समाज का वह वर्ग जो अपने अधिकारों से वंचित रहा हो और शोषण का शिकार होता है, वह आदिवासी वर्ग है। इस वर्ग को समाज में न तो स्वीकार किया जाता है और ना ही इनके अस्तित्व को। आदिवासी वह समाज है जो आज भी अस्तित्व और अस्मिता के लिए संघर्षरत है।’’ आदिवासीजन भारत के मूल निवासी हैं। भारतीय संास्कृतिक परम्परा आज भी अपने आदिम रूप में उनके मध्य सुरक्षित है क्योंकि पाश्चात्य विकृतियों के प्रभाव से वे मुक्त रहे हैं इसके बावजूद आज का सभ्य समाज उन्हें वन्य ही मानता है इसका मूल कारण उनका सहज-सरल जीवन और आधुनिकता से विमुक्त परिवेश तो है ही उनकी अशिक्षा भी है।’‘ हिन्दी उपन्यासों के माध्यम से आज अस्मिताओं की अभिव्यक्ति की जा रही है ये वे अस्मिताएँ हैं जिन्हें सदैव मुख्य धारा के साहित्य में हाशिए पर डाल दिया गया था। आज यही अस्मिताएँ दलित, स्त्री आदिवासी के रूप में अपनी कथा-व्यथा को, संघर्ष को अपनी वेदना को व्यक्त कर रहें हैं।’’ आदिवासी आदिम जाति, जनजाति, वनवासी, अनुसूचित जनजाति आदि किसी भी नाम से हमारे समाज में पहचाने जाने वाला वह वर्ग है, जो प्रायः जंगलों पहाडों और दूर-दराज के इलाकों में आधुनिक सभ्यता के लाभोें से वंचित प्रगति की दौड़ में पिछड़ा, शिक्षा तथा जागरण के वरदान से प्रायः अछूता और शोषण का शिकार हैं।’’
21 वीं सदी की आदिवासी अस्मिताओं में उभरती हुई प्रमुख अस्मिताओं में से एक अस्मिता है । जिसमें आदिवासी समुदाय अपने संकटग्रस्त सामाजिक, आर्थिक, संास्कृतिक जीवन को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है, साहित्य में आदिवासी स्त्री को शब्दबद्ध करने वाली लेखिकाओं में रमणिका गुप्ता, महाश्वेता देवी, शरद सिंह, निर्मला पुतूल, सरिता बड़ाइक, सुषमा असुर, दमयंती सिंकू, वंदना टेटे आदि महिला लेखिकाओं ने आदिवासी साहित्य में महिला जीवन और उनकी संवेदनाओं को भी प्रस्तुत किया। आदिवासी महिला लेखिकाओं ने साहित्य के माध्यम से आदिवासी स्त्री के मन के दरवाजे खोलकर उनकी चितंनशीलता, गुणों, नेतृत्व क्षमता को बाहर निकालने का प्रयास किया। इस प्रकार स्त्री पहली बार घर और चारदीवारी के बीच से बाहर निकली। अनामिका जी स्त्री को चारदीवारी से निकलने की प्रेरणा देती हुए लिखतीं हैं कि स्त्रियों को मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लाँघनी होगी तभी वह समाज में अपना योगदान अदा कर सकती हैं ।
”कई बार मन की सीता ने
लाँघनी चाहीं मर्यादा की,
वह लक्ष्मण रेखा,
जिसके बाहर शुरू होते हैं
घने जंगल वर्जनाओं के’’
इतिहास इस बात का सबूत है कि स्त्रियाँ सदैव समाज मेें अपना योगदान अदा करती रही हैं। ”दलित विमर्श’ और ’स्त्री-विमर्श’ जैसी अवधारणाओं ने कई वर्षाे तक निष्कलुष जनजाति जीवन की समस्याओं और संघर्षों को प्रायः हाशिये पर ही रखा, आज यह समय की दरकार है कि ऐसे साहित्य को चितंन और विमर्श के दायरें में लाया गया है। ’’ आधुनिकता के आने से आज आदिवासी समुदाय अपने अधिकारों के लिए सचेत हुआ है। इस जनजाति की चेतना का कारण, चलने वाली विकास की वह धारा है जिसने लोगों को उनके अधिकारों से रू-ब-रू कराया। आदिवासी विमर्श के नाम पर जो महिला लेखन किया गया वह कुछ खास वर्ग की स्त्रियों का विमर्श है। इसलिए डाॅ॰ विमल सहस्त्रबुद्धे जी ने ”साहित्य को सामाजिक जीवन की विभिन्न बदलती दिशाओं और गतिविधियों का प्रतिबिम्ब कहा है।’’ जिसमें नारी के उन पहलुओं को देखा जो कहीं न कहीं उनकी वर्गगत विशेषताओं को उजागर करता है परन्तु आदिवासी स्त्री आज तक हाशिए पर ही रही है।
भारतीय ऐतिहासिक संदर्भो की बात की जाऐं तो हम देख सकते हैं कि स्त्रियाँ सदैव पिछले पन्नों पर ही रही, उन्हें समाज द्वारा या तो नजरअंदाज किया गया या विस्मृत कर दिया गया। अतीत पर यदि गौर करें तो वहाँ स्त्री जीवन पर लिखी पहली पुस्तक ’थेरीगाथा’ का उल्लेख है। जिसमें गौतम बुद्ध और उनकी समकालीन भिक्षुणियों ने जीवन के अनुभवों को अभिव्यक्त किया इसी उम्मीद और प्रयास के साथ आदिवासी स्त्री की लड़ाई जारी है। ऐगेल्स का मानना है कि ’’स्त्री का शोषण निजि सम्पत्ति जैसी संस्थाओं का परिणाम है उनके मतानुसार हमारे आदिमानव इतिहास में स्त्रियाँ इतनी गुलाम नहीं थी। माक्र्स के सिद्धान्तानुसार शारीरिक संरचना स्त्री को व्यक्तिगत रूप से तो कमजोर बनाती है पर पूरे मानव समाज का विकास बाहर के वातावरण पर निर्भर करता है शारीरिक बनावट पर नहीं।’’स्त्री का अपना इतिहास और कथा है जिसमें हमें आदिवासियों के विद्रोह में स्त्री के योगदान को विस्मृत नहीं करना चाहिए, सिनगी दई ने मुगलों का सामना अकेले किया परन्तुु फिर भी स्त्री के योगदान को सदैव नजरअंदाज किया गया। शरद सिंह ने अपने साहित्य में आदिवासी स्त्री जीवन को व्यक्त किया है। उन्होंने परम्परागत स्त्री विमर्श के दायरे से निकलकर स्त्री की उस संवेदना को व्यक्त किया जिससे होकर हमारा शिक्षित सभ्य समाज गुजरता तो है पर उसे समझना नहीं चाहता।
’पिछले पन्ने की औरतें’ उपन्यास में शरदसिंह ने समाज की आन्तरिक और बाह्य परतों को खोलने का प्रयास किया वे समाज के कुरूप सत्य को बड़े ही बोल्ड ढंग से प्रस्तुत करती हैं उनकी लेखकीय क्षमता की विशेषता है कि वे जीवन और समाज के अनछुऐ विषयों को उठाती हैं। आदिवासी बेड़िया जनजाति पर लिखें इस उपन्यास में उन्होंने स्त्री की सामाजिक स्थिति को व्यक्त किया है। लेखिका ने उपन्यास में इतिहास, पुराण, लोककथा से जबरदस्त पहलुओं को स्त्री के संदर्भ में प्रस्तुत किया। ’’इतिहास के परम्परागत दृष्टिकोण से अलग हटकर देखें तो बुंदेल खंड में स्त्री की गौरवपूर्ण व सशक्त उपस्थिति मुख्यतः तीन स्तरों पर रही है राजकुल की स्त्रियाँ, कला साहित्य को समर्पित स्त्रियाँ, एवं प्रजा वर्ग की सामान्य स्त्रियाँ को जगह मिली है जिन्होंने राजाश्रित और लोकहित में उल्लेखनीय कार्य किया है, इनमें वीरांगनाओं की लंबी श्रृंखला के साथ महारानी गणेश, कुंवरी, मस्तानी बाजीराव, प्रबीण राय और रानी कुंवरि के नाम प्रमुख हैं। सामान्य स्त्रियों के जीवन संघर्ष, आस्था-विश्वास एवं आशा आकांक्षाओं का विवरण लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं एवं काव्य रूपों में मिलता है, जिसमें इतिहास विस्मृत स्त्रियों का इतिवृत भी शामिल है।’’उपन्यास में लेखिका ने समाज की स्थितियों पर प्रकाश डाला है।
भारतीय समाज के आजाद होने के बाद भी स्त्री पराधीन ही रही कभी घर तो, कभी परिवार, तो कभी समाज, पराधीनता की इन बेडियों से उसे कभी निजात नहीं मिली। उपन्यास इतिहास के उस समय को आधार बनाकर लिखा गया जब समस्त चारों और स्त्री मुक्ति का अलख जगाया जा रहा था। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, ज्योतिबा फूले समाज में स्त्री स्वतंत्रता का प्रयास कर कर रहे थे। परन्तु उस समय भी बेड़िया समाज की आदिवासी स्त्री अपने अस्तित्व और शोषण की लड़ाई लड़ रही थीं। दिल्ली में मुगल शासक जहाँ शायरी के हुनर में वाह वाही हासिल कर रहा था वहीं अंग्रेज अपनी सत्ता को स्थापित करने की ओर बढ़ रहे थे। भारतीय सामंत, जमीदार, धनिक वर्ग अपनी अय्याशियों में मग्न था। इसी पृष्ठभूमि को आधार बनाकर शरद सिंह ने आदिवासी स्त्री विडम्बनाओं को उल्लेखित किया वे लिखती हैं ’’जिस समय अंग्रेज अधिकारी ठगों और पिंडारियों को पकड़-पकड़ मृत्यु दंड़ दे रहे थे और राष्ट्रीय स्तर पर नारी उद्धार के स्वर ऊँचे किए जा रहे थे, लेकिन तब भी हर घर में पुत्री जन्म पर शोक मनाया जाता था, ठीक उन्हीं दिनों गोदई की नचनार प्रसव पीड़ा सह रही थी, कैसी विचित्र बात थी कि उसके मन में यही आकांक्षा थी कि उसकी कोख से बेटा नहीं बेटीं जन्म लें।’’
बेड़िया समाज में पुत्री के आने पर खुशी मनाना भले ही उनकी यथार्थता को प्रस्तुत न करें परन्तु समाज का यह गोपनीय रहस्य आखिर खुल ही जाता है। एक बेड़नी अपने भावी भविष्य की कल्पना कर बेटी के लिए दुआ करती है क्योंकि वृद्धावस्था में जब वह न तो नाच सकेगी और न देह व्यापार। ऐसे में उसकी बेटी ही उसका सहारा बनती हैं। बेड़िया समाज के पुरूष कामचोर आलसी होते हैं। इसलिए पुत्र न चाहकर गोदई की नचनारी एक पुत्री की कामना करती है। शरद जी यहाँ पूर्वाग्रहों से मुक्त स्त्री विमर्श को प्रस्तुत करती है । यहाँ लेखिका ने देह व्यापार में तृषित घिनौनी परम्पराओं, बेड़नियों की सामाजिक, आर्थिक दशा को प्रस्तुत किया। उपन्यास में नारी मन की संवेदनाओं को नई दृष्टियों से परखा गया है जहाँ स्त्री यथार्थ से स्त्री की नयी पहचान हुई। बेड़नी की सामाजिक दृष्टि को व्यक्त करते हुए लेखिका लिखती है ’’ जनसाधारण का विश्वास है कि बेड़नी वह स्त्री है, जो अपनी देह के यौन आकर्षण से पुरूषों को बांध लेती है बाड़ की तरह। इसलिए तो वह बेंडनी कहलाती है, मगर यही बेडनी खुद शोषण और उत्पीड़न की किन किन बेड़ियों में जकड़ी है। जनसामान्य की दृष्टि कभी वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाई।’’ बेड़िया समाज मध्य प्रदेश में स्थित पथरिया, लिधोरा, लुहारी, हबला, देवेन्द्रनगर आदि में बसा हुआ है इन परिवारों की आय का स्त्रोत परिवार की स्त्री होती है। बेड़िया समाज की पारिवारिक और आर्थिक सरंचना का ढाँचा उसी पर केन्द्रित है। परिवार की परम्परानुसार स्त्रियाँ राई नृत्य या देह- व्यापार से अपने परिवार का पालन पोषण करती हैं।
भारत में बहुत सी जनजातियाँ हैं जो आज भी पहचान और हक की लड़ाई लड़ रही हैं। शरदसिंह ने अपने उपन्यास के माध्यम से आदिवासी स्त्री के मन के दरवाजें खोलकर उनकी चितंनशीलता, संवेदनशीलता को प्रस्तुत किया। मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ’अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी आँचल में दूध आँखों में पानी’’ ने सदैव स्त्री को पूर्वाग्रहों में जकड़ा है। स्त्री जब तक इन विचारों से बाहर नहीं निकल सकतीं तब तक इस शोषण का शिकार होती रहेगी। हमारे पौराणिक आख्यान इस बात का सबूत हैं कि स्त्रियों को हमेशा शोषित किया जाता है और फिर उन्हें फेंक दिया जाता है। स्त्री की इसी वेदना को शरद सिंह कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त करती हैं।’’ औरत बस पान की तरह है, जिसे जब चाहा मुँह में डालकर चबाया, स्वाद लिया और जब चाहा थूक दिया।’’
इन आदिवासी स्त्रियों की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालें तो हम पाते हैं कि इस समाज में वर्षो से देह व्यापार, चोरी तथा राई नृत्य से जीवन यापन करने की परम्परा चली आ रही है। उसे छोड़कर इन लोगों ने नयी जीवन पद्धति को नहीं अपनाया। एक ओर जहाँ आदिवासी जातियों का विस्थापन हुआ वहीं उन्हें अकस्मात आए बदलाव के कारण घर परिवार से भी अलग होना पड़ा।
भारत में आदिवासी जनसमूहों का विस्थापन व पलायन तो ऐसे सदियों पहले से ही जारी है, परन्तु इधर विकास के नाम पर बरती गयी नीतियों के कारण वे अपनी जम़ीनों, जंगलों, संस्थाओं व गाँवों से बेदखल नहीं हुए बल्कि उनके मूल्य, नैतिक अवधारणाओं, जीवन शैलियों, भाषाओं एवं संस्कृति से भी उनके विस्थापन की प्रक्रिया तेज हो गयी है। यही कारण है कि इस बदलाव ने बेड़िया जातियों को घर से बाहर की ओर पलायन करना पड़ा। अपना अस्तित्व बचाने के लिए इन लोगों को खानाबदोश जिन्दगी जीनी पड़ी। यायावरी घुम्मकड़ जनजाति के रूप में ये अस्तित्व में आई। आदिवासी अपने अस्तित्व की तलाश के लिए निरन्तर संघर्ष कर रहे हैं। इस पर निर्मला पुतूल एक सवाल करती हुई कहती हैं-
”धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुट्ठी भर सवाल लिए में,
दौड़ती रही हूँ, सदियों से निरन्तर
अपनी जमीन, अपना घर अपने होने का अर्थ!! ’’
आदिवासी समाज में ’सिर ढकना’ एक प्रथा के रूप में चलने वाली प्रक्रिया है जो बेडिया स्त्री को रखैल बनने की इज़ाजत देती है क्योंकि परम्परा, आर्थिक दबाव में देह व्यापार तो उसे करना ही है और साथ ही साथ जीवन यापन करने के लिए संरक्षण चाहिए। वह जानती है कि अमीर अपनी सम्पत्ति की रक्षा हर हाल में करता है वह इस प्रस्ताव को हँसते हुए स्वीकार करती है। बेडिया समाज में पुरूष आलसी होते हैं अतः वे उनका सहारा भी नहीं बन पातें। शरद जी बताती हैं-”उनके अपने समुदाय के पुरूष न तो उनका सहारा बन पातें हैं और न उन्हें सुरक्षित जीवन दे पाते हैं तो उन्होंने पूँजिपतियों की सम्पत्ति के रूप में जीना स्वीकार किया, वे जानती थीं कि एक धनवान अपने धन की रक्षा हर हाल में करता है उन्हें यह सौदा मंहगा नहीं लगा।’’ बेड़नियाँ स्वतंत्र रूप से यौन व्यापार करती हैं और अनचाहे गर्भ से उत्पन्न संतान का पालन-पोषण भी करती हैं। बेड़िया समाज में एक स्त्री का राई नृत्य करना अनिवार्य है क्योंकि वही उसके और उसके परिवार की आर्थिक स्थिति का आधार बनती है। समाज में इस वैवाहिक ढाँचे में स्त्री की यौनकर्मिता की तुलना में बेड़नियों के यौन व्यापार में कहीं ज्यादा पेशेगत आजादी नजर आती है। समाज में इस यौनिक सच में बेड़नियों की माँ, बेटी और स्त्री की पीड़ा को यहाँ देखा जा सकता है।
समाज में वेश्यावृत्ति बहुत समय से हो रही है परन्तु वैश्विक धरातल पर भी इसने अंतर्राष्ट्रीय माफिया को जन्म दिया। जिसने स्त्री की सामाजिक, धार्मिक मान्यताओं को समाप्त किया। बेड़िया स्त्री को किशोरावस्था या कहें कि बाल्यावस्था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। भारत में यौवन लड़कियों की माँग काफी बढ़ गई है इसलिए राजस्वला से पूर्व ही ’’10-12 वर्ष आयु में ही यह लड़कियाँ देह व्यापार में धकेल दी जाती हैं।’’ बेड़िया स्त्रियाँ राई नृत्य की आड़ में देश-विदेशों में भेजी जाती हैं। परन्तु आज ये स्त्रियाँ देह व्यापार नहीं करना चाहतीं। आज अलग-अलग स्थानों से लाई गई बेड़िया स्त्रियाँ इस प्रथा को समाप्त करना चाहती हैं वे अपने बच्चों को पढ़ाना चाहतीं हैं कुछ उनमें से चाहकर भी देह व्यापार नहीं छोड़ सकतीं क्योंकि छोड़े जाने पर भी समाज उन्हें स्वीकार नहीं करता। समाज उन्हें मुख्य धारा से सदैव बहिष्कृत करता आया है। समाज की इसी मानसिकता के कारण बेड़िया स्त्री ने अपनी देह को परोसने का काम किया था देखा जाए तो आज बेड़िया स्त्री पुरूष की कुंठित मानसिकता को समाप्त करने का साधन बन गई है। प्रभा खेतान के अनुसार- ’’स्त्री बेजान अंग नहीं है कि पुरूष की मनोग्रन्थियों को सुलझाने के लिए उसका प्रयोग किया जाए।’’
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि बेड़िया स्त्रियों की स्थिति में सुधार करने के लिए हमें सामाजिक दृष्टियों को बदलना होगा ताकि स्वतंत्रता की परिस्थितियों में वह अपने लिए बेहतर विकल्पो की तलाश करें और वह अपने अधिकारों से परिचित होकर अपनी सामाजिक भूमिका को समझ सकें। साथ ही एक बेहतर नागरिक के रूप में देश के विकास में अपना योगदान अदा कर सकें।
संदर्भ ग्रंथ-
1-शरद सिंह ,पिछले पन्ने की औरतें, पृ॰स॰-230
2-ज्ञानेन्द्र रावत, औरत: एक समाजशास्त्रीय अध्ययन, पृ॰स॰-139
3-डाॅ॰ विश्वकर्मा, हिन्दी उपन्यास और आदिवासी चिन्तन, पृ॰स॰-77
4-प्रीति सिंह ,समकालीन हिन्दी उपन्यासों में आदिवासी जीवन संघर्ष, पृ॰स॰-77
5-अनामिका, कविता में औरत, पृ॰स॰-84
6-डाॅ॰ संगीता सक्सेना, हिन्दी उपन्यास की वर्तमान स्थिति और आदिवासी चिैतन, पृ॰स॰-253
7-डाॅ॰ कान्ता एम॰ भाला, आदिवासी नारी विमर्श का सशक्त दस्तावेज, संजीव कृत धार, पृ॰स॰-261
8-डाॅ॰ विश्वकर्मा, समकालीन हिन्दी उपन्यासों में आदिवासी विमर्श, पृ॰स॰-77
9-सं॰ आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ,बुंदेलखंड में स्त्री, पृ॰स॰-71
10-शरद सिंह ,पिछले पन्ने की औरतें, पृ॰स॰-27
11-डाॅ॰ त्रिभुवन सिंह , हिन्दी उपन्यास और यथार्थवाद, पृ॰स॰-191
12-निर्मला पुतूल, नगाडे की तरह बजते शब्द , पृ॰स॰-30