आज़ादी की लड़ाई कोई एक आयामी नहीं थी। देश में छोटे से बड़े सभी स्तरों पर व्यक्तियों, संस्थानों और साहित्य के माध्यम से सभी अपना अक्षुण्ण योगदान दे रहे थे। जिसमें जितना संघर्ष स्वतंत्र होने के लिए हो रहा था उतना ही देश के भीतर व्याप्त तमाम विसंगतियो, आडंबरों एंव सामाजिक स्तर पर फैली बुराइयों से भी मोर्चा लिया जा रहा था। उसी कड़ी के रूप में जिस प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने साहित्य के साथ-साथ अन्यान्य मोर्चो पर क्रांति लाने का कार्य किया, उसके साथ ही आज़ादी की लड़ाई को सीमित मोर्चे से निकाल कर जन-जन तक पहुंचाने मे भी मुख्य भूमिका निभाई। उसी दिशा में एक और उल्लेखनीय और सराहनीय कदम सिनेमा को दुनिया के सामने लाने में भी दिखाई देता है। यह भी एक क्रांति ही थी जिसने वैज्ञानिक तकनीक के साथ-साथ न सिर्फ मनोरंजन की दिशा मे एक कदम आगे बढ़ाया, अपितु यही साक्षात दिखने की कला ने जीवंत रूप में सभी को पर्दे पर उतार कर अपनी अपनी क्षमता का ही परिचय नहीं दिया, बल्कि आज़ादी की लड़ाई में इसे हथियार की तरह भी प्रयुक्त किया। इस रूप मे जिस तरह पत्र-पत्रिकाओं और साहित्य की अन्य विधायों का योगदान इस आंदोलन मे दिखाई देता है उस अनुपात मे हिंदी सिनेमा के सकारात्मक योगदान के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है।
इस विषय पर आगे बढ्ने से पूर्व यह भी जान लें की भारत में हिंदी सिनेमा की शुरुआत और उसका इतिहास क्या है? कैमरा और उससे फोटोग्राफी की तकनीक जिस तरह भारत में बाहर से अंग्रेजों के साथ आई, उसी तरह सिनेमा फ्रांस की देन है। फ्रांस के ‘लुईस ल्यूमेर’ ने अपने साथियों के साथ मिलकर बनाई फिल्म को सबसे पहले 22 मार्च 1895 के दिन ‘लि अरोजेर अरोज’ (L’ALLOSEUR ARROSE) नाम की पहली लघु कथा लोगों के सामने प्रदर्शित की। इसके पहले भी फ्रांस के ही अन्य लोग भी इस क्षेत्र में कई सार्थक प्रयास करके इस कार्य को आगे बढ़ा चुके थे उसी पर और बेहतर ढंग से सामान्य कैमरा से काम लेकर विश्व-सिनेमा के क्षेत्र मे इतिहास रचा। जिसे भारत मे 7 जुलाई, 1896 को मुंबई के वाटसन होटल में प्रदर्शित किया गया। जिसने आगे न सिर्फ हिंदी सिनेमा की नीव रखने मे भूमिका निभाई, बल्कि आज़ादी की लड़ाई में अन्य माध्यमों के साथ ही इसे भी भाषा और साहित्य के संवर्धन के रूप में स्वीकारते हुए इसके बेहतर और सार्थक प्रयोग पर बल दिया। इस तकनीक का ही कमाल था कि चलचित्र की भांति ही छोटे- छोटे दृश्यों के रूप में गांधी जी और अन्य नेताओं को जो उस समय कैमरे में कैद कर लिए गए थे, हम आज भी देख कर अपनी यादें ताजा कर लेते हैं।
भारत में बनी पहली मूक हिंदी फिल्म के गौरव से सम्मानित ‘राजा हरिश्चंद्र’ धुंजीराज गोविंद फाल्के यानि दादा साहब के निर्देशन में 3 मई 1913 में प्रदर्शित हुई थी, फिल्म पूर्णत: स्वदेशी थी। जिसने न सिर्फ हिंदी क्षेत्र मे बल्कि अँग्रेजी में इसी सब टाइटल के कारण इंग्लैण्ड मे भी खूब धूम मचाई थी। धार्मिक और पारिवारिक फिल्म होने के कारण इसने पूरे भारतवर्ष में अपनी बुलंदी के झंडे गाड़ दिए। ‘चार रील’ और 3,700 फीट मात्र इसकी लंबाई थी जिसने गांधी जी को भी इसे देखने और सराहने पर मजबूर कर दिया था। यह वो समय था जिसमें भारतीय जन मानस में स्वतन्त्रता का बिगुल अपने पूरे स्वर में शंखनाद कर रहा था, जिसमें हिन्दी सिनेमा ने भी अपना स्वर मिला दिया। यहीं से हिंदी सिनेमा का इतिहास और उसका योगदान दोनों ही रेखांकित किए जाने लगे। जिसमें लगातार अपनी फिल्मों ‘कृष्ण जन्म’, ‘लंका दहन’ व ‘मोहिनी भस्मासुर’, ‘सावित्री- सत्यवान, तथा संतो के जीवन को आधार बना कर संत तुकाराम, संत नामदेव, संत एकनाथ व भक्त प्रहलाद के जरिये उन्होने ब्राहमण समाज द्वारा फैलाये गए वितंडतावाद, आम आदमी का समाज से हट कर कुछ नया करने कि कोशिश को इन संतो के जीवन से आसानी से समझा जा सकता है। इनको अपने जीवन में कितनी प्रताड्ना, तिरस्कार और सामाजिक बहिष्कार झेल कर अपने लक्षित उद्देश्य पर पहुँचने में सफलता मिली, इनके जीवट और कष्टमय संघर्ष ने कितनों को प्रेरित किया, यह उस समय के सामाजिक ताने-बाने के मध्य ही समझा जा सकता है। जिसके कारण आम जनता के मध्य इनकी लोकप्रियता और सम्मान दोनों बढ़ा जो आज भी संतो की परंपरा में इन्हे प्रतिष्ठित किए हुए है।
भारतीय समाज और राजनीतिक पटल पर जनजागृति फैलाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण ही दादा साहब को भारतीय फिल्मों का भीष्म पितामह कहा जाता है। कहा जाता है कि इनकी फिल्में देखने के लिए लोग कई दिनों की पैदल यात्रा और बैलगाड़ियों में लद कर जाते थे। भले ही इन फिल्मों का कथानक धार्मिक रहा हो, किन्तु अपनी संस्कृतियों से दूर कर दिए गए जन मानस में फिर से एक बार अपने अस्तित्व बोध का भाव भरने मे कुछ हद तक इन फिल्मों से सफलता अवश्य ही मिली। जिस तरह से साहित्य कि अन्य विधाओं के जरिये भी भारतीय संस्कृति के ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं को नए संदर्भों और मिथ- कथाओं के द्वारा पुनर्जीवित किया जा रहा था, सिनेमा उतने व्यापक स्तर पर तो अपनी कहानियों में परिवर्तन नहीं कर सकता था, फिर भी इस प्रयास में कई बार दादा साहब को लोगों और समाज का गुस्सा और आक्रोश झेंलना पड़ा था। 93 फिल्में बनाने वाले दादा साहब ने एक सवाक फिल्म ‘गंगावतरण’ जो आलमआरा के बाद की थी।
इस दौर में ज़्यादातर फिल्में धार्मिक पृष्ठभूमि पर आधारित थी फिर भी बाद मे विभिन्न कंपनियों के आ जाने से और उधर पारसी थियेटर के बंद होने अथवा आर्थिक संकट ने फ़िल्मों में कलाकारों के विशेषत: महिला कलाकारों की कमी को दूर करके एक ञ दौर और मार्ग प्रशस्त किया। इस बदलाव को भी नकारा नहीं जा सकता। क्षेत्रीय भाषाओं में भी इसी परंपरा को लेकर एक नए दौर की शुरुआत दिखाई देती है। दादा साहब के दौर में ही कंपनी और थियेटर फिल्मों का निर्माण शुरू हो चुका था, जिन्होने इस दिशा मे अपना महत्वपूर्ण योगदान देकर इसे समृद्ध किया, जिनमें कोहिनूर, विक्टोरिया, कृष्णा एंव इंपीरियल कंपनियों की मुख्य भूमिका थी, जिन्होने पहली सवाक फिल्म ‘आलमआरा’ (1931), ‘शीरी-फरहाद’ (1931) और ‘अनारकली’ (1928), ‘अमृत मंथन’ एंव ‘अमृत ज्योति’ के द्वारा फिल्मों के निर्माण को एक उद्योग मे बदल दिया, ‘अमृत मंथन’ (1934) और ‘अमृत ज्योति’ (1936), तो वेनिस फिल्म समारोह में भी चर्चित और प्रशंसा बटोरने में सबसे आगे थी। इसके आगे साल में एक -दो फिल्मों के बनाने वाले कारोबार ने अपने पैर और मजबूती से फैला लिए। जहां रोजगार के साथ ही आम जनता को सस्ते में मनोरंजन के साथ ही कुछ नया सीखने को भी मिल रहा था। जो निरक्षर थे, पढ़ें -लिखे नहीं थे, उनके बीच भी इस तरह के सिनेमा से एक परिष्कृत सोच व कलात्मक रुचि को विकसित करने में मदद मिली, जिसे पारसी थिएटर ने निम्न स्तर तक पहुंचा दिया था। तकनीक अपने आप में ही कई जिज्ञासाओं को समेटे हुए थी, जहां अभी दीये कि रोशनी भी हर घर को मयस्सर न थी वहीं पर्दे पर चलते फिरते लोगों को देखना अपने में कम कौतूहल का विषय नहीं था। जिसे बाद मे गाँव -गाँव बाईस्कोप के रूप में साईकल पर एक छोटे डिब्बे में जगह बना कर उसके अंदर कागज कि रील मे भी हीरों और हीरोइन कि फोटो को चिपका कर दिखाने कि कला के रूप में भी विकसित करके पहुँचाने के पीछे एक रोजगार और सस्ता मनोरंजन पहुंचाने के पीछे भी इसी कला का हाथ रहा होगा।
वी० शांताराम ने ही अमृत मंथन और अमृत ज्योति के बाद अयोध्या के राजा, जलती निशानी और माया मछिंदर के साथ ही अपने समय की सबसे सफल और चर्चित फिल्म ‘संत ज्ञानेश्वर’ से नया अध्याय लिखा। बाद मे इसी कड़ी में उनकी फिल्म ‘डॉ॰ कोटनिस की अमर कहानी’ को अमेरिकी और वेनिस फिल्म दोनों ही जगहों पर वाहवाही बटोरी। भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन में भी इस फिल्म की महत्वपूर्ण भूमिका को आज भी सराहा जाता है, जिसने तन, मन और धन से देश कार्य के लिए सबको आगे आने के लिए प्रेरित किया। जिसे आंदोलन से जुड़े लोगों ने न सिर्फ देखा बल्कि आम जनता के बीच भी इसकी चर्चा करके एक डॉक्टर के कार्यो की सराहना करके लोगों को आगे आने के लिए प्रेरित किया।
इसी तरह की एक और सामाजिक फिल्म सागर फिल्म कंपनी ने ‘डॉ॰ मधुरिका’ बनाई थी, जिसमे डॉ॰ की कर्तव्य निष्ठा के साथ ही कई अन्य सामाजिक मुद्दों जैसे परिवार नियोजन और महिलाओं की सम्मान जनक स्थिति को सामने रखते हुए, खुद संघर्षों को झेलते हुए, भी एक न्याय की लड़ाई लड़ते हुए अपने कदम पीछे नहीं खींचती है। यह उस दौर की कथा है जिस समय लोग लड़कियों को पढ़ने लिखने से दूर रखते थे, उनके लिए स्कूल कॉलेज जाने कि कोई सोचता भी नहीं था। डॉ॰ बनकर बाहर निकल कर काम करने की तो सोच ही नहीं थी। इसी कंपनी की एक और फिल्म ‘औरत’ भी थी जो उस समय में तो विशेष चर्चित नहीं हुई, लेकिन इसी विषय पर आगे चलकर ‘मदर इंडिया’ बनी, जिसने महिला प्रधान फिल्मों में ही नहीं हिंदी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर गाड़ दिया, लेकिन उसकी नीव तो इसी समय कि फिल्मों ने डालकर भविष्य का मार्ग निर्मित कर दिया था। जो बदलते समाज कि एक झलक मात्र थी। ये तो मात्र उस समय कि कुछ मशहूर कंपनियों कि चर्चित फिल्में, इसके अतिरिक्त भी क्षेत्रीय स्तर पर भी सभी अपनी तरह से योगदान दे रहें थे जो हिंदी से दूसरी भाषाओं व अन्य भाषाओं हिंदी में अपनी आवाजाही करके एक दूसरे के पूरक बन कर किसी न किसी रूप मे व्यापक स्तर पर आज़ादी के आंदोलन कि आग कि ही हवा दे रहे थे उसकी चिगारी को मशाल बना रहे थे।
बॉम्बे टाकीज़ ने भी कई फिल्मों का निर्माण किया, जिसमें अपने सामाजिक सरोकार के कारण 1935 में बनी ‘अछूत कन्या’ को सबसे ज्यादा सफलता व सराहना मिली। यह फिल्म एक आयामी न होकर कई धरातलों पर समाज में फैली बुराइयों को उनके ही मध्य रेखांकित करते हुए फ़लक पर उतारा था। इसी बैनर के तले बनी फिल्म ‘बंधन’ (1940), कवि प्रदीप का लिखा वह मशहूर गाना ‘चल-चल रे नौजवान, दूर तेरा गाँव और थकें पाँव, फिरा भी तू हरदम आगे बढ़ा कदम, रुकना तेरा मान नहीं, चलना तेरी शान, चल-चल रे नौजवान …’ ने आज़ादी के दिवानों के बीच अलख जगाने वाले गीत के रूप मे अपनी पहचान बनाई थी॰ जो आज भी धरने प्रदर्शन के बीच ललकार के स्वर में गूँजता है। साथ ही ‘किस्मत’ (1943), का वह गीत जो एकल और समूह में अमीर बाई कर्नाटकी के मुख्य स्वर ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है, उस समय धूम मचाने वाले दोनों ही ओजपूर्ण गीतों के स्ंगीतकर थे युवा अनिल विश्वास। जिन्हें आज़ाद भारत में अपने संगीत के कारण संगीत के भीष्म पितामह की उपमा दी जाती है। जिन्होने लगातार अपने संगीत में अनेकानेक प्रयोग करके उसे ऊँचाइयों पर पहुंचाया।
सिनेमा को शुरू से दोयम दर्जे की विधा मानने वाले साहित्यकार भी कवि प्रदीप के लिखे देश-प्रेम के गीतों और अनिल विश्वास के संगीत से सजे सुरों की धूम से अछूते नहीं थे, जिस तरह कैदी और कोकिला की पंक्तियाँ, निराला और सुभद्रा कुमारी चौहान के गीतो की अपनी गूंज थी,तो नौजवानों में प्राण सींचने का काम हिंदी फिल्मी के गीतो और उनकी सामाजिक कथाओं ने भी किया था। इतना ही नहीं मूक फिल्मों के प्रदर्शन के समय भी अलग से गायक मंडली समसामयिक गीतों और धार्मिक भजनों के द्वारा इस कार्य को करती आ रहीं थी।
इसी कड़ी मे सिरकों कंपनी की ‘गीता'(1940), ने भागवत गीता के सहज, सरल उपदेशों को भौतिक और व्यावहारिक धरातल पर उतारते हुए, गीत की शृंखला में एक सामूहिक प्रस्तुति के रूप मे ‘दूर करो, दूर करो, कचरा दूर करो, घर का कचरा, मन का कचरा, दूर करो, दूर करो…’ अपने आस-पास की साफ-सफाई के द्वारा गांधी जी के चलाये जा रहे स्वछ्ता अभियान के मूल मंत्र के साथ ही मन की निर्मलता और विचार व कार्यों में की स्पष्टता और तन की स्वस्थता के साथ ही समाज में फैली ऐसी ही तमाम बीमारियों के दूर करने और रहने की जागरूकता पर ज़ोर दिया। जो उस समय की ही नहीं वर्तमान समय की भी सबसे बड़ी आवश्यकता और जरूरत है।
इतना ही नहीं जिस तरह साहित्य मे जिस तरह अप्रत्यक्ष रूप मे ही अँग्रेजी शासन की दुरावस्था को दबे-छिपे रूप मे ही व्यक्त कर रही थी, जिससे किसी भी कानूनी विवाद से बचा जा सके, कुछ उसी भांति बाम्बे टाकीज़ की बनी फिल्म ‘मजबूर’ जो आजादी के बाद (1948) में प्रदर्शित हुई। नाज़िम पानीपती के लिखे गीत ‘अब डरने की कोई बात नहीं, अँग्रेजी छोरा चला गया, वो गोरा छोरा चला गया …’ पहले युगल गायक के तौर पर महान गायक मुकेश और स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर की आवाज में संगीतकार गुलाम हैदर के संगीत निर्देशन में पहले ही रिकार्ड कर लिया गया था, लेकिन आज़ादी के बाद बजे इस गीत ने स्वतन्त्रता के मायने ही बादल दिया। आज़ादी मिलने से पहले सभी भारतवासियों के सपनों को न सिर्फ़ साकार होते दिखाया बल्कि वह चाहता क्या है? उसे समय से पहले ही जिस रूप में प्रस्तुत किया, उसका अनुभव उस समय के सभी लोगों के लिए विलक्ष्ण और अदभुत रहा होगा। इसे गाते हुए कितनी खुशी और ओज़ से भरी युवाओं की टोलियाँ राहों से गुजर रही होंगी, सारी पीड़ा और सहे गए दर्दनाक हादसे एक बार तो जरूर कुछ कम हुआ होगा, भले ही उसकी टीस तो आज़ादी के बहत्तर सालों मे भी कभी कम नहीं हुई है। उसे भुला कर देश पर प्राण न्योछावर करने वालों की शहादत को कोई भी काम नहीं ही करना चाहेगा। इस फिल्म की यह भी एक त्रासदी ही थी, की इसे संगीत के तराने से नवाजने वाले गुलाम हैदर भारत विभाजन में पाकिस्तान चले गए थे। यह भी आज़ादी पाने के साथ ही न भूल पाने की एक कसकती पीड़ा ही है जो इन गानों के साथ हमेशा जुड़ी रहेंगी।
इस रूप मे हम कह सकते हैं कि हिंदी सिनेमा का विस्तृत रूप जिस तरह आज अनेक स्तरों पर दिखाई देता हैं उस रूप मे वह भी आज़ादी कि लड़ाए के साथ ही अपने स्वरूप को लेकर निरंतर संघर्ष ही कर रहा था। एक छोटे से फोटो कैमरे कि शुरुआत से मुक्ब फिल्मों से अपनी यात्रा के शुरुआती दौर में भी वह समाज और देश कि समस्याओं से जुड़ाव को प्रस्तुत करते हुए बोलती फिल्मों से तहलका मचाते हुए लगातार आज़ादी के संघर्ष में अपनी प्रखर आवाज से उस अलख को जन जन और आज़ादी के दीवानों कि साँसों में भरता हुआ अपनी छोटी सी यात्रा में भी अपने उद्देश्य और लक्ष्य से दूर नहीं हुआ। यही इसकी महत्ता और सत्ता है कि आज भी हिंदी सिनेमा भाषा और देश के गौरव व भारतीय हितों को तमाम व्यावसायिक गतिविधियों के बाद भी सर्वोपरि रखता है, उस दिशा मे निरंतर अपना योगदान प्रत्येक दिशा में सर्वोच्च शिखर पर अपना परचम लहरा रहा है।
डॉ. चंद्रकला
बी. आर. अंबेडकर कॉलेज