आज पर्यावरण की सारी समस्याएं इसी के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती हैं। पर्यावरण के अंतर्गत जीव-जन्तु, वनस्पति, वायु, जल, प्रकाश, ताप, मिट्टी, नदी, पहाड़ आदि सभी अजैविक तथा जैविक घटकों का समावेश है । इसमें वह सब कुछ समाविष्ट है, जो पृथ्वी पर अदृश्य एवं दृश्य रूप में विद्यमान है । पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 में पर्यावरण को पारिभाषित करते हुए कहा गया है – पर्यावरण में एक ओर पानी, वायु तथा भूमि और उनके मध्य अंत:संबंध विद्यमान है, और दूसरी ओर मानवीय प्राणी, अन्य जीवित प्राणी, पौधे, सूक्ष्म जीवाणु एवं सम्पत्ति सम्मिलित हैं । भारत में पर्यावरण के संरक्षण के प्रति जागरुकता 321 और 300 ईसा पूर्व के मध्य से देखी जा सकती है । पर्यावरण संरक्षण के लिए कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में वर्णन किया था।

वैज्ञानिकों के अनुसार वातावरण में मौजूद ग्रीनहाउस गैसें लौटने वाली अतिरिक्त उष्मा को सोख रही है, जिससे धरती की सतह का तापमान बढ रहा है । ऐसी आशंका है कि 21वीं सदी के बीतते-बीतते पृथ्वी के औसत तापमान में 1.1 से 6.4 डिग्री सेंटीग्रेड की बढोतरी हो जाएगी । भारत में बंगाल की खाड़ी के आसपास यह वृध्दि 2 डिग्री तक होगी, जबकि हिमालयी क्षेत्रों में पारा 4 डिग्री तक चढ जाएगा । सूखा, अतिवृष्टि, चक्रवात और समुद्री हलचलों को वैज्ञानिक तापमान वृध्दि का नतीजा बताते हैं  ।

वैज्ञानिकों के अनुसार तापमान वृध्दि के कारण समुद्र स्तर में जो वृध्दि होगी वह दुनिया के तटीय इलाकों में कहर बरपा देगी । एशिया महाद्वीप इसलिए सर्वाधिक प्रभावित होगा कि इस महाद्वीप में तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है। चीन, भारत, बांग्लादेश, वियतनाम, इंडोनेशिया और जापान में सर्वाधिक जन-धन की हानि होगी। तटीय क्षेत्रों सहित विभिन्न क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा कराए गए एक अध्ययन के अनुसार समुद्र-स्तर में एक मीटर वृध्दि से भारत के 5764 वर्ग किलोमीटर तटीय क्षेत्र डूबने की संभावना है,जिससे अनुमानत: 7.1 मिलियन लोग विस्थापित होंगे ।

ग्लोबल वार्मिंग के बढते ख़तरे से निपटने के लिए बैंकॉक में 120 देशों की बैठक हुई । इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट के अनुसार अगर दुनिया की कुल आमदनी का तीन प्रतिशत हिस्सा भी ग्लोबल वार्मिंग से निपटने पर खर्च किया जाए तो 2030 तक तापमान वृध्दि को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जा सकता है।

मीडिया की भूमिका

इस धरती पर  अब तक न जाने कितनी ही सभ्यताएं उदित और नष्ट हुई,इसका ब्यौरा भी अभी तक मनुष्य नहीं ढूंढ पाया है। हम उन सभ्यताओं को ढूंढते-ढूंढते स्वयं भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण प्रबंधन, पर्यावरणीय जागरुकता, पर्यावरण शिक्षा में व्यापक चेतना लाने में मीडिया भी उल्लेखनीय भूमिका निभा सकता है । पर्यावरणीय नीतियों के निर्धारण और नियोजन में जनसामान्य की सहभागिता तभी प्रभावी हो सकती है जब उन्हें पर्यावरणीय मुद्दों की पर्याप्त सूचना एवं जानकारी समय-समय पर दी जाए । मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि वे वैश्विक, क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर सम्पन्न होने वाली पर्यावरणीय घटनाओं, समाचारों और सूचनाओं को जनसामान्य तक इस ढंग से पहुंचाए कि वे तथ्यों का सही विश्लेषण कर अपनी राय बना सकें । मीडिया का लक्ष्य पर्यावरणीय समस्याओं के निराकरण के उद्देश्य से व्यक्ति को समझ, विवेक, व्यावहारिक-ज्ञान, कौशल प्रदान  करना होना चाहिए । व्यक्ति, समाज, देश एवं राष्ट्र में पर्यावरण के प्रति न केवल जागरुकता, चेतना एवं रुचि जागृत करना होना चाहिए बल्कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्रेरित करना भी होना चाहिए ।

प्रिंट मीडिया (मुद्रित माध्यम) पर्यावरणीय जनसंचार का एक सशक्त और व्यापक माध्यम है ।  भारत में 19 प्रमुख भाषाओं सहित 100 से अधिक भाषाओं और बोलियों में समाचारपत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं । यह माध्यम लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप सर्वाधिक जीवन्त माध्यम है। पर्यावरण संरक्षण में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती हैं बशर्ते कि मीडियाकर्मी उद्देश्यपरक दृष्टिकोण अपनाएं । इस माध्यम के द्वारा पर्यावरणीय सूचना प्रसारण, पर्यावरण संरक्षण हेतु अनुकूल वातावरण का निर्माण, पर्यावरणीय समाचारों, कार्यक्रमों, लेखों, फीचरों, साक्षात्कारों का प्रकाशन जनमत निर्माण करने में सहायक सिध्द होती हैं। पोस्टरों और चित्रों के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण, हमारा पर्यावरण, पर्यावरण बचाओ, पर्यावरण के प्रति प्रेम, पेड़ लगाओ, पर्यावरण और प्रदूषण आदि से संबंधित संक्षिप्त किन्तु प्रभावशाली संदेशों को जनसामान्य के मध्य सम्प्रेषित किया जा सकता है ।

रेडियो के माध्यम से शिक्षा, सूचना और मनोरंजन सम्प्रेषित होता है। इस माध्यम से सामान्य जन तक पर्यावरण, पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण, पर्यावरण शिक्षा, वन्य जीव सुरक्षा एवं संरक्षण, पेड़ लगाओ अभियान कार्यक्रमों से संबंधित जानकारी आसानी से भेजी जा सकती हैं । भारत में मुम्बई में रेडियो क्लब द्वारा जून, 1923 में प्रथम बार प्रसारण हुआ था । आकाशवाणी से विविध प्रकार के प्रसारण किए जाते हैं, जिनमें सूचना, शिक्षा, मनोरंजन एवं व्यापारिक विज्ञापन आदि मुख्य है । हरित क्रांति को आगे बढाने में रेडियो प्रसारणों ने महत्वूर्ण भूमिका निभाई थी । पर्यावरण संरक्षण संबंधी राष्ट्रीय नीतियों एवं कार्यक्रमों, प्रदूषण निवारण के उपायों, कृषि और औद्योगिक विकास, सतत विकास और पर्यावरणीय जागरुकता एवं शिक्षा कार्य आदि से संबंधित संदेशों को जन-जन तक पहुंचाने में रेडियो की अपनी सशक्त भूमिका है ।

दूरदर्शन का भारत में 15 सितम्बर, 1959 को शैक्षणिक उद्देश्यों के साथ आरंभ हुआ । दूरदर्शन जनता के बहुत करीब है । पर्यावरणीय समस्याओं को कम करने में इसकी भूमिका काफी हद तक सहायक हो सकती है । कचरे एवं अपशिष्ट का प्रबंधन, प्रदूषण नियंत्रण, सामाजिक वानिकी, वन्य जीवन संरक्षण, कृषि विकास, जल और भूमि के संरक्षण तथा पर्यावरण संरक्षण के कानूनों का दूरदर्शन एवं अन्य टेलीविजन चैनलों के माध्यम से प्रसारण द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जा सकती है ।

ग्लोबल वार्मिंग आज एक चुनौती के रूप में मनुष्य के सम्मुख खड़ी है। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए मीडिया आम जन में जागरुता पैदा करने का प्रयास कर रहा है । मीडिया ने हिन्दुओं के एक पवित्र धाम श्रीबद्रीनाथ जी के मंदिर स्थल का कवरेज टीवी चैनल पर दिखा कर तथा समाचारपत्रों में रिपोर्ट प्रकाशित करके इसी दिशा में एक पहल की है । इसमें दिखाया और बताया गया है कि यदि पर्यावरण के प्रति हम समय रहते नहीं चेते तो हो सकता है कि श्रीबद्रीनाथ धाम अपना अस्तित्व ही खो दे ।

फिल्म जगत की भूमिका   फिल्म उद्योगों का इतिहास 100 वर्ष पुराना है। फिल्में जनसामान्य को शिक्षा, सूचना और मनोरंजन प्रदान करने का एक अच्छा माध्यम है । फिल्म और चलचित्र के माध्यम से पर्यावरण, पर्यावरण प्रदूषण, हमारे पर्यावरण, वन एवं वन्य जीव संरक्षण आदि की जानकारी आसानी से दी जा सकती है । पर्यावरण पर डॉक्यूमेंट्री एवं फीचर फिल्में भी बनाई जाती हैं । पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण, वन्य जीव संरक्षण आदि विषयों से संबंधित अधिक से अधिक फिल्मों के निर्माण की आवश्यकता है ताकि जनसामान्य को सार्थक जानकारी एवं ज्ञान प्रदान किया जा सके ।

भारत में इंटरनेट का जन्म 15 अगस्त, 1995 में हुआ था । तब से लेकर उपयोगकर्ताओं की संख्या में निरंतर वृध्दि हो रही है । पर्यावरण प्रबंधन के क्षेत्र में इंटरनेट का उपयोग विश्वव्यापी तथ्यात्मक जानकारी प्रदान करने की दृष्टि से उपयोगी है । पर्यावरण के विविध पक्षों की जानकारी एवं आंकड़े  इन्टरनेट पर आसानी से प्राप्त किए जा सकते हैं ।  पर्यावरणीय अनुसंधान, नियोजन और प्रबंधन में इससे प्राप्त जानकारी अत्यंत उपयोगी सिध्द होगी।

सूचना प्रौद्योगिकी का एक नया क्षेत्र मल्टीमीडिया है । इसमें लेखन सामग्री, ध्वनि, वीडियो, द्विआयामी या त्रिआयामी ग्राफिक्स और एनीमेशन शामिल हैं । इसका उद्देश्य लोगों को एक नियंत्रित ढंग से जानकारी, शिक्षा और मनोरंजन प्रदान करना है । इसके माध्यम से जैव विविधता एवं वन्य जीवन पर  जानकारी मनोरंजक के साथ साथ शिक्षाप्रद भी बन जाती है । इसके माध्यम से यह लाभ होता है कि यदि वास्तविक दृश्यों पर फिल्म बनाई जाए तो लागत कई गुना आती है, जबकि मल्टीमीडिया से यह कार्य सस्ते में एवं सरलता से सम्पन्न हो जाता है ।

परम्परागत माध्यम या लोक माध्यमों की जड़ें ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों में गहरी पैठी हैं । इनके माध्यम से न केवल ग्रामीण जन जीवन की सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति होती है बल्कि ये माध्यम पर्यावरण संरक्षण और पर्यावरणीय चेतना के प्रसार में भी सहायक हो सकते हैं। लोकगीत, लोक संगीत, लोक नृत्य, नौटंकी, कठपुतली आदि लोक माध्यम के साधन हैं । ये माध्यम श्रोताओं से सीधा सम्पर्क बनाते हैं अत: इनके माध्यम से पर्यावरणीय सूचना और संदेश प्रभावी ढंग से सम्प्रेषित हो जाते हैं। इनका उपयोग नगरों की अपेक्षा गांवों में आसानी से किया जा सकता है क्यों कि ये उनकी परम्परागत माध्यम लोक संस्कृति की अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम होते हैं ।

पर्यावरण संरक्षण के प्रति समय-समय पर किए गए प्रयासों के फलस्वरूप पिछले वर्षों में भारत में कई पर्यावरणीय आंदोलनों का जन्म हुआ । मीडिया ने इन आंदोलनों को व्यापक स्थान दिया और इनके उद्देश्यों से जनता को अवगत कराया । ये आंदोलन हैं – चिपको आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, टेहरी बांध विरोधी आंदोलन, मूक घाटी, एप्पिको आंदोलन, भोपाल गैस त्रासदी, विष्णु प्रयाग बांध, चिलिका आंदोलन एवं पानी बचाओ आंदोलन और दिल्ली का वायु प्रदूषण नियंत्रण आदि ।

मीडिया को यह बात ध्यान में रखनी होगी कि वे अपनी बात समाज के किस वर्ग को किस माध्यम के जरिए  पहुंचा रहे हैं । उन्हें जहां पर्यावरण संरक्षण के लिए बनाए गए नियमों की अवहेलना करने वाली घटनाओं को सामने लाना होगा, वहीं जो संस्थाएं पर्यावरण संरक्षण के लिए अच्छा काम कर रही हैं उनके कार्यों को भी उजागर करना होगा । यह निर्विवाद सत्य है कि  कानून, उपदेश और दबाव की तुलना में मीडिया पर्यावरण संबंधी जनचेतना जगाने की दृष्टि से काफी कारगर सिध्द हो सकता है ।

वैश्वीकरण का सबसे प्रभावी औजार है सूचना | यह सूचना इंटरनेट के माध्यम से पूरे भूमंडल के फासले को चंद लम्हों में नापने का माद्दा रखती है | लेकिन चूँकि सत्ता की भाषा अंग्रेजी है, इंटरनेट की भाषा भी अंग्रेजी ही है | बहरहाल, हिंदी देर ही सही अंग्रेजी के गढ़ में सेंध लगाने में कामयाब हो रही है | इसका सबूत है विभिन्न वेब साइटों पर मौजूद हिंदी के अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ | इससे हिंदी का प्रसार और पहुँच देश-विदेश में तेजी से हो रहा है | साथ ही हाल के वर्षों में जिस तेजी से हिंदी के ब्लॉग इंटरनेट पर फैलें है, एक उम्मीद बंधती है कि ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’ फिर से जीवित होगा | क्योंकि यहाँ हर लेखक को अपनी भाषा में कहने-लिखने की छूट है |

इसका अंदाजा विभिन्न ब्लॉगों की भाषा पर एक नजर डालने पर लग जाता है | पर किसी भी तकनीक की उपयोगिता उसके इस्तेमाल करने वालों पर निर्भर करती है | सवाल है कि जिस समाज में सूचना तकनीक का इस्तेमाल एक छोटे तबके तक सीमित हो, जिस भाषा में की-बोर्ड तक उपलब्ध नहीं वह भाषा-समाज किस तरह इंटरनेट का इस्तेमाल कर आगे बढ़ेगा ?

इन दिनों ब्लॉगिंग चर्चित विषय है। चिट्ठा जगत से हर रोज तकरीबन दस-पन्द्रह नए चिट्ठों के पंजीकरण की जानकारी दी जाती है। वास्तविक नए ब्लॉगों की संख्या इस से कहीं ज्यादा होगी।चिट्ठा जगत में पंजीकृत चिट्ठों की संख्या पन्द्रह हजार के पास पहुँच रही है। हर रोज चार सौ से पाँच सौ के बीच ब्लॉग पोस्ट आती हैं। यानी इनमें से पाँच प्रतिशत भी नियमित रूप से नहीं लिखते।एक तरह की सनसनी है।एकन ई चीज़ सामने आ रही है। एक लोक प्रिय एग्रेगेटर ब्लॉग वाणी के अचानक बंद हो जाने से ब्लॉगरों में निराशा है। इस बीच दो-एक नए एग्रे गेटर तैयार हो रहे हैं। यह सब कारोबार से भी जुड़ा है।कोई सिर्फ जन सेवा के लिए एग्रेगेटर नहीं बना सकता। उसका कारोबारी मॉडल अभी कच्चा है।जिस दिन अच्छा हो जाएगा, बड़े इनवेस्टर इस मैदान में उतर आएंगे। ब्लॉग लेखक भी चाहते हैं कि उनके स्ट्राइक्स बढ़ें। इसके लिए वे अपने कंटेंट में नयापन लाने की कोशिश करते हैं। इसके लिए कुछ ने सनसनी का सहारा भी लिया है। अपने समूह बना लिए हैं। एक-दूसरे का ब्लॉग पढ़ते हैं।टिप्पणियाँ करते हैं। वे अपनी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाना चाहते हैं। साथ ही इसे व्यावसायिक रूप से सफल भी बनाना चाहते हैं। मिले तो विज्ञापन भी लेना चाहेंगे। ध्यान से पढ़ें तो मीडिया बिजनेस की तमाम प्रवृत्तियाँ आपको यहाँ मिलेंगी।

जब हम मीडिया के विकास, क्षेत्र विस्तार और गुणात्मक सुधार की बात करते हैं, तब सामान्यतः उसके आर्थिक आधार के बारे में विचार नहीं करते। करते भी हैं तो ज्यादा गहराई तक नहीं जाते।इस वजह से हमारे एक तरफा होने की संभावना ज्यादा होती है। कहने का मतलब यह कि जब हम मूल्यबद्ध होते हैं, तब व्यावहारिक बातों को ध्यान में नहीं रखते।इसके विपरीत जब व्यावहारिक होते हैं तब मूल्यों को भूल जाते हैं। जब पत्रकारिता की बात करते हैं,  तब यह नहीं देखते कि इतने लोगों को रोजी-रोज़गार देना और साथ ही इतने बड़े जन-समूह के पास सूचना पहुँचाना मुफ्त में तो नहीं हो सकता।शिकायती लहज़े में अक्सर कुछ लोग सवाल करते  हैं कि मीडिया की आलोचना के पीछे आपकी कोई व्यक्तिगत पीड़ा तो नहीं?  ऐसे सवालों के जवाब नहीं दिए जा सकते। दिए भी जाएं तो ज़रूरी नहीं कि पूछने वाला संतुष्ट हो। बेहतर  है कि हम चीज़ों को बड़े फलक पर देखें। व्यक्तिगत सवालों के जवाब समय देता है।

पत्रकार होने के नाते हमारे पास अपने काम का अनुभव और उसकी मर्यादाओं से जुड़ी धारणाएं हैं।इसका अर्थ यह नहीं कि हम कारोबारी मामलों को महत्व हीन मानें और उनकी उपेक्षा करें।मेरा अनुभव है कि मीडिया-बिजनेस में तीन-चार तरह की प्रवृत्तियाँ हैं, जो व्यक्तियों के मार्फत नज़र आती हैं।एक है कि हमें केवल पत्रकारीय कर्म और मर्यादा के बारे में सोचना चाहिए। कारोबार हमारी समझ के बाहर है। पत्रकारीय कर्म के भी अंतर्विरोध हैं। एक कहता है कि हम जिस देश-काल को रिपोर्ट करते हैं, उससे निरपेक्ष रहें। जिस राजनीति पर लिखते हैं, उसमें शामिल नहों।दूसरा कहता है कि राजनीति एक मूल्य है। मैं उस मूल्य से जुड़ा हूँ। मेरे मन में कोई संशय नहीं। मैं एक्टिविस्ट हूँ,  वहीर हूँगा।

तीसरा पत्रकारीय मूल्य से हटकर कारोबारी मूल्य की ओर झुकता है।वह कारोबार की ज़रूरत को भी आंशिक रूप से समझना चाहता है। चौथा कारोबारी एक्टिविस्ट है यानी वह पत्रकार होते हुए भी खुले आम बिजनेस के साथ रहना चाहता है। वह मार्केटिंग हैड से बड़ा एक्सपर्ट खुद को साबित करना चाहता है। पाँचवाँ बिजनेसमैन है, जो कारोबार जानता है, पर पत्रकारीय मर्यादाओं को तोड़ना नहीं चाहता।वह इस कारोबार की  साख बनाए रखना चाहता है। छठे को मूल्य-मर्यादा नहीं धंधा चाहिए।पैसा लगाने वाले ने पैसा लगाया है। उसे मुनाफे के साथ पैसे की वापसी चाहिए। आप इस वर्गीकरण को अपने ढंग से बढ़ा-घटा सकते हैं। इस स्पेक्ट्रम के और रंग भी हो सकते हैं।एक संतुलित धारणा बनाने के लिए हमें इस कारोबार के सभी पहलुओं का विवेचन करना चाहिए।

भारत में अभी प्रिंट मीडिया का अच्छा भविष्य है।कम से कम दस साल तक बेहतरीन विस्तार देखने को मिलेगा। इसके साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विस्तार हो रहा है। वह भी चलेगा।उसके समानांतर इंटरनेट का मीडिया आ रहा है, जो निश्चित रूप से सबसे आगे जाएगा।पर उसका कारोबारी मॉडल अभी शक्ल नहीं ले पाया है। मोबाइल तकनीक कावि का सइसे आगे बढ़ाएगा।तमाम चर्चा-परिचर्चाओं के बावज़ूद इंटरनेट मीडिया-कारोबार शैशवावस्था में, बल्कि संकट में है।

दुनिया के ज्यातर बड़े अखबार इंटरनेट पर आ गए हैं। वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्डियन, टेलीग्राफ, इंडिपेंडेंट, डॉन, टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दू से लेकर जागरण, भास्कर, हिन्दुस्तान और अमर उजाला तक। ज्यादातर के ई-पेपर हैं और न्यूज वैबसाइट भी। पर  इनका बिजनेस अब भी प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मुकाबले हल्का है। विज्ञापन की दरें कम हैं।इनमे काम करने वालों की संख्या कम होने के बावजूद उनका वेतन कम है। धीरे-धीरे ई-न्यूज़ पेपरों की फीसतय होने लगी है।रूप र्टमर्डोकनेपेड कंटेंट की पहल की है। अभी तक ज्यादातर कंटेंट मुफ्त में मिलता है। रिसर्च जरनल, वीडियोगेम्स जैसी कुछ चीजें ही फीस लेकर बिक पातीं हैं।संगीत तक मुफ्त में डाउनलोड होता है।बल्कि हैकरों के मार्फत इंटरनेट आपकी सम्पत्ति लूटने के काम में ही लगा है।मुफ्त में कोई चीज़ नहीं दी जा सकती। मुफ्त में देने वाले का कोई स्वार्थ होगा। ऐसे में गुणवत्ता और वस्तुनिष्ठा नहीं मिलती।डिजिटल इकॉनमी को शक्ल देने की कोशिशें हो रहीं हैं।

कभी  मौका मिले तो हफिंगटन पोस्ट को पढ़ें।इंटरनेट न्यूज़ पेपर के रूप में यह अभी तक का सबसे सफल प्रयोग है। पिछले महीने इस साइट पर करी बढाई करोड़ यूनीक विज़िटर आए।ज्यादातर बड़े अखबारों की साइट से ज्यादा। पर रिवेन्यूथा तीन करोड़ डॉलर। साधारण अखबार से भी काफी कम।हफिंगटन पोस्ट इस वक्त इंटरनेट की ताकत का प्रतीक है। करीब छह हजार ब्लॉगर इसकी मदद करते हैं। इसके साथ जुड़े पाठक बेहद सक्रिय हैं। हर महीने इसे करीब दस लाख कमेंट मिलते हैं।चौबीस घंटे अपडेट होने वाला यह अखबार दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अखबारों की कोटि की सामग्री देता है।

इंटरनेट के मीडिया ने अपनी ताकत और साख को स्थापित कर दिया है। पर यह साख बनी रहे और गुणवत्ता में सुधार हो इसके लिए इसका कारोबारी मॉडल बनाना होगा।नेट पर पेमेंट लेने की व्यवस्था करने वाली एजेंसी पे पॉल को छोटे पेमेंट यानी माइक्रो पेमेंट्स के बारे में सोचना पड़ रहा है। जिस तरह भारत में मोबाइल फोन के दस रुपए के रिचार्ज की व्यवस्था करनी पड़ी उसी तरह इंटरनेट से दो रुपए और दस रुपए के पेमेंट का सिस्टम बनाना होगा। चूंकि नेट अब मोबाइल के मार्फत आपके पास आने वाला है, इसलिए बहुत जल्द आपको चीजें बदली हुई मिलेंगी। और उसके बाद कंटेंट के कुछ नए सवाल सामने आएंगे। जिओ के आने के बाद तो पूरा माज़रा ही बदल गया है |

 हिंदी विज्ञापनों में अंग्रेजी के वर्चस्व के चलते आज भाषा का महत्व गौण हो गया है, हम कैसे लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने में सफल हों चाहे इसके लिए आधा तीतर आधा बटेर की तहर अंग्रेजी हिंदी मिक्सचर का ही घोल क्यों न जनता को पिलाना पड़े। जनता भी अब इन सब चीजों की इतनी अभ्यस्त हो चुकी है कि डी०डी०वन से लेकर स्टार वन, स्टार प्लस और आई.बी.एन. सेवन तक सारे विज्ञापनों को आत्मसात कर लेती है फिर भी भाषा का प्रश्न तो बना ही रहता है कि हम जनभाषा, मानक-भाषा या मिश्रित भाषा में से किसे ग्रहण करें।

जनभाषा या बोली का माध्यम महत्वपूर्ण है। हमारे ‘कृषि संसार’ या रेडियो पर ‘देहाती दुनिया’ आदि कार्यक्रम यथा-संभव बोली का आश्रय लेते हैं। kपरंतु उन कार्यक्रमों का प्रायोजन करने वाले हमारे बड़े शहरों के आकाशवाणी स्टूडियों में या मंडी हाउस के बाबुओं में बहुत कम उस स्त्रोत से परिचित होते हैं। कार्यक्रमों के बीच मे सुन्दर में स्वस्थ बालों का शैम्पू, महिला साक्षरता का प्रचार, शादी की सही उम्र, परिवार नियोजन तथा एड्स से बचाव का प्रचार, सभी कुछ फिल्मी मसाले की तरह भर दिया जाता है।

इनके द्वारा भाषा-बोध और भावबोध की अपेक्षा चमत्कार बोध अधिक होता है। आस्ट्रेलिया में देहाती कार्यक्रम स्टूडियो में नहीं, खेतों खलिहानों में उसी स्थान पर जाकर किये जाते हैं। उनकी प्राथमिकता और आधिकारिता उसी यात्रा में अधिक होती है; परन्तु भारत में ऐसे याथार्थ कार्यक्रम सत्तारूढ़ों और प्रशंसकों को असुविधाजनक और आपत्तिजनक लगते हैं। ऐसे में प्रसारित होने वाले विज्ञापन और उनकी भाषा भी चाहे वह टूथपेस्ट का विज्ञापन हो या सफेदी की झंकार वाला अथव अन्य कोई विज्ञापन हो श्रोता को केवल प्रभाव-शून्य, शब्द चमत्कार तक ही आकृष्ट कर पाते हैं। सुनने वाला जानता है कि वह केवल व्यावसायिक विज्ञापन है, इसका कोई स्थायी महत्व नहीं है। पोलियो-ड्राप जैसी कुछ जीवनोपयोगी वस्तुओं को छोड़कर बाज़ारवादी-संस्कृति का ही अंग बन कर रह गई है, विज्ञापन की भाषा। लोकभाषा का लिखित मानक भाषा के साथ मिलाप और उसका तालमेल बहुत जरूरी है।

विज्ञापन, जनमत और विश्वास, ये तीनों तत्व एक दूसरे के पूरक हैं। भाषा एक माध्यम है –अभिव्यक्ति का। हिंन्दी भाषी साक्षर-समाज की संख्या की तुलना में अनेक पत्र-पत्रिकाओं की खपत बहुत नगण्य है। यह विचारणीय प्रश्न है। एक बात यह भी है कि रेडियो और दूरदर्शन ने समाचार प्रसारण की गति तीव्रतम कर दी है। अत: दैनिक मासिक, सामूहिक पत्र-पत्रिकाओं के पाठक कम होते जा रहे हैं। अब आंचलिक और सस्ते अखबार अधिक चल रहे हैं। हिन्दी के पाठक अब ग्रामाचंल में बढ़ रहे हैं।

लोग सिर्फ सनसनीखेज खबरें नहीं चाहते बल्कि अपने ज्ञान-विज्ञान, जिज्ञासा तथा आवश्यकता की ओर से अधिक उन्मुख होते हैं। नए-नए विषयों और विज्ञापनों देने वाले पत्र लोगों को अधिक आकर्षित करते हैं। विज्ञापनों में विवाह-विज्ञापन बड़े पैमाने पर पढ़े जाते हैं या फिर रोजगार विज्ञापन। देखा यह गया है कि सरकारी-प्रचार के विज्ञापनों पर से साधारण पाठकों की भी आस्था और विश्वास कम होता जा रहा है। सत्तारूढ़ एक पार्टी विज्ञापन और आत्म समर्थनार्थ समाचारों में पाठक की आस्था कम होती जाती है। भाषा के स्तर पर अधिकांश विज्ञापनों की भाषा अंग्रेजी से अनुवाद मात्र की यांत्रिक और प्राणहीन भाषा है। उसमें पिष्टपेषण और चर्चित-चर्वण अधिक है।

विज्ञापन की दृष्टि से फिल्म एक अच्छी भूमिका निभा सकती है। किंतु हिन्दी साहित्यकार फिल्म जगत द्वारा उपेक्षित है। हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र में कहीं फिल्म निर्माण स्टूडियो नहीं है। फिल्मी विज्ञापन में, बाजार में चलते सिक्के की तरह भाषा का व्यवसायीकरण ही होता है और कुछ नहीं। रंग-मंच के माध्यम से हम प्रचार-प्रसार और विज्ञापन की बात करते हैं, किंतु रंगमंच के लिए सर्वमान्य भाषा की तलाश में अच्छे नाट्य-निर्देशक अलग-अलग बातें करते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि भाषा अभी बनी नहीं है और कुछ लोग भाषा को गौण मानते हैं।

 

अर्चना पाठक
राजनीतिविज्ञान विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

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