वर्तनाम समाज परिवर्तनशील दौर से गुजर रहा है। समाज एवं राष्ट्र के विकास के केंद्र में मूलत: व्यक्ति है, जब तक व्यक्ति का व्यक्तित्व निखरकर सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप नहीं हो जाता है, तब तक विकास सर्वांगीण नहीं हो सकता है। विकास प्रक्रिया में नगरीकरण, शिक्षा का अपना स्थान है जो मानव को विकास के लक्ष्य पूरा करने में हित साधक के रूप में कार्य करती है, परंतु यह भी सर्वविदित है कि मानव मात्र के विकास के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों का भी उतना ही महत्त्व है जितना भौतिक पक्ष का। विकास की इस यात्रा में दूसरों का विकास बाधित न हो यह ध्यान में रखना होगा, संस्कृतियों का नाश करके विकास नहीं हो सकता है। आधुनिकता के साथ ही भूमण्डलीकरण भी वर्तमान समय में हमारे सामने है। भूमण्डलीकरण का मूल मंत्र है ‘मुक्त बाजार’। वर्धा शब्दकोश के अनुसार- ‘सारे संसार के लिए पूँजी का आदान-प्रदान ही भूमण्डलीकरण है। जिसमें 80 का दशक उत्पादन का भूमण्डलीकरण और 90 का दशक वित्तीय पूँजी के भूमण्डलीयकरण के लिए जाना जाता है। डाॅ. कुमुद शर्मा के अनुसार- ‘‘बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में मनुष्य को नागरिक नहीं, अपने व्यापारिक हितों को सर्वोपरि माना है।… विज्ञापन के जादू से ही अपने उत्पाद के हक में उपभोक्ता के मनोविज्ञान की बदलने में सक्षम सिद्ध हुई है।’’
मार्शल मैक्लूहान ने ‘ग्लोबल विलेज’ का उल्लेख करते हुए कहा था कि आज के समय में संसार के विभिन्न साधनों की वजह से गाँव-गाँव और दूर-दराज तक सभी खबरें पहुँच जाती हैं। सभी आपस में जुड़ गये हैं दूरियाँ खत्म हो गई हैं, इसी को हम भूमण्डलीकरण का ही रूप कहते हैं। ऐसा भी नहीं कि इसका असर सिर्फ आर्थिक क्षेत्र पर पड़ा है बल्कि जीवन का कोई भी पहलू इससे अछूता नहीं रहा है। अभय कुमार दुबे के अनुसार- ‘‘भारत के पूराने राष्ट्रवादी पूँजीपतियों से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी के व्यवसाय से बने नये उद्योगपतियों तक, पब्लिक सेक्टर की चैधराहट के तले पनपे नौकरशाहों औ सत्तारूढ़ रहने की आदत डाल चुके राजनेताओं से लेकर विपक्ष और असहमति की राजनीति में रचे-बसे राजनीतिक दलों और जनपक्षीय आन्दोलनकारियों तक, पिछड़ी जातियों, महिलाओं, शहरी गरीबों और दलितों के हितों मंे सोचने वालों से लेकर माक्र्सवादियों, नक्सलवादियों और पर्यावरणवादियों तक को इस परिघटना के पक्ष-विपक्ष में राय बनानी पड़ी।’’ परन्तु एक ओर जहाँ कुछ समूह इसके समर्थन में खड़े होते हैं तो कुछ समूह इसके खिलाफ आवाज़ उठाते हैं। जिसमें बौद्धिक वर्ग से लेकर श्रमिक वर्ग तक शामिल है। आज समानात्तर सरकार चलाने के दावे भी किए जा रहे हैं जिसके समर्थन में आदिवासियों की बड़ी जमात है। यह सिर्फ इसलिए नहीं कि इन्हें बहलाया-फुसलाया जा रहा है। यह कहना बचकाना होगा कि कई हजार आदिवासियों को भ्रमित कर आन्दोलन की हवा दी जा रही है। इतिहास को सामने रखते हुए देखें तो मालूम होेगा कि इस अशांति के पीछे उनकी अपनी परम्पराएँ है जिसे विकास के नाम पर नष्ट किया जा रहा है। उनकी समस्या के बहुत से कारण हो सकते हैं।
आदिवासी प्रकृति के निकट रहने से ये प्रकृति पूजक है। भाषायी दृष्टि से भाषा विज्ञानियों ने भारतीय आदिवासी भाषाओं को मुख्यतः तीन भाषा परिवारों में रखा है- द्रविड़, आस्ट्रिक एवं चीनी तिब्बती। कुछेक आदिवासी भाषाएँ भाषा परिवार से भी साम्य रखती है। भीली, संथाली एवं गोंड़ी भारतीय आदिवासियों द्वारा बोली जाने वाली प्रमुख भाषाएँ है, जिसमें संथाली एवं बोडो को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मान प्राप्त है। आदिवासियों में लोक कथाओं, गीतों, कहावतों और मुहावरों की मौखिक परंपरा समृद्ध रही है, जिसे पुरखा साहित्य का नाम दिया गया है। हिंदुओं के महान धार्मिक ग्रंथ ‘रामायण’ के रचयिता महर्षि वाल्मीकि भी कोली जनजाति के आदिवासी थे। जो अपने आप में समृद्ध साहित्य है एवं युग-युगांतर से भारतीय समाज को दिशा दिखाती रही है। सभ्य समाजों में हमें मनुष्य की वर्तमान स्थिति एवं विकास के भौतिक आयामों का पता चलता है, वही आदिम समाज किस प्रकार सरलता से प्रकृति की गोद में नैसर्गिक रूप में जीवनयापन कर अपना समय पूरा करता है यह ज्ञात होता है। शहरी समाज, सभ्यता के मकड़जाल में उलझकर अपने नैसर्गिक लक्ष्यों को भूल गया है सामाजिक व्यवहार, रीति-रिवाज एवं भौतिकता में अपने आप को इतना उलझा दिया है कि उनका अपना संतोष कहीं खो-सा गया प्रतीत होता है। ब्रज कुमार पाण्डेय के अनुसार- ‘‘व्यावसायिक संस्कृति समाज की हर चीज़ को बिकाऊ बनाती है, वह समाज की जरूरत को नहीं मुनाफे की जरूरत को व्यक्त करती है। बाजार तंत्र की विशेषता यह है कि उसे खरीद बिक्री करने वालों की जरूरत है, सबसे ज्यादा खरीदने वालों, की जो खरीदने की क्षमता नहीं रखता… वह आदमी बाजार तंत्र के लिए एकदम बेकार है।’’
70 के दशक में या पहले आदिवासी विस्थापन की बड़ी वजहें औद्योगिक विकास, शहरी विकास तथा संचार एवं यातायात विकास ही थे। वहीं 80 के दशक में पर्यावरण संरक्षण की बात आयी तथा जंगली जीवों को बचाने की कवायद शुरू हुई एवं 1972 में ‘वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम’ लाया गया। 90 का दशक वैश्वीकरण का तीव्रतर समय है और यही समय भी है जब पर्यावरण और पारिस्थितिकी को लेकर बहसों का लम्बा सिलसिला भी चलता है। एक तरफ पर्यावरण को बचाने की बात की जाती है तो दूसरी ओर विकास की बात और विकास भी उस क्षेत्र में जहाँ पर्यावरण का पूरा तंत्र है, आदिवासी समाज है सदियों से बसी-बसायी उनकी संस्कृति है।
आधुनिक विश्व में ‘वैश्वीकरण’ का विचार कई गंभीर खामियों के बावजूद देशों के विकास की अनिवार्य शर्त बनता जा रहा है। आधुनिक विश्व में ‘ग्लोबलाइजेशन’ अवधारणा का प्रचार वैश्विक कुटुंब के रूप में हुआ है। विश्व के राष्ट्रों की आवश्यकता या स्वार्थ ने आखिरकार औपनिवैशिक शासन के पश्चात् विकासशील व गरीब देशों की ओर एक बार पुनः रुख करने को बाध्य किया। जागरूक व समझदार होते विश्व को भी किस प्रकार झांसे में लिया जा सकता है ‘वैश्वीकरण’ का यह लुभावना ‘वैश्विक गाँव’ का नारा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। वैश्वीकरण ने मानव के प्रत्येक पहलू को गहराई से प्रभावित किया है। विकसित राष्ट्रों द्वारा स्वार्थपूर्ण उद्देश्य को लक्षित करते हुए स्वयं की अतिरिक्त मात्रा की उत्पादित उपभोक्ता सामग्री के लिए, अछूता रहा विशाल बाजार सुनिश्चत करते हुए इस वैश्वीकरण के अद्भूत विचार ने विश्व के विभिन्न समुदायों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक, राजनीतिक व शैक्षणिक अंतसंबंधों के नए अध्याय प्रारंभ हुए। इस तंत्र में सभी में स्वार्थपरक नजदीकी स्थापित हुई। इस माहौल में एल.पी.जी. (लिबरलाईजेशन प्राईवेटाईजेशन, ग्लोबलाइजेशन) अवधारणा विस्तारित हुई। वैश्विक विकास के संकेत व प्रतीक इस प्रकार उजागर किए गए हैं कि समाज दिग्भ्रामित होता दिख रहा है। कुछ राष्ट्रों की मजबूरी की आवश्यकताओं को विश्व की आवश्यकता का पर्याय प्रचारित किया गया है। केदारनाथ सिंह के अनुसार- ‘‘लगभग छः सौ साल पहले कबीर ने इस दुनिया को एक हाट कहा था- ‘पूरा किया बिसाहुणा, बहुरि न आवौ हट्ट’ आज कबीर की वाणी सौ प्रतिशत सच लग रही है, जब हम समाज और संबंधों को बाजार में तब्दील होते देख रहे हैं।’’
वैश्वीकरण के सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही पक्ष हैं। वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया ने विकासशील देशों में प्रत्यक्ष निवेश, वृद्धि, गुणवत्ता आधारित सामग्री का प्रसार, घरेलू उद्योगों व कुटीर उद्योगों को अंतर्राष्ट्रीय पहचान व वैश्विक मंच पर प्राप्ति आदि को बढ़ावा दिया है। गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में तेजी से कमी हुई है। नकारात्मक प्रभावों का विचार करने वाले पूँजीवादी का विकृत चेहरा ही दिखाई देता है। विकसित देशों द्वारा गरीब व विकासशील देशों के क्रय शक्ति संपन्न उपभोक्ता बाजार पर कब्जा करने की लालच, उनका शोषण, दम्पिंग प्रक्रिया में तेजी, स्थानीय लघु व कुटीर उद्योगों का ध्वस्त होना, कृषकों को भूमिहीन करके उनको श्रमिक बनाना, पाश्चात्य संस्कृति की घटिया पंरपराओं को परंपरागत समाज में प्रवेश कराना, भूमिह्रास, सामाजिक अपराधों में वृद्धि आदि का तीव्र प्रसार हुआ है।
मानवीय मूल्यों से भी इतर जा चुके आज के तथाकथित सभ्य समाज के लोगों के द्वारा अपने ही तरह के लोगों को केवल इसलिए कम करके आँका जाता है क्योंकि वह जंगल में रहता है और सभ्यता के नियमों से अपरिचित है। आदिवासियों को सिर्फ इसलिए हटा दिया जाता है क्योंकि वे अपने घर बनाने, खाना पकाने के लिए जंगल की लकड़ियों का इस्तेमाल करते हैं लेकिन यह भी सोचने वाली बात है कि हजारों वर्षों के इतिहास में जितने पेड़ आदिवासियों ने काटे हैं उससे कहीं ज्यादा पेड़ पर्यटन के उद्देश्य से लोगों को आराम देने के लिए काटे गये हैं। प्रख्यात पर्यावरणविद् आशीष कोठारी कहते हैं कि ‘‘हम आदिवासी अधिकारों के दिये जाने की वजह से भारतीय वनों के संभावित नुकसान पर शोक मनाते हैं, लेकिन हम अपनी जीवन शैली को लेकर खुश हैं जो उससे कहीं अधिक विनाश करता है।’’
भारत में जनजाति आबादी को आदिवासी कहा जाता है। इसे भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजाति कहा गया है। भारत के संविधान में अनुच्छेद 366 (25) के तहत अनुसूचित जनजातियों को संविधान की धारा 342 के अनुसार आने वाली अनुसूचित जनजातियों के समान जनजातियाँ ऐसी जनजातीय श्रेणी को सम्मिलित किया जाता है जो संविधान आॅर्डर 1950 की सूची के आधार पर 744 जनजातियों को इसमें सम्मिलित किया गया है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 8.6 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासियों की है। यह समुदाय मुख्यतया घने वन क्षेत्रों व पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करता है। भारत आदिवासी समाज जो अभी आधुनिक समाज को ही समझ नहीं पाया है, वह अभी तक समाज के विकास से वंचित ही है। इस पर एकाएक वैश्वीकरण का बम फूट गया है। यह समाज एक ऐसा निरीह व अविकसित वर्ग है जो राष्ट्र की मुख्य धारा के साथ जुड़ना नहीं चाहता है। सरकार के भरसक प्रयासों के बावजूद ये लोग अपनी पारंपरिक जीवन शैली को त्यागने को या आंश्कि परिवर्तन करने को तैयार नहीं है और न ही अपने रीति-रिवाजों से समझौता करते हैं। वैश्वीकरण की प्रक्रिया में उनकी इसी जीवन शैली में हस्तक्षेप किया जा रहा है। सरकारें यह बताती हैं कि जंगली जीवों में कमी का कारण आदिवासी समुह है लेकिन ऐसा नहीं है। इसका मुख्य कारण है संसाधनों के पीछे भागती आधुनिक जीवन शैली। प्रख्यात् पर्यावरणविद् माघव गाडगिल के अनुसार ‘‘यह अमेरिका के कुछ बड़े स्वयंसिद्ध आन्दोलनों से प्रेरित है, जिनकी मुख्य मान्यताएँ थी कि इस क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों को रोक-कर ही विविधता को बचाया जा सकता है।’’
आदिवासियों का जीवन आम लोगों से इस अर्थ में भिन्न है कि वे आधुनिकतावादी प्रवृत्तियों से पार्थक्य की नीति अपनाते हैं। अर्थात् अपनी भाषा, संस्कृति, परंपराओं को आदिवासी समाज किसी प्रकार से छोड़ना नहीं चाहता है। आधुनिक समाज के लोगों से मिलने भर से ही भयभीत होने वाला यह वर्ग समूल नष्ट होने की आशंका से डर जाता है। ऐतिहासिक रूप से अगर किसी आदिवासी समाज विशेष ने उनको अपने समाज से संबंधित होने का अवसर भी दिया तो उसे अंततः परिणाम के रूप में उसका घोर शोषण ही प्राप्त हुआ है। अतः यह समाज अपनी पहचान को कायम रखना चाहता है। इसके लिए वह किसी भी ऐसे संभावित खतरे से बचाव का एक मात्र उपाय आधुनिक विश्व के विकास से स्वयं को दूर रखने में ही मानता है। अपनी नृजातीय सांस्कृतिक विशेषताओं को अक्षुण्ण बनाए रखना चाहते हैं। पारंपरिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विन्यासों को यथावत रखना चाहते हैंः- वेरियर ऐल्विन ने 1943 में कहा था कि ‘‘यदि आदिवासियों को बचाना है तो इसके रहनवास और पारिस्थितिकी को उन्हीं के अनुसार छोड़ दिया जाय, उन पर बाहरी हस्तक्षेप खत्म किया जाए।’’
आदिवासियों के पक्षधर डाॅ. राॅबिंसन कहते हैं कि ‘‘आदिवासी और बाघ सदियों से एक साथ रहते आए हैं, यह शहरों एवं कारखानों की माँग है जिसने जंगलों पर एक अवहनीय बोझ डाला है जिससे एक के बाद एक प्रजाति विलुप्त होने के खतरे का सामना कर रही है।’’
आदिवासी समाज का आर्थिक ढाँचा अपने मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति को सुनिश्चित करने अर्थात् भोजन, पर्यावरण, आवास तक ही सीमित रहता है जबकि आधुनिक विश्व की आर्थिक व्यवस्था इससे भी परे जाकर भरपूर अतिरिक्त मात्रा का उत्पादन व उसका संग्रहण करने की ओर प्रवृत रहती हैं। इस व्यवस्था मंे जहाँ आदिवासी पर्यावरण के साथ रहकर अपना आर्थिक कार्य संपन्न करता है, वहीं आधुनिक समाज प्राकृतिक संसाधनों के दोहन व शोषण के स्तर पर उतर कर अपने आर्थिक विकास को सुनिश्चित करता है। आदिवासी समाज का आर्थिक तंत्र संतोषी भाव पर आधारित होता है। वहीं आधुनिक समाज और अधिक की ओर सदैव प्रयासरत रहता है। वह स्वयं के संसाधनों को दोहन करने के पश्चात् अन्य के संसाधनों पर कुदृष्टि डालने लगता है। प्राकृतिक पर्यावरण से लगाव को प्रदर्शित करने वाला यह वर्ग इन व्यवस्थाओं में लेशमात्र परिमार्जन का परिवर्तन भी नहीं चाहता है।
भारत में औपनिवेशिक शासन की स्थापना एवं सुदृढ़ीकरण के बाद से ही आदिवासियों को राजनीतिक, आर्थिक व प्रशासनिक दृष्टि से शेष भारतीय समाज के साथ जोड़ने की कोशिश की गई। इस प्रक्रिया में न केवल उनका स्वतंत्र व शांतिपूर्ण जीवन भंग हुआ वरन् वे भी कर्ज, बेरोजगारी, गरीबी-शोषण जैसी आधुनिकतावादी प्रवृत्तियों से ग्रस्त हुए। यहीं से उनकी मानवाधिकारों के हनन की प्रक्रिया भी शुरू हुई। यही दशा राजस्थान के आदिवासी वर्ग के साथ भी हुई है। अंग्रेजी शासन में वन प्रबंधन का उद्देश्य व्यावसायिक था। इसलिए अंग्रेजों का दृटिकोण/ध्येय वन क्षेत्रों पर एकाधिकार एवं स्वार्थपरक दोहन था। रेलवे, औद्योगिकरण, बाँध निर्माण के लिए जंगल की भूमि ली गई और आदिवासियों को बिना मुआवजे के बेदखल कर दिया गया, क्योंकि उनके पास अभिलेख रूप में कोई मालिकाना हक नहीं था। विकास के नाम पर निर्वाह के लिए आवश्यक अधिकतम प्राकृतिक स्त्रोतों से वंचित वनवासी का जीवन और अधिक जटिल हो रहा है। निरंतर खराब होती आर्थिक स्थिति के कारण आदिवासियों का जीवन स्तर और अधिक नीचे गिर गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात् संपूर्ण देश के भू-भाग पर स्वामित्व भारत सरकार का माना गया है। आदिवासियों की इस भूमि पर भी स्वामित्व सरकार का ही हो गया है। तात्कालिक व्यवस्था में उसकी परख करने के बजाय गुलामी के दस्तावेजों को उसी अनुरूप स्वीकार कर लिया। स्वतंत्रता पश्चात् आदिवासी वर्ग के उत्थान का दायित्व कंेद्रीय सरकार पर आ गया है। लेकिन विरासत में हजारों वर्षों से शोषित इन समुदायों के जीवन स्तर को कुछ बेहतर कर पाना भी गंभीर चुनौति बन गया। नीति निर्माताओं ने इनके विरासत की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। अभी आजाद हुए देश के समक्ष ढेरों चुनौतियाँ विद्यमान है। इन चुनौतियों से सामना करने बहुसंख्यक समाजों को संतुष्ट करने में ही देश के संसाधनों का उपयोग प्रारंभ हुआ।
आज जो भी संघर्ष चल रहे हैं उसका संबंध प्राकृतिक संसाधनों से ही है। नर्मदा बचाओ, पोलावरम्, चिपको इत्यादि की लड़ाई जंगल, जल, जमीन तथा खनिज से ही है। प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा किए बगैर पूँजीवादी विकास या वैश्वीकरण का रथ आगे नहीं बढ़ सकता। इसके लिए किसानों, आदिवासियों, मछुआरों को बड़े पैमाने पर विस्थापित होना पड़ रहा है। वैश्वीकरण और विस्थापन का चोली-दामन का साथ है। वर्तमान समय में आदिवासियों की स्थिति और ज्यादा भयानक है अब तो आदिवासियों की आवाज़ को सामान्यतः नक्सलवादियों की आवाज़ मान लिया जाता है, जो कोई भी आदिवासी और गरीब किसानों की लड़ाई लड़ता है, वह सरकार की नज़र में माओवादी घोषित हो जाता है और मामला यहीं खत्म नहीं होता है, सरकार उन्हें कुचलने की कोशिश भी करती है इसके फलस्वरूप पूरा छत्तीसगढ़ सरकारी फौजों की छावनी बन चुका है इससे आदिवासी असंतोष फैले नहीं तो क्या हो, जब इसके घर जलाए जा रहे हों, गाँव के गाँव उजाड़े जा रहे हों, निर्दोष और सरल जीवन जीने वाले आदिवासियों की हत्याएँ की जा रही हो और महिलाओं के साथ बलात्कार किए जा रहे हों तो असंतोष फैलना लाजमी है। आॅपरेशन ग्रीन हंट हो या सलवा जुडूम अभियान यह किसी से छिपा नहीं है। सरकारे कहती हैं कि विकास के लिए विस्थापन जरूरी है और साथ ही खनिजों का खनन भी तो आदिवासी क्षेत्रों में ही होता है यहाँ किस विकास की बात की जा रही है ऐसा कौन सा विकास है जो आधी आबादी को ही खत्म कर देगा? आदिवासी अपने निवास से केवल विस्थापित किए गयें हैं वैश्वीकरण के फलस्वरूप उपजी औद्योगिक नीति उनके विनाश का मुख्य कारण है।
आदिवासी अंचलों प्राकृतिक संसाधनों की जो लूटने की लालसा वैश्वीकरण के इस दौर में मची हुई है, उससे आदिवासी समाज के जीवन को नरकीय बना दिया है। आधारभूत सुविधाओं, मानवाधिकारों, लोकतंत्र में भागीदारी आदि की बातें तो बहुत दूर वरन् इस समुदाय का अस्तित्व ही गहरे संकट में डाल दिया है। वैश्वीकरण के इस युग में आदिवासियों का वनों से प्रतिकात्मक संबंधों पर भी प्रभाव पड़ा है। पारंपरिक दृष्टि से वनों पर आदिवासियों का एक प्रचार के नियंत्रण रहा था। सरकार द्वारा इन वनों व प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन अपने हाथो में लेने से तथा प्रशासनिक ज्यादती (कानूनी व गैर कानूनी) के कारण इस वर्ग में तनाव बढ़ा है। आज आदिवासियों की मूलभूत समस्याएँ रोटी, कपड़ा, मकान, बेरोजगारी एवं शिक्षा की है तथा संविधान में इन्हें जो अधिकार दिये गए है वो भी मूलरूप से लागू नहीं हुए है। आज देश में पाँचवी व छठीं अनुसूची की मांग की जा रही है वो आदिवासियों के लिए महत्वपूर्ण है। वर्तमान समय में आदिवासियों के लिए संवैधानिक अधिकार है, वह धरातल पर लागू किए जाने चाहिए ताकि संस्कृति, सभ्यता, परंपरा, जल-जंगल-जमीन का संरक्षण किया जा सकें। स्थानीयता के बिना वैश्विकता का कोई अस्तित्व नहीं है।
आधार ग्रंथ
1. आदिवासी दुनिया, हरिराम मीणा, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली
2. आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन, एम.एन. श्रीनिवास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
3. भारत के आदिवासी विकास की समस्याएँ, पी.आर.नायडू, 1997, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
4. भारत के आदिवासी, प्रकाशचन्द्र मेहता, 1993, शिवा पब्लिर्शस उदयपुर
5. पत्र-पत्रिकाएँः दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर , हंस पत्रिका
6. भूमण्डलीकरण और मीडिया, कुमुद शर्मा, ग्रंथ अकादमी, नई दिल्ली
7. भारत का भूमण्डलीकरण, अभय कुमार दुबे, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
8. उपभोग की लक्ष्मण रेखा, रामचन्द्र गुहा, पेंगुइन बुक्स, नई दिल्ली-2013