दिनांक 9 सितंबर 2021,  सुबह 9:30  बजे, आजादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में श्री वेंकटेश्वर कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के बी०ए० प्रोग्राम की संस्था ‘लक्ष्य सोसायटी’ द्वारा ‘अस्मितामूलक विमर्श और हिंदी साहित्य’ नामक महत्वपूर्ण विषय पर वेबिनार का आयोजन किया गया। जिसमें दलित साहित्य को विमर्श के केंद्र में लाने वाले शीर्षस्थ साहित्यकार, विचारक, चिंतक, आलोचक, संपादक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यक्ष के पद पर आसीन प्रो. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ जी ने अपना वक्तव्य दिया। कार्यक्रम की शुरुआत पूजा कुमारी जी ने सरस्वती माँ की आराधना से की। साथ ही कार्यक्रम में प्रधानाचार्य प्रो॰ शीला रेड्डी जी भी शामिल रहीं। डॉ॰ पद्मा प्रियदर्शिनी जी के साथ संचालन कर रहे डॉ॰ राम किशोर यादव जी ने प्रो॰ श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ जी का स्वागत बड़ी मनमोहक और हृदय को स्पर्श करने वाली कविता के माध्यम से किया। जो कि उनकी आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ में पृष्ठ संख्या 315 पर है। कविता में डॉ॰ राम किशोर यादव जी ने कुछ अपनी पंक्तियों को जोड़कर उसे सस्वर गया। कविता कुछ इस प्रकार है-

 मेरे   बचपन  के नाजुक, वे नन्हे कदम-

जिस   तरफ मुड़ गए रास्ता बन गया।

धूप   में, छाँव  में, शहर  में, गाँव   में,

भूख  लेकर चली और मैं चलता  गया।।

पूरा  संसार  पुस्तक  सा  खुलता  गया-

           जितना पढ़ पाया मैं उतना पढ़ता गया।। (बेचैन)

पढ़कर   मैं   भी    तो   आगे  बढ़ता गया,

पढ़कर मैं दिल्ली विश्वविद्यालय आ गया,

विद्या   देने   की   सेवा   में  मैं  लग गया,

विद्या   देने   की   सेवा  में  मैं  लग  गया,

ऐसे   गुरुवर  के  चरणों  में  मैं  पड़ गया,

ऐसे  गुरुवार  के  चरणों  में  मैं  पड़  गया,

मेरे   जीवन  की  दिशा   बादल  ही  गया।( डॉ॰ राम किशोर यादव)

         साथ ही डॉ॰ राम किशोर यादव जी ने प्रो॰ श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ जी को वक्तव्य हेतु आमंत्रित करते हुए बिदेसिया शैली में  मुग्ध कर देना वाला स्वरचित भोजपुरी गीत भी सस्वर गया-

“हमरे बेचैन सर के माथे ताखी टोपिया से

चंदन रोली शोभेला लिलार रे बटोहिया।

चम-चम चमके   लिलार  रे  बटोहिया।

मुँहवा   तो हई   सर  कतरल पनवां से

नकिये   सुगनवा   के  ठोर रे बटोहिया।

चंदन रोली शोभेला लिलार रे बटोहिया।”

         प्रो॰ श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ जी ने वक्तव्य की शुरुआत करते हुए कहा कि आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। और यह बहुत महत्वपूर्ण बात है क्योंकि देश की आजादी बहुत बड़ी चीज है। यह किसी व्यक्ति की आजादी या उसके विकास से ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि हम अपने देश की आजादी की बात कर रहे हैं। यह एक संयोग की बात है कि ठीक एक माह पहले साहित्य अकादमी ने मुंम्बई में आजादी के अमृत महोत्सव की शुरूआत की थी जिसमें  मुझे उद्घाटन भाषण हेतु आमंत्रित किया गया था और ठीक एक माह उपरांत मैं आपके साथ मुखातिब हो रहा हूँ। यह भी बहुत महत्वपूर्ण बात है कि हम साहित्य के उन बिंदुओं और पक्षों पर बात करने जा रहे हैं। जो आजादी के बावजूद उपेक्षित रहा या जिन लोगों की अभिव्यक्ति या अनुभव साहित्य में दर्ज तो हुए किंतु विमर्शों, शिक्षकों और छात्रों के बीच में नहीं आ पाए। किंतु अब हम इस बात की प्रसन्नता का अनुभव करते हैं कि पिछले दस पंद्रह सालों में देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के साथ ही विदेश के विश्वविद्यालयों में भी उपेक्षित समुदायों के अनुभव शामिल हो रहे हैं। मेरी जो आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ है जिसका अंग्रेजी अनुवाद ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुआ है। वह अमेरिकी की युनिवर्सिटी के अंडरग्रेजुएशन कोर्स के छात्रों को पढ़ाई जा रही है। इससे यह पता चलता है कि यह जो विचार, अनुभव या साहित्य है, वह वैश्विक है। यह अब किसी कोने की चीज नहीं रह गया है। बेशक जो हमारे पाठ्यक्रम होते हैं उनमें हम उसे हाशिए पर रखते हैं या वैकल्पिक विषय बनाकर पढ़ाते हैं किंतु अब वह मुख्यधारा में है। तकनीकी तौर पर फिर चाहे वह परिशिष्ट बना हो किंतु पाठक की दृष्टि से सारी दुनिया उसका स्वागत कर रही है। वह इसलिए भी कर रही है क्योंकि चाहे वह किसी साहित्य का विकास हो या चाहे किसी समाज का विकास हो या किसी विचारधारा विकास हो। वो करना वहीं होता है जहां पिछड़ापन हो। क्योंकि उसे ही तो दूर करना है। तो जहां पिछड़ापन है, कमजोरी है उसे हम दुरुस्त करेंगे और तभी हम स्वस्थ और समर्थ्य साहित्य के साथ स्वस्थ विचार दे पाएंगे। जिससे हमारे समाज और साहित्य में बदलाव हो।

उन्होंने आगे कहा कि जैसे हम राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हुए हैं उस स्वतंत्रता का अनुभव हमें साहित्य और समाज के साथ उसका प्रभाव हमें अपने जीवन पर दिखाई पड़े। उसमें साहित्य बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। साथ ही साहित्य में चीजे सीधे-सीधे नहीं आती हैं। लक्षणा, व्यंजना आदि बहुत सारे माध्यम हैं जिससे धीरे-धीरे विचार हमारे अंदर आता है और हमारी संवेदना को विकसित कर हमें बदलता है और हमारा विकास करता है।

प्रो० श्यौराज सिंह बेचैन जी ने अपने बीते अनुभवों को याद करते हुए कहा कि मैं बचपन में छोटे-छोटे श्लोक पढ़ा या सुना करता था जो मेरे जहन में आज भी मौजूद हैं। उन्होंने संस्कृत का एक श्लोक उद्धृत कर शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि जो माता-पिता अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते हैं वे शत्रु के सामान होते हैं-

“माता शत्रु: पिता वैरी येन बालो न पाठित:।

न  शोभते  सभामध्ये  हंसमध्ये बको यथा।।

अर्थात् जो माता-पिता अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते हैं वे शत्रु के सामान होते हैं।  अशिक्षित पुत्र विद्वानों व शिक्षित लोगों के बीच वैसे ही शोभा नहीं देता, जिस तरह हंसो के बीच बगुला शोभा नहीं देता।

         उन्होंने कहा कि यह बात संस्कृत में कही गई है तो क्या हुआ इसे हम ग्रहण कर सकते हैं। यहां पर कवि कठोर ढंग से माता-पाता को भी शत्रु बता रहा है। इसके साथ ही उन्होंने संस्कृत के एक और श्लोक को उद्धृत किया-

येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।

ते  मृत्युलोके  भुवि  भारभूता, मनुष्यरूपेण  मृगाश्चरन्ति।।

अर्थात् जिस मनुष्य  के पास न विद्या है , न तप है न दान देने की प्रवृत्ति है । उसके पास न ज्ञान है न उत्तम आचरण है , न तो कोई  गुण है और न धर्म के प्रति आस्था है , वे लोग इस मृत्यु लोक  मे पृथ्वी पर भार बनकर मनुष्य के रूप मे पशु होकर विचरण करते है ।

उन्होंने कहा कि जब मैं संस्कृत का विद्यार्थी था। तो प्रेमपाल सिंह यादव हमारे एक अध्यापक हुआ करते थे। वो जब संस्कृत पढ़ाते थे तो ऐसा लगता था पूरी क्लास में वो  डांस कर रहे हों। वे इस कोने से उस कोने तक गाते हुए जाते थे और उस कोने से इस कोने तक गाते हुए आते थे। उनकी अगली विशेषता यह थी कि जो क्लास में सबसे पीछे बच्चा बैठता था। उसको जाकर पकड़ते थे। क्योंकि हमारे यहां यह रहता कि जो पढ़ाई में उदासीन बच्चा होगा वह सबसे पीछे जाकर बैठा होगा। तो वे वहां जाकर पढ़ाते थे। वे जो भी पढ़ाते थे गा-गा कर पढ़ाते थे। इसलिए बच्चे दूसरे विषयों को छोड़कर संस्कृत पढ़ने आ जाते थे। क्योंकि जब वे  लय, स्वर, ताल के साथ वाचन करते थे तो वह धीरे-धीरे भीतर उतर जाता था। यह बात मैं आपको इसलिए बता रहा हूं कि, यहां पर मैं यह नहीं कहना चाहता हूं कि संस्कृत के अलावा जो अध्ययन अध्यापन हुआ वह व्यर्थ है मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि साहित्य का सबसे बड़ा गुण उसकी पठनीयता है। पठनीयता के साथ-साथ साहित्य में वह क्षमता भी हो जो किसी के दिल में उतर कर उसको बदल दे।  वह आपको कंठस्थ हो जाए। आपके दिमाग पर चढ़ जाए। तो ऐसी रचना या ऐसा वाक्य अगर साहित्य में हो तो वह मायने रखता है।

तमाम विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में जो अस्मितामूलक विमर्श है फिर चाहे वह दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद, मूम्बई या लखनऊ में आया हो। शीर्षक अलग अलग हो सकता है किंतु यह साहित्य आया है। इसको वैचारिक स्तर पर एक पृष्ठभूमि के रूप में समझना इसलिए आवश्यक है क्योंकि हम जिस देश या समाज में हैं उसकी विशेषता क्या है। उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह सामासिक संस्कृति का देश है। वह बहुलतावादी देश है। उसमें समाज भी अनेक रूपो में है। उसमें धर्म है, संस्कृति है, जाति है और उसकी भोगोलिक परिस्थितियों के साथ भी साहित्य का रिश्ता है। साथ ही बहुत सारी भाषाएं हैं जिनका अलग-अलग साहित्य है। यदि हम एकरस साहित्य पढ़ाएंगे, उसके एक ही पक्ष पर बात करेंगे तो उससे देश की विविधता का प्रतिनिधित्व नहीं होगा। साथ ही उसका विकास भी नहीं होगा। इसलिए जो दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य या महिला साहित्य है और बल्कि मैं इस पर बहुत गंभीरता से सोचता हूं कि जो बहुत सारे पिछड़े समाज हैं, जो इस धारा में नहीं आ पाए हैं  उनका साहित्या अभी आना बाकि है। चूंकि चाहे वह आर्थिक रूप से थोड़े समर्थ्य भी हो गए हों, राजनीतिक रूप से अधिकार भी प्राप्त हो गए हों। लेकिन साहित्यिक पिछड़ापन भी एक पिछड़ापन ही है। उसका विकास हमारे अध्ययन पठन-पाठन के मार्फत ही होगा।

जैसा कि मैंने पृष्ठभूमि की बात की कि हमारा जो साहित्य है उस पर बहुत सारा प्रभाव मार्क्स, गांधी, बुद्ध, संत आदि का पड़ा। कुछ पंरपरागत साहित्य आया जिस पर वेदों, स्मृतियों और पुराणों का प्रभाव था। इस प्रकार सब तरह का साहित्य हमारे देश में उपलब्ध हुआ। लेकिन अब प्रश्न यह है कि उस सारे साहित्य को यदि हम नमूने के तौर पर या प्रतिनिधित्व के तौर पर सारे साहित्य को लेंगे तब तो हम अपने देश को समग्रता में समझने की कोशिश कर रहे हैं। और यदि हम किसी एक पक्ष समझेंगे तो हमारा ज्ञान अधूरा रहेगा।

उन्होंने आगे कहा कि हम साहित्य के मार्फत समाज सुधार भी करना चाहते हैं। हम आजादी का जो अमृत महोत्सव मना रहे हैं वास्तव में वो अभी लोगो तक पहुंचनी बाकि है। और उसके लिए राजनीतिक सत्ता परिवर्तन काफी नहीं है। इस बात को गांधी, अंबेडकर, लोहिया आदि के साथ तमाम विचाकर जानते थे कि केवल राजनीतिक सत्ता परिवर्तन किसी देश को आजाद नहीं करता है। उसमें सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन भी आवश्यक है। और यह सब परिवर्तन साहित्य से जुड़े हुए हैं। क्योंकि साहित्य बदलाव के लिए एक मन: स्थिति तैयार करने का कार्य करता है। जब समाज विविधतापूर्ण है तो जब विविधतापूर्ण साहित्य आएगा तभी उसका विकास होगा। इसलिए सभी विचारधाराओं, रचनाशीलताओं का सम्मान करते हुए, प्रतिनिधित्व देते हुए हम साहित्य को समृद्ध करना चाहते हैं।

जैसा कि मैंने पहले कहा कि विभिन्न विचारधाराओं और महापुरूषों का प्रभाव इस साहित्य पर आया है। इसलिए उसे समझना भी जरूरी है। क्योंकि ये सभी समाज सुधार की धाराएं रही हैं। जैसे कि दलित साहित्य पर ज्योतिबा राव फुले, सावित्री बाई फुले और फिर बाबा साहब की विचारधारा का प्रभाव है। यह सब भक्तिकाल से निकलकर आया है। इससे पहले एक पृष्ठभूमि भक्ति साहित्य में थी। जिसमें महाराष्ट्र में चोखामेला, हिंदी प्रदेश में रैदास जैसे संत जो विचार के स्तर पर बड़ा काम कर रहे थे। और इनकी रचनाओं से प्रभावित होकर रचनाएं आ रही थीं। वह एक दौर था। किंतु मनुष्य को परिवर्तन करना है और वो भी कानून के हिसाब से करना है,  इस बात का आरंभ हुआ हमारी आजादी और संविधान के साथ।

उन्होंने उदाहरण देते हुए गांधी और अंबेडकर के बीच हुई बहस को उद्वधृत करते हुए कहा कि एक जगह गांधी ने कहा कि जब हमारे देश के लोग आजाद हो जाएंगे तो वे दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों को स्वेच्छा से अधिकार देंगे। इसमें कानून की क्या आवश्यकता है। तो बाबा साहब ने कहा था कि आपका हृदय न्याय प्रिय हो सकता है, आप महात्मा हो सकते हैं। लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि जब हमारी पीढ़ियां बीत जाएंगी तो सब महात्मा पैदा होंगे, सब न्याय प्रिय होंगे, स्वेच्छा से सबको बराबरी देंगे और सबको सम्मान देंगे। इसलिए जब कानून होगा तो कानून के आधार पर लोग अपने मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों के आधार पर लड़ेंगे और उसे प्राप्त करेंगे।

यह जो दौर आया है जिसे हम आधुनिक दौर कहते हैं इसमें हम देशकाल परिस्थितियों को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। यदि हम ध्यान दें तो भारत की आजादी की जो लड़ाई है उस पर फ्रांस क्रांति का बहुत असर पड़ा है। और उसी के साथ-साथ 1917 में रूसी क्रांति भी हुई।  फ्रांस क्रांति और रसियन क्रांति में साहित्य का रोल बहुत महत्वपूर्ण और सकारात्मक है। जिसने राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों को बदलने के लिए एक वातावरण तैयार किया था।

यह जो आधुनिकता आ रही है जिसमें समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की बात हुई, राजा का शासन खत्म कर जनता के शासन की बात हुई और लोक महत्वपूर्ण हुआ। राजा-प्रजा के रिश्तों की बजाए जनता के प्रतिनिधि जब सत्ता में आए तो विचारों के प्रतिनिधित्व एवं साहित्य के प्रतिनिधित्व के लिए साहित्यकारों की आवश्यकता पड़ी। उस दृष्टि से हम कहेंगे कि महाराष्ट्र में बहुत बड़ा आंदोलन हुआ और दलित पेंथर आया जो कि एक वैश्विक प्रभाव में ही आया चूंकि अफ्रीका, अमेरिका में ब्लैक लिटरेचर आ चुका था। हमारे देश के कुछ लोग कहते हैं कि जो लोग आरक्षण से आ रहे हैं वे नाकाबिल लोग हैं उन्होंने इस धारणा को तोड़ा क्योंकि यह प्रतिनिधित्व का प्रश्न है। जो कि  देश के विकास में हिस्सेदारी का मोका देना है। जिस प्रकार अमेरिका और अफ्रीका में डाइवर्सिटी शुरू हुई। जिसमें यह सुनिश्चित किया गया कि यदि कोई संस्था काले लोगो के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं देती है तो वह ब्लैक लिस्ट कर दी जाएगी। अफ्रीका में तो आज भी यह नियम है कि चाहे जो इंस्टीट्यूट या फैक्ट्री हो। उनको एक कार्ड दिया जाता है। जिसमें जब तक ब्लैक रेशियो पूरा नहीं होगा तब तक उसके पास रेड कार्ड ही रहेगा। ग्रीन कार्ड तभी हासिल होगा जब ब्लैक लोगो को उनका प्रतिनिधित्व दे दिया गया हो। ग्रीन मिलने का मतलब है तब आपको सरकारी सुविधाएं मिलेंगी। ऐसा नहीं है कि आपने एक प्राइवेट स्कूल खोल दिया और वादा कर दिया कि हम 25 प्रतिशत गरीबों को सीटे देंगे। और उसके बाद कह दिया कि गरीब कोई मिला नहीं या हमनें अमीरों को ही गरीब घोषित कर दिया।

प्रो॰ श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ जी ने अपने वक्तव्य में बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही कि हमनें अस्मिता विमर्श नाम जरूर दे दिया है जो कि कई बार यह एहसास कराता है कि हम अभी भी अपने अस्तित्व की बात ही कर रहे हैं। किसी कॉन्ट्रीब्यूशन की बात नहीं कर रहे हैं। जबकि कमी यह रही है कि इस दिशा में जो रचा गया है उस पर अभी बहुत कम रिसर्च हुई और उसको ढूंढ कर कम लाया गया। क्योंकि इस दिशा में जो रिसर्च करते हैं। उसमें बच्चे साहित्य की बजाए विषयेतर ज्यादा काम कर जाते हैं। असल में आवश्यकता इस बात की है कि जिसे हम पूरा करेंगे और काफी काम किया भी है कि इतिहास को खोज कर लाया जाएगा। मैं तीन साल तक एडवांस स्टडी में इसी विषय पर सोचता, लिखता और पढ़ता रहा। और वहां जो मैंने काम किया वो लगभग एक हजार पृष्ठों का प्रोजेक्ट है किंतु मुझे समय ही नहीं मिल पाया कि मैं उसे फिर से रिराइट करता। और इधर फिर दस साल बीत गए। और दस साल में साहित्य में बहुत परिवर्तन आया और कई लेखक आए। आदिवासियों का साहित्य भी काफी आ गया है और स्त्री लेखन भी काफी बड़ी मात्रा में लिखा गया है। किंतु अब भी बहुत सारे ऐसे पिछड़े समूह हैं जिनके साहित्य को तलाशा नहीं गया हैं। फिर चाहे उसे ऑबीसी साहित्य का नाम दीजिए या कोई भी नाम दीजिए। लेकिन अभी कई क्षेत्रों से प्रतिनिधित्व नहीं हो रहा है। हम प्रतिनिधित्व की बात इसलिए करते हैं क्योंकि जब हम हर क्षेत्र को लोकतांत्रिक बनाना चाहते हैं तो साहित्य का क्षेत्र अलोकतांत्रिक क्यों रहे। वो भी लोकतांत्रिक हो और लोकतंत्र प्रतिनिधित्व से ही तय होता है जो कि सारे विचार और साहित्य को समृद्ध करता है। इसी के साथ प्रो॰ श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ जी ने अपनी वाणी को विराम दिया।

अनुज कुमार
शोधार्थी
हिन्दी विभाग
दिल्ली विश्वाविद्यालय

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