१. गिरना
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बचपन में जब कभी मैं
चलते–चलते गिर जाता तो
दौड़े चले आते उठाने
माँ–बाबूजी
किशोरावस्था में जब कभी चलाते हुए
फिसल जाती मेरी साइकिल
और गिर जाता मैं सड़क पर तो
मदद करने आ जाते
साथ चलते राहगीर
पर यह कैसा गिरना है कि
कोई कितना भी उठाए
उठ नहीं पाता मैं
एक बार जो गिर गया हूँ
अपनी ही निगाहों में
२.ग़लती
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शुरू से ही मैं चाहता था
चाँद–सितारों पर घर बनाना
आकाश–गंगाओं और नीहारिकाओं की
खोज में निकल जाना
लेकिन एक ग़लती हो गई
आकाश को पाने की तमन्ना में
मुझसे मेरी धरती खो गई
३. जो कहता था
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जो कहता था
मेरे पास कुछ नहीं है
असल में उसके पास
सब कुछ था
जो कहता था
मैं पूरब दिशा में
जा रहा हूँ
दरअसल वह
पश्चिम की ओर
जा रहा होता था
जो कहता था
मैं पीता नहीं हूँ
उसी के घर से
शराब की सबसे ज़्यादा
ख़ाली बोतलें निकलती थीं
जो इलाक़े के बच्चों में
सबसे ज़्यादा टाफ़ियाँ बाँटता था
वही पकड़ा गया बच्चों के
यौन–शोषण के आरोप में
जो कहता था
लोकतंत्र में हमारी
गहरी आस्था है
वही बन बैठा
सबसे बड़ा तानाशाह
जो पहनता था
सातों दिन सफ़ेद वस्त्र
उसी का मन
सबसे ज़्यादा काला निकला
जो करता था
सबसे ज़्यादा पूजा–पाठ
जो पहनता था
तीसो दिन गेरुए वस्त्र
जो अपने उपदेशों में
नारी को ‘ देवी ‘ बताता था
वही पकड़ा गया
एक अबला के
शील–भंग के आरोप में
जो आदमी ख़ुद को
गाँधीजी का सबसे बड़ा
भक्त बताता था
जो दिन–रात
‘अहिंसा‘ का जाप
करता रहता था
अंत में वही हत्यारा निकला
४. ईंट का गीत
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जागो
मेरी सोई हुई ईंटों
जागो कि
मज़दूर तुम्हें सिर पर
उठाने आ रहे हैं
जागो कि
राजमिस्त्री काम पर
आ गए हैं
जागो कि तुम्हें
नींवों में ढलना है
जागो कि
तुम्हें शिखरों और
गुम्बदों पर मचलना है
जागो
मेरी पड़ी हुई ईंटों
जागो कि मिक्सर
चलने लगा है
जागो कि
तुम्हें सीमेंट की यारी में
इमारतों में डलना है
जागो कि
तुम्हें दीवारों और छतों को
घरों में बदलना है
जागो
मेरी बिखरी हुई ईंटों
जागो कि
तुम्हारी मज़बूती पर
टिका हुआ है
यह घर–संसार
यदि तुम कमज़ोर हुई तो
धराशायी हो जाएगा
यह सारा कार्य–व्यापार
जागो
मेरी गिरी हुई ईंटों
जागो कि
तुम्हें गगनचुम्बी इमारतों की
बुनियाद में डलना है
जागो कि
तुम्हें क्षितिज को बदलना है
वे और होंगे जो
फूलों–सा जीवन
जीते होंगे
तुम्हें तो हर बार
भट्ठी में तप कर
निकलना है
जागो कि
निर्माण का समय
हो रहा है
५. स्टिल-बॉर्न बेबी
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वह जैसे
रात के आईने में
हल्का–सा चमक कर
हमेशा के लिए बुझ गया
एक जुगनू थी
वह जैसे
सूरज के चेहरे से
लिपटी हुई
धुँध थी
वह जैसे
उँगलियों के बीच में से
फिसल कर झरती हुई रेत थी
वह जैसे
सितारों को थामने वाली
आकाश–गंगा थी
वह जैसे
ख़ज़ाने से लदा हुआ
एक डूब गया
समुद्री–जहाज़ थी
जिसकी चाहत में
समुद्री–डाकू
पागल हो जाते थे
वह जैसे
कीचड़ में मुरझा गया
अधखिला नीला कमल थी…