अरुणा सब्बरवाल लंदन में रहकर हिंदी-कहानियों का सृजन कर रही हैं. आप चित्रकला में भी पारंगत हैं और आपके चित्रों में भारतीयता के अनेक रंग देखने को मिल जाते हैं. ‘वे चार पराँठे’ कहानी से कहानी-लेखन की शुरूआत करने वाली अरुणा जी ने जीवन के विविध आयामों को कहानियों में अभिव्यक्ति दी है. ‘कहा–अनकहा’,  ‘वे चार पराँठे’,  ‘उडारी’ कहानी संग्रह की कहानियाँ हिंदी जगत में बहुत सराही गईं. हर कहानी जीवन से जुडी हैं, इन कहानियों को पढ़ते हुए महसूस होता है कि यह कथा तो हमारे आसपास की घटना,परिवेश और चरित्र को बयां कर रही है.कहानियों के कथ्य में मानवीय संवेदनाओं की बारीकियों को पकड़ने का अद्भुत सामंजस्य दिखाई देता है. कहानियों में जहाँ भारत और ब्रिटेन के सामाजिक परिवेश का संगम देखने को मिलाता है जो संवादनात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है, इससे  कथा की  रोचकता और प्रभावोत्पादकता में चार चाँद लग गए हैं. अरुणा जी ने नारी की आत्मनिर्भरता पर बहुत उम्दा बात रखी – “आज मुझमें आत्मविश्वास है, आत्म निर्भर हूँ, स्वावलंबी हूँ, यह सब मेरे पिता का दिया अनमोल खजाना है. पापा को दिल से धन्यवाद देती हूँ. ‘शिक्षा शिक्षा और शिक्षा’ मेरी सफलता की कुंजी तो शिक्षा ही रही है. नारी क्या कुछ नहीं कर सकती अगर वह ढान ले .”

1. आप ब्रिटेन में रहते हुए कविता और कहानी लेखन से हिंदी  साहित्य को समृद्ध कर रही हैं . आपके ब्रिट्रेन आने का क्या प्रयोजन और परिस्थितियां थीं ? 

अरुणा सब्बरवाल : आप जानते हैं कि भारत में विवाह के बाद नारी अपने पीहर को छोड़कर पति के घर रहने लगती है. ठीक यही सब मेरे साथ हुआ और 1965-70 तक जो भी भारतीय महिला ब्रिटेन आई वह विवाह के संयोग के ही कारण अपने पति संग आईं. मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा  था कि कभी लंदन जाने का सबब होगा. विवाह के बाद मैं लंदन आई. इसके पीछे भी दो कारण रहे —पहला कारण शायद एक चुनौती थी, जब मैं 15 -16 वर्ष की थी . मेरे ताया जी यू.के. से हर वर्ष भारत आते थे तो हमारे घर पर ही ठहरते थे और हमें हमेशा भगाते रहते थे कि मख्खन लाओ, डबल रोटी  लाओ, वगैरह –बगैरह के लिए और अच्छे-अच्छे तोहफे हमारी संपन्न बुआओं को देते थे. हमारी माँ के हिस्से में बची-खुची चीजें ही आती थीं और भारत में खर्च के लिए हमारी माँ से ही खर्चा लेते थे. उस उम्र में हमें भी इम्पोर्टेड चीजों का क्रेज होता था और माँ के साथ सौतेले व्यवहार से हमें बहुत बुरा लगता था. एक बार की घटना आपको बताती हूँ जब ताया जी जाते हुए माँ को लिपस्टिक देते हुए बोले- “लो भाभी यही बची है.” उस समय मुझे गुस्सा आ गया और मैंने जोश में कह दिया- ‘ताया जी आप देखना एक दिन मैं लंदन जाउंगी और अपनी मम्मी की अलमारी इम्पोर्टेट चीजों से भर दूंगी.” बस यह बात मेरे दिमाग में भर गई कि और जब रिश्ता आया तो मैंने झट से अपनी सहमति दे दी.

दूसरा कारण, मेरे पापा सरकारी नौकरी में थे और उन्हें मिरगी के दौरे पड़ते थे. उनकी बीमारी के कारण हमारी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर रही, माँ ने भी कभी नौकरी नहीं की. एक दिन लंदन से रिश्ता आया, मेरा मन जल्दी शादी का नहीं था पर माँ ने दवाब डाला और बताया कि लडके वालों को न दहेज़ चाहिए और वे लंदन तक का सारा खर्चा  उठाएंगे. सोचो तुम्हारे बहन-भाइयों के लिए भी रास्ता खुल जाएगा— माँ ने मेरे कन्धों पर सबकी जिम्मेदारी डाल दी, मैं घर में सबसे बड़ी थी —- न चाहते हुए भी हाँ कर दी और इस तरह मैं लंदन आई और पिछले 50 वर्षों से यहीं हूँ .

2. ब्रिटेन में प्रवास के प्रारंभिक जीवन-संघर्ष के बारे में कुछ बताइए .          

अरूणा सब्बरवाल : जीवन का दूसरा नामही संघर्ष है . दुनिया के किसी कोने में भी रहोजीने के लिए किसी न किसी रूप में संघर्ष तो करना ही पड़ता है. जीवन रेल की सीधी पट्ट तो नहीं जो नदी की भांति बढ़ती जाए. फिर अपना घर देश छोड़ कर किसी और देश में आना ही संघर्ष को शुरू करता है …… उस वक्त ऐसा लगता है कि आप किसी महाद्वीप के बीच में अकेले खड़े हैं. नया देश, नए लोग, नया मौसम, नया खान-पान और नया  भाषा-वातावरण, सब कुछ तो भिन्न होता है. उस देश की भाषा का ज्ञान होते हुए भी अपाहिज महसूस करते हैं, कोई आपका उच्चारण नहीं समझता, कोई तुम्हें पसंद नहीं करता. मुझे इसका एहसास तब हुआ जब मैं खाता खुलवाने के लिए डाकघर गई. खिड़की पर खडी लड़की ने पूछा ‘ कैन यू रा—-ई—’, मुझे कुछ समझ नहीं आया उसने दो-तीन बार उसी तरह दोहराया. जब चौथी बार उसने इशारे से वही बात कही कि – घर जाओ और कल अपने पति को साथ लाना  और मेरे हाथ में एक फॉर्म पकड़ा दिया और इशारे से कहा क्योकि तुम लिख नहीं सकती हो. मैंने फॉर्म भरकर उसे थमाया तो कभी वो मेरे तरफ देखे कभी फॉर्म को. ऐसी स्थिति में तुम पढे लिखे बेवकूफ दिखने लगते हो, ऊपर से मौसम इतना ठंडा सब कुछ जमा जाता . घरों में गुसलखाने नहीं होते थे, बाहर जाना पड़ता था. कई बार लघुशंका के लिए गर्दन के आखिर तक जाना पड़ता था क्योंकि शौचालय वही था. रात को बिन बत्ती के पूरा इतिहास लिखा जा सकता है. उन दिनों जितना भी पढ़े-लिखे हो नौकरी तुम्हें फैक्टरी में या बस कंडक्टर/ ड्राइवर का काम मिलता था. मैंने भी कपडे सीने तथा ताले बनाने वाली फैक्ट्री में काम किया था. हालाकिं मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए.आनर्स किया था. घुटनों-घुटनों तक पडी वर्फ में बच्चों को बेबी सिटर के सहारे छोड़कर फैकटरी जाना पड़ता था. तीन-तीन बसें बदलनी पड़ती थीं, जीवन फूलों की सेज नहीं था , विवाह के तीन महीने बाद आई थी , पति भी अनजान पुरुष थे, एक-एक घर में दस-दस लोग रहते थे. उन दिनों सभी को उन्हीं संघर्षों को झेलना पड़ता था.

जब गाडी कुछ पटरी पर आई तो जीवनसाथी ही बिछड़ गए. अब मैं दो छोटी बच्चियों के साथ अकेली पड़ गई . बच्चों की जिम्मेदारी, पैसों की कमी थी,  पर मन में सुकून था कि जिस अंग्रेजों के शहर में रह रही हूँ वहां लोगों की नजरें मुझे नापने-तौलने में नहीं लगेंगी और न ही मैं लोगों की बुरी नज़रों का शिकार बनूंगी. मैंने अपने आप को सुरक्षित पाया. पति की मृत्यु के बाद बर्मिघम विश्विद्यालय से स्नातक और बी.एड किया. मजेदार तो यह बात है कि मैंने  और मेरी बेटी दोनों ने एक साथ क्लास में बैठकर पोस्ट ग्रेजुएट किया. लंदन में स्पेशल नीड्स स्कूल में अध्यापन किया फिर 25 वर्ष मुख्य धारा में अंग्रेज बच्चों की शिक्षिका रही. बेटियों के विवाह में समस्या तो नहीं हुई किन्तु समाज की बातों से मन उखड जाता है. हमारे परिचित ने अपने किसी परिचित को बताया कि तुम अपने लड़कों के लिए लड़कियां देख रहे हो , यदि चाहो तो अरुण की दो सुंदर लड़कियों के बारे में सोच सकती हो ? तो उन्होंने जबाब दिया कि ‘ न बहन हमें तो ऐसा घर चाहिए जहाँ पुरुष मत्थे लगाने वाला हो, अरुण के न तो बेटा है न पति.’ अकेली औरत की व्यथा नहीं जानती हो कोई भी उसे इज्जत की नज़रों से नहीं देखता , अकेली औरत के लिए बहुत चुनौती होती हैं. प्रभुकृपा से सब ठीक होता रहा और जीवन की रेल चलती रही.

फिर लेखन में मैं बहुत देर से आई और लंदन में रहकर हिंदी में लिखने वाले मुझसे आयु में न सही इस क्षेत्र में वरिष्ठ हैं. मैं किसी की प्रतियोगिता में नहीं हूँ. उषा राजे,कादम्बरी मेहरा, तेजेंद्र शर्मा मुझे निरंतर प्रोत्साहित करते रहते हैं.उनके प्रति मैं कृतज्ञ हूँ. मुझे संतुष्टि है कि भारत के हिंदी पाठक मेरी रचनाएं पढ़कर मेरा उत्साहवर्धन करते रहते हैं. मैं अपने लेखन और प्राप्ति से संतुष्ट हूँ .

3. आपके जीवन में हिंदी का क्या महत्व है? परदेश में रहकर आपको अपनी भाषा को सहेजने में क्या उपक्रम मिले ?

अरूणा सब्बरवाल : डॉ.दीपक जी , हिंदी भाषा से ही आज मेरी पहचान है. समाज में रहने के लिए इंसान की पहचान होना आवश्यक है कि वह कौन है ? कहाँ से आया है? उसकी बोली-भाषा क्या है? यह सब जानते हुए भी मुझे खेद है कि मैं अपने दोनों बच्चों को हिंदी भाषा पढने-पढ़ाने में असफल रही. पर कई बार सोचती हूँ कि इसमें किसी और का दोष नहीं है, चौबीस घंटों तीन सौ पैसठ दिन अंग्रेजी भाषा के वातावरण में रहकर उसे का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है. वैसे भी मैं कई वर्षों ऐसे शहरों में रही जहाँ हिंदी भाषा तो एक भारतीय भी नहीं दिखाई देते थे.मेरे बच्चों की पीढी तो हिंदी समझ लेती है,बोल लेती है,किन्तु उनकी भावी पीढी का क्या होगा ? यह एक चिंताजनक परिदृश्य है. इसी विचार से चिंतित मैं 1987 में चैश्चर छोड़ कर बर्मिघम चली आई जहाँ भारतीय लोगों की संख्या अच्छी है और वहां मंदिर,गुरुद्वारे भी है.

बर्मिघम में रहते हुए मैंने दो-तीन भारतीय संस्थाओं में जाना शुरू किया जैसे Indian Ladies Club और U.K.Asian women Centre . वहां पर भारतीय महिलाओं से मिलना-जुलना हुआ और हिंदी में बातचीत करने का अवसर भी मिल जाता था . इस वातावरण में अपनी बेटियों को ले जाती थी जिससे उन्हें भी भारतीय भाषा और संस्कृति के बारे में जानकारी मिली. अवकाश के बाद 2008 में मेरी एक दोस्त ने मेरा परिचय करवाया. गीतांजली ने मेरे लिए राम बाण का काम किया, मुझे लगा मानो मैं अपने घर लौट आई हूँ. हिंदी भाषा के बीज तो मुझसे गहरे थे ही, मुझे लगा मेरी खोई हिंदी भाषा जाग उठी है. यहें से मेरे हिंदी लेखन का आरंभ हुआ.

4. हिंदी कहानी लेखन के प्रति आपकी रूचि कैसे पैदा हुई और इस क्षेत्र में आपके पथ-प्रदर्शक कौन –कौन रहे ?

अरूणा सब्बरवाल : छोटी आयु में पति की मृत्यु के पश्चात् दो छोटी-छोटी बच्चियों के लालन-पोषण के लिए नमक-तेल-लकड़ी जोड़ने में तथा उनके भविष्य का ताना-बाना बुनने में ही जीवन कब और कसे बीत गया, मालूम ही नहीं चला.स्वयं के लिए तो फुर्सत ही नहीं मिला.

कई बार अकेले में उदास बैठे-बैठे मन में उठे उद्गारों को कागज़ पर उड़ेल देती,अपने लिए और सिर्फ अपने लिए. कभी किसी से इस बारे में जिक्र ही नहीं किया .फिर सेवानिवृत्ति के बाद मेरी प्रिय सखी मुझे ‘गीतांजली बहुभाषी समुदाय संस्था’ में ले गई, इसमें जाते-जाते सुनते-सुनते मेरी हिंदी भाषा भी जागने लगी. फिर संयोग बना कि एक दिन ममता कालिया की माध्यम से पहली कहानी  ‘वे चार परांठे’ नया ज्ञानोदय में छपी. और कहानी की हिंदी जगत में बहुत सराहना मिली. इस प्रोत्साहन ने जादू का काम किया और मैंने कहानी में अपनी भावनाएं उड़ेल दीं और विश्राम नहीं ले रही हूँ.  ‘वे चार परांठे’ से कहानी लेखन की चिंगारी तो लग ही चुकी थी और उसे हवा दी, मेरे कालेज के प्राध्यापक डॉ महीप सिंह जी ने.वे मुझे निरंतर प्रोत्साहित करते रहे और ‘संचेतना’ में मेरी कहानियाँ प्रकाशित कर अपना आशीर्वाद देते रहे.

अभी भी कभी-कभी यह सोचकर मेरे चहरे पर मुस्कराहट फ़ैल जाती है कि जब मैं अपनी दो-तीन कहानियाँ महीपसिंह जी के पास लेकर गई तो हाल-चाल पूछने के पश्चात पूछने लगे कि अब आगे क्या करना चाहती हो ? मैं घबरा रही थी, डर-डर कर के कहा –सर जी मैंने कुछ कहानी लिखी हैं. वे जोर-जोर से हंसाने लगे, मुझे ऊपर-से नीचे तीन-चार बार देखा और मुस्कराते हुए बोले –“कक्कड़ (मेरे मायके का नाम) तुमने तुमने कहानी लिखी है ? मैंने सकुचाते हुए उन्हें कहानी थमा दी. उन्होंने मेरी कहानियों पर नजर डाली और खुश होते हुए बोले-छोड़ दो इन्हें मेरे पास . मैं तो सपने में भी नहीं सोच सकता था कि सबसे शरारती लड़की जो कभी क्लास में चन से नहीं रहती थी वह गंभीर होकर कहानी रचने लगी. उन्होंने मेरी कहानियाँ अपने संपादन में ‘संचेतना’ पत्रिका में छापीं .

तीसरे प्रेरक मेरे मामाजी ‘श्री शेरजंग गर्ग’ प्रतिष्ठित कवि,व्यंग्यकार,बाल साहित्यकार लेखक थे.वे बड़े ही प्यार से मेरी रचनाओं को सुनते थे. जब भी मैं भारत जाती तो मामाजी की रोशनी कमजोर हो जाने के कारण मेरी नई रचनाओं को सुनाने के लिए कहते और एक दिन गंभीर होकर बोले –तुम तो बहुत अच्छी कहानियाँ लिख लेती हो और उन्होंने मुझे साहित्यिक सभाओं में साथ ले जाकर मंच प्रदान कराते रहते . उन सबका आशीर्वाद मुझे मिला मैं अपने आप को बहुत खुशकिस्मत मानती हूँ.

5. अरुणा जी, आपके हिंदी के पसंदीदा कहानीकार कौन हैं?

अरुणा सब्बरवाल : दीपक जी,जैसा मैंने पहले बताया कि जीवन की आप-धापी और व्यस्तता के कारण ब्रिटेन में रहते हुए हिंदी कहानीकारों का साहित्य पढने का अवसर ही नहीं मिल पाया. सेवा से अवकाश के बाद लेखन आरंभ किया है फिर भी समय और कहानियों की उपलब्धता से महीपसिंह, राजी सेठ, भीष्म साहनी तथा ब्रिटेन के अचला शर्मा,उषा राजे सक्सेना,दिव्या माथुर,तेजेंद्र शर्मा की कहानियाँ पढने का अवसर मिला है , वह भी बर्मिघम से लंदन आने के बाद ही . आजकल में मोहन राकेश की कहानियाँ पढ़ रही हूँ. आपको बता दूं कि यहाँ हिंदी की ज्यादा पुस्तकें उपलब्ध नहीं हो पाती हैं .

6. अरुणा जी, आप पहली बार ब्रिटेन आइन थीं तथा आज पास हिंदी का जो वातावरण था और आज जो वातावरण है उसमें क्या भिन्नता पाती हैं. क्या ब्रिटेन में आज के हिंदी वातावरण से आप संतुष्ट हैं ?   

अरुणा सब्बरवाल : यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप ब्रिटेन के किस भाग में है शहर या गाँव में ? 1969 में मैं Black Country यानी Medland में आई जहाँ थोड़े बहुत भारतीय तो थे किन्तु सभी पंजाब के कृषि ठेठ पंजाबी बोलने वाले पढ़े लखे तो थे नहें, बस कंडक्टर,या ड्राइवर या फैक्टरी में काम करते थे. मैंने पाया कि आसपास हिंदी का तो नामोनिशान नहीं था. वहां हमारी अंग्रेजी कोई समझ ले यही बहुत था. पति की Chestire जो काउंटी था के छोटे से गाँव में पोस्टिंग हुई. वहां तो हिन्दुस्तानी की सूरत भी नहें दिखाई दे जाए वही खुशी की बात थी. जो भारतीय थे वे पति के ही हास्पिटल में काम करने वाले  ही थे और चाहे वह मद्रासी हो,गुजराती हो, बंगाली हो सभी के आपसी व्यवहार की भाषा अंग्रेजी ही थी . मुझे वहां दर लगा रहता था कि मेरे बच्चे यहाँ तो भारतीयता से दूर हो जायेंगे. पति के निधन के आठ साल बाद मेरी मित्र की सहायता से बर्मिघम में मुझे शिक्षिका की नौकरी मिल गई. बर्मिघम में भारतीय मंदिर/ गुरुद्वारे/ संस्थाएं थीं जिनसे मेरा परिचय हुआ. गीतांजली बहुभाषी समुदाय से जुडी तो मेरा हिंदी के प्रति लगाव बढ़ा और लेखन शुरू हुआ.सात-आठ साल पहले मैं अपनी बेटी और उसके परिवार के पास लंदन शहर आ गई हूँ .यहाँ हिंदी का विस्तृत फलक है, अनेक हिंदी की संस्थाएं सक्रिय हैं, जैसे वातायन, कथा यू.के.,हिंदी समिति. इन हिंदी परिवारों से जुड़कर मैं हिंदी-संसार में आकर खुश हूँ और हिंदी मेरी रग-रग में बस गई है. आज के वातावरण से मैं बहुत खुश हूँ.

7. आप किन-किन विधाओं में सृजन कर रही हैं और किस विधा में लिखना आपको सबसे ज्यादा सुकून देता है ?

अरुणा सब्बरवाल : दीपक जी, आपकोबताऊँ कि मैं मूलत: अपने आप को कहानीकार मानती हूँ . कविता मैंने कभी लिखने के उद्देश्य से नहीं लिखी,कविता तो बस बन गई. कम उम्र में पति की मृत्यु से जीवन में सूनेपन और उदासी में जब मन ने रोते-रोते जो भाव दिए उन्हें कागज़ पर उकेर डाला. आज अचानक वो दिन याद आ गया है- जब एक दिन मन बड़ा उदास था, बच्चे घर पर नहीं थे, बच्चों के सामने रोया भी तो नहीं जा सकता था. उस दिन पति रमेश को याद कर बहुत रोई, चीखें मार-मार कर रोई और उसी स्थिति में मन में जो कुछ आता गया लिखते गई और जब संभली तो पाया कि आठ छोटी कवितायें लिखीं गईं. अब आप इसे कविता कहें या मन की उदासी के भाव,वे कवितायें मैंने कभी किसी को नहीं दिखाईं/पढ़ाईं ये तो मेरे लिए निजी भावानाओंओ का अमूल्य खजाना है. बाद में लिखी कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हुए जिन्हें मैंने दूसरों के सामने प्रचारित नहीं किया. पहली कहानी ‘वे चार परांठे’ के प्रकाशन ने मुझे इतनी ऊर्जा दी कि मैंने अपनी लेखनी को कहानी विधा को समर्पित कर दिया और कहानी ही लिखती हूँ. अब तो मन में कहानियों के कथ्य ही चल-कदमी करती रहती हैं. अब तक मेरे तीन कहानी संग्रह छप चुके हैं और चौथा तैयार है. कहानी विधा में ही मेरा मन रमता है.

8. आपकी आपकी पहली प्रकाशित रचना कौन सी है? इसके प्रकाशन से पारिवारिक सदस्यों से क्या प्रतिक्रया मिली ?

अरुणा सब्बरवाल : मेरीपहली कहानी ‘वे चार परांठे’ भारत की प्रतिष्ठित पत्रिका नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई थी,वह भी मेरे सेवानिवृत्ति के पश्चात. इस पर क्या प्रतिक्रिया हो सकती थी उसके लिए जिसने कभी  कुछ सृजनात्मक लिखा न हो. इसके प्रकाशन की सूचना भी मुझे मेरी answering मशीन से मिली जिसमें कितने ही बधाई के सन्देश भी थी.यह मेरे लिए विश्वास से बाहर की बात थी और रात का समय था इस खुशी को किसी और के साथ साझा भी नहीं कर सकती थी अकेले ही अंतर्मन में खुशी से झूम उठी, नाच रही थी,गा रही थी. स्वयं ही मेरे पाँव ता-धिक्-धिन करने लगे, कहानी की इतनी प्रसंशा सुन कर खुशी के मारे चुलबुली किशोरी सी नाचने लगी.उस वक्त मैं साठ वर्ष की प्रौढ़ महिला में नौजवान लड़की की पराई सी लग रही थी. स्वयम को समझाया. मैंने अपने अध्यक्ष जी को फोन किया की उनका लगाया पौधा पनप रहा था. यह तो मेरा मन ही जानता है कि इस अनुपम अनुभूति के एहसास श्रेय उन्हीं को जाता था. फिर अपनी बेटी को बताया कि मेरी एक कहानी छापी है तो उसने कहा वेरीगुड और पूछा कि हिंदी में या अंग्रेजी में है ? हिंदी सुनते ही उसका वेरीगुड  ढीला पड़ गया और मेरी उत्सुकता कूड़े के ढेर में चली गई ( इसमें उसका कोई दोष नहीं क्योंकि लंदन में पली-पढी है इसलिए अंगेजी ही पढ़ सकती थी ), मैं तो अपनी अनुभूतियाँ बांटना चाहती थी. यह भी अच्छा है लिखते समय कभी-कभी मैं जवाई (Son in law) को पढ़ कर सुना देती थी.

इस सूचना को अपनी सहेली के साथ साझा किया तो वह खुशी के मारे सातवें आसमान पर उड़ने लगी, मानों उसकी खुद की रचना प्रकाशित हुई हो. वह बोली ‘अरुण तुझे नयी दिशा का संकेत मिल गया है,रुकना मत, फिर मुझे खुश होने में भी अजीब सा अपराध बोध सताने लगा. जब इस कहानी के प्रकाशन की सूचना भारत में परिवार के पास थक पहुँची तो  उन लोगों से प्रशंसा तो क्या प्रताड़ना मिली. भाई बोला- तुम समझती क्या हो, खानदान की इज्जत की धज्जियाँ उड़ा दी (क्योंकि यह कहानी परिवार के सदस्य की ही थी.), उन्होंने मुझसे बात करना बंद कर दिया. मैंने जब उससे पुछा कि क्या उसने कहानी पढी भी है या नहें ? तो उसने बताया कि पढ़ भी लूंगा –किसी ने बताया है . हाँ मेरे जवाई ने पढी और उसकी सराहना की.

9. आदरणीया अरुणा जी, आपके हिंदी के दो काव्य संग्रह ‘साँसों की सरगम’ और ‘बाटेंगे चंद्रमा’ प्रकाशित हुए हैं . आपकी विचार में कविता क्या है और यह निजी जीवन के कितने करीब होती है ?

अरुणा सब्बरवाल : कविता मेरे लिए संवेदनशील व्यक्ति की विविध मनोदशाओं और संवेदनाओं की गहन अभिव्यक्ति है. इस अभिव्यक्ति के अनेक आयाम हैं कभी चंद में और कभी छंदमुक्त होकर प्रवाहित होती है. मेरी कवितायें भाव-प्रधान हैं उनमें भावों की गहन्ताहाई.मेरी कवितायें बाहर एवं अंत:चक्षु के बीच एक पुल का निर्माण करती हैं.कविता को सिर्फ निर्झरिणी की तरह बहना चाहिए. मेरी कविताओं की शैली नई कविता से नजदीक है, जिन्हें स्वरबद्ध किया जा सकता है.आपको बताऊँ कि मेरी कवितायें निजी जीवन के बहत करीब हैं. पति की मृत्यु के तीन दशक बाद भी मेरी कविता में उनकी आत्मा तथा उनकी स्मृतियाँ से संवाद करती रहती हैं. कविता की कलात्मकता से मैं अनभिज्ञ हूँ पर मन के गंभीर और मौलिक विचारों को व्यक्त करती हैं. मेरी कविताओं के भावों में प्रेम और संवेदनाओं के सकारात्मक सोच और अनुभूतियों  का व्यापक संसार चित्रण हैं. मेरे विचार से प्रेम और संवेदनाएं मनुष्य को मनुष्य बनाए रखती हैं. कविता ने मुझे विवेक दिया है और मेरी नसों में नई ऊर्जा का संचरण किया है . अपनी कविताओं की कुछ पंक्तियाँ सुनाती हूँ –

माँ                             एक बार

यह सच है                      सुबह की / परसती धूप

तुमने जीवन दिया                के स्पर्श से / महकते समीर

——————-                 की छुअन से / जी उठटी हूँ मैं

माँ तुम्हारी खुशबू                एक बार फिर

इत्र भरती है हवा में              मरने के लिए .

मेरी सांसों के लिए

10. अरुणा जी, आपने चर्चा के दौरान बताया कि किसी समीक्षक ने आपको  कविता विधा से दूर रहने का सुझाव दिया था. जिससे आप आहात हुई. आपकी कवितायेँ भाव और शिल्प की दृष्टि से समृद्ध हैं. आपको  गुलजार साहब की पंक्ति “उम्र जाया कर दी, लोगों ने औरों के वजूद में नुक्स निकालते निकालते ——-” के मर्म को समझ कर आगे बढना चाहिए. इस संदर्भ में आप क्या कहेंगी ?

अरुणा सब्बरवाल : दीपक जी, जो भी हुआ उसका मुझे खेद नहीं, सबके अपने-अपने विचार होते हैं.पर किसी की बातों से मेरा आत्मविश्वास जरूर आहत हुआ था और मैंने कुछ दिनों तक कविता से दूरी बना ली थी. जैसे मैंने बताया कि मैनें हिंदी लेखन सेवानिवृति के बाद शुरू हुआ, मूलभाषा पंजाबी है और लम्बे समय तक अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाते-पढाते मेरी हिंदी शिथिल होती गई . हिंदी लेखन में इस आशा से प्रयास कर रही हूँ . हर व्यक्ति अपने गुण-अवगुण जानता है,  मैं भी जानती हूँ . मेरी कवितायें मेरे भावपूर्ण और सम्वेअद्नाओन की अभिव्यक्ति का माध्यम है, किन्तु उनका अपना शिल्प है बस कमी है वह सीमित है.

हम सभी जानते हैं कि प्रत्येक नया कवि अपने साथ अपनी कुछ स्मृतियाँ,कुछ बिम्ब,कुछ अनुभव सीमित मात्रा में ले कर काव्य-क्षेत्र में प्रवेश करता है और समय के साथ परिपक्वता के साथ उसकी अभिव्यक्ति का क्षेत्र विस्तार पाता जाता है.

11. अरुणा जी आपने  भारतीय और पाश्चात्य जीवन जिया है. इन दोनों परिस्थितियों में स्त्री-जीवन में क्या भिन्नताएं हैं और इस परिवेश में भारतीय नारी जीवन में कैसे सुधार लाया जाना अपेक्षित है ? 

अरुणा सब्बरवाल : यह सही है कि मैंने भारतीय और पाश्चात्य दोनों जीवन जिया है.अगर तुलनात्मक ढंग से देखा जाए तो भारत की तुलना में पाश्चात्य जीवन, उससे ज्यादा जिया है, दोनों ही सभ्यताओं की अच्छाइयों को खुद में समेटा है. कहते हैं इंसान कभी अपनी जड़ों से अलग नहीं होता, यह भी सच है कि इंसान का वातावरण का उस पर बहुत प्रभाव पड़ता है.अब प्रशन यह उठाता है दोनों देशों में सामान्य जीवन की भिन्नताओं करके उनमें संतुलन लाना क्या संभव है, कहाँ पूर्व कहाँ पश्चिम ? पश्चिमी देशों में स्त्री को पूर्ण स्वतंत्रता है .उसे हर निर्णय के लिए पीटीआई/पुरुष से अनुमति नहीं लेनी पड़ती, वह निर्णय लेने में स्वतंत्र है. यही नहीं जीवन के हर क्षेत्र में वह पुरुष के साथ बराबर की हकदार है, हिस्सेदार भी है, स्वावलंबी है. वृद्धावस्था में भी उसे बेटे बहू या फिर किसी और के मुंह की और नहीं देखना पड़ता.आर्थिक,सामाजिक क्षेत्र में स्वावलंबी है. ब्रिटेन में यदि आप आर्थिक रूप से शिथिल है, आपकी आमदनी कम है,आप विधवा हैं,डायवोर्स हैं, तो भी चिंता की कोई बात नहीं हैं. यहाँ की गवर्नमेंट आपके परिवार के लालन-पोषण के लिए संपूर्ण खर्च देती है. एक बात याद आ गई कि पति की मृत्यु पर किसी ने मुझे कहा ! तुम्हें काम करने की क्या जरूरत है, गवर्नमेंट सारा खर्च देगी. मैं यह सुनकर हैरान थी मुझे लगा कि किसी ने मुझे गाली दी है. मैंने कहा मैंने भगवान् ने मुझे हाथ-पैर दिमाग दिया है, पिटा ने उचित शिक्षा-दीक्षा दी है. विषम से विषम परिस्थिति से लड़ने में मुझे सक्षम बनाया है तो मैं किसी के सामने जीवन के लिए हाथ फैलाऊँ ? मैंने देना सीखा है लेना नहीं .

ब्रिटेन की न्याय प्रणाली बहुत मजबूत है, महिलायें पूर्णरूप से 100% सुरक्षित हैं. अपने अधिकारों के लिए सजग हैं. पति-पत्नी दोनों साथ-साथ घर के कामों में बराबर एक दूसरे का साथ देते हैं. यही प्रतिरोध की भावना,अधिकार के लिए आवाज उठाना मेरी कहानियों में झलकता है . मेरी कहानियों की नारी अपने अधिकारों के प्रति  सजग एवं सशक्त है, आत्म्स्वाभिमानी है, उसमें आत्म विशवास कूट-कूट कर भरा है. मैं भी स्त्री हूँ, अकेली हूँ इसी समाज में रहती और भोगी हूँ.

अब बात करते हैं भारतीय जीवन की —–मेरे विचार से दोनों देशों की भिन्नताओं का तुलना करना न्याय नहीं होगा. भारतीय समाज में स्त्री की शोषण की प्रथा चलती आ रही है, बाल विवाह,सती प्रथा, भ्रूण हत्या इत्यादि. हमारे समाज ने पुरुषों को पूर्ण रूप से यह अधिकार दिया है, कोई आवाज भी नहीं उठाता. यह तो सब जानते हैं भारत एक पुरुष प्रधान देश है. यहाँ दिशा और स्थिति विपरीत हैं. बचपन से ही स्त्री को कोई अधिकार नहीं दिया जाता, पहले बाप के घर से वह खिले बिना ही वह पति के घर पहुंचा दी जाती है , फिर पति के यहाँ एक पति की ही नहें बल्कि पूरे परिवार की नौकरानी बन कर रह जाती है.पति का अंकुश रहता है, वृद्ध होने पर बेटे-बहू के बस में. वह अपना जीवन अपनी मर्जी से जीती कहाँ है ? सबके लिए जी-जी कर अपन सर्वस्व कहो या अस्तित्व ही मिटा ही देती है.

भारत में स्त्री चाहे कितनी भी शिक्षित हो,काबिल हो.पुरुष से कंधे से कंधा मिला कर चलती हो, स्वावलंबी हो फिर भी भारत के समाज में उसका दर्जा  दोयम ही रहता है. उसे स्वयं निर्णय लेने का अधिकार नहीं, पूरे परिवार से आज्ञा लेनी पड़ती है. अब शहरों की स्थिति में थोड़ा परिवर्तन आ रहा है.पुरुषों से ज्यादा पढी-लिखी होने के बावजूद उसे पूर्ण निर्णय लेने का अधिकार अभी भी नहीं है.

एक प्रसंग याद आ रहा है, युवावस्था में पति की मृत्यु के बाद मुझ पर भारत से दवाब पड़ने  लगा कि बच्चों के साथ भारत लौट आओ.मैंने बहुत सोच अगर मैं वापस चली जाती  हूँ तो भाई के घर में हम बोझ बनकर जियेंगे, हर वक्त मेरी बच्चिओं के साथ टोका-ताकी होगी , ये मत करो वो मत करो . मेरी बेटियों ने अपना पिता  खोया था ऊपर से दूसरों की टोका-ताकी से उनका आत्मविश्वास जगाने से पहले ही मार दिया जाएगा और मुज पर भी बंदिशों की भरमार लग जाती सफ़ेद कपडे पहनो, यहाँ मत जाओ वहां मत जाओ इससे बात करों न करो इन पर सब अपनी-अपनी पाबंदियां थोपते —— इसी उधेड़बुन में पिता  के दिए आत्मविश्वास ने गुहार लगाई और मैंने भारत वापसी की सलाह को दरकिनार कर दिया और ब्रिटेन में ही रहने का निर्णय लिया और अपनी शिक्षा को शुरू किया और बी.ए., बी.एड. और पोस्टग्रेजुएशन किया.

प्रश्न उठता है स्त्री की स्थितियों में सुधार कैसे लाया जाए ? इसकी जादुई चाबी है –“शिक्षा” स्त्री को अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी होगी, शिक्षित होकर माँ बाप को बचपन से ही बेटे बेटियों को बराबर का दर्जा देना होगा. लड़कों के मन में नारी के लिए सम्मान की भावना बच्चियों में आत्मविश्वास और आत्म निर्भरता के बीच बोने होंगे. आत्म विशवास होगा तो निर्णय लेने की क्षमता भी होगी. अगर माँ बाप शिक्षा, आत्मविश्वास, आत्म निर्भरता का उपहार नहीं देंगे तो कौन देगा ?

नौजवान पुरुषों को भी पहल करनी होगी, स्त्री को सम्मान देना सीखना होगा. समय बदल रहा है . आज की नारी सशक्त है स्वाभमानी है उसके स्वयं को जगाना होगा उसे opportunities provid करनी होगी. मेरी एक छोटी कविता है :-

अपनी दृष्टि में अहम् बन गई हूँ मैं

जंजीरों से निकली स्वयम बन गई हूँ मैं

इसी प्रसंग में एक बात और याद आई . एक बार किसी ने मेरे पापा जी से कहा-‘आपकी बेटी ने हायर सैकेंडरी पास कर ली है और आपके पास न तो ज्यादा  पैसा है न ही अरुण सुन्दर है. कोई भी छोटा-मोटा काम करने वाला ढूंढकर शादी कर दो.’ मेरे पापा को गुस्सा आया और उससे बोले-‘ आज तो तुमने ऐसी बात कह दी फिर कभी की तो बहुत बुरा होगा.’ मेरे पापा ने निर्णय ले लिया कि मैं बेशक सूखी रोटी नमक और प्याज के खा लूंगा पर बेटी को पढ़ाऊंगा जरूर.

आज मुझमें आत्मविश्वास है, आत्म निर्भर हूँ, स्वावलंबी हूँ, यह सब मेरे पिता का दिया अनमोल खजाना है. पापा को दिल से धन्यवाद देती हूँ. ‘शिक्षा शिक्षा और शिक्षा’ मेरी सफलता की कुंजी तो शिक्षा ही रही है. नारी क्या कुछ नहीं कर सकती अगर वह ढान ले .

12. अरुणा जी, आपको किसी कहानी का कथ्य मिल जाता है तो उसके स्वरुप तक पहुँचाने में किस प्रकार की छटपटाहट मससूस करती है. इस सन्दर्भ में हम जानना चाहता हूँ कि आपकी रचना-प्रक्रिया क्या है ?

अरुणा सब्बरवाल : दीपक जी, किसी घटना या बात से जब कुछ सूत्र मिल जाते हैं तो मेरे मस्तिष्क कथ्य को लेकर तूफ़ान के साथ जुनून छा जाता है कैसे उसे शब्दों में पिरोया जाए. उठते बैठते वह छटपटाहट दिमाग में घूमता रहता है और कभी-कभी तो कहानी को अंतिम रूप तक पहुंचाने में चार से छह महीने लग जाते हैं. इस तरह कहानी लेखन की प्रक्रिया बहुत जटिल होती है. पहले मन में कहानी उमड़-घुमड़कर एक ढांचा पा जाती हूँ तो उसे कागज़ में उतारने का क्रम चलता है कहानी के पात्रों की संवेदना और भावनात्मकता के आधार पर कहानी बहुत निर्भर करती है. नए मुद्दे और सामाजिक संबंधों पर आधारित कहानियों को लेखन में बहुत चिंतन-मनन होता है इसलिए इस प्रकार की कहानियाँ ज्यादा समय लेती हैं. मेरा प्रयास रहता है कि पाठक को कहानी के साथ जोड़ने और उसे  आगे पढने के लिए विवश करना कहानी – संरचना में रहता है और विषय को रोचक शैली में प्रस्तुत करना होता है.

आपको मैं एक बात बताऊँ कि कागज़ और कलम दो चीजें हमेशा मेरी पहुँच में रहने अनिवार्य है क्योंकि जब भी कोई भाव मन को कुरेदता है तो तरंत उसे कलमबद्ध करना आसान रहे .प्रवासी जीवन के वातावरण, सामाजिक मुद्दे, स्त्रियों से जुड़े बिषय मेरी कहानियों में चित्रित हैं, और भारतीय जीवन से जुडी हैं.

13. आदरणीया अरुणा जी, आपकी पहली कहानी ‘वे चार परांठे’ नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई थी, इससे आपका कहानी लेखन कैसे प्रभावित हुआ ? इस कहानी के कथ्य की प्राप्ति के स्रोत के बारे में बताइए.

अरुणा सब्बरवाल : दीपक जी, आपको एक घटना बताना चाहती हूँ कि 2008 में लंदन में आयोजित एक कहानी-वर्कशॉप में हिंदी के वरिष्ठ कहानीकार रवींद्र कालिया और ममता कालिया जी से मुलाक़ात हुई . वर्कशॉप के बाद कालिया जी ने कहानी लिखने के लिए प्रोत्साहित किया और बात आई-गई हो गई. बस एक दिन अपने गार्डन में बैठे-बैठे मैं  ‘वे चार परांठे’ को पेपर में उतार दिया . हिंदी-कहानी लिखने में अपने-आप पर तो विश्वास तो था ही नहीं. जब मैं भारत आई तो मैंने वह कहानी ममता जी को दिखाई, कहानी पढ़कर वे हैरान सी हो गईं, उन्हें कहानी बहुत पसंद आई. उन्होंने कहा कि अरुणा यह कहानी मेरे पास छोड़ जाओ. मैंने वह कहाने पेन्सिल से लिखी थी और कहानी की एक फोटो कापी मुझे थमा दी. कुछ दिन बाद वह कहानी नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हो गई. मुझे तो इसकी खबर तक नहीं थी कि मेरी पली कहानी प्रकाशित हो चुकी है. भारत से किसी ने भारतीय उच्चायोग में फ़ोन कर मेरे बारे में पूछताछ की. मेरे फ़ोन पर भी कई मिस कॉल थे, मेरे आंसरिंग मशीन पर अनेक बत्तियां जल रही थीं. बहुत संदेश प्रकाशित कहानी की बधाई से संबंधित रहे और समय के साथ-साथ भारत से अनेक पत्र कहानी की सराहना भरे मिले. मैं खुश तो थी पर समझ नहीं  पाई कि यह क्या हो रहा है . मेरे लिए यह बिल्कुल  नया अनुभव था. बस इस कहानी  के प्रकाशन और प्रोत्साहन ने मेरे लिए ‘दीवाली के पटाखों में अनार’ का काम किया, जिसमें  चिंगारी लगाने से रंग बिरंगे झरने छूटते गए. पहली कहानी के प्रकाशन की सूचना प्राप्ति के दिन पहली बार मेरा अपने सृजनात्मक मन का साक्षात्कार हुआ. तब से मैं रुकी नहीं और अब तक  मेरी सभी कहानियाँ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है और यह मेरी खुशकिस्मती है कि अभी तक किसी संपादक ने मेरी कहानी लौटाई नहीं है. मेरी कहानियाँ संचेतना,आधारशिला,वागर्थ,नया ज्ञानोदय,कथाक्रम,पाखी,सरिता आदि अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं में छप चुकी हैं. मेरे तीन कहानी संग्रह ‘कहा अनकहा’ ,‘वे चार परांठे’ और ‘उडारी’ प्रकाशित हो चुके हैं और चौथा लाकडाउन के बाद आने की संभावना है. वे चार परांठे’ के कथ्य का स्रोत मेरा परिवार ही है और सच्ची कहानी है.

14. आपने अपनी कहानियों में स्त्री जीवन के अंतर्द्वंद्व को किस हद तक प्रस्तुत किया है ?

अरुणा सब्बरवाल : एक भारतीय नारी जब समाज के खींचे दायरों से सोचती है,तो उसके मन में अंतर्द्वंद्व का युद्ध आरंभ हो जाता है. भारतीय समाज ने स्त्री के लिए बहुत सी लक्ष्मण रेखाएं खींची हैं, उसे तो स्वेच्छा से सोचने का भी अधिकार नहीं है. मैं स्वयं नारी हूँ 40 वर्षों से अकेली हूँ ,हर पल अंतर्द्वंद्व में ही जीती रहती हूँ. पाश्चात्य सभ्यता में इतना समय जी लेने के  बाद भी नसों –नसों में भारतीय संस्कार प्रवाहित होते हैं.मेरी कहानियों में नारी जीवन के यही अंतर्द्वंद्व आया है. मेरी कहानी की नायिका सशक्त हैं और अपने अंतर्द्वंद्व से अपने हित में कदम बढाती है. मैं अभी जिंदा हूँ, मुक्त हुई मुक्ता, रोजी, सुलझे सवाल इन सभी कहानियों की नायिकाएं अपने-अपने अंतर्द्वंद्व में जीती हैं और वही रास्ता अपनाती हैं जिससे उसके स्वाभिमान और हित में हो .

15. ‘उडारी’ कहानी  में आपने राधिका के माध्यम से स्त्री जीवन के मानसिक अंतर्द्वंद्व का सजीव और स्वाभाविक रूप से चित्रित किया है.क्या स्त्री को परंपराओं और संस्कारों के ढकोसले में जकड कर अपनी खुशियों को तिलांजली देना उचित है ?

अरुणा सब्बरवाल :  दीपक जी आपने मेरे समक्ष एक कठिन प्रश्न रेक दिया है.मेरे विचार से हर किसी व्यक्ति की एक स्वतंत्र सत्ता होती है और हर एक की सोच,वातावरण और परिस्थितियां अनुकूल तो होती नहीं, जीवं में वातावरण का विशेष प्रभाव पड़ता है. ‘उडारी’ कहानी में भारतीय स्त्री जो पचास वर्षों से लंदन के खुले वातावरण में रहती है, जहाँ वह स्वेच्छापूर्वक अपने पसंदीदा व्यक्ति के साथ रहने के लिए स्वतंत्र है. किन्तु प्रश्न तब उठता है जब एक सज्जन पुरुष उसके समक्ष डेट पर चलने का प्रस्ताव रखते हैं. यहाँ पाश्चात्य और भारतीय संस्कारों का मानसिक द्वंद्व पैदा होता है , एक घमासान युद्ध और वह भी उसे अकेले ही लड़ना है. हर द्वंद्व में वह ही पक्ष और विपक्ष में तर्क देती है, पूर्व और पश्चिम का टकराव डेट के प्रस्ताव और अंत तक जब तक जाने का समय नहीं हो जाता बीसियों बार दुविधा में रहती है , पहले क्या यह जंचेगा ? क्या पुरुष पंजाबी है और  गुजराती भी है ? वो तो दो साल छोटा भी है ? गुजराती समाज क्या कहेगा ? नानी दादी बन गयी है ? क्या पहने की गुजराती से छूती लगे? कौन सा रंग पहने कि गाले लाल न हो जाए. खुश भी हो लेती है और शर्मा भी जाती है फिर खुद को कोसती भी है.

सहेली जो समाज के प्रतिबिम्ब स्वरुप में जन्मदिन की शुबकामनाएं देने के लिए फ़ोन करती है, वार्तालाप में कहती है राधि सठिया , सठियाना शब्द उसे आकाश से धरती पर ले आता है. मन फिर डगमगाने लगता है, फिर स्वयं ही स्पस्ट करती है कि बच्चे की सकारात्मक सोच से थोड़ा हौसला मिलता है. एक और संस्कार खींचते हैं दूसरी और उसकी अंतरात्मा, फिर स्वयं टेक देते हुए कहती है ,अंग्रेजों की सोच कितनी अच्छी है, कि तुम एक ही जीवन जीते हो, पूरी तरह जियो. वह सोचती है पति के निधन से आत्मविश्वास खोया तो पंजाबी बाबू ने जगाया, अब तो मैं ज़िंदा महसूस कर रही हूँ. अपने द्वंद्वों से टकराती हुई निर्णय ले लेती है और कहती है, जाऊंगी जरूर जाउंगी उसने मेरे भीतर की नारी को जगाया है . तय्यार होती है तो अपने आप को 16 साल की किशोरी महसूस करती है आर आदमकद आईने में देखती है तो मन कुछ और ही कह रहा था और दिखा रहा था. घर के सभी खिसकी/ दरवाजे चैक करती है और में दरवाजे पर पहुँचती है तो ठिठकती है, सोचती है कहें अपने पति के साथ विश्वासघात तो नहीं कर रही फिर उसी के पक्ष में माँ की बात याद आ जाती है “ बेटा बीते पलों से इतना मोह न रखो कि वर्तमान को गले न लगा सको, वर्तमान में रहना सीखो .” 50 वर्ष से लंदन में रहते हुए भी राधिका अपने संस्कारों में जकड़ी होने के कारण उससे हट कर अपने निर्णय लेने में कितने मानसिक द्वंद्व से गुजरती है. घर से निकलते-निकलते अपने सामने के गुलदस्ते से एक फूल लेकर उसकी पंखुड़ी को तोड़ कर हाँ या न में उत्तर ढूंढती है. इस कहानी में स्त्री पक्ष के निम्न तथ्यों को उठाया गया है –

  • क्या स्त्री इंसान नहीं है ?
  • उसका जीवन समाज की पूंजी नहीं है?
  • स्त्री को पूरा अधिकार है, अपराधबोध त्यागकर, पुरानी परंपराओं को तिलांजली देकर अपनी खुशों पर केन्द्रित होना चाहिए .
  • सदियों से स्त्री इस अपराध बोध की बीमारी से ग्रस्त है, घुलती रही है, घुटती रही है और आगे भी घुटेगी यदि वह अपने हित से कदम आगे नहीं बढ़ाएंगी .
  • चाहे स्त्रियों के हित में कितने ही क़ानून बन जाएं स्थिति तब तक परिवर्तित नहें होगी जब तक स्त्री स्वयं अपनी रूढ़िवादी सोच से बाहर नहीं आयगी.
  • जब स्त्री अपने आप से प्यार करेगी तभी समाज में आदर और सम्मान पा सकेगी.

इस दृष्टिकोण से मैं तो यही कहूँगी कि स्त्री जीवन के प्रति सकारात्मक सोच के साथ लेखकों का कर्त्तव्य है कि लेखन के माध्यम से समाधान प्रस्तुत करना  होगा.

16. आशा-रवि-लव पात्रों वाली कहानी ‘छोटा सा शीशमहल’ बहुत ही मार्मिक और संवेदनात्मक स्तर पर बहुत ही उच्च कोटी की है, कृपया बताइए कि इस कहानी की विषय-वस्तु आपको कैसे मिली  ?

अरुणा सब्बरवाल : दीपक जी आपको कहानी पढने के लिए धन्यवाद. आप मेरी अन्य कहानियां भी पढ़िय, जो  समान मार्मिकता और संवेदना के साथ लिखी हैं. अब कहानी के विषय पर बात करती हूँ — —–बात 40 वर्ष पुरानी है जब मैं नर्सरी में पढ़ाती थी. मेरी एक अंग्रेज सहेली के triplets( तीन बच्चे) थे जो हम उम्र होने के कारण वे बहुत बदमाशी करते थे. एक बार वह अपने बच्चों को लेने आईं तो उनका एक बच्चा playground में कहीं छुप गया और उसे ढूँढते- ढूँढते 2 घंटे हो गए. माँ की तड़प,बैचेनी,छटपटाहट और प्रेम का पागलपन देखा और वह मैं कभी नहीं भूल सकती. दूसरी घटना है जो मेरी बेटी के हस्पताल से जुडी है. बेटी ने बताया कि जुड़वा बच्चे हुए उनमें से एक still born था जब यह बात माँ को मालूम चली तो वह पागल सी हो गई. उसने नौ महीने बच्चे को पेट में पाला पर उसकी एक झलक नहीं देख पाई.

इन दोनों घटनाओं में माँ के दुःख को एक माँ ही महसूस कर सकती है. अंगेज का बच्चा तो मिल गया वह जहाँ छुपा था वहीँ सो गया था .इन दोनों घटनाओं से यह कहानी निकली . मैं भी कहानी में मौजूद हूँ क्योंकि मैं भी माँ हूँ. मैंने अपनी सास को जवान बेटे की मृत्यु के बाद हर दिन मरते/घुटते देखा है और बेटे को खोने के बाद कुछ ही दिनों में उनका बुढापा 20 साल एकदम से आगे खिसक गया. क्या माँ के दिल की भावनाओं को कोई देख सकता है ? मैं जब लिखती हूँ तो उस पात्र या नायिका में अपने आप को ढाल लेती हूँ मेरे मन में बिलकुल वैसी ही भावनाएं आने लगती हैं. माँ का प्यार तो एक ही है चाहे वह अंगेज हो भारतीय हो या दुनिया के किसी कोने से हो.

17. साहित्य-सृजन में निजता का कितना योगदान रहता है और लेखक को इसे किस प्रकार संयमित रहकर प्रयोग करना चाहिए मिला ?

अरुणा सब्बरवाल : लेखन के आरंभ के दिनों में लेखक की सोच का विस्तार बहुत सीमित होता है.वह अपने आसपास के वातावरण की बातों को साधारण रूप से देखता है और उसी में कथ्य ढूँढने की कोशिश करता है, इसलिए प्रारंभ के लेखन में लेखक के निजी और व्यक्तिगत अनुभव का ज्यादा अंश आ जाता है. धीरे-धीरे जैसे-जैसे उसकी सोच का विस्तार होता है उसमें आत्मविश्वास जागने लगता है और अपने उत्तरदायित्व को महसूस करने लगता है.  वह कथ्य को कल्पना और आत्मानुभावों का समन्वय कर प्रस्तुत करता है .कहने का आशय कि लेखन में समय गुजारने के साथ भावों और संवेदनाओं को परिपक्वता और गंभीरता से प्रतिपादित करने की क्षमता का विकास होता है और वह उत्तम की ओर बढ़ता जाता है और मैं इस बात का समर्थन करती हूँ- ‘ करत-करत अभ्यास के जड़मति होत  सुजान ’ यह बात मेरे लेखन में भी सार्थक हुई है.

मैं स्वीकार करती हूँ कि मेरी पहली कहानी ‘वे चार परांठे’ में पूर्ण रूप से निजी जीवन का चित्रण है जिसमें कुछ व्यंग्यात्मक कथनों से कहानी में रोचकता लाने का प्रयास किया है.  पर धीरे-धीरे मेरी आगे की कहानियों में निजी-जीवन से हट कर कथ्य समाज के अन्य पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो समाज के कल्याण पर निर्भर हैं.

18. हिंदी से आपको क्या मिला ?

अरुणा सब्बरवाल : हिंदी भाषा ने साहित्यिक क्षेत्र में एक छोटी सी पहचान दी. यह भी कह सकती हूँ मेरा मुझी के सृजनात्मक पक्ष से परिचय हुआ है. अक्सर सेवानिवृत्ति के बाद लोग सोचते हैं कि अब क्या ——-? मुझे तो हिंदी ने इसको सोचने का अवसर ही नहीं दिया. गीतांजली बहुभाषी समुदाय के माध्यम से आयोजित  ममता कालिया जी की कहानी-कार्यशाला ने मुझे हिंदी कहानी लिखने का मौक़ा और प्रोत्साहन मिला. हिंदी में लिखी पहली ही कहानी नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई और सराहना मिली. फिर हिंदी में लेखन की रफ़्तार बढी और मेरी अनेक कहानियाँ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपीं. हिंदी ने मुझे खुशी की उपलब्धि मिली. सपने में भी मैंने सोचा था कि कभी गद्य या पद्य में सृजनात्मक धारा बहेगी. यह  हिंदी की देन है, मैं स्वीकार करती हों कि हिंदी ने मुझे जीने का सहारा दिया है जिससे मान सम्मान मिल रहा है.

19. आप क्या नया लिख रही है ? अपने देश के युवा हिंदी लेखकों को क्या संदेश देना चाहेंगी ?

अरुणा सब्बरवाल : दीपक जी, आजकल मेरे मन में दो कहानियों के कथ्य मस्तिष्क में चक्कार्धानी की तरह घूम रहे हैं. एक को लिक तो लिया है पर तराशना बाकी है. सृजनात्मक लेखन कोई वास्तु नहें है जब चाहो लिख लो. लेखन का सृजन भी तभी होता है जब आपके मन को कुछ छू जाए, दिमाग में पकता रहे, समय आने पर आप उसे कागज़ पर उतारने के लिए विवश हो जाते हैं. यह मेरे निजी विचार हैं, हर लेखक के अपने-अपने thought process होते हैं.

आजकल मन में कवितायें फिर से उमड़ने लगी हैं ,जब से सहयोगियों का प्रोत्साहन मिला है, कवितायें भी मेरे मन के द्वार खटखटाने लगी हैं.एक दो भावों को उकेरा है बस उन्हें तराशना शेष है.

यहाँ मैं एक बात बहुत ईमानदारी से बताना चाहती हूँ मेरा जीवन लेखन पर आश्रित नहीं है, न ही मैं संपूर्ण रूप से लेखिका हूँ. मुझे जीवन से असीम प्यार है. अवकाश के पश्चात अपने जीवन को भरपूर रूप से जीना चाहती हूँ. जैसा मैंने पूर्व में बताया कि मैंने लिखना अवकाश के बाद ही शुरू हुआ है मैं तो लेखन के क्षेत्र में अभी चलना हीसीख रही हूँ. मेरी चित्रकारी में भी रुची है, शास्त्रीय संगीत भी सीखा है और 31 वर्षों तक अंग्रेजी स्कूल में शिक्षिका भी रही हूँ.

अपने अनुभव से मैं युवा लेखकों को सुझाव दूंगी कि खूब पढ़ें, जिससे मैं  वंचित रह गई , वरिष्ट लेखकों के साहित्य का खूब अध्ययन करें और गौर करें कि लेखन की दिशा और प्रवृति क्या है, क्योंकि समय के साथ हर चीज में परिवर्तन होना स्वाभाविक है. परिवर्तन प्रकृति का नियम है. कई बार सोचती हूँ अगर युवा अवस्था में लेखन की शुरूआत होती तो आज मैं कहाँ होती, परिस्थितियां निर्णायक होती हैं ? सभी को शुभकामनाएं लिखते जाऊं रुको नहीं.

अरुणा जी ,आपके जीवनानुभवों से पाठक निश्चित ही लाभान्वित होंगे,आपका बहुत-बहुत आभार

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परिचय

अरुणा सब्बरवाल

जन्म :18 अगस्त, 1946 दिल्ली, भारत

शिक्षा : स्नातक और बी.एड.-दिल्ली विश्वविद्यालय, बर्मिघम विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएशन तथा प्रयाग संगीत समिति से संगीत विशारद .

प्रकाशित कृतियाँ :

कविता संग्रह –     सांसो की सरगम,  बाँटेंगे चंद्रमा

कहानी संग्रह –      कहा–अनकहा,  वे चार पराँठे,  उडारी

हिंदी की प्रतिष्ठित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन जैसे नया ज्ञानोदय, आधारशिला, कथादेश, भाषा, वागर्थ, कथाकर्म, संचेतना, आधारशिला, वर्तमान साहित्य और सरिता आदि में प्रकाशित.

कार्यक्षेत्र :

यू.के. के विद्यालयों में अध्यापन . 1987-2000 तक सोसाइटी ऑफ़ एशियन आर्ट्स में कोषाध्यक्ष . भारतीय संगीत और चित्रकारी में विशेष रुचि. साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सहभागिता.

पुरस्कार/ सम्मान  :

साहित्यक संस्कृत परिषद मेरठ .

      अक्षरम 7 वां अंतरराष्ट्रीय हिंदी उत्सव .

      अखिल भारतीय मंचीय कवि पीठ ,उतर प्रदेश .

      मान-पत्र , भारतीय उच्चायोग लंदन

      यू .के हिंदी सम्मेलन (24-26 जून,2011)बर्मिंघम विशिष्ट सम्मान

साक्षात्कार कर्ता
डॉ दीपक पाण्डेय
सहायक निदेशक
केंद्रीय हिंदी निदेशालय
शिक्षा मंत्रालय,भारत सरकार
नई दिल्ली

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