आज के इस सूचना प्रधान युग में अनुवाद अस्मिता के उत्कर्ष छू रहा है। यही कारण है कि विद्वान वर्तमान युग को अनुवाद युग की संज्ञा देते हैं। सूचना प्रौद्योगिक के इस युग में अनुवाद विविधता को एकता में बदलने का प्रयास कर रहा है। जिसमें भाषा की भूमिका इसके पूरक की भांति है। अनुवाद एक भाषिक प्रक्रिया है, जिसका केन्द्र बिंदु भाषा है। इसमें स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा दोनों की भूमिका अनिवार्य होती है। स्रोत भाषा के संदेश को लक्ष्य भाषा में रूपांतरित करते हुए उसके अर्थ, भाव और कथ्य को प्रकट करना इसका उद्देश्य होता है। इसमें दोनों भाषाओं की अलग-अलग प्रकृति एवं संरचना निहित है। हर भाषा में ध्वनि, शब्द, पद, पदबंध, वाक्य और प्रोक्ति इकाइयाँ हैं, जो एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं। एक को समझे बिना दूसरे को समझना कठिन है। अनुवादक के लिए भाषा की इन इकाइयों का ज्ञान और उससे संबंधित भिन्नताओं को समझना आवश्यक है। क्योंकि अनुवाद और भाषा-विज्ञान दोनों में एक समान तत्त्व होते हैं। भाषा-विज्ञान भाषा की विभिन्न इकाइयों ध्वनि, शब्द, पदबंध, वाक्य, प्रोक्ति आदि का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए अपनी प्रक्रिया को पूर्ण करता है।
वर्तमान भाषा पर वैश्वीकरण, उदारीकरण, बाजारवाद एवं लघु कुटीर उद्योग विकास का प्रभाव हुआ है। यही कारण है कि वाणिज्य से लेकर व्यवसाय की प्रयोजनमूलक-जनव्यवहार की भाषा तक का संवर्धन हुआ है। भाषा संवर्धन की इस प्रक्रिया में बैंक, बीमा, शिक्षा, सूचना प्रौद्योगिकी, व्यवसाय, उद्योग, परिवहन, सहकारिता एवं व्यावसायिक विज्ञापन आदि का उल्लेखनीय योगदान है।
आज भाषा का जो स्वरूप विकसित हुआ। वह या तो मिश्रित है या फिर विशुद्ध। प्रायः हर क्षेत्र की भाषा भिन्न होने के कारण उसमें समाज, धर्म, समूह, संप्रदाय आदि के आंचालिक शब्द, गाली-गलौज ताने और चुभते व्यंग्य आदि आते-जाते हैं। फलतः कभी-कभी हमें भाषा का लच्छेदार रूप भी दिखाई देता है। फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ के उपन्यास ‘मैला आंचल’ में मिथिला आंचल (पूर्णिया जनपद) की भाषा मैथिली, राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ में भोजपुरी भाषा का प्रयोग और कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ की भाषा में आंचलिक शब्दों के साथ-साथ गली-गलौज, व्यंग्य एवं ताने का होना इसका जीवंत उदाहरण हैं। इनके अनुवादों में इनकी समतुल्यता के लिए पर्यायवाची अभिव्यक्ति प्राप्त करना सहज नहीं। इनमें निहित तीखेपन, बेबाकीपन और उज्जड़पन को प्राप्त करने के लिए श्रेष्ठ पर्याय अनुवाद के दौरान ग्रहण करना नितांत आवश्यक है। इसने अभाव में अनुवाद मात्र खानापूर्ति बनकर रह जाएगा; जो न तो भाषा-विकास के लिए अच्छा है, और न ही मूल-रचना के लिए। कारण, ऐसी भाषा-शैली भाषा विकास लिए अनिवार्य है।
यदि भाषा को अनुवाद के संदर्भ में देखा जाए तो अनुवाद एक भाषा की बात को दूसरी भाषा में व्यक्त करने का नाम है। जिसकी उत्पत्ति अनु+वाद के संयोग से हुई है। जिसका अर्थ है— बाद में कहना अर्थात् पहले कही हुई बात को पुनः नए सिरे कहना ही अनुवाद है।
जे. सी. केटफोर्ट के अनुसार— “अनुवाद स्रोत भाषा की पाठ-सामग्री को लक्ष्य भाषा के समानार्थी पाठ में प्रतिस्थापित करने की प्रक्रिया है।”
प्रायः हर अनुवाद किसी न किसी समाज का होता है और उसे किसी न किसी समाज के लिए अनूदित एवं संशोधित किया जाता है। समाज वह सामाजिक इकाई है। जिसमें मानव रूपी सामाजिक प्राणी निवास करता है। यही कारण है कि उसकी हर सामाजिक गतिविधि वहाँ के साहित्य को प्रभावित करती है। चाहे वह मौलिक साहित्य हो या फिर अनूदित।
वर्तमान समय में अनुवाद का महत्त्व और उपयोगिता निरंतर बढ़ रही है। क्योंकि यह एक देश के विचारों, भावों, मूल्यों, संस्कृतियों, सभ्यताओं और वहाँ के ज्ञान को अन्य देशों तक पहुँचाने का कार्य कर रहा है। इसके साथ ही यह द्रुतगति से विचारों, तकनीकों, समाचारों एवं अनुबंधों के परस्पर विनियम को भी गति प्रदान कर रहा है। ऐसी स्थिति में अनुवाद की आवश्यकता और महत्ता दोनों असंदिग्ध हो जाती हैं।
प्रायः हर समाज की अपनी निजी सांस्कृतिक विरासत और जीवन-दृष्टि होती है। जिससे सांस्कृतिक-ऐतिहासिक, सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक-धार्मिक एवं नैतिक विकास के लिए कुछ विशिष्ट प्रकार से वह अपने मूल्यों का प्रयोग करते हैं, जो उनकी संस्कृति के परिचायक बनते हैं। इन विशिष्टताओं में समाज की अंतर्मानसिकता निहित होती है। अनुवाद ने विभिन्न देशों के बीच विभिन्न प्रकार के विचारों, सकंल्पनाओं, प्रत्ययों और कृत्यों से जो मानव जाति का बौद्धिक एवं कार्यात्मक-ज्ञानात्मक विकास किया है। वह अंतर्राष्ट्रीय समाजों के बीज भाषिक विचार-विनियम व्यापार का सहज माध्यम सिद्ध हुआ है।
मानव समाज के पास समय, साधन और आयु की एक सीमा होती है। जिसके कारण हर व्यक्ति संसार की हर भाषा नहीं सीख सकता। ऐसी स्थिति में अनुवाद ही वह एकमात्र ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा हम सभी भाषाओं से संपर्क स्थापित कर सकते हैं। वर्षों से अनुवादक एवं अनुवाद ने सभ्यता-विकास में सृजनात्मक योगदान किया है। यदि अनुवादक उदारता एवं निष्ठा से कार्य न करें तो विभिन्न देश और उनकी संस्कृतियाँ किसी अकेले द्वीप की भांति तनहा रह जाएगी; जो अपने आप में बहुत सुंदर होते हुए भी अलग-अलग इकाईयों के रूप में पड़ा रहता है और उसके निवासी भी संपूर्ण विश्व से अलग-थलग पड़ जाते हैं। जिसके कारण उनका संबंध विस्तृत ज्ञान-क्षेत्र से कट जाता है।
इसी का परिणाम है कि आज दुनिया में विद्यमान ज्ञान का पुराना समाजशास्त्र बड़ी तेजी से बदल रहा है। पुरानी दुनिया के स्थान पर एक नयी दुनिया का जन्म लेना, नये अनुसंधान एवं आविष्कार क्षेत्र में ऐसे परिवर्तन होना इस शताब्दी की बड़ी देन हैं। कुछ देश इतने आगे बढ़ गए हैं कि शेष विश्व को विकास की इस दौड़ में बहुत पीछे छोड़ दिया है। इस पिछड़ाव की पूर्ति के लिए विकासशील देशों तक विकसित देशों का ज्ञान-विज्ञान पहुँचाना अतिआवश्यक है। वर्तमान युग में ज्ञान प्रसार का यह कार्य केवल अनुवादक ही कर सकता है।
गहन अध्ययन-अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुवाद अर्जित-उपार्जित ज्ञान की निरंतरता बनाए रखने वाला भाषा-दर्शन है। यह प्राचीन ज्ञान को नये युग तक प्रसारित करता है। जिससे हम अपनी परंपराओं से सीधा साक्षात्कार कर परंपरा के संग्रह-त्याग की विवेक-भावना को भी विकसित-परिष्कृत कर पाते हैं। इस दृष्टि से अनुवाद परंपरा का नवीनीकरण होता है, जिसे परंपरा की आधुनिकता का कार्य कहा जा सकता है।
अनुवाद-प्रक्रिया में प्रायः समाज एवं जाति की आत्मसजगता, स्वचेतना का भाव निहित होता है। इस प्रक्रिया में एक ओर जहाँ नए मूल्यों को ग्रहण करने की इच्छा रहती है, वहीं दूसरी ओर जो मूल्य हमारे पास है उसे अपनी भाषा और संस्कृति के द्वारा दूर-दूर तक फैलाने और प्रसारित करने की आकांक्षा सदैव प्रबल रहती है। उदाहरणतः यूरोप में घटित नवजागरण काल को देखा जा सकता है। जिसका प्रभाव संपूर्ण विश्व ने देखा और महसूस किया।
इस प्रकार अनुवाद की स्वभाषा और स्वसंस्कृति के प्रति निष्ठा उसे अत्यंत गुरू-गंभीर दायित्व में डाल देती है, जो अन्य भाषाओं में है, उसे अपनी और अन्य भाषाओं को मुक्तहस्त से देने; प्रसारित करने की लालसा अनुवादक की आत्म-सजगता, आत्म-विस्तार एवं परतंत्र से मुक्ति की कामना का प्रतीक है।
एक ओर जहाँ अनुवाद से भाषा का विस्तार हो रहा है, वहीं दूसरी और उसका स्रोत भाषा की अनुगामिनी बनने का खतरा बढ़ रहा है। वर्तमान में यह खतरा हिंदी भाषा के संबंध में अधिक महसूस किया जा रहा है। किंतु यह खतरा अपने आप में अंतिम नहीं है। इसकी संभावना तभी होती है, जब हम अपनी भाषा के बारे में सोचना बंद कर देते हैं और दूसरी भाषा के समानार्थक शब्दों को खोजने में अपनी शक्ति लगा देते हैं। इस प्रक्रिया में समकक्ष शब्द न मिलने पर यह मान बैठें कि भाषा में अमुक या उस भाव को व्यक्त करने की क्षमता नहीं है। किंतु कोई भी भाषा इतनी द्ररिद नहीं कि वह अपने बोलने-सोचने वालों के भावों-विचारों, भंगिमाओं एवं अभिव्यक्तियों का वहन न कर सके। हम जिस भाव से भाषा से मांगते हैं, वह उसी भाव से हमें देती है। यही कारण है कि भारतीय भाषाओं कि जननी संस्कृत को ‘वाणी’ की कामधेनु कहा गया है। आधुनिक युग के कवि अज्ञेय इसे ‘कल्पवृक्ष’ की संज्ञा देते हैं।
सच तो यह कि अनुवाद से भाषा की समृद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। नए भावों, विचारों और अभिव्यक्तियों से एक ओर जहाँ अभिव्यक्ति-क्षमता बढ़ती है, वहीं दूसरी ओर उसका शब्द-भण्डर भी विस्तृत होता है। इस प्रक्रिया में उनके समकक्ष पर्याय खोजने, नये शब्द निर्माण एवं अन्य भाषाओं के शब्दों को ज्यों का त्यों थोड़ा फेर-बदल करके ग्रहण किया जाता है। उदाहरणतः अंग्रेजी के शब्द ‘hour’ के लिए हिंदी में ‘घंटा’, ‘minute’ के लिए ‘मिनट’, ‘tragedy’ के लिए ‘त्रासदी’ और ‘comedy’ के लिए ‘कामदी’ रखे गए हैं। इसी क्रम में Toxin, venom, poison, App, Whatsapp, blue tooth, Wikipedia, verse, internet, sms, Facebook आदि अंग्रेजी शब्दों ने कहीं न कहीं हिंदी को समृद्ध किया है। किंतु बाजारीकरण के बाजारूपन ने भाषा को निरंतर घटिया और अस्पष्ट किया है। इसके अतिरिक्त उर्दू, अरबी, फारसी एवं अनेक देशज भाषा शब्दों के आगमन ने भी भाषिक विकास में सहयोग किया है— वकालतनामा, हलफ़नामा, मराठी की पावती (knowledgement), आवक (inward), जावक (outward), कन्नड़ से सांध (Annex) आदि इसी संवर्धन का प्रमाण हैं।
भाषा संवर्धन की प्रक्रिया के दौरान भाषा में जो बाजारूपन आया, वह बाजार के कारण नहीं; बल्कि मानवीय समाज की क्रूरता के कारण हुआ है। जिसका प्रतिफल हम जनसंचार के विश्वसनीय माध्यम दूरदर्शन में देख सकते हैं। भारतीय जनसंचार में दूरदर्शन की भूमिका प्रभावी है। क्योंकि यह दृश्य के साथ-साथ श्रव्य माध्यम भी है। इसकी भाषा में रंगमंचीयता घोलने के प्रयास ने भाषा को बेहद कच्चा कर दिया है। जिसे हम दूरदर्शन की संवाद-शैली के एक उदाहरण में समझ जाएंगे— ‘सभी सर्वेक्षणों के द्वारा यह पाया गया है’, संवाददाता का समाचार के दौरान कहना— ‘यदि हम विशेष की बात करें तो पाएगें’ इत्यादि।
आज दूसरी भाषा सीखना न केवल व्यक्ति की सांस्कृतिक संपन्नता का प्रतीक है। बल्कि उसकी आवश्यकता बन गया है। आज यदि कोई व्यक्ति दूसरी भाषा सीखना चाहता है तो किसी शैक्षिणिक भाषा के रूप में सीख सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य भाषिक ज्ञान को उस भाषा में प्रणीत साहित्य का रसास्वादन कर सकता है। वह अन्य भाषा-भाषी के जीवन, परंपरा और संस्कृति को व्यापक स्तर पर जान सकता। जानने की यह प्रबल इच्छा अनुवाद के कारण ही जागृत होती है। इस कार्य में अनुवादक की निष्ठा, लगन और प्रभावी भूमिका उल्लेखनीय है जिसने संपूर्ण विश्व को एक ग्राम में परिवर्तित कर दिया है, जो निरंतर सिकुड़ रहा है।
विश्व स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए व्यक्ति आज जिस संसाधन का सहारा ले रहा है। उसका नाम अनुवाद है। इस संवाद प्रक्रिया में प्रत्येक व्यक्ति के सांस्कृतिक मूल्यों का आदान-प्रदान होता है। संवाद के इस प्रवाह में अनुवाद की भूमिका तब और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। जब उसे विभिन्न भाषाओं के बीच संपर्क वाहक बनाना होता है। यही कारण है कि अनुवाद न केवल एक साहित्य की क्षेत्रीय सीमा से बाहर निकालकर भाषिक और साहित्यिक सहचर बढ़ा रहा है। बल्कि यह विकसित साहित्यों का विकासशील साहित्यों पर पड़ने वाले प्रभाव का भी जन्मदाता है। यह अनुवाद की प्रभावी भूमिका का ही परिणाम है कि प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि सहित्यकारों की रचनाएँ भारत की अपेक्षा सोवियत संघ में अधिक प्रसारित हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि पहले से लेकर अब तक इस समकालीन परिवेश में विभिन्न समाज कुछ नया सीखने की ललक लिए निरंतर आगे बढ़ रहे हैं।
आज विश्व के हर समाज में द्विभाषी प्रवृत्ति के होना अनुवाद की विद्यमानतः को दर्शाता है। जिसने हर समाज के लिए बिना किसी भेदभाव के विशिष्ट प्रकार की भाषा को प्रस्तुत किया है। अनुवाद का प्रभाव वणिज्य के क्षेत्र में स्पष्ट दिखता है। इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं— अंग्रेजी के इक्विटी, एजेंट, चैक, प्रीमियम, कमीशन, टैरिफ; संकर— गारंटीकृत, शेयरधारक, इडेंटकर्ता, लाइसेंसीकरण; देशज— आढ़तिया, कुर्की, दलाली, रूक्का, रहन, कटौती, रोकड़ आदि।
अनुवाद की इन विशिष्ट स्थितियों की ओर संकेत करते हुए मराठी के सुविख्यात साहित्यकार मामा वरेरकर ने लिखा है— “लेखक होना आसान है, किंतु अनुवादक होना अत्यंत कठिन है।” अर्थात् अनुवादक केवल लिखता ही नहीं, वह विभिन्न समाजों, समूहों, देशों एवं भाषाओं के बीच विनियम-सेतु का कार्य करता है। जिसमें इसकी उदारता और निष्ठा किसी भी समाज के भाषिक, संस्कृति संवर्धन का आधार बनती है।
अनुवाद के दौरान जो शब्द मूल भाषा से ज्यों के त्यों किंचित ध्वन्यात्मक परिवर्तन के साथ ग्रहण किए जाते हैं। उनके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं जो सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं में सहजता से मिल जाते हैं। इसके अंतर्गत व्यक्ति, स्थान, पुस्तक, पद और अभिव्यक्ति आदि के नाम आते हैं— रिज़ीज-विमोचन, ओथ-शपथ, स्टार-सितारा, पार्लियामेंट-संसद, मिनिस्टर-मंत्री, सेक्रेटरी-सचिव, पटिशन-यचिका, कमीशनर-आयुवत, टेंडर-निविदा, स्टैंडर्ड-मानक, ऑडिटोरियम-सभाकक्ष, कामा-अल्पविराम, सोशल वेलफेयर-समाजकल्याण, अंडर साइड-अधोहस्ताक्षरी, वाइट पेपर-श्वेतपत्र, रिवाइज्ड बजट-संशोधित बजट, एकडेमी-अकादमी, शेयर होल्डर-शेयरधारक, टेकनीक-तकनीक, रेजिग्नेशनल-इस्तीफा, इंटेरिम-अंतरिम, नोटिस, बोनस एवं अंडरग्राउंड-अज्ञातवास। इसके साथ ही thankyou, sorry, hello, email आदि शब्द भी खूब प्रचलित हैं जो मुख्यतः अंग्रेजी के हैं। इन शब्दों के इतने अधिक प्रभावी होने का प्रमुख कारण इनकी अधिक संप्रेषणीयता हैं।
साहित्य में शब्द के लिए प्रतिशब्द की परंपरा ने भी भाषिक संवर्धन में पर्याप्त सहयोग किया है। उदाहरणतः— अरस्तु (Aristotle), प्लातोन या प्लेटो (Plato), एचिलीस (Achilles), अगाथा (Agatha), आरगोस (Argos), इयोन (Ion), फ्रांसीसी (French), अमरीका (America), इंजीनियरी (Engineering), वोल्ताज (Voltage), बैक्टीरिया (Bacteria), ब्यूरो (Bureau), जूरी (Jury), एटलस (Atlas) आदि। इसी प्रकार के अंग्रेजी में अन्य भाषाओं से आए तमाम शब्द हैं— Agenda (souvenir), Cafe, Ayls, Iris(8), Stigma (Greek), Radius (Latin), focus (Latin), Thorax (Greek) आदि। जिन्होंने वर्तमान भाषाओं को समृद्ध करने के साथ-साथ समाजों को भी समृद्ध एवं संपन्न बनाया है। इस कार्य में उनकी उपादेयता और महत्ता को सिद्ध करने का कार्य अनुवाद ने ही है। अर्थात् जो स्वप्न एक भाषा समाज या साहित्य ने देखा, उसे दूसरी भाषा (अनुवाद) ने जीवंत और साकार रूप प्रदान किया है।
निष्कर्षतः वर्तमान में अनुवाद शरीर रूपी समाज की आत्मा है। जिसके अभाव में समाज बेजान और मृत हो जाता है। भारत जैसे बहुभाषी और बहु-सांस्कृतिक राष्ट्र में इसकी उपयोगिता और अधिक बढ़ जाती है। क्योंकि यहाँ हर कदम पर वाणी बदलने की प्रवृत्ति विद्यमान है। किंतु फिर भी एकमात्र हिंदी ऐसी भाषा है जो भारत की ही नहीं; अपितु पूरे विश्व की प्रभावी संपर्क भाषा बनी हुई है। यदि हिंदी को विश्व-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना हो तो इस प्रयास में अनुवाद की भूमिका और सहयोग सराहनीय है।
वर्तमान में अनुवाद विभिन्न सीमाओं को पार कर विश्व-स्तर पर व्याप्त हो चुका है। यह एक ऐसा साधन है जो समकालीन समाज की हर स्थिति को व्यक्त करने की असीम क्षमता रखता है। इस शक्ति का निष्ठा से उपयोग कर अनुवादक ने संपूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में प्रकट कर साहित्यिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषिक- संवर्धन की प्रक्रिया में अतुलनीय योगदान किया है। यही कारण है कि भारत के प्रेमचंद, निराला, दिनकर विदेश के अपने साहित्यकार हैं; और विदेश के शेक्सपीयर, पीटर, डेकार्ट, मैक्समूलर आदि संपूर्ण विश्व के। यह सभी साहित्यिक क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। जिसमें वह सामाजिक भावना को शब्दों के माध्यम से सजीव अभिव्यक्ति प्रदान कर भाषिक विकास की गति को तीव्रता प्रदान करते हैं।
संदर्भ ग्रंथ सूची
- पालीवाल, रीतारानी (प्रो), अनुवाद प्रक्रिया और परिदृश्य, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, 2004
- गोस्वामी, कृष्णकुमार, अनुवाद विज्ञान की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007
- टंडन, पूरनचंद (डॉ), अनुवाद साधना, अभिव्यक्ति प्रकाशन, दिल्ली, 2007
- दुबे, महेन्द्रनाथ (डॉ), अनुवाद-कार्यदक्षता (भारतीय भाषाओं की समस्याएँ), वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, 2006
सुमन
शोधार्थी
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय