आज से नौ दशक पहले 27 सितम्बर, 1925 की तारीख को विजयादशमी के शुभ अवसर पर नागपुर में बीस-पच्चीस लोगों को इकठ्ठा कर जब छत्तीस वर्षीय सामान्य कद-काठी के डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने संघ की स्थापना की, तब शायद ही किसीको अनुमान रहा होगा कि ये उस संगठन की स्थापना का ऐतिहासिक क्षण है, जो आने वाले समय में न केवल इस देश का बल्कि समग्र विश्व का सबसे बड़ा सांस्कृतिक और स्वयंसेवी संगठन बनकर खड़ा हो जाएगा। कुछ समय पश्चात् डॉक्टर साहब द्वारा अन्य साथियों से चिंतन-मनन के पश्चात् इसका पूर्ण नामकरण किया गया और ये ‘संघ’ से ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ बन गया।
आज संघ में अगर भ्रष्टाचार, विलासिता और धन-लोलुपता जैसी कु-संस्कृति का दूर-दूर तक कहीं कोई प्रभाव दृष्टिगत नहीं होता तो इसका कारण वह संस्कार-बीज है, जो संघ की स्थापना के साथ ही उसमें डॉ हेडगेवार द्वारा रोपित कर दिए गए थे। यहाँ उल्लेखनीय होगा कि संघ ने अपनी स्थापना के बाद अन्य किसी संगठन की तरह अपना कोई संविधान नहीं बनाया। कागज़-पत्र जैसी चीजों की भी कोई चिंता नहीं की। इन सब चीजों का संघ के लिए कोई विशेष महत्व नहीं था; संघ के लिए अगर कुछ महत्वपूर्ण था, तो वह था मनुष्य और मनुष्य पर डाले जाने वाले भारतीयता के द्योतक संस्कार। स्पष्ट है कि स्थापना के समय से ही संघ में धन को कम से कम महत्व देने की संस्कृति मौजूद थी। अब वही संस्कृति विकसित होकर आज संघ की उस कार्य-संस्कृति का रूप ले चुकी है, जिसके तहत संगठन में धन का कोई महत्व नहीं दिखता। अब धन ही नहीं है, तो भ्रष्टाचार और विलासिता जैसी विसंगतियों के होने का प्रश्न ही कहाँ खड़ा होता है।
बीस-पच्चीस लोगों के जुटान से शुरू हुआ यह संगठन आज विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन कैसे बन गया ? संघर्षों, कठिनाइयों, अवरोधों व षड्यंत्रों से गुजरते हुए संघ ने फर्श से अर्श तक की यह यात्रा पूरी की है। दरअसल संघ की स्थापना और उसके प्राथमिक विस्तार से तत्कालीन दौर में कांग्रेस को समस्या रही। चूंकि, कांग्रेस के सर्वेसर्वा नेहरू ऐसे धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे, जिनकी दृष्टि में मुस्लिम हित अधिक महत्वपूर्ण था। ऐसा स्वतंत्रता से पूर्व और उसके पश्चात् लिए गए उनके कई निर्णयों से स्पष्ट होता है। ऐसे में नेहरू की कांग्रेस को हिन्दू हितों की बात करने वाले संगठन से समस्या होना स्वाभाविक ही था। स्वतंत्रता के पश्चात् सर्वाधिक समय तक देश की सत्ता पर आसीन रही कांग्रेस ने नेहरू की ही दृष्टि को अपनाते हुए संघ का विरोध और उसके खात्मे के लिए प्रयास जारी रखा। कांग्रेस और उसके द्वारा संपोषित वाम बुद्धिजीवियों की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता से प्रभावित मीडिया ने संघ के प्रति पूर्वग्रहों को अपना लिया। आज भी कमोबेश मीडिया तथ्यों की बजाय कांग्रेस और उसकी वाम ब्रिगेड द्वारा स्थापित पूर्वाग्रहों के आधार पर संघ का मूल्यांकन करती नज़र आती है।
स्वाधीनता आन्दोलन में संघ का योगदान
मीडिया द्वारा कांग्रेस और वाम विचारकों की इस भ्रामक अवधारणा को आवाज दी गयी है कि स्वतंत्रता संग्राम में संघ का कोई योगदान नहीं रहा। जबकि वास्तविकता यह है कि हिन्दू राष्ट्र यानी भारत की स्वतंत्र कराना और हिन्दू धर्म, हिन्दू समाज एवं हिन्दू संस्कृति का परिरक्षण कर राष्ट्र को परम वैभव तक पहुँचाना ही संघ की स्थापना के उद्देश्य थे। चूंकि तब राष्ट्र पराधीन था, इसलिए संघ के इन उद्देश्यों में प्राथमिकता राष्ट्र की स्वतंत्रता को दी गयी। इसके लिए संगठन ने हर स्तर पर कार्य किया। सन 1930 का सविनय अवज्ञा आन्दोलन हो या 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन इन सबमें संघ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान स्वयं डॉ हेडगेवार ने नौ मास तक कारवास भी काटा। इतना ही नहीं, स्वतंत्रता के पश्चात् गोवा और दमन दीव को स्वतंत्र कराने के लिए भी संघ ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया और आखिर इन्हें स्वतंत्र कराकर ही माना।
महात्मा गांधी की हत्या
स्वतंत्र भारत के इतिहास की पहली सबसे बड़ी और दुखद घटना ३० जनवरी, १९४८ को महात्मा गांधी की हत्या के रूप में घटित हुई। जिस नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या की थी, उसका संघ से सम्बन्ध स्थापित कर दिया गया और इसी आधार पर नेहरू की सरकार ने संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया। हालांकि जब इस हत्या की जांच के लिए गठित कपूर आयोग की रिपोर्ट आई और उसमें संघ को पूरी तरह से पाक साफ बताया गया तो फिर संघ पर से प्रतिबन्ध हटाना पड़ा। संघ को तब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस हत्याकाण्ड से बरी कर दिया गया था, लेकिन मीडिया में आज भी गांधी की हत्या की बात आने पर संघ का नाम लेने की परम्परा बनी हुई है।
ये दो ऐसी बातें हैं, जिन्हें धर्मनिरपेक्ष बिरादरी संघ के विरुद्ध किसी तुरुप के इक्के की तरह इस्तेमाल करती है, जबकि इन दोनों ही मामलों में संघ को घेरना विशुद्ध भ्रामकता पर आधारित है। मगर, समस्या यह है कि मीडिया इन भ्रमों का पर्दाफ़ाश करने की बजाय जब-तब इन्हीं के आधार पर बात करती नज़र आती है। इनके अतिरिक्त साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने, दंगा कराने जैसी बातों से संघ का नाम जोड़ने में भी अक्सर मीडिया को मज़ा आता है। संघ के किसी पदाधिकारी की तरफ से किसी संवेदनशील विषय पर यदि ज़रा सा भी विवादित बयान दे दिया जाए तो मीडिया उसको आधार बनाकर संघ के प्रति अपने पूर्वाग्रहों की पोटली पलट देती है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य इतना है कि संघ के प्रति नकारात्मक चीजों को खोज-खोजकर प्रचारित करना मीडिया का शगल रहा है; जबकि राष्ट्रव्यापी स्तर पर संघ द्वारा अपने अनेक प्रकल्पों के माध्यम से जो लोककल्याण और राष्ट्रहित के कार्य किए जा रहे हैं, उनकी मीडिया चर्चा तक नहीं करता।
गौर करें तो संघ के प्रकल्पों ने प्रत्येक क्षेत्र में देश को सशक्त बनाने और गति देने का कार्य किया है। फिर चाहें वो दीनदयाल शोध संस्थान के माध्यम से देश के गांवों को स्वावलंबी बनाना हो जिसमे संघ के हजारों स्वयंसेवक बिना किसी लोभ-लालसा के कठिन परिश्रम और समर्पण के साथ काम कर रहे हैं या फिर विद्या भारती जैसी शिक्षा क्षेत्र की सबसे बड़ी गैरसरकारी संस्था हो, जिसके तहत देश भर में लगभग १८००० शिक्षण संस्थान बिना किसी सरकारी सहयोग के कार्यरत हैं अथवा वनवासी कल्याण आश्रम जैसी संस्था को ही लीजिये जिसके द्वारा देश के वनवासी लोगों के रहन-सहन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की समुचित व्यवस्था कर उनका सर्वांगीण विकास किया जा रहा है। आंकड़े के अनुसार संघ की यह संस्था फिलहाल देश के लगभग ८ करोड़ वनवासी लोगों के लिए कार्य कर रही है। ऐसे ही, सेवा भारती जैसी संस्था के रूप में संघ, स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय रूप से देश के दूर-दराज के उन क्षेत्रों तक पहुँच के कार्य कर रहा है जहां सरकारी मिशनरी भी ठीक ढंग से नहीं पहुंची है। भारतीय मजदूर संघ और भारतीय किसान मंच के द्वारा मजदूरों और किसानों के लिए भी संघ सदैव संघर्ष करता रहा है। इनके अलावा संघ के और भी तमाम प्रकल्प हैं, जिनके माध्यम से वो देश के कोने-कोने तक में न केवल मौजूद है बल्कि देशवासियों के लिए अथक रूप से कार्य भी कर रहा है। एक अनुमानित आंकड़े के अनुसार, इस वक़्त संघ के देश भर में पचास हजार से अधिक शाखाएं, लगभग तीन दर्जन आनुषांगिक संगठन और करोड़ों की संख्या में स्वयंसेवक हैं जो बिना किसी सामजिक-आर्थिक लालसा के सदैव सेवा भाव से देशभर में कार्यरत रहते हैं। ये यूँ ही तो नहीं हो जाता कि देश में कहीं भी, कोई भी आपदा आए तो वहां संघ के स्वयंसेवक तुरंत मौजूद हो राहत कार्य में जुट जाते हैं। स्पष्ट है कि संघ इस देश के हर हिस्से में, हर स्तर पर सक्रियता से मौजूद है।
इनके अलावा ऐतिहासिक रूप से भी जब सन १९४७ में विभाजन के पश्चात् पाकिस्तानी सेना जब कश्मीर में प्रवेश करने की ओर बढ़ रही थी, तब संघ के स्वयंसेवकों ने उनको रोकते हुए अपने प्राण गंवाए। साथ ही, संघ ने तब पाकिस्तान से जान बचाकर आए लगभग तीन हजार शरणार्थियों के लिए राहत शिविर लगाने का काम भी किया था। १९६२ के चीन युद्ध के दौरान सैनिकों को रसद की आपूर्ति, आवाजाही के मार्गों की चौकसी, जवानों के परिजनों की देख-रेख आदि का काम भी संघ ने किया था। इसका प्रभाव यह हुआ कि सन १९६३ के गणतंत्र दिवस की परेड में संघ से मुंह बिचकाने वाले नेहरू को भी स्वयंसेवकों को आमंत्रित करना पड़ा। सन १९६५ के युद्ध में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी संघ को याद किया और तब संघ के स्वयंसेवक उतर पड़े। घायलों की मदद, यातायात नियंत्रण जैसे विविध दायित्वों का बाखूबी निर्वहन किए। इसके अलावा ‘गोवा मुक्ति आन्दोलन’ संघ के संघर्षों और बलिदानों का अमिट उदाहरण है। मगर, गांधी की हत्या से संघ का नाम जोड़ने वाली मीडिया इन तथ्यों पर प्रायः खामोश ही रहती है।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि मीडिया में संघ के प्रति किस कदर पूर्वाग्रह भरा हुआ है। यह देखा जा सकता है कि संघ के अनेक सत्कार्यों पर बात न करते हुए केवल उससे जुड़े दो-चार विवादों को उसकी पहचान बनाकर कुप्रचारित करने का काम मीडिया द्वारा किस प्रकार किया गया है। हालांकि संघ की विशेषता यह है कि वो कभी सामने वाले के सोचने की परवाह नहीं करता, निर्लिप्त भाव से अपना कर्म करता जाता है। यही कारण है कि स्वतंत्रता के पश्चात् राजनीतिकों, बुद्धिजीवियों और मीडिया के इस तीतरफा कुचक्रों के बावजूद संघ की गति में कोई विराम नहीं लगा – वो तब भी बढ़ता गया और अब भी लगातार बढ़ रहा है।

 

पीयूष द्विवेदी

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