नन्हा सा कुसुमायुध आज चिंतामिश्रित आनंद का अनुभव कर रहा अच्छे वस्त्रों में सज्जित था। अच्छी लगे ऐसी मुस्कराहट बिखेर रही कोई युवती घर में घूम रही थी। कुसुमायुध अपने माता-पिता का इतना लाडला था कि उसका नाम भी लंबा एवं अजीब सा था लेकिन वह माँ उस पुत्र को लाड़ लडाने के लिए जिंदा नहीं रही। उसे चार वर्ष की अवस्था में छोड़कर वह स्वर्ग सिधार गई। उसके बाद दो वर्ष गुजर गए पर उसकी माँ वापस नहीं लौटी।

“माँ कहाँ गई?” यह सवाल कुसुमायुध के दिल में बार-बार उठता रहता था।

कोई कहता- “वह तो प्रभु के धाम में गई है।” कोई कहता था-“मामा के घर गई है।” कोई कहता-  “वह तो यात्रा करने गई है।” नौकर कहता था- “वह तो मर गई।”

लेकिन मुझे लिए बगैर क्यों गई?’’कुसुमायुध की यह फरियाद सबकी आँखों को रुला देती थी। एक साल तक फरियाद करते करते थके हुए बालक ने आख़िरकार अपना प्रश्न बदला।“पर माँ वापस तो आएगी न?’’

यह प्रश्न सुनकर सब उसकी ओर ताकते रहते थे। क्वचित आँख को कपड़े से ढँक देते थे और कभी कोई शांति से उत्तर देता था: “ हाँ,हाँ आएगी! जाओ खेलो।’’

यह जवाब बालक के अंग अंग में फुर्ती संचारित कर देता था। वह दौड़ता, खेलता, हँसता था। चार-पाँच दिन के बाद पुन: वही सवाल पूछा जाता था। बाद में उसने यह प्रश्न पूछना कम कर दिया। उसके हृदय में इस मान्यता ने जगह बनायीं कि आसपास के सारे लोगों ने मिलकर छल करके उसे उसकी माँ से जुदा किया है और वह अकेले अकेले खेलने लगा। सिर्फ नींद में वह कभी बोल उठता था :“माँ !माँ !’’

उसके पिता चौंककर जग जाते थे और उसके शरीर को सहला देते थे।

एकाएक उसने सुंदर मुखवाली किसी स्त्री को घर में देखा। वह अपनी माँ का चेहरा किसी भी खुबसूरत स्त्री में देखने की कोशिश करता था। माँ के जैसा वस्त्र पहना हो ऐसी स्त्री को टुकुर-टुकुर देखता था। यदि ऐसी कोई स्त्री घर में आई हो तो उसे घर में रह जाने के लिए आग्रह करता था। माँ की नजर का प्यासा बच्चा इस प्रकार अपनी सोच-समझ के अनुसार माँ को खोजता रहता था।

अन्य स्त्रियाँ आकर चली जाती थी। यह स्त्री तो सबकी तरह चली नहीं जाएगी न? इस विचार ने उसे डरा दिया। सभी लोगों की भांति इस स्त्री ने भी उसे अपने पास बुलाया। उसने दो तीन बक्शे कमरे में रखवाए,यह देखकर उसे लगा कि यह स्त्री इतना जल्दी नहीं चली जाएगी। फिर भी तसल्ली के लिए उसने पूछा कि – “आप यहाँ रहेंगी या चली जाएँगी?’’

वह युवती मुस्कुरा दी। उसने प्रति प्रश्न किया कि आपको क्या अच्छा लगेगा? मेरा यहाँ रहना या मेरा चले जाना?’’

“ यहाँ रहो,यही मुझे अच्छा लगेगा।’’ कुसुमायुध ने जवाब दिया। उसकी समझ में यह नहीं आया कि यह स्त्री उसे बड़े नाम से क्यों बुलाती है?

उस स्त्री ने उसे कुछ खिलौने दिए, अच्छे कपड़े पहनाए ,बालों को कंघी करके सँवार दिया,अपने साथ खाने के लिए बिठाया। बच्चे को बड़ा आश्चर्य हुआ। इतनी अच्छी स्त्री कौन होगी? क्यों आई होगी? कुसुमायुध उसके इर्द-गिर्द घुमने लगा।

उसे भी ऐसा लगा कि अपनी तरह पिता को भी यह स्त्री पसंद आई तो है लेकिन वह पिता के साथ बहुत धीमे स्वरों में क्यों बोल रही थी? इधर-उधर क्यों देखती रहती थी? हलके से क्यों मुस्कुराती थी? यह स्त्री यदि यहाँ इस घर में ही रहे तो कितना अच्छा? माँ भी यहाँ कितना निश्चिन्त होकर रहती थी?

कुसुमायुध सब्र नहीं कर सका। अत: उसने सोने से पहले पूछा:’’आप मेरे सगे हैं कि नहीं?’’

“हाँ।’’

“ आप मेरी क्या लगती हैं?’’

युवती तनिक सहम गई। उसकी आँख स्थिर हुई। क्या उसे रिश्ते की बात समझ में नहीं आई होगी ? तुरंत संभलकर उसने जवाब दिया:“ मैं तुम्हारी माँ हूँ।’’

“माँ?”

कुसुमायुध के मन में अनेक विचार आ गए। रिश्ते का नाम सुनते ही उसके मन में भाव जगा कि एकबारगी माँ के गले से लिपट जाऊं,लेकिन वह ऐसा कर नहीं सका। तथापि उसने उस स्त्री का हाथ पकड़ लिया और दोनों हाथों से दबाया। माँ कहलवाने को उत्सुक स्त्री ने जरा-सा मुस्कुरा दिया लेकिन क्या इतना हँसना क्या पर्याप्त होता है? क्यों वह मुझे अपनी गोद में उठाकर प्यार नहीं कर रही? कुसुमायुध ने अपनी शंका व्यक्त की:“ क्या आप मेरी सगी माँ हैं?’’

बालक की बुद्धि बड़ों का इम्तहान लेती है। सद्य:विवाहिता की वह बालक पहले ही दिन कठिन परीक्षा ले रहा था। वह जानती थी कि मुझे एक बालक का पालन-पोषण करना है। यह जानकर ही उसने विवाह करना स्वीकार किया था लेकिन माँ को यदि शिशुपालन विकट लगनेवाला प्रश्न विमाता के लिए अति विकट हो सकता था। यह उसे मालूम नहीं था। फिर भी उसने जवाब दिया:“ हाँ भाई! मैं तुम्हारी सगी माँ हूँ।’’

“ तो फिर आप मुझे तू कहकर क्यों नहीं बुला रहीं?’’

` ऐसा ही करुँगी।”’

“ और मैं आपको क्या कहूँ?’’

“बहन कहना।’’

यह युवती अभी माँ या बा जैसा शब्द सुनने के लिए तैयार नहीं थी। पत्नी के रूप में उसे अपने कई अरमान पूरे करने थे। उसे लगा कि `माँ’ या `बा’ शब्द तो बहुत बुढानेवाला है।

बालक हताश हुआ। वह उसकी सगी माँ नहीं थी। वह आह भरकर सो गया।

लोग आमतौर पर दूसरा विवाह रचानेवालों पर हँसते हैं,व्यंग्य कसते हैं। कभी कभार तो उसका हलका सी उपहास भी करते हैं। महादंश स्त्रियाँ और पत्नीसुख भोगनेवाले पुरुषों की ऐसी मानसिकता होती है। स्त्रियों में यह मानसिकता सहेतुक है। स्त्रियों को संसार-सुख के बिना चलेगा और उन्हें चलाना भी चाहिए, ऐसी परंपरा डालनेवाले पुरुष संसारसुख के अभाव को एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त नहीं करते। तो वे स्त्रियों की निंदा के योग्य ही हैं परंतु पत्नी के संग संसार-सुख जी रहे पुरुष भी ऐसी तिरस्कारयुक्त मानसिकता दिखने लगे तो कोई उन्हें अवश्य इतना कह सकता है कि यह आपका अधिकार नहीं है।

बालक कुसुमायुध के पिता ने पुन:विवाह कर लेने का निर्णय किया। पुरुष होने के नाते उस अधिकार का स्वीकार तुरंत हुआ और उसकी शादी हुई। पुरुष सयाना था। उसने विवाह करने के लिए इच्छुक युवती से कह दिया था कि उसे मेरी पूर्व पत्नी से जन्मे पुत्र का पालन करना होगा। युवती ने इस बात का स्वीकार किया। एक खास उत्साह के साथ उसने कबूल किया और घर में आकर मातृप्रेम के भूखे कुसुमायुध को अपने ही पुत्र की तरह पालने का प्रामाणिक प्रयत्न शुरू किया।

‘’कुसुमायुध! अब जागोगे क्या? सात बज गए हैं।’’ धीरे से वह उस बालक को जगा रही थी।

“ अब माथे में तेल डलवा लेना चाहिए।’’ बालक उसके पास बैठकर कंघी करा लेता।

“ अब नहा लो।’’ कुसुमायुध नहा लेता था।

“ भाई! अब उठ जाओ। दो से ज्यादा रोटी नहीं खायी जा सकती।’’माँ की आज्ञा होने पर बालक खाना छोड़कर उठ जाता था।

“ और ऐसे चीख-चिल्लाकर बोला नहीं जाता।’’ और बालक के कण-कण में उमडनेवाले उत्साह का  शमन हो जाता था।

बालक को ढंग से बड़ा करने की तीव्र भावना सौतेली माँ में उदित हो गई। बालक सुखसंपन्न और  और अच्छा हो इसके लिए वह भारी जहमत उठाने लगी।

बच्चे में अच्छे संस्कार आने लगे। वह आज्ञापालक होने लगा लेकिन उसके मन में एक शंका रह-रहकर उठने लगी:“ क्या माँ ऐसी होती है?’’

आकाश में उडता-गाता हुआ पंछी एकाएक आज्ञाधारी विमान हो जाए  और जिस स्थिति का अनुभव करे, वैसी स्थिति कुसुमायुध की हो गई, उसके कपड़ों में शुचिता आई तथा उसकी गति में स्थिरता आई। उलझानेवाली प्रश्न परंपरा के स्थान पर सयानी शांति का उसने सबको अहसास कराया और दिनभर यहाँ–वहाँ दौड़ते रहनेवाला उत्पाती लड़का पाठशाला जाने के लिए तत्परता दिखाने लगा।

मात्र उसका शरीर सूखता चला।

‘‘यह कुसुमायुध दिन प्रतिदिन सूखता जा रहा है। किसी डाक्टर से बात तो कीजिए? विमाता को चिंता हुई।’’

पिता आश्वस्त हुए कि माँ अपना फर्ज ठीक से अदा कर रही है। उसने अच्छे डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर ने कुसुमायुध को देखकर अपनी राय दी कि: “शरीर में खास विकार नहीं है। कोडलिवर दीजिए।’’

माँ ने जतनपूर्वक कोडलीवर पिलाना शुरू किया। बच्चा यह सोच रहा था कि इस गंदी  दवाई को पीने से तो अच्छा है कि बीमार रहा जाए । तथापि माँ की सीख एवं आग्रह के आगे उसने अपनी इच्छा को कुचल डाला।

‘‘भाई! थोड़ी सी दवाई पी लो,बाद में खेलते रहो।’’

‘‘बहन! ए  अच्छी नहीं लगती।’’

‘‘अच्छी न लगे तब भी पीना है।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘डॉक्टर साहब ने कहा है।’’

‘‘क्या वे कहे ऐसा करना चाहिए?’’

‘‘हाँ’’

‘‘तो क्या सबके कहे अनुसार करना चाहिए?’’

‘‘बड़ों के कहे अनुसार छोटों को करना ही चाहिए।’’

‘‘ यदि न करें तो?’’

‘‘बीमार होंगे।’’

‘‘क्या मैं बीमार हूँ?’’

‘‘हाँ जरा सा बीमार हुए हो।’’

‘‘यदि दवाई न पिऊ तो?’’

‘‘मर सकते हैं’’

विमाता ने डर दिखाया। वह बालक को डांटती-धमकाती नहीं थी। शिशुपालन के बारे में उसने काफी पढ़ा था। अत: उसे न डांटते हुए वादविवाद करके बालक को निरुत्तर करके उससे अपना मनचाहा कराती थी। शायद ही इतनी लंबी  बात होती थी लेकिन जब भी होती थी तब बालक को शास्त्रीय ढंग से समझाने का उसे संतोष होता था। वैसे बच्चे का मत उससे भिन्न था।

‘‘यदि मरा जाए तो इसमें गलत भी क्या है? शांत होकर कोडलीवर पिते हुए बच्चे के दिल में यह सवाल पैदा हुआ।’’

“कोई कह रहा था माँ मर गई है’’-उसे अपनी माता विषयक धुंधली सी पड़ी बात स्मरण हो आई।

‘‘मैं भी यदि मर जाऊं तो क्या माँ से मिला नहीं जा सकता?’’ उसके मन में यह तर्क पैदा हुआ। यह तर्क उसे सही लगा।

कोडलीवर और शुश्रूषा के रहते भी कुसुमायुध सचमुच बीमार हुआ।

+ + +

‘‘भाई! तुम्हें क्या हो रहा है?’’ नित्यक्रमानुसार नहाकर खाने के लिए आ रहे बच्चे से माता ने पूछा।

‘‘कुछ नहीं बहन!’’कुसुमायुध ने जवाब दिया।

‘‘अरे, लेकिन आपकी आँखें तो लाल हो गई हैं !’’

‘‘मुझे खबर नहीं है।’’

‘‘शरीर उपर रोएँ खड़े हो गए हैं! ’’

‘‘जरा सी ठंड  लग रही है।’’

‘‘तो तुम नहाए  क्यों?’’

‘‘नहाए बिना खा नहीं सकता और खाए बिना पाठशाला कैसे जा सकता हूँ?’’कुसुमायुध ने अपने जीवन निर्माणक एक गृह नियम को बताया। ऐसा करते हुए बालक और ज्यादा सिहर उठा। माता ने देखा कि कुसुमायुध के दांत बज रहे थे। उसने चिल्लाकर आवाज दी:“अरे बाई! देख तो! भाई को बुखार तो नहीं है?’’

नौकरानी ने आकर बालक के शरीर को छूकर कहा:“बा साहब! शरीर तो तप रहा है!’’

‘‘ऐसा यकायक कैसे हुआ?’’

‘‘मैं जब नहला रही थी तब शरीर थोडा सा गर्म लगा था।’’

‘‘तो क्यों नहलाया?’’

‘‘मुझे लगा कि यह तो ऐसे ही होगा।’’

‘‘जा,जा,बिछौना बिछाकर भाई को सुला दे। ठीक से ओढा देना। मैं डोक्टर को बुला लेती हूँ।’’

‘‘लेकिन बहन! मेरी पाठशाला का क्या?’’ नौकरानी के द्वारा उठाए  जाने पर कुसुमायुध ने पूछा।

माता को बच्चे की इस नियमभक्ति को देखकर दया आई: ‘‘छोड़ पाठशाला को! ऐसे बुखार में कही जाया जाता है? जाकर सो जाओ, भाई ! मैं अभी आ रही हूँ।’’

नौकरानी बच्चे को उठाकर ले गई।माँ बडबड़ाने लगी:“किराए  के लोग! वे क्यों परवाह करने लगे?

शरीर गर्म था तो नहलाने की जरुरत ही क्या थी? लेकिन नौकर क्यों परवाह करने लगा?’’थोड़ी ही देर बाद किराए के डॉक्टर भी आ पहुंचे। किराए  की नौकरानी से तत्क्षण विमाता ने बालक को सम्हाल लिया। बालक को बुखार कब आया? क्यों आया? आदि सारी बातें डॉक्टर को बतायी। सोना चाह रहे बच्चे की पलकों को खींचकर खोला,उसकी काँख में थर्मोमीटर रख दिया; बालक को उन्होंने सीधा सुलाया और उसकी छाती, पेट और पीठ को ठीक से जांचकर डॉक्टर ने नुस्खा लिख दिया और जरुरत पड जाए  तो पुन: बुलाने के लिए कहकर बिदा हुए। बालक की अस्वस्थता बढ़ गई। उसकी देह में बेचैनी बढ़ रही थी। माँ ने डॉक्टर को पुन: बुलाया।पति-पत्नी बच्चे के पास ही बैठे रहे। माँ ने रात के खाने को भी मुलतवी कर दिया।

बच्चे के माथे पर बर्फ रखते रहने का आदेश डॉक्टर का था। डॉक्टर हुक्म देते समय हुक्म के पालन की संभावना पर शायद ही विचार करते हैं। नौकर बर्फ रख-रखकर ऊबने लगे और बच्चे के माथे पर बैठे बैठे निंदीयाने लगे। माँ ने नौकरों को सुला दिया और बर्फ रखने लगी। अपना फर्ज अदा करने में यत्नशील माँ को यह कार्य जरा भी बोझिल नहीं लगा। रात के बारह के गजर तक माँ बिना पलक झपकाए बर्फ की थैली घुमाती रही। बाद में उसके पति ने उसे आग्रह करके सुला दिया और वह स्वयं अपने पुत्र की शुश्रूषा में लगा रहा।

पता नहीं माँ को नीद क्यों नहीं आई? कुछ देर हुई और बच्चा चीख उठा-“ओ माँ!’’

विमाता बिछौने से तुरंत उठकर बैठ गई। उसने अनगढ़ पुरुष के हाथ से थैली ले ली और बच्चे के पास जाकर बैठ गई। बच्चा पुन: रात्रि के एकांत में बच्चा पुन: बडबड़ाने लगा:“माँ’’

 ‘‘हाँ बेटा!’’ जबान पर आए  इन शब्दों का माँ ने उच्चारण किया नहीं; वह तनिक लजाई। उसने मात्र इतना ही पूछा,“कैसे हो भाई? क्या है?’’

बच्चे ने आँख खोलकर विमाता की ओर देखा।

‘‘आप नहीं।’’ कहकर बच्चे ने आँख मूंद ली।

‘‘तुम अभी तो चीखे।’’

‘‘वह तो मैंने माँ को बुलाया था। बच्चे ने बिना आँखें खोले ही कहा।’’

‘‘तो मैं ही तो तुम्हारी माँ हूँ ना।’’ माँ ने कहा।

बच्चा आँख खोलकर विमाता की ओर तकने लगा।

‘‘लेकिन मै तो अपनी सगी माँ को बुला रहा हूँ।’’

सौतेली माँ का दिल धड़क उठा। उसका दिल मानो फट गया:’’अभी भी इस बच्चे को मैं सगी माँ सरीखी नहीं लग रही हूँ?’’

सगी माँ मुझे तू कहती थी,आप नहीं।

‘‘मैंने कब तुम्हें आप कहा।’’ माँ ने झूठ कहा।

‘‘पर मेरी सगी माँ तो मर गई है ना?’’

‘‘तो मैं वापस आ गई हूँ ना, देख नहीं रहे?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘अरे बेटा, तुम्हारे लिए!’’

सौतेली माँ सगी माँ हो गई। उसने बच्चे के मुख पर पहली चुम्मी भरी। उसके मातृत्व का अकूत स्रोत फुट पड़ा। बच्चे की छोटी सी खटिया में वह सो गई और बच्चे को अंक में भर लिया। बच्चे को इस हुलास के गहरे अर्थ को समझने की जरुरत नहीं थी। वह तो इतना ही समझा कि इस प्रकार छाती में भरकर सगी माँ ही सोती है। सगी माँ से लिपटकर कुसुमायुध गहरी नींद सो गया। उसकी देह को जलानेवाली आग शांत हो गई। अब उसके माथे पर बर्फ रखने की जरुरत नहीं रही थी। आज वह माँ की अमृतमयी गोद को प्राप्त जो हुआ था।

 

डॉ.रजनीकांत एस.शाह
गुजरात

     

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