वृंद अपने समय में दरबारी कवि थे। वृंद दरबारी जीवन और उसके तौर तरीके से भलीभांति परिचित थे। नीति सतसई की बहुत सी सुक्तियों में वर्णित राजनीतिक विचार दरबारी जीवन संबंधी अनुभवों से संबंधित है। इससे स्पष्ट है कि राजनीतिक विषयों पर उनकी पकड़ गहरी थी। सम्भवत: इसका कारण यह हो सकता है कि शाह अजीमुश्शान के ये शिक्षक थे और वह इन्हें हमेशा अपने साथ रखता था। स्पष्ट है कि इन्हें अजीमुश्शान के दरबार में केवल दरबारी कवि ही नहीं। बल्कि एक नीति-निपुण शिक्षक (गुरू) का दर्जा भी प्राप्त था।
कविवर वृंद रीतिकाल के दरबारी कवि थे। कवि स्वभाव होता है जहां जैसा वातावरण देखता है उसी प्रकार से प्ररेणा लेकर उसपर कविता करता है। नीति सत्तसई की रचना करते समय उन्हें जब भी जीवन के जिस क्षेत्र पर कविता करने का मौका मिला। उस पर रचना कर डाली। उनके वाणिज्य संबंधी विचार आर्थिक जीवन से सीधे जुड़े हुए हैं। इस पर उन्होंने उस समय क्या सोचा-समझा या परखा उसी का वर्णन करने का प्रयास किया।
भारत में नैतिक काव्य रचने की पुरानी परम्परा विद्यमान है। नैतिक काव्य लिखने का प्रमुख उद्देश्य भातीय जीवन को अपने कर्तव्य पथ से भटकने से रोकना रहा है। इसके लिये कभी प्रत्यक्ष तो कभी पशु-पक्षियों या अन्य माध्यमों से अप्रत्यक्ष रूप से आचार विधि, आचरण सहिंता और मर्यादा के मूल्य लोगों को समझाए गए हैं।
प्राचीन काल में नैतिक काव्य की समृद्ध परम्परा संस्कृत से प्राकृत (उपदेश माला, गाहासत्तसई, कथा कोश प्रकरण) पाली (जाति तथा धम्म पद) तथा अपभ्रंश पाहुड़ दोहा, उपदेश रसायन प्राकृत पेंगल) में थी। जो आगे चलकर हिन्दी में आई। नैतिक काव्य जीवन के सच्चे और सुलझे अनुभवों को स्वयं में समाहित करने में समर्थ रहा है। यही कारण है कि अनुभवों पर आधारित होने के कारण यह धारा वर्तमान और भावी समाज की पथ प्रदर्शक रही है। लोक व्यवहार में नैतिक मूल्यों का महत्व लोकोक्तियों के माध्यम से भलीभांति समझा जा सकता है। वस्तुत: नैतिक काव्य विश्व-साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
प्राचीन काल से ही वर्ण व्यवस्था इस देश की संस्कृति तथा सामाजिक संघटना का प्राण है। परंतु यह व्यवस्था आज की जाति व्यवस्था बिल्कुल भिन्न थी। वर्णाश्रम का अर्थ वर्ण-व्यवस्था एवं आश्रम है। इसे धर्म भी कहते हैं। धर्म का तात्पर्य यहां नैतिक कर्तव्य या जीवन के व्यावहारिक नैतिक नियम से है। वर्ण-व्यवस्था ने समाज के सम्पूर्ण लोगों को चार वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित कर दिया और प्रत्येक वर्ण के लिये कुछ नियम एवं कर्तव्यों को निर्धारित कर दिए और प्रत्येक वर्ग से यह आशा की जाती थी कि वह उन नियमों को अपना धर्म समझकर उसका पालन करे। पहले यही वर्ण धर्म था। आश्रम व्यवस्था का उद्देश्य एवं महत्त्व वैयक्तिक था। जबकि वर्ण व्यवस्था में आधारभूत प्रेरणा का स्वरूप सामाजिक था। कविवर वृंद ब्राह्मणों के बारे में विचार व्यक्त करते हैं कि इनका कार्य सिर्फ पठन-पाठन, आध्यात्मिक विचार, सत्य की खोज में लीन रहना था। जिस प्रकार एक निसंतान स्त्री प्रसूत के दर्द को नहीं जानती, उसी प्रकार पंडित वर्ग से इतर वर्ग सत्य को नहीं जान सकता था उदाहरणतः निम्नलिखित पंक्तियों को देखा जा सकता है-—
पंडित जन कौ सम मरम जानत जे मति धीर।
कबहू बांझ न जानईतन प्रसूत की पीर।।
ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हुए कविवर वृंद ने कहा है कि ब्राह्मण से हार जाने पर भी प्रशंसा मिलती है। वृंद की मान्यता है कि समाज के श्रेष्ठ (उच्च) कुलीन लोग ही नीतिवान होने चाहिये। तपस्या आदि कर्मकांड उन्हीं को शोभा देते हैं। निम्न शूद्र वर्ण के लोगों को नीति निपुण होना शोभनीय नहीं। यहाँ पर वृंद वर्ण-व्यवस्था को समर्थन करते हैं-
नीति निपुण राजानि कौं अजुगत नाहिं सुहाय।
करत तपस्या सूद्र कौ ज्यों मारयौ रघुराय।।
स्पष्ट है कि वृंद ब्राह्मण और पंडित वर्ग को एक ही मानते हैं। वह वर्ण-व्यवस्था में विश्वास रखते हैं और शूद्र को तपस्या का अधिकारी नहीं मानते । यह मान्यता रीतिकाल में भले ही उचित रही हो। लेकिन आज के संदर्भ में यह एकदम अनुचित है क्योंकि आज ऐसा कोई बंधन नहीं है। कौन क्या है और क्या करेगा।
वर्ण व्यवस्था में भारतीय समाज चार वर्णों में विभक्त था। प्रत्येक वर्ण के कार्य अलग-अलग थे। परंतु वर्ण-व्यवस्था ने कालांतर में जन्म पर आधारित होकर जटिल रूप धारण कर लिया। ऐसी दशा में जातिगत सदस्यता अपरिवर्तनीय होकर बंद एवं स्थिर हो गई। जाति व्यवस्था मुख्यत: कर्म पर आधारित न होकर जाति पर आधारित थी। इसलिये प्रत्येक सदस्य को अपनी जाति के अनुसार ही कार्य करने की छूट थी। इस प्रकार उस समय खान-पान, वैवाहिक संबंध, व्यवसाय, रहन-सहन इत्यादि जीवन संबंधी महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर प्रतिबंध था।
प्रत्येक जाति की अपनी विशेषता होती है। कुछ जातियाँ समाज में दुराचार और विकृति फैलाकर समाज के पतन का कारण बनती हैं। तो कुछ जातियाँ अपने परिश्रम और शिष्टाचार के द्वारा समाजिक उत्थान करने में अपनी अहम् भूमिका निभातीं हैं। वृंद ने कुछ सूक्तियों में अनायास कुछ ऐसी जातियों और उनके कार्यों का उल्लेख किया है।
जहाँ बाहरी आंडम्बर हो वहाँ जातिगत श्रेष्ठता नहीं देखी जाती। गुण सम्पन्नता से ही मनुष्य श्रेष्ठ बनता है। छोटी जाति का मनुष्य अपने सद्गुणों के आधार पर दिखावा करने वाले उच्च कुल के लोगों में उसी प्रकार उठ जाता है, जिस प्रकार छोटी डोरी वाली पतंगों से बड़ी डोरी वाली पतंग आकाश में ज्यादा उँचाई तक उठ जाती है-
जात गुनी जात न तहां आडम्बर जुत सोइ।
पहुंचे चंग आकाश लौं जौ गुन संजुत होइ।।
वृंद की मान्यता है कि गुणी व्यक्ति का आदर होता है चाहे वह किसी भी जाति का ही क्यों न हो।
निम्न जातियों के लोग (शूद्र)अपमान से बचने के लिये अपनी जाति छिपाते थे और जाति छिपाने के विभिन्न माध्यम थे। वृंद ने इस जाति छिपाने की व्यापक समस्या के लिये एक उत्तम साधन बताते हुए कहा है— ‘कि एकमात्र वेश द्वारा ही जाति और वर्ण छिपा सकते हैं। कवि के अनुसार जाति छिपाने के लिये दूसरी जाति अथवा वर्ण का विशिष्ट निर्धारित वस्त्र पहन लेना चाहिये।’ तब जाकर इस कष्ट से छुट्टी मिल पाएगी।
एक भेष के आसरे जाति वरन छिप जात।
ज्यों हाथी के पाम में सबको पांव समात।।
लेकिन भारतीय नीति शास्त्र और समाज में सदैव से सज्जन पुरुष को अधिक मान्यता दी गई है। चाहे वह किसी भी वर्ण या जाति का हो। इसका उदाहरण भक्ति काल में हुए अनेक निम्न जाति और वर्ण के संत कवियों में देखा जा सकता है। जो राजाओं एवं ब्राह्मणों द्वारा खूब पूजे जाते थे। कवि वृंद ने सज्जन पुरुष के विषय में बताया है। कि सज्जन पुरुष की पहचान यह है कि उसके साथ गलत व्यवहार करने पर भी वह दूसरों का भला ही करता है। जिस प्रकार जल को वायु द्वारा वाष्पन करने पर भी जल वायु को ही शीतल करता है-
अहित किए हू हिक करै सज्जन परम अधीर।
सोखे हू शीतल करै जैसे नीर समीर।।
जो उपकार करते हैं (अर्थात् सज्जन पुरुष) उन उपकारी सज्जन पुरुषों से कभी विमुख नहीं होना चाहिये या उनके उपकार को भूलना नहीं चाहिये। उसी तरह जैसे मोर जिस तालाब का पानी पीता है, उसको पीठ नहीं दिखाता-
तिनसौं विमुख न हूजियै जे उपकार समेत।
मोर ताल जल पान कर जैसे पीठन देत।।
कवि वृंद ने दुर्जन व्यक्तियों के प्रति अपनी नैतिक रचना की है। दुष्ट प्रवृत्ति का मनुष्य अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है चाहे उसके साथ कितनी ही भलाई की जाए। दुष्ट व्यक्ति के साथ चाहे जितना सद्व्यवहार करें। लेकिन वह अपनी नीचता को नहीं छोड़ सकता ठीक वैसे ही जैसे की काजल को सौ बार धोने पर भी उसे सफेद नहीं किया जा सकता।
दुष्ट न छाड़ैं दुष्टता कैसे हूं सुख देत।
धोए हू सौ बार कै काजर होत न सेत।।
दुष्ट व्यक्ति के मिल जाने से भलाई नहीं होती बल्कि उसके मिलते ही बुराई पैदा हो जाती है और वह दुख देती है। जैसे शरीर में कांटा चुभ जाने से वह कसकता है और पीड़ा देता रहता है। ठीक बुराई भी उसी प्रकार अपनी बुरी कसक छोड़ जाती है-
मिल्यौ दुष्ट नहिन भलौ उपजत मिलै अहेत।
ज्यों कांटो गड़ि देह में अटकी खटकी दुख देत।।
वृंद ने प्रेम पर अपने विचार व नैतिक देते हुए लिखा है।- प्रेम करने पर उसे निभाना चाहिये अन्यथा कभी किसी से प्रेम का संबंध न करो और यदि किया है, तो उसे तोड़ना नहीं चाहिये, क्योंकि जैसे रस्सी की टूट जाने पर उसे फिर जोड़ने से गांठ पड़ जाती है वैसे ही रिश्तों भी कभी न सुलझने वाली गाढ़े लग जाती हैं-
कबहऊं प्रीति न जोरियो जोरि तोरियो नहि।
ज्यों तोर जोर बहुर गांठ पड़ती गुन माहि।।
प्रेम समर्पण है उसमें भेदभाव या अंतर नहीं रखना चाहिये। क्योंकि जहाँ दिल से दिल नहीं मिलते हैं। वहाँ हार ही हार होती रहतीं हैं-
अंतर तनिक न रखिये जहां प्रीति व्यवहार।
उर सौं उर लागैं न तहं जहां रहति है हार।।
प्रेम बंधन के समान और कोई बंधन नहीं है जैसे काट को छेद कर देने वाली शक्ति रखने वाला भंवरा प्रेमवश कमल की पंखुड़ियों में कैद हो जाता है और उसे कोई हानि नहीं पहुंचाता और वह प्रात: होते ही कमल की कैद से मुक्त हो जाता है। वैसे ही प्रेम प्रिय के हृदय की मधुर अनुभूति है-
जैसो बंधन प्रेम की तैसी बन्ध न और।
काटहिं भेदे कमल को छेद न निकरे भोर।।
प्रेम में दीवाने मन को रोकने का सामर्थ्य कुल की लाज या मर्यादा नहीं है। जैसे कमल के डंटल के धागे से हाथी को कौन बांध सकता है । वैसे ही प्रेम को बाधा नहीं जा सकता। कुल की मर्यादा के संबंध में वृंद ने पारिवारिक संबंधों के बारे में प्रकाश डालते हुए कहा है कि कुल की मर्यादा कोई नहीं छोड़ता।चाहे उसे उसमें कितनी ही हानि उठानी पड़े। उसी प्रकार जैसे हाथी द्वारा एक महाजन को मार देने पर भी दूसरा महाजन आकर हाथी पर सवार हो जाता है-
कुल मारग छोड़े न कोउ होहि वृद्धि कै हानि।
एक गज मारत दूसरौ चढ़त महावत आनि।।
वृंद का लोकनीति में विश्वास था और वह सत्तसई में जनहित के पक्षधर प्रतीत होते हैं। जिसमें भला हो, वही काम करनेल में वह भलाई मानते हैं । चाहे कोई हजार नाम धरे और अर्जुन को छल-बल द्वारा युद्ध जीतने वाला बताएँ। लोग उसे ऐसा न करने का लाख परामर्श ही क्यों न दें-
जामें हित सो कीजिये कोऊ कहौं हजार।
छल बल साधिकै बिजय करी पारथ भारथ बार।।
कवि कहता है कि सदैव मन की करनी चाहिए किसी के कहने सुनने में नहीं आना चाहिए। सबकी बातें सुननी चाहिये, लेकिन जो बातें समाज, जनहित में हों, उसका निर्णय अपनी बुद्धि से करना चाहिये अर्थात् कभी पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं करना चाहिये। निर्बलों से कभी भी दुश्मनी, शत्रुता और वाद-विवाद नहीं करना चाहिये। क्योंकि जीतने पर ताज नहीं बंधता परंतु हारने पर निन्दा जरूर ही होती है-
निबल जानि कीजै नहीं कबहूं बैर विवाद।
जीते कछु सोभा नहीं हारे निन्दा बाद।।
वृंद ने कहते हैं कि बलवान होने पर भी ज्यादा लोगों का विरोध नहीं करना चाहिये। बलवान पुरुष को शक्ति का प्रयोग सोच समझकर परिस्थिति अनुकूल ही करना चाहिये। वृंद शत्रु के बारे में भी अपने विचार व्यक्त करते हैं और कहते हैं कि शत्रु को छोटा नहीं समझना चाहिये। छोटे होने पर भी पूरी तैयारी या पूरे हथियारों के साथ चढ़ाई याआक्रमण करना चाहिये। चाहे उनके प्रयोग की सम्भावना कम ही क्यों न हो-
छोटे अरि पै चढ़हु सजि सुमट सस्त्र तत्र तान।
लीजै ससा आखेट पर नाहर को समान।।
वृंद के वाणिज्य संबंधी विचार सीधे आर्थिक जीवन से जुड़े हैं। आजीविका अर्जन करने में कार्य को हेय नहीं समझना चाहिये। वृंद ने आर्थिक पहलू पर अपने विचार रखते हुए कहा है कि वैश्या शीतवंती और संकोची प्रवृत्ति की हो तो उसकी जीविका का निर्वाह नहीं हो सकता। इसलिये जिस व्यापार या धंधे में जीवन का निर्वाह हो। उसे अपनाने में संकोच नहीं करना चाहिये। वृंद की मान्यता है कि काम कोई छोटा या बुरा नहीं होता। मनुष्य की सोच छोटी-बड़ी होती है-
जासे निबहै जीविका करिये सो अभ्यास।
वैश्या पातै शीला तो कैसे पूरे आस।।
मेहनत करना और अपने धंधे को श्रेष्ठ समझना; सफलता की कुंजी है। किसी काम-धंधे को छोड़कर दूसरे कार्य की उम्मीद करना उचित नहीं है। जब तक काम न मिल जाये तब तक पहले वाले कार्य को छोड़ने की मूर्खता करना व्यर्थ है। कार्य के महत्त्व को देखकर प्रयत्न करना चाहिये। किसी कार्य को करना ही है तो पूर्ण सोच-समझकर करना चाहिये कि अमुक कार्य करने में हमें सफलता मिलेगी, जिसमें पूर्ण या आंशिक सफलता न मिले, ऐसा कार्य व्यर्थ है। यहां वृंद की मान्यता है कि कार्य के प्रति पूरी लगन होनी चाहिये, जिसमें सफलता ही हासिल हो-
क्यौं कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परबत पै खोदै कुंवा कैसे निकसै तोय।।
सामाजिक विकास अथवा मानवीय हित की भावना सम्पन्न साहित्य में जब प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नैतिक समन्वय होता है तो वह साहित्य मानवीय जीवन को कहीं अधिक स्थायित्व प्रदान करता है। तभी तो वृंद कहते हैं कि यदि किसी अन्य के बल पर कोई य़भई कार्य किया जाता है तो सफलता मात्र छलवा है वास्ताविकता नहीं। हमारे देश में आदि काल से लेकर आज तक विभिन्न भाषाओं के साहित्य में रचना होती आई है। जिसका प्रमाण विश्व पटल पर हमारे सम्मुख है। जिसे न तो नकारे जा सकता है और न ही अनदेखा किया जा सकता है।
अंततः .ही कहा जा सकता है कि रीतिकाल में धर्म का इतना प्रभाव नहीं था कि समाज में फैले अंधविश्वास, स्वार्थपरता और नैतिक दुर्बलता दूर करने वाले भक्त कवि कबीर, तुलसी के समान प्रतिभावान व्यक्तित्व का निर्माण होता। फिर भी नैतिक कवियों ने इस दिशा में सूक्तियों के माध्यम से समाज के नैतिक विकास का कार्य किया है। रीतिकाल में वृंद एकमात्र ऐसे कवि हुए हैं जिन्होंने 714 सूक्तियों की सत्तसई का निर्माण करके समाज को एक नयी दिशा प्रदान की है।
उपरोक्त अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वृंद द्वारा रचित काव्य में अभिव्यक्त सामाजिक मूल्य मानव जीवन के सर्वांगांण उन्नयन में सहायक है। इनकी उपयोगिता तभी सिद्ध होगी जब उनका सही मूल्यांकन किया जाए और वर्तमान समय के लिये उपयोगी बनाया जाए।
संदर्भ ग्रंथ सूची:-
1 जनार्दन राव चिलेर, वृंद और उनका साहित्य,
2 जनार्दन राव चिलेर, वृंद ग्रंथावली
3 डॉ. नगेंद्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास
4 आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास