हमारी परम्परा और संस्कृति में स्त्री सदैव ‘देवि, माँ सहचरि तथा अपने सभी रूपों में सम्मान और श्रद्धा की ही अधिकारिणी रही है। उसके महत्व को,  उसकी अस्मिता को हमेशा पुरुषों के महत्व और उसकी अस्मिता से ज्यादा तरजीह दी जाती रही है। ‘विनायक’ से पहले ‘वाणी’ (सरस्वती) ‘परमेश्वर’ से पहले ‘पार्वती’, (पार्वती परमेश्वरौ) राम से पहले सीता, कृष्ण से पहले राधा की स्तुति हमारे अपने भारतीय समाज की तथा उसकी परम्परा और संस्कृति की एक ऐसी जीवन्त और प्राणवान चिन्तनधारा रही है जिससे आज समूचे विश्व को आलोक ग्रहण की ज़रूरत है। नारी स्वतंत्रता की बात करने वाले तथा स्वतंत्रता के आधार उसकी देह का बाज़ारीकरण कर उसकी आत्मा, शरीर तथा अस्मिता को रौंदने वाले देह व्यापारी आज अपने आपको विकसित और सभ्य उद्घोषित कर आत्ममुधता के शिकार होकर विश्व को गुमराह कर रहे हैं। नारी की शक्ति को, उसकी रचनात्मक तथा सृजनात्मक भूमिका को उसके पूरे सम्मान के साथ प्रतिष्ठित न करने वाला समाज कभी सभ्य समाज हो ही नहीं सकता, विकसित समझना तो उसकी सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी।

     यह सच है कि लगातार विदेशियों के आक्रमण और क्रूर दमन के परिणामस्वरूप हमारे अपने समाज में भी ऐसी बहुत सी अधोगामी रूढ़ियाँ  प्रचलित हो गयीं थीं जो स्त्रियों के प्रति सर्वथा क्रूर और अमानवीय थीं। तमाम प्रकार के अमानवीय प्रतिबंधों ने भारतीय समाज की स्त्रियों के जीवन को नारकीय तथा यन्त्रणापूर्ण बना दिया था। लेकिन हमारे मनीषियों और युग-प्रेरकों ने अपनी चिन्तनशील तथा वैचारिक ओजस्विता से इन सारी कुप्रथाओं को भस्मीभूत कर दिया जिसके परिणामस्वरूप आज हमारा भारतीय समाज स्त्रियों के सम्मान के लिए, उसकी अस्मिता के महत्व तथा स्वीकरण के लिए कृतसंकल्प है। लेकिन चुनौतियां अभी खत्म नहीं हुईं। हमें और सतर्क और सचेत होने की ज़रूरत है।

     इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि समय-समय पर अनेक ऐसी अमानुषिक ताकतें उभरी हैं जो मुक्ति की बात कर परोक्ष रूप से एक भयंकर शोषण के षड्यंत्र चक्र को मजबूत आकार तथा आधार देती रही हैं।

     आज बाज़ारवाद ने भी स्त्रियों की स्वतंत्रता की आड़ में उसकी देह को अधिकतम लाभ देने वाली उपभोग की वस्तु बनाकर रख दिया है। एक ऐसा भयंकर षड्यंत्र चल रहा है जो स्त्री की देह तथा उसकी आत्मा का मूल्य लगाकर उन्हें अपनी हवस का शिकार बना रहा है तथा उनसे पूँजी का भी सृजन कर रहा है। और इस पूँजी से युवतियों की एक लम्बी कतार भी खड़ी कर रहा है। इस बाज़ारवाद ने स्त्रियों के बदन से कपड़े भी उतारे हैं और उसकी चेतना तथा आत्मा के लज्जाशील वस्त्रों को भी तार-तार कर दिया है। बाज़ार का दिखावा ऐसा है, दम ऐसा भरा जा रहा है जैसे वे (बाज़ार) कोई समाज सुधारक हों, स्त्री हित के मसीहा हों। बाज़ार ने जो स्त्री को उसके आवरणों से मुक्त किया है वह स्त्री स्वतंत्रता की कामना से नहीं अपितु उसकी देह के अबाध इस्तेमाल के लिए। यह बाज़ारवाद का ही प्रभाव है कि आज स्त्री की चरित्रहीनता को उसकी प्रगतिशीलता का दूसरा रूप ही मान लिया गया है। यह न तो समाज-हित में है और न ही स्त्री-हित में। चरित्रहीनता और पतन चाहे स्त्री का हो या फिर पुरुष का वह कभी स्वीकरणीय नहीं, समाज के लिए हितकारक नहीं। निदा फाज़ली के शब्दों में-

     ‘‘वो किसी एक मर्द के साथ

     ज्यादा दिन नहीं रह सकती

     ये उसकी कमजोरी नहीं/सच्चाई है

     लेकिन जितने दिन वो जिसके साथ रहती है

     उसके साथ बेवफाई नहीं करती

     उसे लोग भले ही कुछ कहें

     मगर!!

     किसी एक घर में

     जिन्दगी भर झूठ बोलने से

     अलग-अलग मकानों में सच्चाइयाँ बिखेरना

     ज़्यादा बेहतर है।’’1

     दाम्पत्य को माधुर्यपूर्ण बनाकर घर, परिवार, समाज और राष्ट्र की शिराओं में स्वच्छ लहू बनकर संचरण करना नारी जीवन का यथार्थ हो सकता है न कि अलग-अलग मकानों में बेहयाई की सच्चाइयाँ बिखेरना।

     आज नारियाँ समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी रचनात्मक भूमिका निभा रही हैं। वे पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं बल्कि कई मामलों में तो पुरुषों को कहीं पीछे भी छोड़ रही हैं। समाज और राष्ट्र का भी यह दायित्व है कि वे एक ऐसे स्वस्थ समाज का सृजन करें जिसमें स्त्रियों के आगे बढ़ने के अवसर भी सृजित हों तथा उनकी सुरक्षा का भी पूर्ण प्रबंध हो। आज स्त्रियों के आगे बढ़ने के अनेक अवसर तो उपलब्ध हैं लेकिन उनकी सुरक्षा का पूर्ण प्रबंध नहीं। परिणामतः स्त्रियों के शोषण के कई दरवाजे भी खुल गये हैं। गाँव से लेकर महानगर तक के कैरियर के सफर में कई चरणों में उन्हें अपनी कीमत चुकानी पड़ती है, कई चरणों में उनका भयंकर शोषण होता है। आये दिन राष्ट्र में होती बलात्कार की घटनाएँ हों या हिंसा तथा उत्पीड़न की घटनाएँ किसी भी समाज तथा राष्ट्र के लिए भयंकर कलंक से कम नहीं। समाज के हर व्यक्ति को आगे बढ़कर महिलाओं की सुरक्षा के लिए कृतसंकल्प होना पड़ेगा, उनके आगे बढ़ने के सपने को पूरा तथा उनके सफर को सुरक्षित बनाना पड़ेगा। तभी हम एक सभ्य समाज का सृजन कर पायेंगे और एक विकसित राष्ट्र का भी और यह नारी जीवन में बदलाव लाकर ही संभव हो सकेगा। केवल दिखावे की भाषणबाजी और नकली तालियाँ बटोरने से समाज में कोई बदलाव नहीं आने वाला। निर्मला पुतुल की ये पंक्तियाँ हमें सावधान करने के लिए पर्याप्त हैं-

     ‘‘…..एक बार फिर

     ऊँची नाक वाली अधकटे ब्लाऊज पहने महिलाएँ

     करेंगी हमारे जुलूस का नेतृत्व

     और प्रतिनिधित्व के नाम

     मंचासीन होंगी सामने

     एक बार फिर

     किसी विशाल बैनर के तले

     मंच से खड़ी माइक पर वे चीखेंगी

     व्यवस्था के विरुद्ध

     और हमारी तालियाँ बटोरते

     हाथ उठाकर देंगीं

     साथ होने का भरम।।2’’

साथ होने का नकली भ्रम पैदा करने वालों से सावधान होगा, नहीं तो मानव विरोधी यह बाजारवादी संस्कृति जवान लड़की को अपने गंदे मंसूबों से खेलने का एक खिलौना ही बना लेगी और जवानी ढलते उन्हें सत्ता के अन्य दलालों की रखैल बनाकर तथा खुद के लिए जवान होती लड़कियों की एक नई कतार खड़ी कर लेगी। इससे उनका सुधरा जीवन तो और भी अधिक नारकीय और त्रासदपूर्ण हो जायेगा। ‘त्रिभुवन की एक कविता अवलोकनीय है’ जो बाज़ारीकरण के घिनौने रूप को बयाँ करने में पूर्णतः सक्षम है-

     ‘‘फार्म हाउस से वह होटल-होटल पहुँचती है

     इस लंपट से उस लंपट

     इस देह से उस देह के पुल को

     पार करती एक गंदी नदी बनती है

     …..और एक दिन

     फूटता है इच्छाओं के कण्ठ से आर्तनाद

     और झाड़़ती है इच्छाएँ अपने अधोवस्त्र

     तो पटपट गिरने लगते हैं

     सेठ, साहूकार, प्रशासनिक, पुलिस अधिकारी

     राजनेता, न्यायाधीश, समाजसेवी,

     मीडियाकर्मी धर्माधिकारी।’’3

     नारी की स्वतंत्रता का कर्कश स्वरों में उद्घोष करने वाले नकाबपोश भेड़िये पर्दे के पीछे उनकी देह का ही उपभोग कर रहे हैं। इसके पीछे एक लम्बा नेटवर्क काम कर रहा है। आज नारी को उन्नति के सपने दिखाकर गुमराह किया जा रहा है। नारी को अपनी उन्नति के लिए आज ऐसे संकरे रास्तों से गुजरना पड़ रहा है जहाँ आगे बढ़ने के लिए उसे अपने बदन से कपड़े उतारने ही होंगे, कदम-दर-कदम उसे जिस्म के भूखे भेड़ियों को अपना गर्म गोश्त पेश करना ही होगा, तभी ये बाज़ारवादी भेड़िये नारी को प्रगतिशीलता, आधुनिकता (माडर्निटी) तथा स्वतंत्रता का तमगा देते हैं और तकलीफ की बात तो यह है कि कुछ अतिशय महत्तवाकांक्षी तथा कुछ मज़बूर नारियों ने भी सफलता के इन घिनौने और शार्टकट रास्तों को ही इस प्रकार वाजिब और सही करार दिया है जैसे यह सचमुच उन्हें मुक्ति के द्वार तक ले जाने में सक्षम हो। संकट तब और अधिक भयावह और खतरनाक हो जाता है जब उसे जीवन का सहज अंग तथा वास्तविक नियति ही मान लिया जाये। आज की अधिसंख्य नारियों ने भी अपनी देह के बाज़ारीकरण को अपनी वास्तविक नियति ही मान लिया है और इस पर उन्हें कोई पछतावा नहीं क्योंकि उनकी नज़र में तो यही माडर्निटी है, यही स्वतंत्रता है, यही उनकी मुक्ति की राहे हैं। आज बाज़ारीकरण ने नारी की देह के शोषण-दर-शोषण को इतना अनिवार्य तथा आवश्यक बना दिया है कि उसे अपनी देह ही नहीं आत्मा की गुलामी तक का अहसास नहीं। पैसे की चकाचौंध ने उन्हें इतना अंधा बना दिया है कि वे अपनी अस्मिता को बेंचकर भी अपनी मुस्कान से बाज़ारी संस्कृति को गुलजार कर रहीं हैं। बाज़ारू संस्कृति न केवल नारी देह का उपभोग करती है, उससे पूँजी सृजित करती है बल्कि उसकी मुस्कान, उसकी हँसी, उसके रुदन तथा उसके आँसुओें से भी मुनाफाखोरी करती है।

‘‘अब महज़ बस्ती-भर नहीं रह गया

हमारा कुरूवा

शहर में दूर तक फैले बाजार का

एक हिस्सा बन गया है यह

….यहां दारू, ताड़ी, हड़िया ही नहीं बिकता

ठंडे और गर्म गोश्त भी बिकते हैं

बिकती है हंसी-ठट्ठा और खिलखिलाहटें

ठंडी दिनचर्या से बनी

गर्म-गर्म रातें।4’’

आज नारी को सशक्त बनाने की कामना रखने वाले नीति-निर्देशकों (निर्माताओं) के लिए यह एक बड़़ी चुनौती है कि वे नारी को किस प्रकार बाज़ारीकरण की उपभोगवादी, देह-व्यापारी संस्कृति से सुरक्षित करेंगे, बिना उसकी प्रगति की राहों को अवरुद्ध किये। और नारियों को भी अपनी देह को उपभोग की ‘‘वस्तु’’ बनाने वाले फूहड़ ‘कल्चर’ के ठेकेदारों से खुलकर संघर्ष करना होगा, उनके गंदे मंसूबों को नाकामयाब बनाना होगा, स्वयं को प्रलोभनों से मुक्त रखकर क्योंकि उपभोक्तावादियों के लिए स्त्री एक शरीर है और उसके शरीर का इस्तेमाल भोग की वस्तु की तरह ही करना है। तभी तो नारी मुक्ति के फायदे हैं।

‘‘अच्छा है मुक्त हो रही हैं/मिल सकेंगी/स्वच्छन्द अब संभोग के लिए’’5  आज हमें जहाँ सामाजिक स्तर पर नारी को तमाम बँधनों से मुक्त करने की ज़रूरत है वहीं स्त्री की स्वच्छन्दता की आड़ में उसकी देह को संभोग का साधन बनाने वाली उपभोक्तावादी बाज़ारीकरण की संस्कृति से भी उसे बचाने की ज़रूरत है। एक तरफ उन्हें गर्भ में ही मार दिये जाने से बचाना होगा तो दूसरी ओर सख्त कानून बनाकर आये दिन होते बलात्कार और छेड़खानी से मुक्त बनाना होगा। उन्हें प्राप्त संवैधानिक अधिकारों का क्रियान्वयन प्रभावशाली तरीके से करना होगा, जिससे नारी प्रगति के स्वर्णिम शिखरों तक की अपनी यात्रा को बिना किसी भय के, बिना किसी अवरोध के तय कर सकें, अपनी सम्पूर्ण रचनात्मक शक्ति के साथ। नारी के सशक्तीकरण से ही राष्ट्र के सशक्तीकरण की प्रक्रिया पूर्ण होगी। आज हमें नारी मुक्ति की ऐसी राहें तलाशनी है जिसमें उनकी ख्व़ाबों की दुनिया एक हकीकत की खू़बसूरत दुनियाँ में तब्दील हो सके।

संदर्भ ग्रन्थ सूची-

  1. सफर में धूप तो होगी, निदा फाज़ली, पृ.सं -146 ।
  2. आज की कविता, विनय विश्वास, पृ.सं.-187।
  3. इन्द्रप्रस्थ भारती, अप्रैल-जून, 2004, पृ.सं -52 ।
  4. अपने ही घर की तलाश में, निर्मला पुतुल (संथाली से अनुवाद अशोक सिंह), पृ.सं -81 ।
  5. वसुधा 59-60, स्त्री मुक्ति का सपना, अक्टूबर 2003 से मार्च 2004, पृ.सं -145।

डॉ. रामचन्द्र पाण्डेय
विभागाध्यक्ष
हिन्दी विभाग
ईश्वर सरन डिग्री कालेज
इलाहाबाद

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