आज के हिंदी भाषी दर्शकों का मलयालम फिल्मों से सबसे कम वास्ता रहा है। सोशल मीडिया पर पसरी इन आंख मारने की बेजा हरकतों से जुड़ने के अलावा उन्होंने वही पुरानी अतिरंजना में डूबी कॉमेडी या एक्शन ‘मल्लू फिल्में’ देखी हैं जो टीवी पर हिंदी में डब होकर आती हैं। इसके अलावा क्षेत्रीय सिनेमाओं से जान-पहचान के नाम पर वे तमिल-तेलुगू और मराठी फिल्मों को ही ज्यादा जानते हैं।
हालांकि देश-दुनिया के मुख्तलिफ सिनेमा देखने वाले सिनेमा प्रेमियों को पहले से इल्म है कि आजकल सबसे बढ़िया और नयी-कल्पनाशील कहानियां कहने वाली फिल्में मलयालम फिल्म इंडस्ट्री में बन रही हैं। लेकिन कमर्शियल मसाला हिंदी फिल्मों के जंजाल में फंसे हुए दर्शक इस बात से नावाकिफ हैं कि उनसे कोसों दूर कहीं बनने वाला ‘क्षेत्रीय’ सिनेमा उनकी हालिया ‘राष्ट्रीय’ फिल्मों से कोसों आगे है।
हाल में घोषित हुए पैंसठवें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों ने इस अज्ञानता को दूर करने की कोशिश की है। अलग-अलग श्रेणियों में मलयालम फिल्मों को 11 पुरस्कार मिले हैं जो संख्या में सबसे ज्यादा भी हैं, और हिंदी पट्टी के सुधी दर्शकों के लिए सिनेमा की नई खिड़कियां भी खोलते हैं। जिन फिल्मों के नाम इन पुरस्कारों में शामिल किए गए हैं वे सारी ही उम्दा हैं और पिछले कुछ सालों से जिस तरह की जमीनी, यथार्थवादी और दिलचस्प फिल्में बनाने के लिए मॉलीवुड जाना जाता रहा है, ये सभी उसी विचारधारा की फिल्में हैं।
दूसरी तरफ हिंदी सिनेमा को मिले राष्ट्रीय पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म के लिए ‘न्यूटन’ को मिला पुरस्कार, ए. आर रहमान को ‘मॉम’ के लिए मिला सर्वश्रेष्ठ बैकग्राउंड स्कोर अवॉर्ड और ‘न्यूटन’ के ही लिए पंकज त्रिपाठी को मिला स्पेशल मैंशन पुरस्कार एकदम सही चयन लगते हैं, तो दूसरे कुछ पुरस्कार हमें आलोचनात्मक होने के लिए भी मजबूर करते हैं।
स्वर्गीय श्रीदेवी ने ‘मॉम’ से कई दर्जे ऊपर के कई सारे काम पहले किए हुए हैं (‘सदमा’, या ‘इंग्लिश विंग्लिश’) और उन्हें केवल एक दर्शनीयभर फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार देना जायज नहीं लगता।इस वजह से उन पार्वती का भी हक मारा गया है जो कि मलयालम फिल्म ‘टेक ऑफ’ में अपने जबरदस्त अभिनय की वजह से इस पुरस्कार की दौड़ में सबसे आगे थीं लेकिन जिन्हें स्पेशल मैंशन पुरस्कार से संतोष करना पड़ा।
हिंदी सिनेमा को विभिन्न श्रेणियों में आठ पुरस्कार मिलने के बावजूद ‘इरादा’ जैसी घोर साधारण फिल्म को ‘पर्यावरण संरक्षण पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म’ व ‘सर्वश्रेष्ठ सह-अदाकारा’ (दिव्या दत्ता) जैसे दो महत्वपूर्ण पुरस्कारों से नवाज़ा गया है। सबसे ज्यादा खर्र-खर्र करके अखरने वाला चयन गणेश आचार्य का लगता है, जिन्हें ‘टॉयलेट : एक प्रेमकथा’ के गीत ‘गोरी तू लट्ठमार’ में ब्रज की होली दिखाने के लिए सर्वश्रेष्ठ कोरियोग्राफी का पुरस्कार मिला। जिस गीत में ‘रांझणा’(2013) के ‘तुम तक’ गीत जैसा होली के रंगों का उम्दा उपयोग तक नहीं है, उसे विजेता घोषित करके शेखर कपूर की अध्यक्षता वाली ज्यूरी ने साल 2017 के ‘ब्लडी हैल’ व ‘उल्लू का पट्ठा’ जैसे खूबसूरत फिल्माए गए कई गीतों का तिरस्कार किया है।
इसलिए सच यही है कि इस बार के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में हिंदी सिनेमा का हासिल सिर्फ एक फिल्म रही, ‘न्यूटन’। वहीं मलयालम फिल्म इंडस्ट्री की चार फिल्में प्रमुखता से छाई रहीं और सभी मुख्तलिफ जमीनी कहानियां कहने में बेजोड़ रहीं।पहली फिल्म ‘थोंडिमुथलम द्रिकशाक्शियम’ (Thondimuthalum Driksakshiyum)। घरवालों की मर्जी के खिलाफ जाकर शादी करने वाले निम्नवर्गीय पति-पत्नी की कहानी है। जिसमें कुछ वक्त बाद एक चोर मुख्य पात्र बन जाता है। क्योंकि वह नायिका की सोने की चेन गले से निकाल कर पकड़े जाने से पहले निगल लेता है। उसे पकड़कर पास के ही पुलिस स्टेशन ले जाया जाता है, जहां वह चोरी करने की बात से ही इंकार कर देता है और वहां से फिल्म इतने दिलचस्प मोड़ लेती है कि आपको हैरान कर देती है। जो कहानी सीधी व सादी सी लग रही थी वह अपने स्क्रीनप्ले के दम पर तमाम तरह की बातें कर जाती है और यही गुण – बेहद आम सी कहानियों के आसपास बेहद कमाल का सिनेमा रच लेना – इन दिनों बन रहीं मलयालम फिल्मों की सबसे बड़ी खूबी है।
इस फिल्म को बेस्ट ओरिजनल स्क्रीनप्ले का पुरस्कार मिला है, मलयालम की सर्वश्रेष्ठ क्षेत्रीय फिल्म का तमगा मिला है और चोर बनकर शानदार अभिनय करने वाले फहद फासिल नाम के हिंदी दर्शकों के लिए अंजान अभिनेता को सर्वश्रेष्ठ सह कलाकार का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला। फिल्म में फासिल का किरदार धीरे-धीरे आप पर चढ़ता है और यह देखना बेहद दिलचस्प अनुभव बन जाता है कि एक चोर अपनी गलती नहीं मानने के लिए किस हद तक जा सकता है। फिल्म में एक सीन है जब फहद फासिल हाथ की सफाई वाले काम को किसी कविता की तरह वर्णित करते हैं और आपको रश्क हो जाता है कि ऐसे सीन रचने वाली प्रतिभाएं बॉलीवुड में क्यों नहीं हैं ?
कुएं से पानी लाने वाले एक लंबे सीन और छोटी नहर में लड़ाई वाले सीन को देखकर भी ऐसा लगता है तथा नायिका के चेहरे पर जब-जब ढेर सारे दाने नजर आते हैं आपको समझ आता है कि हिंदी फिल्मों को छोड़कर कोसों दूर बसे शहरों में बनने वाला सिनेमा यथार्थ को किस कदर आत्मसात कर चुका है। बॉलीवुड होता तो अब तक चेहरे की ऐसी विसंगतियों को मेकअप से छिपा देता (न्यूड मेकअप यू सी!)। लेकिन मलयाली फिल्मकार जानता है कि तेज गर्मी और उमस के शहर कोच्चि में रहने वाली एक साधारण परिवार से आने वाली नायिका को ऐसा ही दिखाना जरूरी है।
दूसरी ऐसी कमाल मलयालम फिल्म – असल में थोड़ी ज्यादा कमाल – तीन राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली ‘टेक ऑफ’ है। इस्लामिक स्टेट के कंट्रोल वाले इराक में फंसी हिंदुस्तानी नर्सों की इस कहानी में कोई सलमान खान उन्हें बचाने नहीं आता – जैसे कि ‘टाइगर जिंदा है’ में आता है – लेकिन मुश्किल हालातों में हमेशा से जीने को मजबूर केरल की नर्सें जब अति के मुश्किल हालात में फंस जाती हैं, तब कैसे जिंदा रहने की कोशिशें करती हैं, इसे ‘टेक ऑफ’ अद्भुत यथार्थवादी अंदाज में दिखाती है।
‘टाइगर जिंदा है’ की समीक्षा के वक्त इन दो फिल्मों में से पहले आप सलमान की फिल्म देखें और फिर ‘टेक ऑफ’, ताकि समझ सकें कि मूर्खता और अतार्किकता का लगातार उत्सव मनाकर हम ही लोग हिंदी सिनेमा का कितना भारी नुकसान कर रहे हैं।
नयी तकनीक के समर्थक कहते रहे हैं कि दर्शकों को कहानियां ‘फील’ करवाने के लिए – ऐसे कि उन्हें लगे कि वे किरदारों के साथ उनके कमरे में मौजूद हैं – सिनेमा को उच्च स्तर की 3डी व वर्चुअल रियलिटी तकनीकों का सहारा लेना चाहिए। बकवास! सिनेमा बनाने वालों को ‘टेक ऑफ’ के स्तर वाले एक्टरों को चुनना चाहिए (पार्वती, कुंचाको) ।जो दर्शकों का प्रतिबिंब बनकर अभिनय करें और उनके अभिनय की तीव्रता में दर्शक खुद को इस्लामिक स्टेट का बंधक मानने को मजबूर हो जाए।
तीसरी और सोशल इश्यूज पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार पाने वाली ‘आलुरुकम’ (Aalorukkam) 75 वर्षीय वृद्ध पिता की कहानी है जो पहले अपने उस पुत्र को ढूंढ़ने निकलता है जो कि 16 साल पहले घर छोड़कर चला गया था और बाद में पुत्र को उसके नए रूप में स्वीकार नहीं कर पाता।
इत्मिनान से अपनी कहानी कहने वाली इस इमोशनल फिल्म का वृद्ध नायक अपनी पारंपरिक सोच के बंधनों से आजाद होने को तैयार नहीं है, और फिल्म का कौशल इतना सधा हुआ है कि आप कई बार इस मुख्य किरदार की तंग सोच पर कोफ्त खाने के बावजूद उसकी बेबसी और आक्रोश को गहरे तक महसूस कर पाते हैं।
केरल के सिनेमाघरों में हाल ही में प्रदर्शित हुई इस फिल्म में नर्तक का मुख्य किरदार निभाने वाले 60 वर्षीय इंद्रंस मुख्यता हंसोड़ भूमिकाओं के लिए जाने जाते हैं, मगर इस फिल्म में उनके मार्मिक अभिनय की बदौलत प्रतिष्ठित केरल स्टेट फिल्म अवॉर्ड्स ने भी उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार से नवाजा है। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की ज्यूरी की अध्यक्षता करने वाले शेखर कपूर ने भी कहा है कि वे सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार के प्रमुख दावेदार थे । लेकिन बहुत कम अंतर से पीछे छूट गए.।आखिर में यह प्रतिष्ठित पुरस्कार बंगाली फिल्म ‘नगर कीर्तन’ के लिए 19 वर्षीय एक्टर ऋद्धि सेन को मिला।
चौथी फिल्म ‘भयानकम’ (Bhayanakam) ने भी सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ सिनेमेटोग्राफी और सर्वश्रेष्ठ एडाप्टिड स्क्रीनप्ले मिलाकर तीन राष्ट्रीय पुरस्कार अर्जित किए हैं। मई में रिलीज होने जा रही ‘भयानकम’ के निर्देशक जयराज इस बार के पुरस्कार मिलाकर दो बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीत चुके हैं। और ‘भयानकम’ उनकी सातवीं निर्देशित फिल्म है जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। वे ‘नवरस’ पर फिल्में बनाने के लिए ख्यात हैं और ‘भयानकम’ में डर की थीम को एक्सप्लोर करने के बाद जल्द ही हास्यरस और श्रृंगाररस पर फिल्में बनाने वाले हैं।
‘भयानकम’ की कहानी द्वितीय विश्व युद्ध के वक्त की है। लेकिन युद्ध के मैदान में हार और जीत का हाल दिखाना उसका मकसद नहीं है। एक इलाके के उन गांववालों की नजर से वह युद्ध की विभीषिका बयां करती है। जहां से 650 लोग हुकूमते-ब्रितानिया के लिए जंग लड़ने गए थे। एक डाकिया के जिम्मे उन सैनिकों की मौत की खबरें गांववालों तक पहुंचाने का काम आता है, और फिल्म इसी केंद्रीय पात्र के द्वंदों व गांववालों द्वारा उसे अपशगुनी मानने के इर्द-गिर्द अपनी कहानी रचती है।
इन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त फिल्मों के अलावा भी मॉलीवुड में बेहद सामान्य कहानियों के आसपास कमाल का सिनेमा रचा जा रहा है। सही मायनों में मलयालम फिल्मों को आज के सिनेप्रेमी हिंदी दर्शकों के सबसे करीब लाने वाली ‘अंगमली डायरीज’ का ही उदाहरण ले लीजिए। इसमें कहानी के नाम पर बस इतना है कि कुछ लोग अपने-अपने गैंग की बादशाहत अंगमली नाम के कस्बे पर कायम करना चाहते हैं। लेकिन लोकल गुंडों व पागलपन से भरपूर किरदारों वाली बेतहाशा बार कही जा चुकी इस कहानी को ‘अंगमली डायरीज’ अद्भुत नयेपन और ‘जिस मिट्टी से जन्मा है उस मिट्टी की खुशबू लिए होना चाहिए’ वाले फलसफे को आत्मसात कर अति के कमाल अंदाज में कहती है। अगर आप अभी तक मलयालम सिनेमा से नावाकिफ रहे हैं तो इस फिल्म से शुरुआत कीजिए। हमारा वादा है, फिर आप रुकेंगे नहीं।
और एक बार रफ्तार पकड़ ली तो फिर ‘उस्ताद होटल’ (2012) देखिएगा। ताजा-ताजा प्यार की सुगंध वाली ‘प्रेमम’ (2015) देखिएगा। हिंदी फिल्मों में जल्द डेब्यू करने जा रहे दुलकर सलमान की अर्बन रिश्तों पर बात करने वाली ‘बैंगलोर डेज’(2014) देखिएगा। अनुराग कश्यप की फिल्मों में कैमरा संभालने वाले राजीव रवि की 2016 में आई गैंगस्टर फिल्म ‘कमट्टीपाडम’ देखिएगा।
अच्छा हां, पिछले साल सर्वश्रेष्ठ मौलिक पटकथा और मलयालम की सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के दो राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली उम्दा कॉमेडी-ड्रामा ‘महेशंति प्रतिकारम’ भी देखिएगा। इसकी कहानी इतनी सी है कि पेशे से फोटोग्राफर नायक एक लड़ाई में बीच-बचाव करते हुए हार जाता है और वचन लेता है कि जब तक बदला नहीं ले लेगा, चप्पल नहीं पहनेगा। आप सोच रहे होंगे कि ये भी कोई कहानी हुई! फिल्म देखिएगा, पता चलेगा कि धागे बराबर मोटाई वाली कहानी पर भी मलयालम सिनेमा अति की मनोरंजक फिल्म कैसे बनाता है!
कुल मिलकर कहें तो केरल के शान बनकर आज खड़े हो रहे है मलयालम फिल्म ।जो खाबिलिए तारीफ है। नए नए विषय को पाठकों में उत्सुकता बढ़ाती जा रही है इक्कीसवीं सदी की मलयालम सिनेमा। नायक , नायिका , संगीतकार , निर्देशक , कोमेडियन्स,सब लोग एक से बढ़कर एक काम कर रहे हैं आज कल। एवेर्ग्रीन म्यूजिक, स्क्रिप्ट में नयापन मलयम सिनेमा पाठकों के दिलों अपनी छवि बना लेती है।
संदर्भ ग्रंथ –
- अजय ब्राह्मात्मज – सिनेमा समकालीन सिनेमा, वाणी प्रकाशन 2014
- ललित जोशी – बालिवुड पाठ ,वाणी प्रकाशन, 2014
- पंकज राग – धुनों की यात्रा, राजकमल प्रकाशन, 2017
- कुलदीप सिन्हा – फिल्म निर्देशन, राधाकृष्णन प्रकाशन, 2007
षैजू के
शोधार्थी, हिन्दी विभाग
कोच्चिन विश्वविद्यालय
कोच्चि, केरल