संसृति के प्रारम्भ में मानव ने जिज्ञासा, जिजीविषा और चिन्तन के आधार पर अपनी बौद्विक चेतना का विकास किया है। उसी का उत्स साहित्य है। मानव की गतिषील चेतना ने भाव, विचार और ज्ञान, विज्ञान के क्षेत्र से अनेक प्रकार की उपलब्धियाँ अर्जित की हैं। भाव के क्षेत्र में साहित्य और कला, विचार के क्षेत्र में दर्शन तथा ज्ञान – विज्ञान के रूप में मानव की वैज्ञानिक संचेतना उसके सत्यानुसंधान की परिचायिका है।
साहित्य मानवीय संवेदना को जाग्रत और विकसित करता है, चिन्तन को सही दिशा देता है, आचरण और व्यवहार का संस्कार करता है और समाज में सौहार्द, सहिष्णुता, समन्वयशीलता, सहयोग, सहभाव और परस्पर समर्पण की भावना जगाता है और यह साहित्य प्रकृति की गोद में जन्म लेता है, प्रकृति द्वारा प्रेरित और विकसित होता है, प्रकृति पोषित साहित्य सृष्टि का, समाज का सचेतन प्रहरी है।
तो वहीं पर्यावरण में वे सभी भौतिक व अभौतिक, प्राकृतिक एवं मानव निर्मित, वस्तुएं सम्मिलित हैं जो प्राणी को चारों ओर से घेरे रहती हैं और उसे प्रभावित करती हैं। मानव अपने चारों ओर प्राकृतिक शक्तियों, पदार्थो, तथा सामाजिक, सांस्कृतिक तथ्यों जैसे समाज, समूह, संस्था, प्रथा, लोकाचार, नैतिकता, धर्म तथा सामाजिक मूल्यों से घिरा हुआ है जो कि उसका पर्यावरण कहा जा सकता है।
यदि एक नजर में देखे तो साहित्य और पर्यावरण दोंनों का मूलभूत प्रयोजन व्यक्ति के अस्तित्व को बचाना, उसका पोषण करना है। जब आज के दौर में साहित्य और पर्यावरण के सम्बन्धों की चर्चा जोरों पर है। प्रत्येक बुद्विजीवी इस सम्बन्ध को लेकर अपनी बात रखना चाहता है। वास्तव में मनुष्य जीवन के रागात्मक विकास का नाम साहित्य हैं और मनुष्य के व्यवहार से लेकर सभ्यता, धर्म और विज्ञान तक सभी कुछ पर्यावरण है इसीलिए साहित्य और पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्ध की उपेक्षा नहीं की जा सकती। साहित्य समष्टिगत चेतना हैं इसीलिए उसका पर्यावरण से घनिष्ठ सम्बन्ध है। जीवन और पर्यावरण दोनों इतने घनिष्ठ रूप से परस्पर गुंथे हुए हैं कि जीवन में प्रत्येक भिन्नता पर्यावरण की देन कही जा सकती है। भारतीय परम्परा में जीव, जन्तु, वनस्पतियां, सभी प्रकृति की संताने हैं, लोक संस्कृति में पर्वत, नदियां, वृक्ष आदि सभी को देवता का स्वरूप प्रदान किया गया है। पर्यावरण इन्हीं के शाश्वत और सन्तुलित रूप का नाम है।
भारत में धरती को माँ का स्वरूप माना गया है जो अपनी सभी सन्तानों का भरण पोषण बिना भेद – भाव के करती है। तभी तो ‘‘आनन्दमठ’’ उपन्यास में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने सुजलां, सुफलां, मलयजशीतलां, शस्य श्यामला, फुल्ल कुसुमित द्रुम दल शोभनीं, सुखदां, वरदां, कहकर भारत माता की वन्दना की है। – (1) ‘आनन्द मठ’’
सामाजिक पर्यावरण में मानवीय संबंधों से निर्मित सामाजिक समूह, संगठन, समाज, और समुदाय आते हैं जो व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रभावित करते हैं और साहित्य का मूल विषय इन्हीं सम्बन्धों की सारगर्भित व्याख्या है। तुलसी का मानस, हरिऔध का प्रिय प्रवास, मैथिलीशरण गुप्त का साकेत, यशोधरा, प्रसाद की कामायनी, दिनकर की उर्वशी आदि ऐसी कालजयी रचनाएं हैं जो सामाजिक पर्यावरण का उत्कृष्ट रूप प्रस्तुत करती है। जहाँ साकेत के राम पृथ्वी से सामाजिक विषमता को हटाकर उसे स्वर्ग तुल्य बनाना चाहते हैं।
संदेशा नहीं यहाँ मैं स्वर्ग का लाया।
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।। (2) साकेत अष्टमसर्ग
तो राष्ट्रकवि दिनकर जी साहित्य – सृष्टाओं को सम्बोधित करते हैं –
विज्ञान काम कर चुका हाथ उसका रोको
आगे आने दो गुणी! कला कल्याणी को।।
इसी तरह सांस्कृतिक पर्यावरण में धर्म, नैतिकता, प्रथाएं, कानून, प्रौद्योगिकी तथा व्यवहार प्रतिमान आते हैं, जिसे मनुष्य अपने अनुभवों और सामाजिक सम्पर्क के कारण सीखता है और उसके अनुरूप अपने को ढालने का प्रयास करता है।
मानव का व्यवहार उसके समस्त कार्य – कलाप साहित्य की मूल पृष्ठभूमि होती है। प्राचीन काल से अब तक रचा गया सम्पूर्ण साहित्य किसी न किसी रूप में मानवीय व्यवहार का प्रतिफल है। मानवीय व्यवहार के निर्धारकों में आनुवंशिकता व पर्यावरण को समान रूप से महत्व दिया गया है। आनुवंशिक कारक या गुण तो हमें माता पिता से प्राप्त होता है लेकिन उसके व्यवहार पर पर्यावरण की अमिट छाप रहती है। व्यक्ति का व्यवहार तथा उसका पर्यावरण आपस में निरन्तर अन्र्तक्रिया करते रहते हैं तथा दोनों ही आपस में अन्तर्सम्बन्धित होते हैं। एक में कुछ भी परिवर्तन होने पर दूसरे में स्वतः ही परिर्वतन आ जाता है। अतः पर्यावरण जिस प्रकार व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करता है उसी प्रकार साहित्य भी अपने में परिवर्तन करके प्रत्येक गतिविधि का अंकन करता है और अपने पक्ष में करने का प्रयास करता है। जैसे आदिकालीन साहित्य में वीर और ओज प्रधान विषय बनकर आया तो उसका एक मात्र कारण तत्कालीन सामाजिक पर्यावरण हो या कि साहित्य ने लोगों में शौर्य और उत्साह जगाया।
बज्जिय घोर निषान राम चैहान चहौं दिसि
सकल सूर सामान्त समरि बल जंत्र – मंत्र तिस (3)
उट्ठि राज प्रिथिराज बाग मनो लग्ग वीर नट
कढ़त तेग मन बेग लगत मनो बीजु झट्ट – (हिन्दी साहित्य का इतिहास 45 रामचन्द्र शुक्ल)
भारतीय संस्कृति के अनुसार मनुष्य तथा प्रकृति आपस में अन्तः सम्बन्धित होते हैं और मनुष्य को पर्यावरण या प्रकृति का मुख्य अंग माना गया है । उनकी धारणा है कि मनुष्य पंच तत्वो से मिलकर बना है तथा व्यक्ति उसी में विलीन हो जाता है।
क्षिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित यह अधम षरीरा।। – (4) श्री राम चरित मानस
भारतीय साहित्य में मनुष्य तथा शेष सृष्टि को सहजीवी के रूप में माना जाता है। इसके अनुसार पर्यावरण और साहित्य आपस में अन्तर्सम्बन्धित हैं क्योंकि मकान, बाजार, दुकानें, मूल्य रीति रिवाज, विवाह, उत्सव, जन्मोत्सव इत्यादि सभी मानव निर्मित या कृर्तिम पर्यावरण का निर्माण करते हैं और पर्यावरण के ये सभी प्रकार मानव के कार्य करने के तरीके या उसके व्यवहार को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं और साहित्य का अंग बन जाते हैं तथा सामाजिक व सांस्कृतिक पर्यावरण में सम्मिलित हो जाते है।
मानव का विकास उसके दैहिक दैनिक एवं भौतिक कर्म एवं धर्म पूर्णतया पर्यावरण के ताने – बाने से बुने गये हैं। यहाँ तक की मानव के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विकास में भी पर्यावरण का महत्वपूर्ण योगदान रहता है।’’(5) – पृष्ठ 13 पर्यावरणीय शिक्षा – राधा वल्लभ
साहित्य ने सदैव स्वच्छ एवं प्रगतिषील पर्यावरण प्रस्तुत किया है। चाहे वह पक्ष कोई भी हो, जहाँ तक सामाजिक पक्ष की बात है तो साहित्य ने हमेशा समाज को नव प्रकाश प्रदान किया है। महाकाव्य प्रिय प्रवास में राधा के विचार सामाजिक पर्यावरण के लिए संजीवनी से कम नहीं कि वे स्वयं का दुःख भूलकर सर्वहित की बात करती है।
‘‘कोई क्लान्ता कृषक ललना खेत में जो दिखावै
धीरे – धीरे परस उसकी कलान्तियों को मिटाना
जाता कोई जलद यदि हो व्योम में तो उसे ला
छाया द्वारा सुखित करना तप्त भूवांगना को,, (6) प्रिय प्रवास 114
साहित्य और पर्यावरण के इस अटूट सम्बन्ध में प्रमुख भूमिका अनुकूलनशीलता की होती है। समय देश और परिस्थितियों के अनुसार बदलने की प्रक्रिया को अनुकूलनशीलता कहते है। किसी भी साहित्य के दीर्घ जीवन के लिए यह बहुत आवश्यक तत्व होता है। शायद विश्व का बहुत सारा साहित्य इसीलिए समाप्त हो गया कि वह समय के अनुसार अपने को नहीं ढाल सका। भारतीय साहित्य की यह विशेषता रही है कि वह अपनी भौतिक परम्परा के सार तत्व को बनाए रखते हुए उसे नया आकार प्रकार प्रदान करता रहा है। यही नहीं साहित्य जीवन के किसी एक पहलू को लेकर नहीं चलता वरन यह जीवन के सभी पक्षों से सम्बन्धित है। साहित्य यह मानकर चलता है कि मानव का जीवन उद्देश्य पूर्ण है। और उसका आशय ऐंच्छिक लौकिक उन्नति करना हैं। साहित्य भी पर्यावरण की तरह जैविक, भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक तत्वो के अनुसार सम्पूर्ण मानव को चार भागों में विभक्त करता है। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और भावात्मक तथा मनुष्य के सभी पक्षो में सन्तुलित विकास का प्रयास करता है और ग्रहणषीलता साहित्य की प्रमुख विशेषता है इसीलिए पर्यावरण कैसा भी हो साहित्य की पाचन शक्ति इतनी विशाल होती है कि वह सार तत्व ग्रहण कर लेता है, पर्यावरण के साथ समायोजित हो जाता है। तभी तो कहा गया है –
अन्धकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं है।
अन्धा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।।
साहित्य और पर्यावरण दोनों का दूसरा सबसे प्रमुख पक्ष है सामाजिक व नैतिक। इस दृष्टि से साहित्य व्यक्ति की विशिष्ट सामाजिक स्थिति के अनुसार उसके सामाजिक दायित्व का निर्धारण करता है। साहित्य की प्रत्येक रचना व्यक्ति को उसके पर्यावरण के अनुसार उसके दायित्व का बोध कराती है और उसके वास्तविक धर्म की शिक्षा देती है। तभी तो अपने कर्म पथ से भटके मनु जो सामाजिक एवं नैतिक वातावरण के अनुसार अपने को प्रस्तुत करने में अक्षम होते हैं। और कामायनी द्वारा उन्हे पुनः अपने पर्यावरण के प्रति प्रेरित किया जाता है।
जिसे तुम समझे हो अभिशाप जगत की ज्वालाओं का मूल
ईश का वह रहस्य वरदान कभी मत इसको जाओ भूल – (7)
बनो संसृति के मूल रहस्य तुम्हीं से फैलेगी यह बेल
विश्व भर सौरभ से खिल जाए सुमन के खेलो सुन्दर खेल (8)
सामाजिक पर्यावरण को जो उत्कृष्टता साहित्य में परिलक्षित होती है। वह ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का आधार है। जिसमें मनुष्य को अपने नैतिक धर्म व जीवन की सार्थकता की शिक्षा दी गई है और सम्बन्ध निर्वाह का जो स्वरूप साहित्य ने तय किया है वह उत्कृष्ट पर्यावरण की आधारशिला है। मनई शीर्षक कविता में बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढ़ीस जी लिखते है।
दूसरे के दुःख ते दुःखी होय
अपनउ सुखु सबका बाँटि देयि
जो जानइ सुख – दुख के किरला
बसि वहय आय सुन्दर मनई
अउरन की बटिया महतारी
जो अपनिन ते अघकी मानयी
जग के सब लरिका अपनय अस
बसि वहयि आयि सुन्दर मनई – (9)
अतः सामाजिक पर्यावरण सामाजिक सम्बन्धों की क्रिया एवं प्रतिक्रया पर आधृत होता है। मानव जीवन के सभी पहलू सामाजिक पर्यावरण की परिधि में सम्मिलित हैं। जैसे राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, आध्यात्मिक शारीरिक एवं मानसिक आदि। मनुष्य जन्म से ही सामाजिक प्राणी है। वह समाज विहीन व्यवस्था में जीवित नहीं रह सकता । उसका विकास समाज में ही सम्भव है। अतः मानव के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धर्मिक और मानसिक व आध्यात्मिक सम्बन्ध सामाजिक पर्यावरण में ही आते हैं जैसे जातिगत सम्बन्ध समुदाय गत सम्बन्ध, धर्मगत सम्बन्ध, वर्गगत सम्बन्ध, पारिवारिक सम्बन्ध, विद्यालायगत सम्बन्ध, युगलीकरण राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध आदि सामाजिक पर्यावरण के ही उदाहरण है। जिसे साहित्य ने अपने में सहेज – समेट रखा है।
जबकि मानव मंगल ग्रह की ओर और मानवता जंगल की ओर जा रही है। समाज में नैतिक मूल्यों का पतन हो गया है तथा समाज में असुरक्षा, अषान्ति, अव्यवस्था व्याप्त है। आज हम सब मानसिक स्तर से प्रदूषित हो गए हैं। यदि मानवता को भावी संकट से उबारना है तो साहित्य व पर्यावरण के इस सम्बन्ध को जीवन की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग बनाना होगा। ताकि मानवता और मानव मूल्यों की रक्षा हो सके। साहित्य ने हमेशा इस बिन्दु पर प्रकाश डाला है कि जिस तरह मनुष्य युद्ध करना सीखता है उसी तरह वह शान्ति से रहना भी सीख सकता है । इसके लिए साहित्य व पर्यावरण के अटूट सम्बन्धों को बनाये रखना होगा और प्रतिफल यह अनुभव करना होगा कि मानव पर्यावरण की उपज है और साहित्य मानव की गतिविधियाँ हैं जो उसे वातावरण की समीपता से प्राप्त होती हैं।
सन्दर्भ सूचीः
- उपन्यास ‘आनन्द मठ’ – बंकिम चन्द्र चटर्जी, वसुमती प्रकाशन, इलाहाबाद – पेज – 69
- साकेत – मैथिलीशरण गुप्त, अग्रवाल प्रकाशन आगरा, पेज – 168
- हिन्दी साहित्य का इतिहास – रामचन्द्र शुक्ल कमल प्रकाशन नई दिल्ली पेज – 45
- रामचरित मानस – तुलसीदास, गीता प्रेस गोरखपुर – पेज 357
- पर्यावरण शिक्षा – डाॅ0 राधावल्लभ उपाध्याय – अग्रवाल पब्लिकेशन आगरा पेज – 13
- प्रिय प्रवास – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध – साहित्य सागर प्रकाशन जयपुर पेज – 114
- कामायनी – जयशंकर प्रसाद – राजपाल प्रकाशन कश्मीरी गेट दिल्ली पेज – 36
- कामायनी – जयशंकर प्रसाद राजपाल प्रकाशन दिल्ली पेज – 37
- पदीस ग्रन्थावली – डाॅ राम विलास शर्मा – उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पेज – 126