हिन्दी सिनेमा के वरिष्ठ सिने समालोचक, फ़िल्म समीक्षक व अध्येता और राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित फ़िल्म इतिहासकार मनमोहन चड्डा की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘सिनेमा से सम्वाद’ साक्ष्य प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। अपने सिने अध्ययन और भारतीय सिनेमा के विकास क्षेत्र में योगदान देने वाले सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उनके सिने अवदान और अन्य सिनेमाई विषय पर विशेष रूप से परिचर्चा इस किताब में शामिल है। यद्यपि इस दौरान कुछ भूलचूक टंकण के रूप में भी दिखाई पड़ती है। जिन्हें दरकिनार कर पाठक विश्व सिनेमा से लेकर भारतीय सिनेमा से जुड़े महत्त्वपूर्ण निर्देशकों व उनकी फ़िल्मों के बारे में समीक्षात्मक दृष्टिकोण से परिचित हो सकते है।
इस पुस्तक में जहाँ एक ओर सिनेमा से जुड़े हुए दुर्लभ तथ्यों से पाठक रूबरू होते है, वहीं शोध से संबंधित शोध विषय व दृष्टिकोण से भी पृष्ठ दर पृष्ठ अवगत होता जाता है, मिसाल के तौर पर विश्व सिनेमाई पत्रिका ‘साईट एंड साउंड’, आँद्रे बाजाँ की पत्रिका ‘काहीए ड्यू सिनेमा’ और ‘ल रिव्यू द सिनेमा’ आदि तथा शोध विषय के रूप में डी. के. बोस और नितिन बोस की फ़िल्म ‘चंडीदास’ और हिमांशु राय द्वारा निर्मित ‘अछूत कन्या’ दोनों में सामाजिक समस्या को लेकर तुलनात्मक अध्ययन, विभूति भूषण बंधोपाध्याय का उपन्यास ‘पाथेर पांचाली’ और सत्यजीत राय की फ़िल्म ‘पाथेर पांचाली’ के बीच तुलनात्मक अध्ययन आदि शोध दृष्टि को देखा जा सकता है। लेखक स्वयं इस किताब में सांकेतिक तौर पर कहते भी हैं- “साहित्य और सिनेमा के तुलनात्मक अध्ययन में रूचि रखने वाले फ़िल्म प्रेमियों के लिए ‘पाथेर पांचाली’ उपन्यास और फ़िल्म की तुलना उपयोगी हो सकती है।”[1]
हिन्दी सिनेमा के इतिहास को सुदृढ़, परिष्कृत एवं परिमार्जित करने में मनमोहन चड्ढा का स्थान अन्यतम है इस बात का उदाहरण साल 1990 में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार में मिले स्वर्णकमल से भी पुष्ट हो जाता है। ‘सिनेमा से सम्वाद’ शीर्षक की साथर्कता भी उनके इस शोध में झलकती है। यह किताब पाठकों की रूचि, शोधार्थियों के लिए शोधपरक दृष्टि, फ़िल्म देखने वालों के लिए महत्त्वपूर्ण फ़िल्मों की समीक्षा जैसे विषयों को समाहित करते हुए आठ आलेखों से सुसज्जित है, जिसमें ‘पाथेर पांचाली’ : उपन्यास और फ़िल्म’ और ‘सिनेमा के अनाम कोशकार’ शोधार्थियों के लिए, ‘जापानी फ़िल्मकार यासुजिरो ओजू’, ‘सॉफ्ट स्किन निर्देशक फ़्रांस्वा त्रूफो’, ‘महान फ़िल्म समीक्षक आँद्रे बाजाँ’ और ‘क्षेत्रीय भाषाओं का सिनेमा’ फ़िल्मों की समीक्षा करने वालों के लिए तथा ‘हिन्दी फ़िल्मों की प्रगतिशील लहर’, ‘बिमल राय का रचना संसार’ से लेकर अन्य सभी सामान्य पाठकों के लिए है।
यह किताब इन मायनों में ख़ास हो जाती है कि इसकी भाषा को बिल्कुल सामान्य बोलचाल की भाषा अर्थात् इतना सरल, स्पष्ट और प्रवाह युक्त बनाया गया है कि सामान्य पाठक एक वेबसीरीज की भांति एक से दो बैठक में इसे पढ़ कर पूरा कर देता है। जहाँ एक ओर पाठक को पुस्तक को पढ़ते हुए उबाऊपन का एहसास नहीं होता, वहीं दूसरी ओर यह पाठकों से संवाद व प्रश्न करने के साथ ही उसे सोचने के लिए विवश कर जाती है। लेखक के शब्दों में – “सिनेमा या हिन्दी फ़िल्में घटिया होती हैं। उनका जीवन की वास्तविकताओं से कोई संबंध नहीं होता। क्या उपरोक्त फ़िल्में इस आरोप को ग़लत साबित नहीं करतीं? लेकिन आरोप तो स्थिर है, स्थायी भाव है, क्यों?… क्यों सिनेमा हिन्दी भाषा पढ़ने – बोलने – लिखने वालों का अपना नहीं बन पाया ? भौगोलिक दूरी के तथ्य को कम करके आँकना, ठीक न होगा। फ़िल्म बनती है, मुंबई में, कोलकाता में, चेन्नई में। हिन्दी पढ़ने – बोलने – लिखने वाले रहते हैं राजस्थान, बिहार, मध्य या उत्तरप्रदेश में। इन चारों प्रदेशों में कभी ऐसे प्रयत्न नहीं हुए कि बच्चों को अच्छी फ़िल्में दिखाई जाएं। उन्हें बताया जाए कि अच्छी फ़िल्म क्या होती है और बुरी फ़िल्म क्या होती है?”[2]
जाहिर है कि आज के युवा पीढ़ी से लेकर छात्र-छात्राओं को सिनेमा के इस कलात्मक धरोहर को जहाँ गंभीरता से समझने की जरूरत है, वहीं इसे एक फ़िल्म अध्ययन के तौर पर अन्य पाठ्यक्रमों के समान ही पढ़ने की भी जरूरत है। जैसा कि राही मासूम रज़ा साहब देश के तमाम विश्वविद्यालयों में सिनेमा को एक पाठ्यक्रम के रूप में शामिल करने का पुरजोर समर्थन करते हुए कहते थे – “मैं इसे साहित्य का हिस्सा समझता हूँ इसलिए इस बात पर बल देता हूँ कि इसे साहित्य में शामिल कर लेना चाहिए और साहित्य मान कर साहित्यिक पाठ्यक्रम में शामिल कर लेना चाहिए।”[3] इसी बात को आगे बढ़ाते हुए किताब के लेखक मनमोहन कहते हैं – “हिन्दी भाषी क्षेत्रों में फ़िल्म अध्ययन के पाठ्यक्रम आरम्भ किए जाएं। इसीलिए यह भी आवश्यक है कि विश्व की उत्तम फ़िल्मों का गहन और विस्तृत अध्ययन किया जाए।”[4]
‘सिनेमा से सम्वाद’ किताब पूर्व और पश्चिम की बेहतरीन फ़िल्मों को जोड़ने में एक सेतुपुल का कार्य करती है। किताब के शुरुआत से ही चर्चित फ़िल्मों की झाँकी मिलनी शुरू हो जाती है जिसमें – दादा साहब फालके पर कमल स्वरूप द्वारा बनी फ़िल्म ‘फालके स चिल्ड्रन’, रीना मोहन द्वारा निर्देशित वृत्तचित्र ‘कमला बाई गोखले’ और परेश मोकाशी की ‘हरिश्चंद्राची फैक्ट्री’, चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’, ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘धरती के लाल’, मृणाल सेन की चर्चित फ़िल्म ‘भुवन शोम’ और ‘खण्डहर’, सुधीर मिश्र की ‘हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी’ आदि। पाठक जैसे जैसे आगे बढ़ता जाता है वैसे ही अलग-अलग फ़िल्मों से जुड़े निर्देशकों और उनके फ़िल्मी अवदान से संक्षिप्त रूप में अवगत होता जाता है। पाठक जहाँ एक तरफ भारतीय फ़िल्मकार बिमल राय और सत्यजित राय के फ़िल्मी संसार से रूबरू होता चलता है, वहीं अगले अध्याय में विदेशी फ़िल्मकार ‘यासुजिरो ओजू’ (जापान), ‘अकीरा कुरोसावा’(जापान), ‘फ़्रांस्वा त्रूफो’ (फ्रांस), ‘आँद्रे बाजाँ’ (फ्रांस), ‘वितोरियो डी सिका’ (इटली) आदि के उत्कृष्ट फ़िल्मी रचना संसार से भी परिचित होता है। उसके तुरंत बाद भारतीय क्षेत्रीय सिनेमा से जुड़े प्रमुख फ़िल्मकारों ‘अदूर गोपालकृष्णन’ (मलयालम), ‘गिरीश कासरवल्ली’ (कन्नड़), ‘जहानु बरुआ’ (असमिया), ‘अर्पणा सेन’ (बांग्ला) और ‘अमोल पालेकर’ (मराठी) आदि की चर्चित और उत्कृष्ट फ़िल्मी कृतियों से पाठक परिचित होता है। यह पश्चिम से पूर्व और पूर्व से क्षेत्रीय सिनेमा में गोता लगना लगातार जारी रहता है। अगर यहाँ पर भारतीय सिनेमा के एक गीत द्वारा कहूँ तो कोई अन्योक्ति नहीं होगी- “ओहरे…ताल मिले नदी के जल में/ नदी मिले सागर में/ सागर मिले कौन से जल में कोई जाने ना…”[5]
जैसा कि किताब की भूमिका में ही इसकी सर्जना के पीछे का कारण भारतीय सिनेमा के संग्रहण और संरक्षण में बहुमूल्य योगदान देने वालों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना बताते है, इसलिए अपनी उक्ति को सार्थक करने के लिए एक आलेख ‘सिनेमा के अनाम कोशकार’ नाम से भी शामिल है जो उन लोगों के प्रति आदरांजली है। इसमें प्रमुख शख्सियतों में – किताब के कवर पेज पर अंकित छवि में से राष्ट्रीय फ़िल्म संग्रहालय के संस्थापक पी.के नायर, हिन्दी फ़िल्मों के कोष निर्माण की परम्परा को सतत् रूप से बनाए रखने वाले श्रीराम ताम्रकर और ‘फ़िल्म अनुशंसा पाठ्यक्रम’ की शुरुआत करने वाले प्रोफेसर सतीश बहादुर समेत अन्य कर्मठ विभूति ‘हमराज’, ‘बागेश्वर झा’, ‘बी.डी. गर्ग’, ‘वी. ए. के. रंगाराव’, ‘डी.पी. धारप’, ‘वीरचंद धरमसी’ आदि के उत्कृष्ट कार्यों व उनके सिनेमाई अवदान को रेखांकित करते है।
अक्सर देखा जाता है कि हर सर्वोत्तम रचना में कुछ व्याकरणिक त्रुटियाँ रह ही जाती हैं वैसे ही इसमें भी प्रूफ़ संबंधी या यू कहें टंकण संबंधी थोड़ी बहुत भूलें हुई हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस प्रकार की त्रुटियों का परिहार्य अगले संस्करण में हो जाएगा। कई बार ऐसा भी हुआ है कि फ़िल्मकारों के बारे में लिखते हुए बार-बार वे पुनरावृत्ति कर जाते हैं जिसे पठन के दौरान तारतम्यता में थोड़ी बाधा पहुँचाती है। मिसाल के तौर पर टंकण संबंधित त्रुटियों में- चाहियं (पृ.सं. 28), ‘लहुलुहान’ (पृ.सं. 32), कडुवाहट (पृ.सं. 39), अस्तित्त्व (पृ.सं. 35,39), चिंत्तित (पृ.सं. 38, 39,79 ), ह (पृ.सं. 51, 98), सिनेगा (पृ.सं. 48), शेली (पृ.सं. 108), जनम (पृ.सं. 103), नौक्री (पृ.सं. 95) आदि। ‘महान फ़िल्म समीक्षक आंद्रे बाजां’ अध्याय में आंद्रे बाजां की जगह भारतीय फ़िल्मों से पुनः बात आरंभ करना, संदर्भ रहित ‘बाईसाइकिल थीव्स’ की समीक्षा आदि अनेक प्रंसग है जो पाठक के तारतम्यता को अवरुद्ध करते है।
बहरहाल, ‘सिनेमा से सम्वाद’ पुस्तक पाठक को अनेक अनछुए तथ्यों, रोचक फ़िल्मों की समीक्षा, सिने पत्रिका, भारतीय सिने जगत में पर्दे के पीछे रहकर बहुमूल्य योगदान देने वाले विभूतियों, विश्व जगत की उत्कृष्ट फ़िल्मों और फ़िल्म पर विचार विमर्श करने के लिए कई नए रास्ते आलोकित करती है।
पुस्तक : सिनेमा से सम्वाद
लेखक : मनमोहन चड्ढा
प्रकाशक : समय साक्ष्य, 15 फालतू लाइन , देहरादून – 248001
मूल्य : 150 ₹ (पेपरबैक्स), 250 ₹ (हार्डकवर)
संदर्भ ग्रंथ –
[1] चड्ढा, मनमोहन, सिनेमा से सम्वाद, साक्ष्य प्रकाशन, देहरादून, 2021 ई., पृ.56
[2] चड्ढा, मनमोहन, सिनेमा से सम्वाद, साक्ष्य प्रकाशन, देहरादून, 2021 ई., पृ.19
[3] सिंह, प्रो.कुँवरपाल (संप), सिनेमा और संस्कृति, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2001 ई., पृ.16
[4] चड्ढा, मनमोहन, सिनेमा से सम्वाद, साक्ष्य प्रकाशन, देहरादून, 2021 ई., पृ.65
[5] फ़िल्म ‘अनोखी रात’ से