों की गणना करे तो महाराष्ट्र उसमें शीर्ष में शामिल होगा। मुंबई विश्वविद्यालय व उससे संबद्ध 35 महाविद्यालय, औरंगाबाद विश्वविद्यालय, इसी तरह अन्य विश्वविद्यालय वहाँ और हैं जहाँ हिंदी मे भारी मात्रा में छात्र-छात्राएँ पढ़ रहे हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र मे हिंदी को बढ़ावा देने वाले दो अन्य कारक भी हैं- बॉलीवुड वहीं फूला-फला है तथा हिंदी के तमाम चैनलों के हेडक्वार्टर मुंबई में हैं, हिंदी की तमाम पत्र-पत्रिकाएं वहाँ से निकलती हैं, तिलक ने वहाँ से पत्रिका निकाली, आजाद भारत में धर्मयुग, सारिका जैसी पत्रिकाएँ वहाँ से निकली। दैनिक, साप्ताहिक व मासिक रूप में लगभग 60-70 अखबार केवल मुबंई में हिंदी भाषा के निकलते हैं। महाराष्ट्र के गाँवों में भी हिंदी से आपका काम चल जाता है। मराठी भाषी लोग स्वंय हिंदी का प्रयोग करते हैं। हिंदी में एम.ए करने वाले सर्वाधिक मराठी भाषी होते हैं हिंदी को लेकर महाराष्ट्र मे कोई समस्या नहीं है, वहाँ का नेतृत्व हिंदी का पक्षधर है। राष्ट्रीय अस्मिता को लेकर वहाँ अपेक्षाकृत ज्यादा जागरूकता है वे हिंदी को राष्ट्रभाषा ही मानकर चलते हैं। हाँ अंग्रेजी वाले सवाल पर ध्यान देने की आवश्यकता है। भारतीयों से यह गलती हो रही है कि जिस भाषा के बल पर अंग्रेजों ने हम पर शासन किया, अत्याचार किया,लोगों को शहीद होना पड़ा, उन अंग्रेजों की भाषा को अपनी भाषा पर वरीयता देना एक प्रकार का राष्ट्रद्रोह ही है। यहाँ अंग्रेजी थोपने की बात वे नहीं करते, परंतु हिंदी थोपी हुई भाषा लगने लगती है। आचार्य चाणक्य कहते थे – “भाषा, भवन, भेष व भोजन संस्कृति के निर्माण करने वाले तत्व हैं।” वेश-पश्चिमी हो गया है, भवन निर्माण में न्यूयार्क के बहमंजिली इमारतों की छाप है , भोजन मे मैकडोनाल्ड के बर्गर , चीनी व्यंजनों पर लार टपका रहें हैं तो हमारा भोजन भी खतरे में हैं ऐसी स्थिति में संस्कृति बचाने का एक माध्यम है भाषा , वह भी हिंदी भाषा । स्वतंत्रता आंदोलन के समय उजबेकिस्तान से रंगून तक एक ही भाषा चलती थी – हिंदी , इसी से लड़ाई लड़ी गई । विरोध देखें तो पूर्वोत्तर राज्यों में हिंदी का विरोध किया वहाँ हिंदी तेजी से फली-फूली है । पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु ने राजनीतिक कारणों से हिंदी का विरोध किया । हाल में ही कर्नाटक भी शामिल हुआ है । केरल के 5 बड़े विश्वविधालयों में हिंदी के बड़े विभाग है – कोचीन, कालीकट, कालडीह, तिरूअंनतपुरम् पूरे केरल का मैंने भ्रमण किया है, यहाँ पर्याप्त शिक्षक , समृद्ध पुस्तकालय हैं। केरल में बिना अंग्रेजी के, केवल हिंदी भाषा से अपना काम चला सकते हैं। कच्छ से मणिपुर , लद्दाख से रामेश्वरम् आप हिंदी के बलबूते जा सकते हैं । यह राष्ट्रीय संवाद का बड़ा माध्यम है । संविधान में जो 15 वर्ष वाली बात है कि हिंदी को इतने समय मे सक्षम बनाया जाएगा व लागू किया जाएगा पंरतु इसमें चीनी आक्रमण की बड़ी भूमिका रही । भारत पराजित स्थिति में था । 1963 में जब हिंदी को राष्ट्रभाषा देने का समय आ गया तो वहाँ विरोध शुरू हुआ । नेहरू इस विरोध को दबा पाने में सक्षम नहीं थे तो उन्होंने अनिश्चितकाल के लिये एक अधिनियम बनाया कि अंग्रेजी अनिश्चितकाल के लिये चलेगी ( राजभाषा अधिनियम 1963 ) । यह अधिनियम ही असंवैधानिक है क्योंकि संविधान मे संशोधन किये बगैर यह अधिनियम निकाला गया है न्यायमूर्तियों से बात करने पर यह पता चला कि इसको चुनौति देने की आवश्यकता है । मोदी जी हिंदी क्षेत्र ने काफी समर्थन दिया , वे हिंदी वक्ता के रूप में भी विख्यात हैं , उनसे आग्रह है कि वे ( राजभाषा अधिनियम 1963 ) निरस्त करा दें , हिंदी का संवर्धन व विकास स्वत: हो जाएगा।
सहचर टीम : चंद्रशेखर अधिकारी ने लिखा है कि भारतीयों को इम्पोर्टेड चीज ज्यादा पसंद है । अंग्रेजी भी इम्पोर्टेड है , तो जब तक यह मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक हिंदी का विकास नहीं हो सकता । जब तक बुद्धिजीवी अपनी संतानों को हिंदी के प्रति तैयार नहीं करते , सोशल मीडिया पर केवल 0.89% लोग ही हिंदी में लिखना पसंद करते हैं सर जब तक मानसिकता नहीं बदलती , तब तक यह कैसे होगा ? सबसे अहम सवाल यह है कि यह मानसिकता कैसे बदली जाए ?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय: संविधान में लिखा है कि हिंदी भारत संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में होगी। अगर हम देवनागरी लिपि में हिंदी नहीं लिख रहें है तो भारतीय संविधान का अपमान कर रहे हैं रोमन में लिखी हिंदी हिंदी नहीं हैं। गूगल भी अपने गणित में जो संख्या लेता है वह अंग्रेजी की ही लेता है, ऐसे में हिंदी का नुकसान होता है। फिर गूगल दिखाता है कि अंग्रेजी के पृष्ठ हिंदी के पृष्ठ से ज्यादा हैं। कुछ जरूरी बातें हिंदी वाले लोगों तक पहुंचाने की जरूरत है संख्या बल के आधार पर हिंदी आज विश्व की सबसे जयादा बोली जाने वाली भाषा है। यह 64 करोड़ लोगों कि मातृभाषा, 26 करोड़ लोगों की द्वितीय भाषा, 40 करोड़ लोगों की तृतीय,चतुर्थ या पंचम भाषा है। ऐसी स्थिति में लगभग 130 करोड़ लोग हिंदी बोलते-समझते हैं। 38 बोलियों के संयुक्त परिवार से मिश्रित हिंदी इतनी बड़ी भाषा है। इसके बाद दूसरी सबसे बड़ी भाषा चीन की ‘मंदारिन’ है यह 64 बोलियों का समुच्च्य है व इसमें कई बोलियां बहुत बड़ी है – कैंटनी, कोरियन, मंगोलियन, तिब्बती आदि ‘पोतंगुआ’ मंदारिन समूह की बोलियों का मानक रूप है, चीनी सरकार मंदारिन के विकास के लिए बहुत पैसा खर्च करती है, उसकी तुलना में भारत सरकार बहुत कम पैसा खर्च करती है। दूसरी बात हिंदी वालों को संगठित होना पड़ेगा। अगर हिंदी वाले लोकसभा की 542 में से 350 से ज्यादा सीटें चुन कर दे रहें हैं तो हिंदी वालों को तय करना है कि वे अपनी बात कैसे मनवाते हैं। एक और बात लोगों को समझाना है कि इस देश के ज्यादा से ज्यादा 7-8% लोग विदेशों में, मल्टीनेशनल कंपनियों में नौकरी करेंगे, ऐसे लोगों को विदेशी भाषा सिखाइए, जिस व्यक्ति को इसी देश मे रहकर सब करना है, तो सबको क्यों सिखा रहे हैं ? सरकार से आग्रह है कि आगे से अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय को अनुमति न दे, वरना हिंदी व भारतीय भाषाओं का भविष्य चौपट हो जाएगा। अगली महत्वपूर्ण बात कि जैसे महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा; अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल बोला गया है वैसे हिंदी भाषी क्षेत्रों के लोगों को मांग करनी चाहिए कि हर राज्य में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय खोला जाए। मौलाना कलाम उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद का बजट; महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के बजट से तीन गुना ज्यादा है और छात्रों की संख्या हिंदी के मुकाबले कम है। इस सवाल को गंभीरता से भारत सरकार के समक्ष रखना चाहिए। वर्तमान में 27000 राजभाषा अधिकारी के पद केवल बैंकों में रिक्त है वे तुरंत भरे जाएँ, हिंदी के अध्यापकों के पद जो रिक्त है वे तुरंत भरे जाएँ।
प्रो. हरिशंकर मिश्र : भाषा की सुरक्षा लिपि से होती है, यदि लिपि बदली तो भाषा बदलेगी नहीं। आज हिंदी को रोमन में लिखने का चलन बढ़ रहा है, ऐसे में हिंदी भाषा का स्वरूप ही बिगड़ जाएगा।बहुत पहले ही हिंदी भाषाओं को रोमन में लिखने की बात उठाई गई थी। आचार्य बिनोवा भावे ने इसका विरोध किया था व कहा कि क्यों न सारी भारतीय भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जाएँ। आज कुछ वैसा ही चल रहा है। ऐसा होगा तो आगे की पीढ़ी देवनागरी नहीं जानेगी। हिंदी को देवनागरी लिपि में ही लिखा जाए, हमें इस ओर भी ध्यान देना है। देवनागरी में रोज-रोज सुधार किया जा रहा है वह भी खत्म होना चाहिए अंग्रेजी में 26 से 27 वाँ वर्ण नहीं बना, देवनागरी में क्या कमी है कि रोज-रोज सुधार करें, वेद-वेदांग,पुराण-दर्शन सब इसी में हैं। हमें निश्चित वर्ण कर एक मानक बनाकर स्थिर होना चाहिए। इसमें हम सारी ध्वनियाँ व्यक्त कर सकते हैं। हिंदी आत्मा है, लिपि देह है। देह की रक्षा न करें तो आत्मा कैसे बनेगी।
सहचर टीम : आज जो चल रहा है, हिंदी से इतर भोजपुरी अलग मांग कर रही है, मैथली अलग मांग कर रही है, बंगाली अलग मांग करेगा, तमिल अलग मांग करेगा, तो हम जो ‘जय हिंद जय हिंदी’ का नारा देते हैं, यह कहाँ तक सफल होगा ?
प्रो. हरिशंकर मिश्र : यह एक भटकी हुई राजनीति है। आज भी अंग्रेजों से प्रेरणा लेकर फूट डालकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाली बात हो रही है, भाषा के आधार पर राज्यों का बंटवारा होता है तो बँटवारा कराने वाले अपने आप को नेता स्थापित करने में लगे हैं जबकि उन्हें हिंदी को मान्यता देने का समर्थन करना चाहिए था। हिंदी को बोलियों से प्राण मिलता ही है। आज जो खड़ी बोली है, जो मानक रूप है उसमें भी बोलियों के तत्व मौजूद हैं ही, वह पुराने खड़ी बोली से अलग है। बोलियों को हिंदी समकक्ष बड़ा करने की कवायद ठीक नहीं है ।
सहचर टीम : मानक-अमानक भाषा से एक प्रश्न याद आया कि आप मुंबई में रहते हैं , वहाँ की भाषा मानक तो है नहीं, फिल्मों की भाषा मानक नहीं हैं लेकिन जितना प्रचार फिल्मों ने हिंदी का किया है, उतना हम मानक रूप में भी नहीं कर सकते। क्या हम मानक-अमानक के चक्कर में भाषा के प्रसार में कमी तो नहीं कर रहें हैं ।
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय: बोलने के स्तर पर भाषाएँ मानक नहीं होतीं, अंग्रेजी भी कोई शुद्ध थोड़ी बोलता है। हिंदी के ही विश्व स्तर पर आज अनेक रूप हैं। हर बोली का अपना सौंदर्य हैं, उसे भी बनाए रखना है। लेखन में कभी भी मानक के अतिरिक्त नहीं लिखना चाहिए क्योंकि यही भाषा की दीर्घकाल तक रक्षा करता है।
प्रो. हरिशंकर मिश्र : सरकार द्वारा अधिकृत संस्थानों को भाषा के मानकीकरण के लिए अधिकार दिया जाता है व मानक रूप तय किया जाता है इसमें भाषा की सरलता का ध्यान भी रखा जाता है। भाषा कि दो रूप सदैव से चलते रहें है, चलते रहेंगें। किसी भी समाज के लोग न एक जैसा बोल सकते हैं, न लिख सकते हैं। कोई अंग विकृति के कार्ण गलत बोलता है तो कोई अन्य कारण से। अभिव्यक्ति मे केवल संप्रेषण की बात होती है, बोली गई बात समझ आनी चाहिए परंतु लेखन में तकनीकी शब्दावली, वैज्ञानिक शब्दावली, पारिभाषिक शब्दावली आदि की जरूरत पड़ेगी, उसके लिए मानक रूप तो होना ही चाहिए ताकि वह सभी स्तरों पर एक ही अर्थ दे। परंतु जब लोगों द्वारा बोला जाता है तो अंतर आता है। इसलिए भाषा के दो रूप सदैव से रहें हैं।
सहचर टीम : बाजार के दृष्टिकोण से अंग्रेजी के वैश्विक हस्तकक्षेप को कम करने व हिंदी के वैश्विक हस्तक्षेप को बढ़ाने का क्या उपाय है?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : बाजार के कारण ही हिंदी का भी विकास हुआ है। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां बाजार के कारण सही हिंदी के विकास के लिए अभिशप्त हैं। अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार वैश्विक है, यही सबसे बड़ी गलतफहमी है। अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या हिंदी बोलने वालों से आधी है। अंग्रेजी बोलने वाले 60 करोड़ भी नहीं है, स्पैनिश बोलने वाले 58 करोड़, एशियाई देशों भारत, पाकिस्तान, बंग्लादेश आई में मिलाकर 14 करोड़ अंग्रेजी बोलने वाले हैं जिसके कारण अंग्रेजी बोलने वाले 60 करोड़ हैं, पूरे विश्व कि 30 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में केवल चार की राजभाषा अंग्रेजी है – अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड व दक्षिण अफ्रीका/आस्ट्रेलिया ने अपनी भाषा का नाम बदलकर औस्ट्रिक कर लिया है, यूरोप के हर देश की अपनी भाषा है, स्पैनिश, इटैलिक, फ्रेंच, रसियन, जापानी, कोरियन, मंदारिन आदि। विकास में राष्ट्रभाषा की बड़ी भूमिका है। अफ्रीका देश दुनिया के पिछड़े देश हैं वहाँ के पिछड़ेपन का कारण ही उनकी भाषा का विदेशी भाषा होना है। विदेशी भाषा को अपनाने में उसकी अपनी सांस्कृतिक अस्मिता नहीं बन जाती है। अफ्रीकी भाषाओं को पिछड़ा बनाए रखने में यूरोपीय व अरबी भाषाओं का योगदान है। अंग्रेजी अपने मूल से अलग कुछ देशों में बड़ी है, इसमें सबसे ज्यादा भूमिका भारत की है। भारतीयों के मन में अभी भी गुलामी है। इंग्लैण्ड व अमेरिका को ही पूरी दुनिया मानते हैं। इस गलतफहमी को दूर करने ही जरूरत है। आज हिंदी फिल्में सैकड़ों करोड़ का कारोबार कर रही है, हिंदी धारावाहिक बहुत बड़ी संख्या में देखे जा रहे हैं, BBC के हिंदी कार्यक्रम के सबसे ज्यादा श्रोता हैं, विदेशों में हिंदी की बड़ी पत्र-पत्रिकाएं निकल रही हैं हिंदी की मांग बढ़ रही है, इसका अपने पक्ष में दोहन करें, इस परिस्थिति को अपने पक्ष में उपयोग करें, यह जरूरी है। एक मामले में हिंदी अंग्रेजी से काफी आगे है वह है शब्द संपदा, वह हिंदी की बहुत समृद्ध हैं। हिंदी के पास 18 लाख परम्परागत शब्द है। वैज्ञानिक एंव तकनीकी शब्दावली आयोग मे 12 लाख शब्दों को हिंदी में आगत किया, केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा के ई शब्दकोश में 3 करोड़ शब्द है। यह हिंदी की क्षमता है। गूगल पर पृष्ठों की संख्या के आधार पर हम पीछे हैं। हांलाकि हमारी विकास की गति अंग्रेजी से तेज है, इसलिए यदि हम गूगल पर देवनागरी लिपि का प्रयोग करें तो अंग्रेजी के इकलौती सत्ता को चुनौती दे सकते हैं।
सहचर टीम : अंग्रेजी की गुलामी की जो मानसिकता है , उससे हमें अपनी आगामी पीढ़ी को कैसे आज़ाद करें? साथ ही हिंदी के प्रति कैसे जागरूक करें? दादा-दादी, नाना-नानी की परंपरा तो रही नहीं, आज बच्चे कार्टून देख रहे है, तो इसका समाधान कैसे होगा ?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : हमें अपने बच्चों में शुरू से ये भावना विकसित करनी पड़ेगी कि हम भारतीय हैं, हम हिंदी है। कांवेण्ट स्कूलों में हिंदी कक्षा के अतिरिक्त हिंदी बोलने पर जुर्माना होता है यह गलत है। माता-पिता भी एक रिटर्न पाने के लिए अंग्रेजी स्कूलों मे पढ़ा रहे हैं ताकि बच्चों को पढ़ाने के तुरंत बाद नौकरी मिल जाए। हमें इसके लिए हम अपने बच्चों मे स्वंय के स्तर से भाषा के प्रति चेतना जागृत करने की आवश्यकता है, तभी हम इसका सामाधान कर सकते हैं।
सहचर टीम : ‘जय हिंद, जय हिंदी’ का नारा तो लोग देते है, परंतु बिना पेट भरे न हिंद, न हिंदी। तो ऐसा क्या उपाय किया जाए कि हिंदी से पेट भी भरे व हिंद भी रोशन हो?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : आज भी पेट हिंदी से ही भर रहा है, अंग्रेजी रोजी-रोटी की भाषा है यह एक भ्रामक प्रचार है। 50 लाख लोग भी देश मे ऐसे नहीं है जो केवल अंग्रेजी के बलबूते रोजी-रोटी चला रहे हैं। व्यापार, मनोंरंजन, उद्योग, कृषि, पर्यटन,धार्मिक स्थलों पर हर जगह रोजगार है। हिंदी रोजगार की भाषा है, यह बात लोगों को बताने की जरूरत है। जितने पद हिंदी में है उतने पद अंग्रेजी में नहीं है। भविष्य में हिंदी में रोजगार और बढ़ेगा। आज 4.5 करोड़ प्रवासी भारतीय हैं, 2030 तह आकड़ाँ 10 करोड़ के आस-पास होगा। आज दुनिया का छठा व्यक्ति हिंदी बोल रहा है, तब तक हर पाँचवा व्यक्ति हिंदी बोलेगा। जो बात बच्चों के कार्टून संबधी प्रोग्राम को लेकर हो रही थी, उस पर मैं यह कहना चाहूँगा कि बच्चों के लिए कार्यक्रम हिंदी भाषा में तैयार किए जाए। ‘जय हनुमान’, ‘बाल गणेश’, ‘कृष्णा’ आदि से संबंधित जो पौराणिक कथाएँ हैं, उन पर प्रोग्राम तैयार किए जाए। साथ ही अंग्रेजी माध्यम के शिक्षण संस्थानों को बंद किया जाए अन्यथा आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेगी। आने वाली पीढ़ियों की सुरक्षा के लिए, हमारी संस्कृति की सुरक्षा के लिए हमें स्वंय हिंदी के पक्ष में आवाज़ उठानी चाहिए । तभी ‘जय हिंद जय हिंदी’ का नारा बुलंद हो पाएगा।
सहचर टीम : भाषा व बोलियों के आंदोलन की अब बात हो रही है, एक पक्ष का तर्क है कि मैथिली या भोजपुरी के लोग कहते हैं कि हमें अपनी बोली के लिए अलग दर्जा दीजिए। आप इनके कवियों को साधिकार हिंदी में पढ़ाइए लेकिन हमें अलग दर्जा दीजिए। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : हिंदी की बोलियां उसका अवयव है। आज किसी का हाथ काटकर कहिए कि हम आपको सकुशल रख रहें हैं, ऐसा तो नहीं होगा। आदि काल की मुख्य भाषा राजस्थानी डिंगल-पिंगल, अवधी व ब्रज भक्तिकाल को मुख्य भाषा, आधुनिक काल में खड़ी बोली हिंदी की मानक भाषा बनी । जैसे देवासुर संग्राम में देवताओं में अपनी सभी शक्तियां दुर्गा को सौंपी थी वैसे ही संविधान बनते समय हिंदी की बोलियों को मिलाकर सारी शक्तियां हिंदी को सौंप दी गई, कि आप साम्राज्यवादी भाषा अंग्रेजी से लड़िए। मैथिली को दर्जा देकर भारत सरकार ने गलती की, आगे इस तरह का दर्जा और देते हैं तो 38 बोलियां, फिर आगे 380 बोलियां दर्जा मांगेगी। तो आज जैसे हर जाति आरक्षण मांग रही है, यह उससे भी खतरनाक स्थिति होगी। किसी भी सरकार के लिए इसे संभालना मुश्किल होगा। अगर धर्म के नाम पर पाकिस्तान बना तो भाषा के नाम पर बांग्लादेश भी बना।
सहचर टीम : क्या आपको ऐसा नहीं लगता ‘जायसी की पद्मावत’ से जितना ज्यादा फायदा हिंदी के प्रचार-प्रसार को नहीं हुआ, उससे कहीं ज्यादा फायदा संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ से हुआ। क्या हम हिंदी के लिए कुछ ऐसा न करें?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : निश्चित रूप से हमें करना चाहिए। आदिकाल से लेकर अब तक के साहित्य पर हिंदी में टेलीफिल्म और फिल्म बनाइए। साहित्यकार की उदारता को हमें समाज में लाने की जरूरत है ।
सहचर टीम : हिंदी को हम कैसे उदार बना सकते हैं ?
प्रो. हरिशंकर मिश्र : हिंदी प्रकृतिवश उदार है। हिंदी मे अन्य भारतीय भाषाओं के तत्व समाहित हैं। हिंदी में दक्षिण भारतीय, पूर्वोत्तर के बोलियों के तत्व हैं। भारत में जो भी महापुराण रहे हैं, उन पर हिंदी में खुलकर रचनाएँ हुई हैं, अन्य भाषाओं में ऐसा नहीं हैं। हिंदी ने देश के किसी भी कोने के महापुरूष पर अपनी रचनाएं की ।
सहचर टीम : क्या आज हिंदी के पास कोई ऐसा नारा है जिससे हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल सके, उसके विरुद्ध एक आहवान हो सके? जैसे बोस ने कहा था ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ और लोग एकजुट भी हुए थे?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : देशवासियों से यही कहा जा सकता है कि हमारा साथ दें, हम आपको राष्ट्रभाषा देंगे । जय हिंद जय हिंदी क नारा दें । हिंदी, हिंद की भाषा है । एक बात यह भी देखिए पंजाब का रहने वाला पंजाबी, भाषा भी पंजाबी; बंगाला का रहने वाला बंगाली, भाषा भी बंगाली; वहाँ के रहने वाले निवासी व भाषा में अभेदता ही तो बेहतर है ।
सहचर टीम: हिंदी की स्थापित पत्र-पत्रिकाओं के समक्ष ही आज कई हिंदी की ई-पत्रिकाएँ निकल रही हैं। आप दोनों बताएँ कि इसका भविष्य कैसा होगा? हिंदी के विकास में इनका क्या योगदान है ?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय: हिंदी के विकास में इनका बहुत बड़ा योगदान है व इनका भविष्य उज्जवल है। हिंदी में सामान्यत: जो पत्रिकाएं है वे ज्यादा से ज्यादा 5000 की मात्रा में छपती हैं, कोई भी पत्रिका लाखों में नहीं छपती है। ई-पत्रिका की पहुँच वैश्विक है, सदैव मौजूद रहने वाली है। ई-पत्रिकाएं में छपी सामग्री गूगल पर सर्च करने मे आसानी से मिल जाते हैं, जबकि मुद्रित पत्रिकाओं में दिक्कतें आती हैं । इसलिए आज लगभग सभी प्रमुख अखबार अपना ई-वर्जन इंटरनेट पर डालते है। यह एक बड़ा परिवर्तन है क्योंकि आने वाल समय डिजिटल का है, मोबाइल मे ही सब सुविधा होने से इसमें और विकास होगा।
प्रो. हरिशंकर मिश्र : इंटरनेट की सहायता से हम अपने सामग्री को सार्वभौमिक व सार्वकालिक कर पा रहे हैं, यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसलिए आपकी व आप जैसी अनेक पत्रिकाओं का भविष्य उज्जवल है ।
सहचर को अपना कीमती समय देने के लिए आप दोनों आदरणीय का बहुत-बहुत धन्यवाद!
‘राष्ट्रीय अस्मिता को हिंदी भाषा ही बचा सकती है?’
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय एवं प्रो. हरिशंकर मिश्र से ‘राष्ट्रभाषा और हिंदी’ विषय पर बातचीत
सहचर टीम : नमस्कार ! सहचर टीम पहली बार दो व्यक्तियों को साथ लेकर बातचीत कर रही है, इससे पहले हम किसी विषय विशेष पर एक ही व्यक्ति से बात-चीत करते थे । करूणाशंकर जी, का धन्यवाद जिन्होंने राष्ट्रभाषा जैसे जरूरी विषय पर बात करने की सलाह दी । पहला सवाल करूणाशंकर जी आपसे ही है। भारत जैसे देश में जहाँ 78% से अधिक लोग हिंदी बोलते-समझते हैं, वहाँ हिंदी राष्ट्र्भाषा नहीं है क्यों ? जबकी अन्य सभी राष्ट्रीय प्रतीक यहाँ मौजूद है ?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : निश्चित रूप से किसी देश की पहचान का प्रमुख साधन उसकी राष्ट्रभाषा से है व वहाँ की संस्कृति उससे जानी जाती है । निश्चित रूप से हिंदी सबसे बड़ी भाषा है व 78% लोग हिंदी बोलने समझने की स्थिति मे हैं,स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी की सबसे बड़ी भूमिका रही है।गांधी, तिलक,गोखले, सुभाषचंद्र बोस व दक्षिण के राजगोपालाचारी स्वंय हिंदी की भूमिका से अवगत थे व हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने को प्रयासरत रहे । हिंदी को संविधान में राष्ट्रभाषा के बजाय राजभाषा के रूप में शामिल होने के पीछे गांधी जी की हत्या भी एक उत्तरदायी कारण है अगर उनकी हत्या न हुई होती तो संभव था व हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कराने के लिये अमरण अनशन करते । विश्व के किसी भी देश मे राष्ट्रभाषा व राजभाषा मे कोई अंतर नहीं किया जाता “मंदारिन को भी चीन की राष्ट्रभाषा नहीं घोषित किया गया है, जापानी को जापान में, कोरियन को कोरिया में घोषित नहीं किया गया”, ज्यादातार आधिकारिक भाषा शब्द क ही उल्लेख है व्यक्तिगत तौर पर मैं राजभाषा व राष्ट्रभाषा मे कोई अंतर नहीं मानता । हमने अपने दो न्यायमूर्तियों डॉ. चंद्रशेखर धर्माधिकारी व डॉ. डी.आर धानुका से बात की व निष्कर्ष निकाला कि अगर हम यह मानते है कि मराठी महाराष्ट्र की राजभाषा है वहाँ की प्रादेशिक भाषा भी है इसीप्रकार गुजराती,कन्न्ड़,तमिल,तेलगू,उड़िया,मलयालम आदि तमाम राज्यों की राजभाषा ही वहाँ की प्रादेशिक भाषा मानी जाती है। जिस विधान के अनुसार हम इन प्रादेशिक भाषाओं को राजभाषा मान रहें है उसी विधान के अनुसार हिंदी अगर राजभाषा है तो राष्ट्रभाषा भी है इसलिए दोनों को एक मानकर हमे हिंदी के विकास व संवर्धन के लिये प्रयास करना चाहिए ।
सहचर टीम : 12 सितंबर 1949 को संविधान सभा की बैठक शुरू हुई और लगातार 48 घंटे चलने के बाद 14 सितंबर 1949 तक चली उसमे स्वंय राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि मैं चाहता तो हूँ कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बना दिया जाए लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण नहीं बना पा रहा हूँ कहीं ऐसा तो नहीं कि उत्तर भारत के लोग ही हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने मे हस्तक्षेप करते रहे जबकि गांधी जी, राजगोपालाचारी जो स्वंय हिंदी भाषी नहीं थे हिंदी के संवर्धन मे कार्य किया।
प्रो. हरिशंकर मिश्र : स्वतंत्रता से पूर्व हमारे जननायकों ने संगठित होने के लिए एक भाषा को चुना था वह भी हिंदी। उन्हें हिंदी का महत्व अच्छे से पता था भारत उस समय तक राष्ट्र नहीं था पंरतु हिंदी की स्थिति राष्ट्रभाषा वाली ही थी जैसा कि उपाध्याय जी ने बताया कि अगर गांधी जी होते तो इसे राष्ट्रभाषा का ही अभिधान देते, राष्ट्रभाषा की ही संज्ञा देते क्योंकि वह मानते थे कि बिना राष्ट्रभाषा के राष्ट्र गूंगा है।गांधीजी की इस संकल्पना के सभी समर्थक थे लेकिन जब संविधान सभा की बैठक शुरू हुई तो कुछ राज्य के लोगों द्वारा राजनीतिक मुद्दा बना दिया गया,कई राष्ट्रीय प्रतीक तो बने परंतु भाषा राष्ट्रभाषा नहीं बनी। वहाँ प्रश्न उठा कि हिंदी को अगर राष्ट्रभाषा माने तो अन्य भाषाओं को क्या गैर राष्ट्र की भाषा मानेंगे? अन्य प्रांतीय भाषाओं की तरह हिंदी भी प्रांतीय भाषा थी। ऐसे में हिंदी भाषी राज्यों की भाषा राष्ट्रभाषा तो हिंदी बन जाती लेकिन गैर हिंदी भाषी राज्यों की राष्ट्रभाषा को लेकर यह विवाद उत्पन्न हुआ। इसे शांत करने के लिए राजभाषा का दर्जा हिंदी को दिया गया, अंग्रेजी में इसे “ऑफिशयल लैंग्वेज” कहा गया जिसका अनुवाद ‘राजभाषा’ हुआ, साथ ही कहा गया कि संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाएँ राजभाषा हैं उस समय हिंदी वाले इतने जागरूक नहीं थे ।
सहचर टीम : बड़ी विडंबना है कि जब हम हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश करते है तो बात आती है कि दक्षिण भारत व पूर्वोत्तर प्रांत भी अभिन्न भाग है भारत के, वहाँ हिंदी नहीं बोलते–समझते क्या? ऐसे मे अगर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाते हैं तो इसका प्रतिवाद किस रूप में किया जा सकता है?
प्रो. हरिशंकर मिश्र : भारत एक संघीय व्यवस्था से संचालित राज्य है यहाँ लादने जैसी बात नहीं हो सकती है जैसे यदि राष्ट्रपति है तो किसी प्रांत विशेष से होगा, प्रधानमंत्री है तो कोई एक भाषा-भाषी विशेष से होगा, उसमें यह नहीं कहा जा सकता कि उसे क्यों उस पद बैठाया गया? वह राष्ट्र का पद है ठीक उसी प्रकार जिस भाषा का स्वतंत्रता मे बड़ा योगदान हो, संपर्क मे योगदान हो, अधिक बोल-समझी जाती हो, उसे वरीयता देना चाहिए। एक उदाहरण लेकर बात करते हैं कि यदि भारत के किसी जगह पर विभिन्न प्रांतों के लोग कार्य कर रहें हो तो वहाँ संपर्क के लिए बंगाली, गुजराती नहीं समझेगा तमिल वाला मराठी नहीं समझेगा, वहाँ हिंदी काम आएगी अगर वे लोग अंग्रेजी नहीं जानते। इसलिए हिंदी को स्वीकार कर इसे विकसित करना होगा।
सहचर टीम : 1949 ई. मे तय हुआ कि हिंदी के साथ अंग्रेजी सहभाषा के रूप में कार्य करेगी परंतु आज ऐसा लगता है कि हिंदी सहभाषा के रूप में संपर्क कर रही है और अधिकतर भारतीय हिंदी मे सोचते हैं, कुछ लोग बोलते भले ही अंग्रेजी में हैं। हमारा फार्मूला भी है कि काम-काज मे निजभाषा का प्रयोग होना चाहिए। भारतेंदु ने कहा था “निज भाषा उन्नति है सब उन्नति को मूल”।करूणाशंकर जी आप तो गैर हिंदी भाषी समाज मे रहते हैं। क्या आपको कहीं हिंदी में काम करने में कोई दिक्कत महसूस हुई है ?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : महाराष्ट्र हिंदी को बढावा देने वाले राज्यों में प्रमुख है । इस समय अगर हिंदी से एम.ए करने वाले बच्चों की गणना करे तो महाराष्ट्र उसमें शीर्ष में शामिल होगा। मुंबई विश्वविद्यालय व उससे संबद्ध 35 महाविद्यालय, औरंगाबाद विश्वविद्यालय, इसी तरह अन्य विश्वविद्यालय वहाँ और हैं जहाँ हिंदी मे भारी मात्रा में छात्र-छात्राएँ पढ़ रहे हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र मे हिंदी को बढ़ावा देने वाले दो अन्य कारक भी हैं- बॉलीवुड वहीं फूला-फला है तथा हिंदी के तमाम चैनलों के हेडक्वार्टर मुंबई में हैं, हिंदी की तमाम पत्र-पत्रिकाएं वहाँ से निकलती हैं, तिलक ने वहाँ से पत्रिका निकाली, आजाद भारत में धर्मयुग, सारिका जैसी पत्रिकाएँ वहाँ से निकली। दैनिक, साप्ताहिक व मासिक रूप में लगभग 60-70 अखबार केवल मुबंई में हिंदी भाषा के निकलते हैं। महाराष्ट्र के गाँवों में भी हिंदी से आपका काम चल जाता है। मराठी भाषी लोग स्वंय हिंदी का प्रयोग करते हैं। हिंदी में एम.ए करने वाले सर्वाधिक मराठी भाषी होते हैं हिंदी को लेकर महाराष्ट्र मे कोई समस्या नहीं है, वहाँ का नेतृत्व हिंदी का पक्षधर है। राष्ट्रीय अस्मिता को लेकर वहाँ अपेक्षाकृत ज्यादा जागरूकता है वे हिंदी को राष्ट्रभाषा ही मानकर चलते हैं। हाँ अंग्रेजी वाले सवाल पर ध्यान देने की आवश्यकता है। भारतीयों से यह गलती हो रही है कि जिस भाषा के बल पर अंग्रेजों ने हम पर शासन किया, अत्याचार किया,लोगों को शहीद होना पड़ा, उन अंग्रेजों की भाषा को अपनी भाषा पर वरीयता देना एक प्रकार का राष्ट्रद्रोह ही है। यहाँ अंग्रेजी थोपने की बात वे नहीं करते, परंतु हिंदी थोपी हुई भाषा लगने लगती है। आचार्य चाणक्य कहते थे – “भाषा, भवन, भेष व भोजन संस्कृति के निर्माण करने वाले तत्व हैं।” वेश-पश्चिमी हो गया है, भवन निर्माण में न्यूयार्क के बहमंजिली इमारतों की छाप है , भोजन मे मैकडोनाल्ड के बर्गर , चीनी व्यंजनों पर लार टपका रहें हैं तो हमारा भोजन भी खतरे में हैं ऐसी स्थिति में संस्कृति बचाने का एक माध्यम है भाषा , वह भी हिंदी भाषा । स्वतंत्रता आंदोलन के समय उजबेकिस्तान से रंगून तक एक ही भाषा चलती थी – हिंदी , इसी से लड़ाई लड़ी गई । विरोध देखें तो पूर्वोत्तर राज्यों में हिंदी का विरोध किया वहाँ हिंदी तेजी से फली-फूली है । पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु ने राजनीतिक कारणों से हिंदी का विरोध किया । हाल में ही कर्नाटक भी शामिल हुआ है । केरल के 5 बड़े विश्वविधालयों में हिंदी के बड़े विभाग है – कोचीन, कालीकट, कालडीह, तिरूअंनतपुरम् पूरे केरल का मैंने भ्रमण किया है, यहाँ पर्याप्त शिक्षक , समृद्ध पुस्तकालय हैं। केरल में बिना अंग्रेजी के, केवल हिंदी भाषा से अपना काम चला सकते हैं। कच्छ से मणिपुर , लद्दाख से रामेश्वरम् आप हिंदी के बलबूते जा सकते हैं । यह राष्ट्रीय संवाद का बड़ा माध्यम है । संविधान में जो 15 वर्ष वाली बात है कि हिंदी को इतने समय मे सक्षम बनाया जाएगा व लागू किया जाएगा पंरतु इसमें चीनी आक्रमण की बड़ी भूमिका रही । भारत पराजित स्थिति में था । 1963 में जब हिंदी को राष्ट्रभाषा देने का समय आ गया तो वहाँ विरोध शुरू हुआ । नेहरू इस विरोध को दबा पाने में सक्षम नहीं थे तो उन्होंने अनिश्चितकाल के लिये एक अधिनियम बनाया कि अंग्रेजी अनिश्चितकाल के लिये चलेगी ( राजभाषा अधिनियम 1963 ) । यह अधिनियम ही असंवैधानिक है क्योंकि संविधान मे संशोधन किये बगैर यह अधिनियम निकाला गया है न्यायमूर्तियों से बात करने पर यह पता चला कि इसको चुनौति देने की आवश्यकता है । मोदी जी हिंदी क्षेत्र ने काफी समर्थन दिया , वे हिंदी वक्ता के रूप में भी विख्यात हैं , उनसे आग्रह है कि वे ( राजभाषा अधिनियम 1963 ) निरस्त करा दें , हिंदी का संवर्धन व विकास स्वत: हो जाएगा।
सहचर टीम : चंद्रशेखर अधिकारी ने लिखा है कि भारतीयों को इम्पोर्टेड चीज ज्यादा पसंद है । अंग्रेजी भी इम्पोर्टेड है , तो जब तक यह मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक हिंदी का विकास नहीं हो सकता । जब तक बुद्धिजीवी अपनी संतानों को हिंदी के प्रति तैयार नहीं करते , सोशल मीडिया पर केवल 0.89% लोग ही हिंदी में लिखना पसंद करते हैं सर जब तक मानसिकता नहीं बदलती , तब तक यह कैसे होगा ? सबसे अहम सवाल यह है कि यह मानसिकता कैसे बदली जाए ?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय: संविधान में लिखा है कि हिंदी भारत संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में होगी। अगर हम देवनागरी लिपि में हिंदी नहीं लिख रहें है तो भारतीय संविधान का अपमान कर रहे हैं रोमन में लिखी हिंदी हिंदी नहीं हैं। गूगल भी अपने गणित में जो संख्या लेता है वह अंग्रेजी की ही लेता है, ऐसे में हिंदी का नुकसान होता है। फिर गूगल दिखाता है कि अंग्रेजी के पृष्ठ हिंदी के पृष्ठ से ज्यादा हैं। कुछ जरूरी बातें हिंदी वाले लोगों तक पहुंचाने की जरूरत है संख्या बल के आधार पर हिंदी आज विश्व की सबसे जयादा बोली जाने वाली भाषा है। यह 64 करोड़ लोगों कि मातृभाषा, 26 करोड़ लोगों की द्वितीय भाषा, 40 करोड़ लोगों की तृतीय,चतुर्थ या पंचम भाषा है। ऐसी स्थिति में लगभग 130 करोड़ लोग हिंदी बोलते-समझते हैं। 38 बोलियों के संयुक्त परिवार से मिश्रित हिंदी इतनी बड़ी भाषा है। इसके बाद दूसरी सबसे बड़ी भाषा चीन की ‘मंदारिन’ है यह 64 बोलियों का समुच्च्य है व इसमें कई बोलियां बहुत बड़ी है – कैंटनी, कोरियन, मंगोलियन, तिब्बती आदि ‘पोतंगुआ’ मंदारिन समूह की बोलियों का मानक रूप है, चीनी सरकार मंदारिन के विकास के लिए बहुत पैसा खर्च करती है, उसकी तुलना में भारत सरकार बहुत कम पैसा खर्च करती है। दूसरी बात हिंदी वालों को संगठित होना पड़ेगा। अगर हिंदी वाले लोकसभा की 542 में से 350 से ज्यादा सीटें चुन कर दे रहें हैं तो हिंदी वालों को तय करना है कि वे अपनी बात कैसे मनवाते हैं। एक और बात लोगों को समझाना है कि इस देश के ज्यादा से ज्यादा 7-8% लोग विदेशों में, मल्टीनेशनल कंपनियों में नौकरी करेंगे, ऐसे लोगों को विदेशी भाषा सिखाइए, जिस व्यक्ति को इसी देश मे रहकर सब करना है, तो सबको क्यों सिखा रहे हैं ? सरकार से आग्रह है कि आगे से अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय को अनुमति न दे, वरना हिंदी व भारतीय भाषाओं का भविष्य चौपट हो जाएगा। अगली महत्वपूर्ण बात कि जैसे महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा; अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल बोला गया है वैसे हिंदी भाषी क्षेत्रों के लोगों को मांग करनी चाहिए कि हर राज्य में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय खोला जाए। मौलाना कलाम उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद का बजट; महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के बजट से तीन गुना ज्यादा है और छात्रों की संख्या हिंदी के मुकाबले कम है। इस सवाल को गंभीरता से भारत सरकार के समक्ष रखना चाहिए। वर्तमान में 27000 राजभाषा अधिकारी के पद केवल बैंकों में रिक्त है वे तुरंत भरे जाएँ, हिंदी के अध्यापकों के पद जो रिक्त है वे तुरंत भरे जाएँ।
प्रो. हरिशंकर मिश्र : भाषा की सुरक्षा लिपि से होती है, यदि लिपि बदली तो भाषा बदलेगी नहीं। आज हिंदी को रोमन में लिखने का चलन बढ़ रहा है, ऐसे में हिंदी भाषा का स्वरूप ही बिगड़ जाएगा।बहुत पहले ही हिंदी भाषाओं को रोमन में लिखने की बात उठाई गई थी। आचार्य बिनोवा भावे ने इसका विरोध किया था व कहा कि क्यों न सारी भारतीय भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जाएँ। आज कुछ वैसा ही चल रहा है। ऐसा होगा तो आगे की पीढ़ी देवनागरी नहीं जानेगी। हिंदी को देवनागरी लिपि में ही लिखा जाए, हमें इस ओर भी ध्यान देना है। देवनागरी में रोज-रोज सुधार किया जा रहा है वह भी खत्म होना चाहिए अंग्रेजी में 26 से 27 वाँ वर्ण नहीं बना, देवनागरी में क्या कमी है कि रोज-रोज सुधार करें, वेद-वेदांग,पुराण-दर्शन सब इसी में हैं। हमें निश्चित वर्ण कर एक मानक बनाकर स्थिर होना चाहिए। इसमें हम सारी ध्वनियाँ व्यक्त कर सकते हैं। हिंदी आत्मा है, लिपि देह है। देह की रक्षा न करें तो आत्मा कैसे बनेगी।
सहचर टीम : आज जो चल रहा है, हिंदी से इतर भोजपुरी अलग मांग कर रही है, मैथली अलग मांग कर रही है, बंगाली अलग मांग करेगा, तमिल अलग मांग करेगा, तो हम जो ‘जय हिंद जय हिंदी’ का नारा देते हैं, यह कहाँ तक सफल होगा ?
प्रो. हरिशंकर मिश्र : यह एक भटकी हुई राजनीति है। आज भी अंग्रेजों से प्रेरणा लेकर फूट डालकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाली बात हो रही है, भाषा के आधार पर राज्यों का बंटवारा होता है तो बँटवारा कराने वाले अपने आप को नेता स्थापित करने में लगे हैं जबकि उन्हें हिंदी को मान्यता देने का समर्थन करना चाहिए था। हिंदी को बोलियों से प्राण मिलता ही है। आज जो खड़ी बोली है, जो मानक रूप है उसमें भी बोलियों के तत्व मौजूद हैं ही, वह पुराने खड़ी बोली से अलग है। बोलियों को हिंदी समकक्ष बड़ा करने की कवायद ठीक नहीं है ।
सहचर टीम : मानक-अमानक भाषा से एक प्रश्न याद आया कि आप मुंबई में रहते हैं , वहाँ की भाषा मानक तो है नहीं, फिल्मों की भाषा मानक नहीं हैं लेकिन जितना प्रचार फिल्मों ने हिंदी का किया है, उतना हम मानक रूप में भी नहीं कर सकते। क्या हम मानक-अमानक के चक्कर में भाषा के प्रसार में कमी तो नहीं कर रहें हैं ।
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय: बोलने के स्तर पर भाषाएँ मानक नहीं होतीं, अंग्रेजी भी कोई शुद्ध थोड़ी बोलता है। हिंदी के ही विश्व स्तर पर आज अनेक रूप हैं। हर बोली का अपना सौंदर्य हैं, उसे भी बनाए रखना है। लेखन में कभी भी मानक के अतिरिक्त नहीं लिखना चाहिए क्योंकि यही भाषा की दीर्घकाल तक रक्षा करता है।
प्रो. हरिशंकर मिश्र : सरकार द्वारा अधिकृत संस्थानों को भाषा के मानकीकरण के लिए अधिकार दिया जाता है व मानक रूप तय किया जाता है इसमें भाषा की सरलता का ध्यान भी रखा जाता है। भाषा कि दो रूप सदैव से चलते रहें है, चलते रहेंगें। किसी भी समाज के लोग न एक जैसा बोल सकते हैं, न लिख सकते हैं। कोई अंग विकृति के कार्ण गलत बोलता है तो कोई अन्य कारण से। अभिव्यक्ति मे केवल संप्रेषण की बात होती है, बोली गई बात समझ आनी चाहिए परंतु लेखन में तकनीकी शब्दावली, वैज्ञानिक शब्दावली, पारिभाषिक शब्दावली आदि की जरूरत पड़ेगी, उसके लिए मानक रूप तो होना ही चाहिए ताकि वह सभी स्तरों पर एक ही अर्थ दे। परंतु जब लोगों द्वारा बोला जाता है तो अंतर आता है। इसलिए भाषा के दो रूप सदैव से रहें हैं।
सहचर टीम : बाजार के दृष्टिकोण से अंग्रेजी के वैश्विक हस्तकक्षेप को कम करने व हिंदी के वैश्विक हस्तक्षेप को बढ़ाने का क्या उपाय है?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : बाजार के कारण ही हिंदी का भी विकास हुआ है। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां बाजार के कारण सही हिंदी के विकास के लिए अभिशप्त हैं। अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार वैश्विक है, यही सबसे बड़ी गलतफहमी है। अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या हिंदी बोलने वालों से आधी है। अंग्रेजी बोलने वाले 60 करोड़ भी नहीं है, स्पैनिश बोलने वाले 58 करोड़, एशियाई देशों भारत, पाकिस्तान, बंग्लादेश आई में मिलाकर 14 करोड़ अंग्रेजी बोलने वाले हैं जिसके कारण अंग्रेजी बोलने वाले 60 करोड़ हैं, पूरे विश्व कि 30 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में केवल चार की राजभाषा अंग्रेजी है – अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड व दक्षिण अफ्रीका/आस्ट्रेलिया ने अपनी भाषा का नाम बदलकर औस्ट्रिक कर लिया है, यूरोप के हर देश की अपनी भाषा है, स्पैनिश, इटैलिक, फ्रेंच, रसियन, जापानी, कोरियन, मंदारिन आदि। विकास में राष्ट्रभाषा की बड़ी भूमिका है। अफ्रीका देश दुनिया के पिछड़े देश हैं वहाँ के पिछड़ेपन का कारण ही उनकी भाषा का विदेशी भाषा होना है। विदेशी भाषा को अपनाने में उसकी अपनी सांस्कृतिक अस्मिता नहीं बन जाती है। अफ्रीकी भाषाओं को पिछड़ा बनाए रखने में यूरोपीय व अरबी भाषाओं का योगदान है। अंग्रेजी अपने मूल से अलग कुछ देशों में बड़ी है, इसमें सबसे ज्यादा भूमिका भारत की है। भारतीयों के मन में अभी भी गुलामी है। इंग्लैण्ड व अमेरिका को ही पूरी दुनिया मानते हैं। इस गलतफहमी को दूर करने ही जरूरत है। आज हिंदी फिल्में सैकड़ों करोड़ का कारोबार कर रही है, हिंदी धारावाहिक बहुत बड़ी संख्या में देखे जा रहे हैं, BBC के हिंदी कार्यक्रम के सबसे ज्यादा श्रोता हैं, विदेशों में हिंदी की बड़ी पत्र-पत्रिकाएं निकल रही हैं हिंदी की मांग बढ़ रही है, इसका अपने पक्ष में दोहन करें, इस परिस्थिति को अपने पक्ष में उपयोग करें, यह जरूरी है। एक मामले में हिंदी अंग्रेजी से काफी आगे है वह है शब्द संपदा, वह हिंदी की बहुत समृद्ध हैं। हिंदी के पास 18 लाख परम्परागत शब्द है। वैज्ञानिक एंव तकनीकी शब्दावली आयोग मे 12 लाख शब्दों को हिंदी में आगत किया, केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा के ई शब्दकोश में 3 करोड़ शब्द है। यह हिंदी की क्षमता है। गूगल पर पृष्ठों की संख्या के आधार पर हम पीछे हैं। हांलाकि हमारी विकास की गति अंग्रेजी से तेज है, इसलिए यदि हम गूगल पर देवनागरी लिपि का प्रयोग करें तो अंग्रेजी के इकलौती सत्ता को चुनौती दे सकते हैं।
सहचर टीम : अंग्रेजी की गुलामी की जो मानसिकता है , उससे हमें अपनी आगामी पीढ़ी को कैसे आज़ाद करें? साथ ही हिंदी के प्रति कैसे जागरूक करें? दादा-दादी, नाना-नानी की परंपरा तो रही नहीं, आज बच्चे कार्टून देख रहे है, तो इसका समाधान कैसे होगा ?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : हमें अपने बच्चों में शुरू से ये भावना विकसित करनी पड़ेगी कि हम भारतीय हैं, हम हिंदी है। कांवेण्ट स्कूलों में हिंदी कक्षा के अतिरिक्त हिंदी बोलने पर जुर्माना होता है यह गलत है। माता-पिता भी एक रिटर्न पाने के लिए अंग्रेजी स्कूलों मे पढ़ा रहे हैं ताकि बच्चों को पढ़ाने के तुरंत बाद नौकरी मिल जाए। हमें इसके लिए हम अपने बच्चों मे स्वंय के स्तर से भाषा के प्रति चेतना जागृत करने की आवश्यकता है, तभी हम इसका सामाधान कर सकते हैं।
सहचर टीम : ‘जय हिंद, जय हिंदी’ का नारा तो लोग देते है, परंतु बिना पेट भरे न हिंद, न हिंदी। तो ऐसा क्या उपाय किया जाए कि हिंदी से पेट भी भरे व हिंद भी रोशन हो?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : आज भी पेट हिंदी से ही भर रहा है, अंग्रेजी रोजी-रोटी की भाषा है यह एक भ्रामक प्रचार है। 50 लाख लोग भी देश मे ऐसे नहीं है जो केवल अंग्रेजी के बलबूते रोजी-रोटी चला रहे हैं। व्यापार, मनोंरंजन, उद्योग, कृषि, पर्यटन,धार्मिक स्थलों पर हर जगह रोजगार है। हिंदी रोजगार की भाषा है, यह बात लोगों को बताने की जरूरत है। जितने पद हिंदी में है उतने पद अंग्रेजी में नहीं है। भविष्य में हिंदी में रोजगार और बढ़ेगा। आज 45 करोड़ प्रवासी भारतीय हैं, 2030 तह आकड़ाँ 10 करोड़ के आस-पास होगा। आज दुनिया का छठा व्यक्ति हिंदी बोल रहा है, तब तक हर पाँचवा व्यक्ति हिंदी बोलेगा। जो बात बच्चों के कार्टून संबधी प्रोग्राम को लेकर हो रही थी, उस पर मैं यह कहना चाहूँगा कि बच्चों के लिए कार्यक्रम हिंदी भाषा में तैयार किए जाए। ‘जय हनुमान’, ‘बाल गणेश’, ‘कृष्णा’ आदि से संबंधित जो पौराणिक कथाएँ हैं, उन पर प्रोग्राम तैयार किए जाए। साथ ही अंग्रेजी माध्यम के शिक्षण संस्थानों को बंद किया जाए अन्यथा आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेगी। आने वाली पीढ़ियों की सुरक्षा के लिए, हमारी संस्कृति की सुरक्षा के लिए हमें स्वंय हिंदी के पक्ष में आवाज़ उठानी चाहिए । तभी ‘जय हिंद जय हिंदी’ का नारा बुलंद हो पाएगा।
सहचर टीम : भाषा व बोलियों के आंदोलन की अब बात हो रही है, एक पक्ष का तर्क है कि मैथिली या भोजपुरी के लोग कहते हैं कि हमें अपनी बोली के लिए अलग दर्जा दीजिए। आप इनके कवियों को साधिकार हिंदी में पढ़ाइए लेकिन हमें अलग दर्जा दीजिए। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : हिंदी की बोलियां उसका अवयव है। आज किसी का हाथ काटकर कहिए कि हम आपको सकुशल रख रहें हैं, ऐसा तो नहीं होगा। आदि काल की मुख्य भाषा राजस्थानी डिंगल-पिंगल, अवधी व ब्रज भक्तिकाल को मुख्य भाषा, आधुनिक काल में खड़ी बोली हिंदी की मानक भाषा बनी । जैसे देवासुर संग्राम में देवताओं में अपनी सभी शक्तियां दुर्गा को सौंपी थी वैसे ही संविधान बनते समय हिंदी की बोलियों को मिलाकर सारी शक्तियां हिंदी को सौंप दी गई, कि आप साम्राज्यवादी भाषा अंग्रेजी से लड़िए। मैथिली को दर्जा देकर भारत सरकार ने गलती की, आगे इस तरह का दर्जा और देते हैं तो 38 बोलियां, फिर आगे 380 बोलियां दर्जा मांगेगी। तो आज जैसे हर जाति आरक्षण मांग रही है, यह उससे भी खतरनाक स्थिति होगी। किसी भी सरकार के लिए इसे संभालना मुश्किल होगा। अगर धर्म के नाम पर पाकिस्तान बना तो भाषा के नाम पर बांग्लादेश भी बना।
सहचर टीम : क्या आपको ऐसा नहीं लगता ‘जायसी की पद्मावत’ से जितना ज्यादा फायदा हिंदी के प्रचार-प्रसार को नहीं हुआ, उससे कहीं ज्यादा फायदा संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ से हुआ। क्या हम हिंदी के लिए कुछ ऐसा न करें?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : निश्चित रूप से हमें करना चाहिए। आदिकाल से लेकर अब तक के साहित्य पर हिंदी में टेलीफिल्म और फिल्म बनाइए। साहित्यकार की उदारता को हमें समाज में लाने की जरूरत है ।
सहचर टीम : हिंदी को हम कैसे उदार बना सकते हैं ?
प्रो. हरिशंकर मिश्र : हिंदी प्रकृतिवश उदार है। हिंदी मे अन्य भारतीय भाषाओं के तत्व समाहित हैं। हिंदी में दक्षिण भारतीय, पूर्वोत्तर के बोलियों के तत्व हैं। भारत में जो भी महापुराण रहे हैं, उन पर हिंदी में खुलकर रचनाएँ हुई हैं, अन्य भाषाओं में ऐसा नहीं हैं। हिंदी ने देश के किसी भी कोने के महापुरूष पर अपनी रचनाएं की ।
सहचर टीम : क्या आज हिंदी के पास कोई ऐसा नारा है जिससे हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल सके, उसके विरुद्ध एक आहवान हो सके? जैसे बोस ने कहा था ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ और लोग एकजुट भी हुए थे?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय : देशवासियों से यही कहा जा सकता है कि हमारा साथ दें, हम आपको राष्ट्रभाषा देंगे । जय हिंद जय हिंदी क नारा दें । हिंदी, हिंद की भाषा है । एक बात यह भी देखिए पंजाब का रहने वाला पंजाबी, भाषा भी पंजाबी; बंगाला का रहने वाला बंगाली, भाषा भी बंगाली; वहाँ के रहने वाले निवासी व भाषा में अभेदता ही तो बेहतर है ।
सहचर टीम: हिंदी की स्थापित पत्र-पत्रिकाओं के समक्ष ही आज कई हिंदी की ई-पत्रिकाएँ निकल रही हैं। आप दोनों बताएँ कि इसका भविष्य कैसा होगा? हिंदी के विकास में इनका क्या योगदान है ?
प्रो. करूणाशंकर उपाध्याय: हिंदी के विकास में इनका बहुत बड़ा योगदान है व इनका भविष्य उज्जवल है। हिंदी में सामान्यत: जो पत्रिकाएं है वे ज्यादा से ज्यादा 5000 की मात्रा में छपती हैं, कोई भी पत्रिका लाखों में नहीं छपती है। ई-पत्रिका की पहुँच वैश्विक है, सदैव मौजूद रहने वाली है। ई-पत्रिकाएं में छपी सामग्री गूगल पर सर्च करने मे आसानी से मिल जाते हैं, जबकि मुद्रित पत्रिकाओं में दिक्कतें आती हैं । इसलिए आज लगभग सभी प्रमुख अखबार अपना ई-वर्जन इंटरनेट पर डालते है। यह एक बड़ा परिवर्तन है क्योंकि आने वाल समय डिजिटल का है, मोबाइल मे ही सब सुविधा होने से इसमें और विकास होगा।
प्रो. हरिशंकर मिश्र : इंटरनेट की सहायता से हम अपने सामग्री को सार्वभौमिक व सार्वकालिक कर पा रहे हैं, यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसलिए आपकी व आप जैसी अनेक पत्रिकाओं का भविष्य उज्जवल है ।
सहचर को अपना कीमती समय देने के लिए आप दोनों आदरणीय का बहुत-बहुत धन्यवाद!