‘रमंति इति रामः’; जो रोम रोम में रम रहा है और समूचे ब्रह्मांड में व्याप्त है; वही राम है। अमरकोश में ‘राम का एक अर्थ मनोज्ञ: भी किया गया है’[1] अर्थात जिसे मन द्वारा जाना जाए।

सरल शब्दों में कहें तो; जो सब में रमण करता है और जिस में सब रमण करते हैं; वही राम है। राम जीवन का सार है। वह सृष्टि का सतत् प्रवाह है; उसकी गतिशीलता है।

कबीर और तुलसी दोनों भक्त कवि हैं| उनकी भक्ति का आधार एक है; वह है राम। राम में ‘रा’ परिपूर्णता और ‘म’ परमेश्वर का बोधक है। उपनिषदों में कहा गया है :–

“एको देव: सर्वभूतेषु गूढ़ सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।

कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलोनिर्गुणश्च”।।

यहां पर निर्गुण उस अद्वितीय देव का विशेषण बनकर आया है, जो सभी प्राणियों में अंतर्निहित है, सर्वव्यापी है, सभी प्राणियों का अधिवास है, नाना कार्यों का अधिष्ठाता है, साक्षी है, सबको चेतना प्रदान करने वाला है तथा विशुद्ध निर्गुण है। (श्वेताश्वतरोपनिषद्, 6/11)[2]

यही निर्गुण ब्रह्म कबीर और तुलसी के यहां राम है।

 कबीर ने निर्गुण, निराकार, अव्यक्त, अर्वाचीन, परमसत्ता को यानी निर्गुण ब्रह्म को राम कहा—

निरगुण राम निरगुण राम जपहुं रे भाई,

अविगत की गति लखि न जाई”[3]

कबीर के राम आकार और गुण- अवगुण से परे हैं। उसकी गति कोई नहीं जान सकता वह अव्यक्त और अगम्य है। यहां कबीर के राम परब्रह्म के उसी स्वरूप का वाचक है जिसे ‘पुराणों में नेति नेति कहा गया अर्थात् ऐसा नहीं, ऐसा नहीं’[4]|

“मानव चित्त स्वभावत: अत्यंत चंचल है। उसे शून्य में केंद्रित करना बड़ा कठिन है। इसी चंचलता के अवरोध तथा उपासना के लिए वह ईश्वर की कल्पना करता है। यही ईश्वर जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का हेतु होता है; इसलिए मानव उससे दया और करुणा की अपेक्षा करते हुए उसे अनेक गुणों से युक्त मानता है। वस्तुतः यही ब्रह्म का सगुण रूप है”।[5]

 कबीर और तुलसी ईश्वर की इसी रूप में कल्पना करते हुए अपनी आस्था को एक आधार देते हैं।

तुलसी के राम भी पुराण वर्णित निर्गुण अनंत, अविनाशी, परब्रह्म है, किंतु वह प्रेम वश होकर सगुण रूप धारण कर सृष्टि के कल्याण हेतु अवतरित होता है—

“निरंजन निर्गुण विगत विनोद,

सो अज प्रेम सुभक्तिवश, कोशल्या की गोद[6]

‘हमारे उपनिषद् और पुराण ब्रह्म के निर्विशेष यानी निर्गुण और सविशेष यानी सगुण ब्रह्म के दोनों भावों का निर्देश करते हैं’[7]

कबीर और तुलसी के राम में अंतर केवल अवतार को लेकर है। कबीर के राम अजन्मा है, उसका आदि अंत नहीं, वह अवतार नहीं लेता जबकि तुलसी के राम भक्त प्रेमवश और धर्म की प्रतिष्ठा करने के लिए मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं—

“जब जब होई धरम की हानी, बाढ़हि असुर अधम अभिमानी,

करहिं अनीति जाइ नहिं बरनि, सीदहिं विप्र धेनु सुर धरनी,

तब तब प्रभु धरी विविध शरीरा, हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा[8]

तुलसी साहित्य में राम वही निर्गुण, सर्वव्यापक परमेश्वर है, जो मनुष्य रूप में राजा दशरथ के पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए हैं।

मनुष्य रूप में जन्म लेने के साथ ही तुलसी के राम के साथ मानवीय संदर्भ अपने आप जुड़ते चले जाते हैं।

तुलसी साहित्य में सृजित राम मनुष्य के आदर्श स्वरूप का प्रतीक है| वह पुत्र, भाई, पति, योद्धा, राजा, पिता हर रूप में श्रेष्ठता का प्रतिपादक है। तुलसीदास विचार के स्तर पर निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा को जानते हुए भी भाव के स्तर पर दशरथ सुत रूप में उन्हें अपना इष्ट स्वीकारते हैं। राम का यही रूप उनके साहित्य और उनकी आस्था का आधार है।

रामचरितमानस सहित तुलसी के संपूर्ण साहित्य में उनके सच्चिदानंद राम ही केंद्र में विराजमान है। रामचरितमानस तो राम-चरित का जीवंत आख्यान ही है।

तुलसी साहित्य में आदर्श रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्-चित्रण विद्वान जन अपने- अपने दृष्टिकोण से कर चुके हैं| यहां हम मनुष्य रूप और मानवीय संदर्भों में ही राम के स्वरूप का आकलन करेंगे।

तुलसी के राम बाल-रूप में अठखेलियां करते हैं। उनकी बाल सुलभ क्रियाओं का लीला पर अर्थ होते हुए भी वहां सामान्य मानवीय आधार लुप्त नहीं है। कौवे द्वारा रोटी का टुकड़ा छीने जाने पर बालक राम का बिलखकर रोना सामान्य बालक की वात्सल्य पूर्ण छवि को उभरता है| तुलसी साहित्य में राम  के बाल रूप का जो वर्णन मिलता है; वह सहज रूप में लोकमानस के हृदय को रसासिक्त करता है।

तुलसी साहित्य में हम कुछ अन्य प्रसंगों के माध्यम से राम के मानव रूप का अनुशीलन करने का प्रयास करेंगे। कवितावली में केवट द्वारा बिना पैर धोए नाव पर न चढ़ाए जाने के प्रसंग में हम देखते हैं कि राम केवट का मंतव्य जानकर उसकी पैर छूने की इच्छा सहर्ष पूरी करते हैं| इसके अतिरिक्त मानस में भी भील, कीरात, निषाद को मित्र रूप में अपनाते हुए बिना किसी छुआछूत के राम उन्हें गले लगाते हैं। यहां तुलसी के राम सभी तरह के अवांछनीय  भेद-भाव, जाति-पाती, ऊंच-नीच आदि का प्रतिकार कर मानव प्रेम का संदेश देते हैं।

अरण्यकांड में सीता के द्वारा सोने के मृग को पाने की इच्छा और पत्नी की उस इच्छा को पूरा करने मे राम का परिश्रम करना; मनुष्य का अपनी पत्नी के प्रति सहज प्रेम को दर्शाता है। सीता का रावण द्वारा हरण और उसके वियोग में राम का विलाप मानवीयता की सहज भाव भूमि से जुड़ा है। सुंदरकांड में हनुमान द्वारा सीता की खोज में जाना और खबर लेकर लौट आने तक राम के मन में आशा-निराशा की लहरें, चिंतित मनःस्थिति उनके मानवीय रूप को ही उजागर करती हैं। राम- रावण युद्ध में लक्ष्मण को शक्ति का आघात लगने और हनुमान का संजीवनी लेने जाने का प्रसंग भी इसी क्रम में देखा जा सकता है।

राम-रावण युद्ध की निर्णायक स्थिति पर अंतिम रात्रि का जो प्रसंग आता है; उसमें भी आशा- निराशा, संकल्प- विकल्प, चिंता के घात- प्रतिघात से जूझते हुए राम ईश्वर के बजाय सामान्य मानव के अधिक निकट है। इसके अलावा भी तुलसी साहित्य में अनेक ऐसे प्रसंग है जहां राम परब्रह्म होते हुए भी मानवीयता के प्रेषक दिखलाई पड़ते हैं।  तुलसी साहित्य में राम द्वारा किये गए जीवन के सारे उपक्रम मानवीय है| तुलसी के राम ईश्वरीय शक्ति और चमत्कार के बजाय मानव की कर्म-निष्ठा और संघर्षशीलता को अधिक  दर्शाते हैं।  तुलसी के राम का लक्ष्य ईश्वरीयता नहीं अपितु मानवता को प्रतिष्ठित करना जान पड़ता है|

कबीर साहित्य में जब हम राम को देखते हैं तो वहां वे इस रूप में हमारे सामने नहीं आते, जिस रूप में तुलसी के यहां है। कबीर के राम स्वयं आकर कोई संदेश नहीं देते। वह बहुधा अव्यक्त और अर्वाचीन है किंतु कबीर अपने आराध्य निर्गुण ब्रह्म पर अपने भावों का आरोपण करते हुए उससे विभिन्न संबंधों को जोड़ते हैं। कबीर का राम उनकी माता है, पिता है, स्वामी, भरतार, प्रीतम, गुरु सब कुछ है| राम के प्रति विभिन्न संबंध सूत्र स्थापित कर कबीर उस निर्गुण-निराकार, सर्व व्यापक ब्रह्म के प्रति प्रेम का आधार प्रत्यक्ष करते हैं।

कबीर कहते हैं:–

“कबीर साईं तो मिलहिंगे, पूछहिंगे कुसलात,

आदि अंति की कहूंगा, उर अंतर की बात[9]

यहां कबीर के राम उनके अंतरंग सच्चे मित्र हैं; जिससे वे अपने मन की सभी बातों को खुलकर कह सकते हैं।

कबीर के राम संपूर्ण ब्रह्मांड के सृजनकर्ता हैं। कबीर उस अमूर्त सत्ता को अपने भावों से जोड़कर उसे सच्चे हितैषी और हितकारी मानते हैं—

“कबीर सिरजनहार बिन, मेरा हितु न कोई”[10]

‘बहुत दिनन थै मैं प्रीतम पाय’ या ‘अब तोहि जांन ना दैहू राम पियारे’

जैसी उक्तियों में कबीर प्रियतम रूप में अपने राम को संबोधित करते हैं| उनसे प्रेम का संबंध सूत्र प्रगाढ़ करते हुए खुद को विहरनी मानकर अपनी व्याकुलता और तपन जाहिर करते हैं—

“राम बिनु तन की ताप ना जाई, जल में अग्नि उठी अधिकाई”[11]

 कबीर साहित्य में राम परम सत्ता का द्योतक है। वह अल्लाह भी है, राम भी । वह अपने राम को ‘गोकुल नाइक विठुला’[12] कह कर पुकारते हैं। कबीर के लिए उनके राम गोविंद, हरी, साईं ,रहीम, अल्लाह, मुक्तिदाता सब कुछ है। अपने राम को कबीर किसी सगुण साकार मूर्ति अथवा किसी अवतार में नहीं खोजते। उनके राम उनकी आत्मा में रमा हुआ सत्य है। इसी से उन्होंने अपने आत्म-राम की साधना बात कही। और उनकी इस साधना का आधार प्रेम भक्ति है –

“जब थै आतम-तत विचारा,

तब निरबैर भया सबहिन थे,  काम क्रोध गहि डारा”[13]

इस विषय में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की उक्ति उल्लेखनीय है—“कबीरदास के राम पुराण प्रतिपादित अवतार नहीं थे, यह निश्चित है। जो संसार में व्याप्त हो रहा है वह राम इनकी अपेक्षा कहीं अधिक अगम अपार है”[14]। द्विवेदी जी की उक्ति में ‘इनकी’ शब्द राम के सगुण रूप के अवतारों के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ है।

एक बात यह भी उल्लेखनीय है की कबीर राम को जन के प्रतिरूप में भी देखते हैं—

“कबीर बन बन मैं फिरा, कारणि अपने राम,

राम सरीखे जन मिले , तीन सारे सब काम[15]

 कबीर के राम उनके समग्र जीवन में सूक्ष्म रूप में व्याप्त है। उनका कर्म- धर्म सभी उनके राम- तत्व से पूरित है। तभी कबीर ने अपने कर्म में ही राम को पाया:–

“मन मेरो रहटा, रसनां पुरइया,

हरि को नाउं लै लै काति बहुरिया”[16]

कबीर का राम उनका आत्म तत्व है। वह संपूर्ण शरीर में और बाहर सब जगह विद्यमान हैएकै राम सभहिन में देख्या’ या ‘आतम राम अवर नहीं दूजा’ जैसी उक्तियां इसका स्पष्ट उदाहरण है। कथनी -करनी की समानता में कबीर अपने राम को देखते हुए कहते हैं:–  “कूड़ी करनी राम न पावे[17]

कबीर का राम उनका आत्मगत सत्य ही है जो उनके जीवन और साहित्य की प्रेरणा है, उसका आधार है। यहां यह ध्यातव्य है कि कबीर ने जो कुछ कहा अपने राम को मूल मान कर खुद कहा जबकि तुलसी साहित्य में राम के चरित्त आख्यान के जरिए राम स्वयं मानवता का संदेश देते हैं। तुलसी के राम ईश्वरीय अवधारणा को प्रस्तुत नहीं करते बल्कि वे मानवीय जिजीविषा के प्रेरक अधिक है।

वहीं कबीर के राम भी उनके जीवन- दर्शन और साहित्य की प्रेरणा है, वे किंतु स्वयं मूर्त चरित्र रूप में उपस्थित नहीं होते जबकि तुलसी साहित्य में राम स्वयं अपने जीवन चरित् से लोकमंगल की भावना का प्रसार करते हैं और मानवीय संवेदना को मुखर करते हैं।

इस तरह दोनों भक्त कवियों का अपने अपने राम को व्याख्यायित करने में दृष्टि भेद यहां प्रत्यक्ष हो जाता है। कबीर के राम की अवधारणा उनके समय और समाज के यथार्थ से जुड़कर उभरती है और तुलसी के राम व्यक्ति और समाज के आदर्श का प्रतिरूप है|

निष्कर्षत: हम पाते हैं कि तुलसी के राम और कबीर के राम में तत्वत: कोई अंतर नहीं है। अंतर सिर्फ अपने अपने इष्ट के स्वरूप के आधार को लेकर भक्ति भाव का है। तुलसी के राम उनके जीवन, साहित्य और भक्ति के मूर्त आश्रय है जबकि कबीर के राम सूक्ष्म अमूर्त रूप में उनकी जीवनी शक्ति बनकर उनके समग्र जीवन में व्याप्त है। इस प्रकार कबीर और तुलसी दोनों के राम के लिए यही उक्ति चरितार्थ होती है :– “सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा”[18]

और अंततः कह सकते हैं कि सगुण-निर्गुण दोनों में व्याप्त और उससे भी परे वह एकमात्र सत् जिसे राम के नाम से अभिहित किया गया है; वह मूल सत्य  ही राम नाम का मर्म है;  जो तुलसी के यहां पुराण समर्थित विष्णु के अवतार और  दशरथ सुत के रूप में उनका आदर्श बनकर आते हैं और कबीर के यहां उनके जीवन के अनुभूत सत्य के रूप में प्रकाशित होते हैं| कबीर के राम अव्यक्त होकर भी जीवन की संजीवनी है|

 

संदर्भ ग्रंथ –

[1] . निर्देशनम प्रो. मदनमोहन झा, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थानम, क.जे. सोमैयासंस्कृत विद्यापीठम, मुंबई

[2] . पृ. 36, निर्गुण काव्य की सांस्कृतिक भूमिका, डॉक्टर रामसजन पांडेय, संजय प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2004

[3] . पृ. 104,  ,  कबीर ग्रंथावली , सम्पादक श्यामसुन्दर दास , काशी नागरीप्रचारणी सभा , इंडियन प्रेस लिमिटेड , प्रयाग

[4] . पृ. 75, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, आचार्य बलदेव उपाध्याय, चौखंबा पब्लिशर्स, वाराणसी, भारत, संस्करण 1999

[5]. पृ. 38 निर्गुण काव्य की सांस्कृतिक भूमिका, डॉक्टर रामसजन पांडेय, संजय प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2004

[6] . पृष्ठ 324, दोहा 198, तुलसीदास कृत रामचरितमानस, श्री विनायकी टीका, हिंदी साहित्य सम्मेलन, भोपाल, मध्य प्रदेश

[7] . पृष्ठ 76 भारतीय दर्शन की रूपरेखा, आचार्य बलदेव उपाध्याय, चौखंबा पब्लिशर्स, वाराणसी, भारत, संस्करण 1999

[8] . पृष्ठ 233 बालकांड, तुलसीदास कृत रामचरितमानस, श्री विनायकी टीका, हिंदी साहित्य सम्मेलन, भोपाल, मध्य प्रदेश

[9]. पृष्ठ 84,  कबीर ग्रंथावली , सम्पादक श्यामसुन्दर दास , काशी नागरीप्रचारणी सभा , इंडियन प्रेस लिमिटेड , प्रयाग

[10] .  पृष्ठ 86, वही

[11]. पृष्ठ 129,  कबीर ग्रंथावली , सम्पादक श्यामसुन्दर दास , काशी नागरीप्रचारणी सभा , इंडियन प्रेस लिमिटेड , प्रयाग

[12] . पृ.  88, वही

[13].  पृष्ठ 150,  कबीर ग्रंथावली , सम्पादक श्यामसुन्दर दास , काशी नागरीप्रचारणी सभा , इंडियन प्रेस लिमिटेड , प्रयाग

[14] . पृष्ठ 120 कबीर, हिंदी ग्रन्थ रत्नाकर ( प्राइवेट ) लिमिटेड , मुंबई संस्करण 1964 ई.

[15]. पृष्ठ 49,  कबीर ग्रंथावली , सम्पादक श्यामसुन्दर दास , काशी नागरीप्रचारणी सभा , इंडियन प्रेस लिमिटेड , प्रयाग

[16] . पद 228 पृष्ठ 165, वही

[17] . पृष्ठ 157, वही

[18] .  1/116, पृष्ठ 128, श्रीरामचरितमानस, गीता प्रेस, गोरखपुर

 

पिंकी कुमारी
शोधार्थी , हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय