हिंदी कथा-साहित्य में शिवप्रसाद सिंह के कथाकर्म का अर्थ-सन्दर्भ अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। वे प्रेमचन्द की कथा परम्परा का अनुकरण नहीं करते हैं वरन् उसे मोड़ते हैं। इस मोड़ने के पीछे कोई विद्रोह नहीं है बल्कि एक गहन सर्जनात्मक अन्तर्दृष्टि है, जिसे भारतीय इतिहास-संस्कृति की विवेक प्रक्रिया ने कई भीतरी-बाहरी चुनौतियों को झेलकर प्रतिफलित किया है। इस दृष्टि से शिवप्रसाद सिंह की सृजन-चेतना और उसमें निहित इतिहास की यातना-वेदना, नियति का एक ऐसा जीवन्त, अर्थवान और धड़कता हुआ रचना संसार है जिसमें अतीत वर्तमान से संवाद करता है, सांस्कृतिक संवेदना मानवीय अनुभव के युग-सत्य को ध्वनित करती है। इस सांस्कृतिक संवदेना की बनावट और बुनावट में समय का रागदीप्त सच झाँक रहा है। इसलिए शिवप्रसाद सिंह के लिए कथा की ‘विधा’ महज माध्यम है, जिसका लक्ष्य है इतिहास और कहानी की संवेदना के भीतर से समाज, संस्कृति और इतिहास की अन्तःप्रेरणाओं से साक्षात्कार कराना।
‘अलग-अलग वैतरणी’ या ‘गली आगे मुड़ती है’ जेसे उपन्यासों में सृजन-शक्ति आत्म-परीक्षण की भट्ठी में खौलती है। समय-समाज के आन्दोलनों, प्रभावों, प्रवृतियों, दबावों को बौद्धिक सतर्कता सहज-निर्दोष प्रेरणा को दिशा-दीप्त करती है। सृजनात्मक-कल्पना कथा-सृजन के सर्वोत्तम क्षणों में अपने को आलोचनात्मक रूप से निखार लेती है। फलतः कथाकृति या कलाकृति का ‘विजन’ कटघरों में बँअ कर खण्डित नहीं होता बल्कि एक अखण्ड सौन्दर्य-दृष्टि को सामने लाने का सृजनात्मक प्रयत्न बनता दिखाई देता है। हम यह बात अक्सर भूल जाते हैं कि कथा-साहित्य के वे नए आन्दोलन जिनकी अर्थपूर्ण शुरूआत बीसवीं शती के आरम्भ में हुई थी उसकी प्रखर विशेषता इतिहास, मिथक, संस्कृति, परम्परा आदि के प्रति प्रखर आलोचनात्मक विवेक ही थी, इसी विवेक ने हमारी ज्ञानात्मक संवदेना को धार दी और इतिहास को नये सन्दर्भों, विमर्शों, व्याख्याओं, भाष्यों में बाँधने की शक्ति। यहीं से इतिहास और संस्कृति का नया वाचन शुरू हुआ। उपन्यास या कहानी समाज-परीक्षण का यन्त्र हैं तो स्वयं उस यन्त्र को माँजने-चमकाने का साधन भी हैं।
पूरे मध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक-राजनीतिक इतिहास को नये ढंग से निर्मित करने का संकल्प, कथाकार शिवप्रसाद सिंह में जाग गया। चेतना की करवटों ने काशी के इतिहास का माध्यम से संस्कृति को समझने की चेष्टा की। उनकीयही चेतना कभी ‘वैश्वानर’ बनकर धधक उठी और कभी ‘नीलाचाँद’ बन कर इतिहास का यूटोपिया और स्मृति की फ़न्तासी बन गई। शिव प्रसाद सिंह के इन उपन्यासों ने हिंदी कथा-साहित्य की परती भूमि उन्होंने तोड़ने मात्रा के लिए नहीं तोड़ी, बल्कि इस तोड़ने के पीछे अरमान यही रहा कि वे अपने गुरू आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के कथा-साहित्य की परम्परा को विशेषकर ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘अनामदास का पोथा’ की परम्परा को पुनसृजित कर सकें। दृढ़ संकल्प और पावनता जनित सांस्कृतिक-विवेक के कारण शिष्य अपने गुरू से कई कदम आगे बढ़ा। इस कथा यात्रा का यह एक अत्यन्त रोचक और दिलचस्प इतिहास है।
उपन्यास, कहानी या कथा-साहित्य का समाज-सत्य, इतिहास-सत्य या सांस्कृतिक-सत्य मानव की सृजनात्मक कल्पना से जोड़कर ही उजागर किया जा सकता है। कला कल्पना का सत्य कथा-चिन्तन के केन्द्र में ही वास करता है, लेकिन उसे पूरी तरह परिभाषित नहीं किया जा सकता। उपन्यास में निहित समय, समाज, इतिहास संस्कृति के सतय को हम उन तथ्यों के आधार पर मूल्यांकित कर सकते हैं, जिनकी व्याख्या या भाष्य प्रायः भिन्न-भिन्न होता है। उपन्यास, कहानी या कलाकृति का सत्य मानव के जिस ऐन्द्रिक, मानसिक और आत्मिक बोध को आड़ोलित उन्मथित करताहै उसमें विज्ञान के विकास नियम या अर्थशास्त्रा के सिद्धान्त हस्तक्षेप नहीं कर सकते। कारण, मानव में जिस संवेदन-तंत्र से वह बोध प्रस्फुटित होता है समय के साथ वह अधिक सघन, संश्ल्षि्ट और परिष्कृत सकता है। किन्तु यह मानना भ्रामक होगा कि कलाकृतियों का सत्य उन समाजों में रचने-बसने वाली कलाओं से अधिक मूल्यवान होगा जिन्हें हम ऐतिहासिक-राजनीतिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ मानते हैं। उत्तर आध्ुुनिकतावाद उन समाजों, संस्कृतियों,इतिहास के खंडहरों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करता है जिन्हें अब तक नकारा गया है या जिनकी पिछडे़पन के कारण उपेक्षा की गई है; उपेक्षित रहे है। जो समाज के हाशिये पर रह रहे हैं- पर समाज-संवदेना की निर्मित में जिन श्रमजीवियों, शिल्पकारों, कामगारों की केन्द्रीय भूमिका रही है उन पर ध्यान देना होगा। शिवप्रसाद सिंह का ‘शैलूष’ एक ऐसा ही उत्तर-आधुनिक संवेदना का उपन्यास है-संभवतः अपने ढंग का प्रथम उपन्यास। इसमें रचनाकार का समाजवादी चिन्तन भी करूणा बनकर फूट पड़ा है। लेकिन यह सच है कि जिस तरह के समाज का सच शैलूष के कथ्य में निहित है उसे खींचकर आरोपित नहीं किया जा सकता है। शिवप्रसाद सिंह के इस तरह के उपन्यासों में लीक से हटकर नए ढंग से विशेषकर उत्तरआधुनिकतावादी विचार को अभिव्यक्ति मिली है।
आज के तर्क-चिन्तकों, समाजशास्त्रियों को जिन्होंने जीवन के विराट सत्यों को परिभाषाओं में लपेट कर बाँधने की अद्भुत कला हासिल कर ली है-वे रचनाकर्म के सत्य पर चुप कैसे रह सकते हैं। उन्हें पता है कि शिवप्रसाद सिंह या फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ या निर्मल वर्मा जैसे रचनाकार अनखोजे संसार के बीच अपना डेरा डाल देते हैं-ताकि वह रचना के पूरे प्रदेश की अन्तर्यात्रा कर सके उसके इतिहास, भूगोल गणित का प्रामाणिक साक्ष्य बन सके। रचनाकार भाषित में मौन को उजागर करने के लिए कैसे अधीर होता है इस बात का प्रमाण हमें ‘औरत’, ‘दिल्ली दूर है’, या ‘कुहरे में युद्ध’ जैसे उपन्यासों तथा ‘दादी माँ’, ‘कर्मनाशा की हार’ जैसी शिवप्रसाद की कहानियों में मिल जाता है। उनके सारे रचनाकर्म से यह अर्न्ध्वनित होता है कि शिवप्रसाद सिंह नयी कहानी के आन्दोलन के प्रवर्तकों में से रहे हैं और उनका एक अलग किा मुहावरा था। निहायत उनका मौलिक जिस पर प्रेमचन्द, जैनेन्द्र या टालस्टाय के कथा-मुहावरे की कोई छाप नहीं है।
ऐसे बहुत कम कथाकार होते हैं जो इतिहास और संस्कृति विषयक अपने चिन्तन से पाठक को चौंकाते हैं और समय का सच उनके पात्रों, घटनाओं, भाषा के रचावों के भीतर संचारित होता रहता है। जो सच रचना के स्वरूप में और स्वभाव में स्पन्दित होता है। कई बार हम रचना को इसलिए अस्वीकार कर देते हैं कि उनकी विचारधारा सेहम सहमत नहीं और वह हमारी नैतिक मान्यताओं और स्वभाव में स्पन्दित होता है। कई बार हम रचना को इसलिए अस्वीकार कर देते हैं कि उनकी विचारधारा से हम सहमत नहीं और वह हमारी नैतिक मान्यताओं और मध्यवर्गीय संस्कारों को ठेस पहुँचाती हैं। जब आलोचना विचारधारा के इर्द-गिर्द सीमित हो जाती है तो रचना का भीतरी सच ओझल हो जाता है। रचना विचारधारा नहीं है जबकि विचाराधारा रचना की बनावट में महत्वपूर्ण योग देती है। भोगे हुए अनुभव बीत जरूर गए हैं परन्तु मृत नहीं हुए हैं तथा जातीय स्मृति में धड़कते हैं। स्मृति से रहित न घटना होती है न इतिहास, वास्तव में घटनाओं को सिलसिलेवार-श्रृंखला में बाँध्ने की कला ही इतिहास है। इसी प्रकार संस्कृतियों को प्राचीन, मध्ययुगीन, आधुनिक या मृत और जीवित में बाँट तो लेते हैं, किन्तु उनके सम्पूर्ण-समग्र सच को इस प्रकार जानना असम्भव होता है। वे संस्कृतियाँ जो ज़मीन में दबी पड़ी हैं या दस्तावेज़ों में मिलती हैं- उनकी अंतःप्रेरणाओं, आशाओं, आकांक्षाओं, तनावों, संघर्षों को कैसे जाना जा सकता है। वह धार जो उसके निवासियों के भीतर प्रवाहित थी उस धार को यदि पुरातत्व और इतिहास द्वारा देखा जा सकता है तो उपन्यास या महाकाव्य से भी महसूस किया जा सकता है। इसलिए यह बिल्कुल आकस्मिक नहीं था कि कथाकार शिवप्रसाद सिंह काशी के इतिहास के बहाने भारतीय-संस्कृति संवेदना की आन्तरिक लय को पकड़ने रचने का प्रयास करते हैं। चाहे वह ‘नीला चंद’ हो या ‘अधूरा उपन्यास’ ‘अनहद नाद’। ‘कुहरे में युद्ध’ या ‘दिल्ली दूर है’ उपन्यासों में इतिहास और संस्कृति के कितने ही अर्थ परत-दर-परत खुलते हैं।
शिवप्रसाद सिंह के कथा साहित्य में हम जिस इतिहास संघर्ष, अकुलाहट को देखते हैं उसके जो जीवन्त संदर्भ हमें काशी का वृत्त उकेरने वाले ‘नीला चाँद’ में मिलते हैं। वह किसी तत्कालीन इतिहास ग्रंथ में नहीं मिल सकते। इसी प्रकार जो भयावहता ‘कुहरे में युद्ध’ जैसे उपन्यास में उभरीहै उसका लेखा-जोखा हमें किसी इतिहास में नहीं मिल सकता। यहाँ हम इतिहास के महत्व को कम करके नहीं आंक रहे केवल उस मानव चेतना और आत्म साक्षात्कार के बोध की ओर संकेत करना चाहते हैं, जो साहित्यानुभव को इतिहास से अलगाता है। शिवप्रसाद सिंह के कथा-साहितय पर एक ओर समाजवादी दर्शन का प्रभाव दिखाई देता है दूसरे ओर परंपरा और संस्कृति से एनका अद्भुत जुड़ाव है, यही वैचारिक चेतना उनके कथा-साहित्य की आधारभूमि है। उनके सृजन में हम ‘आज’ का दर्शन नहीं करते बल्कि हमारे हज़ारों वर्ष पुराने अनुाव ही उनमें साँस लेते हैं।
सन्दर्भ:
- हिंदी साहित्य और संवेदना का विकासः रामस्वरूप चतुर्वेदी
- परम्परा, इतिहास बोध और संस्कृतिः श्यामाचरण दुबे
- भारतीय परंपरा के मूल स्वरः गोविन्द चन्द्र पाण्डे
डॉ. साधना शर्मा,
श्यामा प्रसाद मुखर्जी कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली