एक बार भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता और साहित्य अकादेमी के संयुक्त साहित्य आयोजन में भाग लेने मैं कोलकाता गया हुआ था। कार्यक्रम शुरू होने के एक दिन पहले मैं अपने झोले में सद्यःप्रकाशित जत दुरेई जाय (चाहे जितनी दूर जाऊँ) की प्रतियाँ और साथ ही ‘एरिस्टोक्रेट’ की एक बोतल लेकर उनके घर जा पहुँचा। दिन के बारह बज रहे होंगे। वे अपने टाइप राइटर पर कुछ टाइप कर रहे थे। मुझे देखते ही ‘अरे एशो… बोशो…’ कहा और फिर पूछा, ‘‘इन्द्र ऐसेछे… पता है रणजीत, वह हमारे ही देश (राजशाही) का लड़का है। बहुत व्यस्त रहता है।…’’
मैंने भी कई बार देखा था कि सुभाष दा इन्द्रनाथ चौधरी (पूर्व-सचिव, साहित्य अकादेमी) को ‘इन्द्र’ कहकर ही संबोधित करते थे।
‘‘हाँ, आज शाम को आएँगे और कल उद्घाटन सत्र के बाद दिल्ली लौट जाएँगे। मैं उन्हें आपके बारे में बताऊँगा।’’
इस बीच टाइप राइटर पर चढ़े क़ाग़ज पर उन्होंने तीन-चार वाक्य और जोड़ा। मैंने उन्हें बताया कि ‘‘मेरी ननिहाल भी राजशाही ही है। भारत विभाजन के साथ मेरे सारे मामा पाकिस्तान छोड़कर भारत आ गए और आख़िरकार मेरे शहर भागलपुर में ही बस गए। बस, बड़े मामा का परिवार वहीं रह गया।’’
‘‘तभी तुम्हारी बाङ्ला इतनी अच्छी है… और भागलपुर में तो काफ़ी बंगाली लोग रहते हैं। मैं वहाँ दो बार जा चुका हूँ… ‘बोनोफुल’ (‘बनफुल’ — सुप्रसिद्ध बाङ्ला साहित्यकार) से वहीं मिला था… उनका गंगा किनारे वाला घर… और घर में बनी इतनी सारी मछलियाँ और बाबा… चमत्कार !’’
मैं आगे कुछ बोलूँ या इतमीनान से बैठूँ कि तभी एक महिला अपनी छह-सात साल की बेटी का हाथ पकड़ कर उनके पास आई और बोली, ‘‘काकु, इसकी माड़ी (मसूड़े) में मछली का काँटा फँस गया है… मैं खाना बनाना छोड़कर भागी आई हूँ।’’
सुभाष दा ने बिना किसी उद्विग्नता के सहज भाव से ‘मिउ’ को पुकारा। ‘मिउ’ यानी उनकी बेटी। वह भी रसोई से भागती आई और सुभाष दा ने इशारे से उसे सुई लाने को कहा। मैं हैरान !
सुभाष दा ने उस लड़की को पास बुलाया और मुँह खोलने को कहा… ‘आऽ… हाँ’’ और तीन-चार सेकेंड में काँटा बाहर निकाल दिया। मेरी हैरानी की सीमा नहीं थी।
महिला ख़ुश हो गई। लड़की ने सुभाष दा के पाँव छुए। सुभाष दा ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा, ‘‘तुम चार-पाँच महीने पहले भी आई थी न… मैंने तब क्या कहा था, सावधानी से मछली खाना… सावधान !’’
दोनों के जाने के बाद मुझसे कहा, ‘‘पता है रणजीत, मैं यहाँ आसपास के लोगों के बीच माछ काँटा डाॅक्टर के नाते काफ़ी प्रसिद्ध हूँ। कभी-कभी तो बूढ़े लोग भी मेरे पास आ धमकते हैं।… अच्छा बताओ और क्या ख़बर है। केदार जी आए थे तो मुझसे मिले थे।’’
मैंने कल से होनेवाली संगोष्ठी के बारे में बताया तो बोले, ‘‘हाँ, मेरे पास भी कार्ड आया था… नामवर सिंह आ गए हैं ?’’
मैंने बताया, ‘‘कल सुबह ही पहुँचेंगे।’’
‘‘अरे मैं कल बाहर जा रहा हूँ, वरना उनसे मिलता। वे मुझे भर्तृहरि का या किसी और कृति का अनुवाद करने पर ज़ोर दे रहे हैं… मुझे याद नहीं आ रहा… चलो छोड़ो… मछली खाओगे ? मिउ भून रही है।… मिउ…’’ फिर उन्होंने बेटी को पुकारा।
मैंने तब तक अपने झोले से किताबें और तेज़ाब (मैं शराब को इसी नाम से पुकारता हूँ) निकाल लिया था। वे इन्हें पाकर बड़े ख़ुश हुए। मिउ के आने पर उससे पूछा, ‘‘भात हयेछे !’’
मैंने टोका, ‘‘मैं परिषद जाकर खाना खाऊँगा… आप परेशान न हों ! और भी तीन-चार लोग आने वाले हैं… बल्कि आ गए होंगे।’’
‘‘अरे मछली तो खाते जाओ… वो मारवाड़ियों की संस्था है… वहाँ मछली कहाँ ? वहाँ भात भी नहीं मिलता… दहीबड़ा मिलता है।’’
इस बीच एक तश्तरी में दो पीस मछली लेकर मिउ आई और उसके साथ दो बिल्लियाँ भी आईं और सुभाष दा के पैरों के पास बैठ गईं। मैं पहले भी यह दृश्य देख चुका था। जानता था कि उनके पास कभी दो दर्ज़न बिल्लियाँ थीं।
मैंने मछली खाना शुरू किया… इसका एक अलग ही स्वाद था।
‘‘कौन-सी मछली है… बता सकते हो ?’’
‘‘कातला’’
‘‘अरे वाह… एक महीने बाद बड़े साइज़ वाली आने लगेगी।’’
उस दिन मछली से शुरू हुआ मत्स्य पुराण… काँटे पर जाकर ख़त्म हुआ।
किसी एक अन्य साहित्यिक आयोजन में भाग लेने या बैठक में सम्मिलित होने सुभाष मुखोपाध्याय दिल्ली आए थे। तब वे राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (एन.बी.टी.) के ग्रीन पार्क स्थित कार्यालय के समीप एक होटल में ठहरे थे। मैं उनसे यहीं भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने के बाद अगस्त, 1992 में मिल चुका था और उनसे लंबी बातचीत भी की थी। मैंने उनसे मिलने का समय माँगा तो उन्होंने शाम चार बजे मिलने कहा। मैं अकादेमी से निकल कर तय समय पर पहुँच गया। उनके कमरे का दरवाज़ा खुला था। और वह मेरे आने की राह देख रहे थे। वह अपने बिस्तर पर बैठे रूमाल के कोने को होठों से गीला कर चश्मे का शीशा साफ़ कर रहे थे। मुझे देखते ही उन्हांेने चाय भेजने के लिए नीचे फ़ोन किया।
सुभाष दा थोड़े अन्यमनस्क से दीखे। थोड़ी देर बाद मुझसे पूछा — ‘‘वापस अकादेमी जाओगे या घर !’’ मैंने बताया — ‘‘घर।’’
वे थोड़े आश्वस्त हुए। इस बीच बेयरा चाय-बिस्किट रख गया। चाय पीते हुए घर-परिवार के बारे में भी वे कुछ-कुछ पूछते रहे। यह भी कि बाङ्ला अख़बार देखते हो न ! मैंने बताया — ‘‘अकादेमी में एक दिन बाद ‘आनंद बाजार’ आता है, कभी-कभी देख लेता हूँ। हाँ, ‘देश’ पत्रिका का ग्राहक हूँ।’’
चाय पीने के बाद उन्होंने पास रखे बैग से रूई निकाला और कहा — ‘‘मेरा एक काम कर दो ! मेरी पीठ में एक फोड़ा निकला है… और वह पक गया है। तुम उसे दबा दो ताकि पीब निकल जाए।… पहले अपना हाथ साफ़ कर लो !’’
मैं वाशरूम में पड़े साबुन से हाथ धोकर आया तो वे अपना बनियान सिर तक उठाकर, बिस्तर के एक किनारे बैठे थे। मैंने देखा उनकी पीठ की बाईं और ललछौंहा रंग लिए एक बड़ा-सा फोड़ा टहक रहा है। मैं बुरी तरह सहम गया। मैंने डरते-डरते फोड़े के ठीक अग़ल-बग़ल अपनी उँगलियों से उसे दबाना शुरू किया। लेकिन फोड़ा शायद पूरा पका नहीं था। कोमल हृदय कवि की त्वचा इतनी सख्त होगी, मुझे इसका आभास नहीं था। चूँकि उनका सिर बनियान से ढँका था, इसलिए मैं उनकी प्रतिक्रिया से अनजान था। मेरे ख़याल में वह प्रसंग घूम रहा था जब बंगाल के तेभागा आंदोलन में, बक्सा नामक स्थान पर पकड़े जाने पर युवा सुभाष की नंगी पीठ पर ब्रिटिश पुलिस सैनिकों ने कोड़े बरसाए थे।
‘क्या हुआ ?…’ थोड़ा और ज़ोर लगाओ…’ बनियान से आवाज़ आई। लेकिन काफ़ी ज़ोर लगाने के बावजूद फोड़ा टस-से-मस नहीं हुआ। यहाँ तक कि मेरी उँगलियाँ दुखने लगी थीं। फोड़ा मानो सुलग रहा था… अंगारे की तरह।
‘‘क्या फोड़ा पका नहीं है ?’’ आवाज़ ने फिर पूछा। मैं चुप रहा। ‘‘ऐसा करो, मेरी शेविंग किट में ब्लेड रखा है — उससे फोड़ा चीर दो !’’
मैं समझ गया, इस फोड़े की वजह से वे न तो सो पा रहे होंगे और न कुछ कर पा रहे होंगे। उन्हंे कल सुबह कोलकाता भी जाना था और वहाँ शाम को फिर किसी साहित्य चर्चा में भाग लेना था।
इस डर से कि कहीं सेप्टिक न हो जाए और नई मुसीबत खड़ी हो जाए, मैंने उनसे कहा, ‘‘ठीक है, मैं एक बार और देखता हूँ’’ और दोनों अँगूठों को मन-ही-मन गरियाते हुए फोड़े के और निकट ले जाकर ज़ोर से दबाया।… और अंदर जमा मवाद एकदम से बलबलाकर निकला और नीचे बहने लगा। मैंने उसे रूई से पोछा लेकिन वह भी कम निकला। सुभाष दा ने अपना रूमाल मुझे दिया और कहा — ‘‘जितना मवाद निकले, निकलने दो… रूमाल बाद में फेंक देना !’’…
थोड़ी राहत मिलने के बाद उन्हांेने पूछा ‘‘मवाद के साथ ‘खील’ (फोड़े की सफ़ेद कील) तो निकल गई थी ना !’’
मैंने सिर हिलाकर हाँ कहा तो वे आश्वस्त हुए ‘‘चलो, जान बची।’’
इस अभियान के बाद मैं थोड़ा ख़ुश हुआ। सुभाष दा भी थोड़ी देर बाद उठे और हाथ-मुँह धोकर मुझसे कहा — ‘‘चलो, थोड़ा घूम-फिर आते हैं।’’ उन्होंने कार्डराॅय का फुलपैंट पहना, शर्ट डाली और चप्पल डालकर, होटल के दूसरे तल से नीचे उतरे। एकदम सहज और सामान्य। होटल का कर्मचारी कुछ पूछे, इससे पहले उन्होंने उसे बताया कि कोई आए तो उससे बैठने को कहना। रास्ते में मुझे बताया कि उन्हंे सरोजिनी नगर जाकर नातनी के लिए एकाध खिलौने लेना था लेकिन वह कहीं निकल नहीं पाए थे। जब हम दोनों ग्रीन पार्क वाली मुख्य सड़क के किनारे वाली दुकानों के पास से गुज़र रहे थे तो उनकी नज़र एक जूते की दुकान पर पड़ी। वे दुकान में घुसे और दुकानदार से शो विंडो में सजे जूते लाने को कहा, जो स्वेड का बना था। दालचीनी वाले रंग जूते का जोड़ा पाँव में डालने के बाद उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘कैसा है, अच्छा है !’’
मैंने कहा, ‘‘आपके पैरों में बहुत जँच रहा है।’’
बाङ्ला में हो रही हमारी बातचीत को दुकानदार ग़ौर से सुन रहा था। वह कुछ समझे, इसके पहले उन्होंने पूछा — ‘‘कितने का है ?’’
‘‘साढ़े छह सौ।’’ उसने बताया।
मैं दाम कुछ कम करने के चक्कर में कुछ कहना चाहता ही था कि उन्होंने रोका और कहा, ‘‘इसकी फ़िटिंग वग़ैरह ठीक-ठाक है… मुझे रंग पसंद भी है।’’
उन्होंने कर्मचारी से अपनी चप्पल को पैक करने को कहा और अपने कांधे से टँगे झोले में रख लिया। फिर नए जूते पहनकर ही थोड़ा आगे बढ़े। फिर एक दवाई की दुकान पर रुके। रुई और घाव सुखानेवाली दवाई ख़रीदी। साथ ही, शैम्पू का शैशे भी। रास्ते में मिठाई की कोई दुकान न देखकर वह थोड़े निराश हुए और मुझसे कहा, ‘‘तुम्हें कोई मिठाई खिलाना चाहता था।’’
मैंने कहा, ‘‘वह मैं आपके घर आकर खाऊँगा।’’
हम दोनों फिर होटल लौटे। उन्होंने बताया, ‘‘चित्तरंजन पार्क से उनके कोई परिचित कार लेकर आएँगे और फिर यहाँ छोड़ जाएँगे।’’
मैंने उन्हें केवल इतना बताया कि मैंने उनके उपन्यास अंतरीप वा ह्यानसेनेर असुख का हिंदी का अनुवाद पूरा कर लिया है और आठ-दस दिनों में प्रकाशक को सौंप दूँगा। मैंने इसका शीर्षक ‘नरक गुलज़ार’ रखा है।
शीर्षक सुनकर वे बहुत ख़ुश हुए और बोले — ‘‘चमत्कार… भारी सुंदर ! मुझे बाङ्ला में भी यही नाम रखना चाहिए था।’’
मैंने उनके पाँव छुए और ‘आसछि’ कहकर उनसे आज्ञा ली।
‘‘बेश, एसो !’’ (ठीक, है, फिर मिलना।)
इतने सहज और साधारण सुभाष दा केवल बाङ्ला या भारतीय कविता के ही हस्ताक्षर नहीं, विश्व कविता के एक उज्ज्वल प्रतिमान बने रहे। हालाँकि हर कवि का अपना देश काल और दर्पण होता है — लेकिन किसी भी काल दर्पण में सुभाष दा-जैसे कवि की छवि कभी धुँधली नहीं दिखाई देगी। उनकी कुछ लंबी कविताओं का अनुवाद और संचयन तैयार करते हुए मुझे यही लगा कि कवि बार-बार अपने लोगों और पाठकों के बीच आना चाहता है और हर नई-पुरानी पहचान से जुड़कर अपनी पहचान बनाए रखना चाहता है।
मैंने कविवर सुभाष मुखोपाध्याय से अपने एक साक्षात्कार (संडे आब्ज़र्वर, हिंदी, 6-12 सितंबर, 1992) में उन कवियों के बारे में पूछा था, जो अपनी अंतःप्रेरणा से लिखते हैं–और वे, जिन्हें बाहरी ताक़तें डिक्टेट करती रहती हैं– उनसे कवि के लेखन पर क्या फ़र्क़ पड़ता है ? उनसे उनके सामाजिक आदर्श और राजनीतिक अभिगम कितने प्रभावित होते हैं तो सुभाष दा ने कवि कर्म की स्वाभाविकता पर विशेष ज़ोर देते हुए कहा था, ‘‘एक कवि अगर वह सच्चे अर्थ में सामाजिक है, ‘दरदी’ है तो उसका आधार सबसे पहले और सबसे बाद में भी — मानवीय ही होगा। यहाँ तक कि माक्र्सवाद के अंतर्गत हमने कभी वैज्ञानिक समाजवाद की बात की थी — तो वह भी एक तरह का ‘युटोपिया’ ही था। उस बाहरी साँचे में हमने अपने समय, समाज और सरोकार को रूप देना चाहा। लेकिन चाहे जो भी ग़लती या जल्दबाज़ी हुई हो, इसके कारणों की तलाश की जा रही है। दरअसल कवि और उसकी कविता की ज़मीन अपनी माटी ही होती है — आसमान नहीं। काव्य-सृजन को मानव-स्वभाव से जोड़कर देखना होगा। यह किसी भी दबाव से असहज और अस्वाभाविक होगा।’’
वर्ष 2003 की 8 जुलाई को, उनके निधन के समाचार से न केवल बाङ्ला या भारतीय भाषाओं की कविता बल्कि विश्वकविता का प्रमुख एवं प्रतिनिधि स्वर मौन हो गया। कोलकाता के 5 बी, शरत् बनर्जी रोड, जहाँ उनका आवास था, वहाँ से लेकर देश-विदेश में इस विश्वकवि की जहाँ तक ख्याति थी — उनके पाठकों और प्रशंसकों को आकस्मिक एवं गहरा आघात लगा। उनसे संबद्ध और समृद्ध मेरी अपनी भी कई स्मृतियाँ रही हंै — जिनमें कोलकाता में उनके यहाँ और यहाँ दिल्ली में उनके साथ बिताई गई कई मुलाक़ातें शामिल हैं। उनके दिल्ली आने पर बिताई गई कई शामों की भी, जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में, विशेषकर अपराजित चट्टोपाध्याय के घर पर या वहाँ के गेस्ट हाउस में आयोजित अनौपचारिक काव्य पाठ में। उन्हें घेर कर बैठे श्रोता समूह में केदारनाथ सिंह भी होते। मैंने वहाँ भी तब उनकी कविताओं का हिंदी अनुवाद पढ़ा था। कवि-जैसा उनका वह सहज व्यक्तित्व और भी आत्मीय प्रतीत होता था — जब वे काव्य-पाठ करते थे और जब हमारे बीच होते थे तो हमें अपने घर के बड़े-बुज़ुर्ग-जैसे जान पड़ते थे — एक-एक के सुख-दुःख साझीदार और मानवी सोच और सरोकार बाँटते हुए। सब कुछ जानने-समझने को तैयार — और वह भी बिना किसी उतावली, लाग-लपेट और तनाव के। जो कुछ वे जानते-सोचते थे — अपनी रचनाओं के आलोक में बताने को हमेशा तैयार रहते थे।
असाधारण में साधारण और साधारण में असाधारण लेकिन सहज उपलब्ध और उपस्थित इस कवि की छवि समय के साथ निरंतर उज्ज्वल होती चली गई है क्योंकि विद्रूप एवं विषमतर होती स्थितियों में सुभाष मुखोपाध्याय की कमी अब बाङ्ला के पाठकों को कहीं अधिक खलने लगी है। एक ऐसा कवि, जिसने न केवल अपने समकालीनों और परवर्ती कवियों को प्रेरित और आंदोलित किया बल्कि जिसने नई पीढ़ी के कवियों को कवि मंच पर सम्मानित करने के लिए उनके जन्म दिन 12 फ़रवरी को प्रति वर्ष ‘कविता दिवस’ मनाने का प्रस्ताव भी रखा था।
अपने समस्त कवि-कर्म और साहित्य-साधना के अनवरत संघर्ष-भरे पचास वर्षों की अनदेखी करता हुआ, अपनी विदा वेला के वर्षों पूर्व (1963 में ही) इस सर्वहारा कवि ने हमारे सामने अपनी जो छवि रखी थी — वह अलग होती हुई, कई अर्थों में आज भी विशिष्ट और उल्लेख्य जान पड़ती है —
‘‘मैं नहीं चाहता —
कोई मुझे कवि कहकर पुकारे,
जीवन के अंतिम क्षणों तक
कंधे से कंधा जोड़कर,
मैं चलता रहूँ… इतना ही।
और फिर अपनी क़लम
ट्रैक्टर के पास रखकर कह सकूँ:
बस भाई, अब मुझे विदा करो
और मुझे दे दो,
बस, थोड़ी-सी आग।’’