शोध सार – इस शोध पत्र में समाज में आए विचलन को साहित्य की सशक्त विधा कहानियों के जरिए समझने की कोशिश की गई है। साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। उस दर्पण में समाज के बदलते मूल्य, नैतिकता का पतन, संबंधों में विच्छेद, अविश्वास और सामाजिक संस्थाओं के टूटने की तस्वीर दिखाई देती है या नहीं ? इसमें भी विवाह जैसी संस्था के चरमराने और विवाहेतर संबंधों की स्वीकार्यता किस रूप में दर्ज है, यह देखना दिलचस्प है। इस शोध में स्वाधीनता पूर्व की कहानियों के माध्यम से विवाहेतर संबंधों की पड़ताल की गई है।
बीज शब्द – विवाहेतर, देह, संबंध, काम, विवाह संस्था, मूल्य, नैतिकता, भोग
कहानी का क्षेत्र व्यापक है। वह कथ्य और शैली की नवीनता के कारण ही 20वीं सदी की प्रमुख विधा रही है। कथा साहित्य की अन्य विधाओं के बरक्स 20वीं सदी को कहानी की सदी कहा जाता है। यह इसलिए कहा जाता है क्योंकि हिंदी कहानी ने यथार्थ के धरातल पर मध्यवर्गीय जीवन के सभी आयामों को चित्रित किया। इसी कारण बहुत ही कम समय में कहानी अन्य विधाओं के मुक़ाबले अधिक लोकप्रिय हुई। वैसे भी मनुष्य का किस्सों से पुराना नाता है। मौखिक परंपरा में ये किस्से ही मनोरंजन, शिक्षा, और सीख के माध्यम थे। इसलिए मनुष्य के चित्त में कहानी का एक स्वरूप था जिसे कहानी के लिखित अभ्यास ने और पुख्ता किया। इसी कारण कहानी का वितान भी विकसित होता गया। आरंभ की कहानियाँ जहाँ पारिवारिक संबन्धों की नैतिकता, धार्मिक संदर्भ, मूल्यों की प्रतिष्ठा और सामाजिक रूढ़ियों पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाली थीं तो वहीं बाद की कहानियाँ मनुष्य के मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, वर्गीय, जातीय संदर्भों को अभिव्यक्त करती हैं। स्वाधीनता पूर्व की कहानियों को देखें तो उनके केंद्र में व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उसके जीवन के विविध आयाम नज़र आते हैं। इन कहानियों में स्त्री की स्वतन्त्रता, देह की आजादी, निर्णय लेने की आजादी, अधिकारों के प्रति सजगता, पितृसत्ता को चुनौती, अस्तित्व को अहमियत और मध्यकालीन मूल्यों को ध्वस्त करने तथा आधुनिक चेतना व व्यक्ति केन्द्रित दृष्टिकोण मिलता है। खासकर 20वीं सदी के अंतिम और 21वीं सदी के आरंभिक दशक की कहानियों में समाज, परिवार और मूल्यों की जगह व्यक्ति की इच्छा और उसकी महत्वाकाँक्षाओं को केन्द्रीयता मिली। इसी कारण इन कहानियों में हम संस्थागत मूल्यों को ढहते हुए पाते हैं। इसमें परिवार से लेकर विवाह जैसी संस्था प्रमुख है। ‘पतिव्रता’ जैसे शब्द की व्याख्या धीरे-धीरे पितृसत्ता के वर्चस्व को पोषित करने और स्त्री की ‘फ्रीडम ऑफ चॉइस’ और ‘माय बॉडी इज माय चॉइस’ के विलोम में होने लगी। कृष्णा सोबती की ‘मित्रो’ इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। ममता कालिया ने भी ‘बेघर’ उपन्यास के जरिए इसी बात को पुष्ट किया है। खासकर दैहिक संबंधों को स्त्री स्वतन्त्रता के साथ जोड़ा गया। इसी बात को साधना अग्रवाल अपने एक लेख में कुछ इस तरीके से लिखती हैं- “स्वतंत्रता के बाद सामाजिक यथार्थ का परिप्रेक्ष्य बदलता गया उसी तरह प्रेम की परिकल्पना और दांपत्य जीवन की अवधारणा भी। राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘उखड़े हुए लोग’ में स्त्रियों के कामकाजी स्वरूप का पूर्ण समर्थन झलकता है। मोहन राकेश का उपन्यास ‘अंधेरे बंद कमरे’ हरबंस और नीलिमा के अंतर्द्वंद, आपसी तनाव और रिश्ते के अधूरेपन के इर्द-गिर्द घूमता है। कृष्णा सोबती के लेखन के केंद्र में बदलते समाज के बीच तेजी से बदलती वह स्त्री है जो दांपत्य जीवन को ही नहीं झटकती है बल्कि अपने प्रेम व्यापार में भी उनमुक्ता चाहती है । चाहे वह ‘मित्रों मरजानी’ हो या ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ की रत्ती। उनका ‘दिलो दानिश’ उपन्यास प्रेम और तनाव के बीच उस स्त्री को संपूर्णता में अंकित करने का प्रयास करता है जिसे उस दौर में रखैल कहा जाता था।”[1] इसी के विस्तार को हम हिंदी कहानियों में विवाहेतर संबंधों के रूप में देख सकते हैं।
दाम्पत्य जीवन में बिखराव, तनाव और द्वंद्व की कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी हमारे सभ्य समाज की है। मनुष्य में अन्य भावनाओं की तरह काम भावना भी हमेशा से ही रही है। यह भी एक मूल प्रवृति है। समाज में विवाह नामक संस्था के जरिए काम भावना को एक वैधता प्रदान की गई है। स्त्री-पुरुष को इस संस्था के जरिए एक सूत्र में बांधने की व्यवस्था की गई है। जो सामाजिक और धार्मिक नियमों से बंधी हुई है। इसी में स्त्री और पुरुष के संबन्धों को निर्धारित किया है। विवाह के सूत्र में बंधे स्त्री- पुरुष के शारीरिक संबंधों को पति -पत्नी के रूप में वैधता मिली और इसके बाहर अगर पुरुष किसी अन्य स्त्री के साथ संबंध बनाता है या स्त्री किसी अन्य पुरुष के साथ संबंध बनती है तो उस संबंध को अवैध कहा जाता है। सामाजिक तौर पर उसे अनैतिक माना जाता है। परंतु, इधर इस तरह के संबंधों को देह की आजादी और चॉइस ऑफ फ़्रीडम के रूप में वैधता प्रदान करने की कोशिश की जा रही है। “विवाहेतर संबंध समाज में आधुनिक भाव-बोध की ही उपज नहीं है। दूसरी औरत हमारे समाज में तब से है जब से स्त्री-पुरुष के रहस्मय संबंध विकसित हुए।”[2] ‘विवाहेतर संबंध समाज में आधुनिक भाव-बोध की ही उपज नहीं है’ ऐसा नहीं हैं। आधुनिक भाव बोध ने ऐसे संबंधों को ग्लोरीफ़ाई किया और इसे स्त्री स्वतन्त्रता से जोड़कर वैध ठहराने की कोशिश की है।
विवाहेतर संबंधों के कई पक्षों पर हिंदी में कहानियाँ लिखी गई हैं। मन्नू भंडारी की कहानी ‘ऊंचाई’[3] की नायिका शिवानी अपने पति से कहती है कि वह प्रेमी एवं पति दोनों के साथ शारीरिक संबंध बनाए रखने में किसी नैतिक हीनता का अनुभव नहीं करती है। वहीं कहानी की नायिका शिवानी विवाह जैसी संस्था पर प्रश्न खड़े करते हुए कहती है- “पर-पुरुष को शरीर समर्पित करने मात्र से ही विवाह की नींव हिलती है तो ऐसे विवाह का खत्म हो जाना ही बेहतर है।”[4] शिवानी का यह कथन स्त्री की शारीरिक आजादी को ही उसकी असल आजादी समझने वाले लोगों का केंद्र बिन्दु है। उनके लिए देह आत्मविहीन है और काम ही उसकी एकमात्र आवश्यकता है। मूल्य और नैतिकता उनके लिए ‘ओल्ड फैशन’है। तभी तो प्रियंवद अपनी कहानी ‘अधेड़ औरत का प्रेम’ में सारी नैतिकता को ताक पर रखते हुए अवैध संबंधों को वैधता प्रदान करते हैं। उनकी कहानी की शुरुवात इस वाक्य से होती है- ‘अवैध संबंधों का प्रेम मुझे आकर्षित करता है।’ इस आकर्षण को आगे वह विस्तार पूर्वक व्याख्यायित करते हैं- “मेरा विश्वास है कि प्रेम अपनी पूरी चमक, पूरे आवेग के साथ ऐसे संबंधों में ही रहता है। आत्मा के एक खाली, अंधेरे कोने में बचा कर रखे हुए आलोकित हीरे की तरह ! ऐसे संबंधों का प्रेम बहुत गंभीर और अर्थपूर्ण होता है । प्रेम के इन्हीं क्षणों में मनुष्य अपनी असली और पूरी स्वतंत्रता का उपभोग करता है। उसका पूरा जीवन, व्यक्तित्व, शरीर सब तरह की वर्जनाओं, समाज के घिनौने और निर्मम अंकुशों में बहती है। कुल मिलाकर ऐसे संबंधों में प्रेम अपनी पूरी रहस्यमयता, गोपनीयता, आवेग आलोक और स्वतंत्रता के साथ जीवित रहता है। वे सचमुच उसके अंदर गूंजते रहने वाले सुख के क्षण होते हैं। शेष संबंधों में तो, वह एक लगातार दोहराई जाने वाली, ऊबी हुई गुलामी होती है, जो जरा सी ऊपर की परत खुरचने पर दिखाई देने लगती है। यही उनकी अंतिम शरण बन जाती है। इससे मुक्ति की कल्पना पाप और भय को जन्म देती है । यह जितनी लंबी और जटिल होती है, उतना ही जीवन सार्थक और अर्थवान माना जाता है। मैं मनुष्य की स्वतंत्रता, प्रेम और जीवन से अंतिम बूंद तक सुख निचोड़ लेने में उसके अधिकार को मानता हूं और मनुष्य का यह अधिकार, मुझे अवैध संबंधों में बहुत साफ तरीके से पूरा होता दिखता है। मेरे दो अवैध संबंध हैं दो बहनों से, एक 17 साल पुराना, दूसरा 13 साल पुराना। दोनों बहने विवाहित हैं बड़ी को छोटी और मेरे संबंध के बारे में कुछ नहीं मालूम। छोटी को मेरे और बड़ी के संबंध के बारे में सब मालूम है।”[5] प्रियंवद की अधिकांश कहानियों में हम विवाहेतर संबंधों को बिना किसी ग्लानि और अपराध-बोध के साथ जीती नायिकाओं को देखते हैं। उनकी नायिकाएँ इन संबंधों को देह की स्वतन्त्रता के रूप में ही लेती हैं। इस तरह के संबंध भावनात्मक तो होते नहीं हैं इसलिए इस तरह के संबंधों को लेकर उन्हें कोई ग्लानि नहीं होती है। प्रेम और देह को लेकर प्रियंवद का मानना है कि- ‘देह के साथ प्रेम हो यह जरूरी नहीं है मगर प्रेम के साथ देह का होना जरूरी है। बिना प्रेम के देह-संबंध बनाना बहुत आसान है। बाजार में लाखों संबंध रोज बनते हैं। वैसे प्रेम देह के बिना भी संभव है लेकिन उसकी संपूर्णता देह के साथ ही आती है।’ स्त्री का अपनी देह पर अधिकार निश्चित रूप से होना चाहिए किंतु क्या यह लैंगिकता और रिश्तों की मर्यादा का अतिक्रमण करने वाला होना चाहिए? इस सवाल पर आज ठहर कर सोचने की आवश्यकता है। प्रियंवद के वहाँ विवाहेतर संबंधों को लेकर जहाँ पूर्ण स्वीकृति दिखाई देती है तो वहीं रवीन्द्र कालिया की कहानियों में ऊहापोह की स्थिति है। वह संबंधों में भी एक बैलेंस बनाने की कोशिश करते हैं। उनके पात्र विवाहेतर संबंधों को लेकर पूर्णत: स्वीकृति के भाव में नहीं आते हैं। उनके मन में सही-गलत जैसा भाव बराबर चलता रहता है। रवीन्द्र कालिया की एक कहानी है- हथकड़ी। उस कहानी में पत्नी, सुधा के अलावा राधा से भी संबंध हैं लेकिन इस विवाहेतर संबंध में प्रियंवद के नयाक-नायिकाओं जैसी सहजता नहीं है- “वह मेरी पत्नी नहीं थी, दो दिन पहले तक प्रेमिका जैसी चीज भी नहीं थी, सप्ताह भर पहले मैं उसकी सूरत तक से वाकिफ नहीं था । एक परोक्ष किस्म का परिचय था, जैसा मेरी पत्नी का मेरे मित्रों से और मेरा उसकी सहेलियों से हो सकता था। सुंदरता में मेरी पत्नी का कक्षा में कोई सानी नहीं था और पढ़ाई में राधा का। दोनों के नाम में भी थोड़ा थोड़ा साम्य था। उसका नाम राधा था मेरी पत्नी का नाम सुधा। राधा का कहना था, शादी के बाद सुधा और निखर गई है और सुधा का कहना था, शादी के बाद राधा बौरा गई है। सुधा सिगरेट के अलावा मेरी हर बेहुदगी को बर्दाश्त कर सकती थी, मगर राधा घर में घुसी, तो उसने सबसे पहले मुझे सिगरेट भेंट की और फिर खुद भी सुलगा ली। शाम को जब राधा ने हजरतगंज तक घुम आने का प्रस्ताव रखा, तो सुधा के सर में दर्द होने लगा। मैं राधा को घुमाने ले गया और एक कोने में गाड़ी पार्क कर हम लोग घंटों व्हिस्की पीते रहे। कल वह मेरे साथ क्लार्क्स अवध की सबसे ऊंची मंजिल पर बैठी रात के 12:00 बजे तक कैबरे देख रही थी। आज स्थितियां और मौसम ऐसे करवट ले लेंगे, इसकी आशा न मैंने की थी, न राधा ने । सुधा ने राधा को वाराणसी के लिए विदा करते समय राहत की सांस ली होगी।”[6] संबंधों को लेकर कहीं भी ईमानदारी नज़र नहीं आती है। नज़र आती तो सिर्फ और सिर्फ देह।
21वीं सदी की कहानियों में संबंधों का यह स्वरूप कई स्तरों पर दिखाई देता है। विवाह संस्था को जैनेन्द्र ने भी कठघरे में खड़ा किया था। वह इसके हिमायती नहीं थे लेकिन इसके बावजूद भी वह विवाहेतर संबंधों के पैरोकार नहीं रहे। जबकि इधर जो कहानियाँ आ रही हैं उनमें अवैध संबंधों का उत्सव नज़र आता है। भारतीय समाज में विवाहोपरांत स्त्रियों को पतिनिष्ठ ही समझा जाता है। यही बात पतियों पर भी लागू होती है लेकिन पुरुष ने हमेशा इस निष्ठा को तोड़ा है। अब जब स्त्रियाँ इसे तोड़ रहीं हैं तो उसे अलग-अलग खांचों में रखकर देखा जा रहा है। ज्ञानरंजन की एक कहानी है- ‘खलनायिका और बारूद के फूल’। इस कहानी के जरिए वह इस निष्ठा को ही ध्वस्त कर देते हैं और कहीं न कहीं विवाहेतर संबंधों को वैधता प्रदान करते हैं- “जब मैं उससे मिला तो लगा कि कुछ ही दिनों में वह दुबली हो गई है। वह शायद अंदर-अंदर रो-रो कर घुटी जा रही थी। वह मेरा हाथ पकड़ कर ठेठ ऊपर छत तक खींचती-सी ले गई। मेरे कंधे पर होठों को भींचकर वह बुदबुदायी, “मुझे गलत मत समझना, मेरा प्रेम आत्मा का है। वह मरते दम तक क्या, जन्म जन्मांतर तक जीवित रहेगा।” उसने कहा कि वह मेरे अलावा किसी और को अपना ह्रदय नहीं दे सकती, भले ही तन देना पड़े। मैं गुमसुम बैठा रहा। सुमन ने बताया कि यहां कोई नहीं आएगा। उसने बेझिझक मुझे कई तप्त चुंबन दिए और मेरे पांव पकड़ कर मुझसे कहा कि मैं उसके सभी प्रेम-पत्र वापस कर दूं या जला दूं।
“तुम मुझे इतना गिरा समझती हो सुमन। क्या मैं तुम्हें ब्लैकमेल करूंगा?”
मैंने कहा।
“तुम नहीं जानते। हिंदुस्तानी समाज में लड़कियों की जिंदगी बड़ी विचित्र होती है। तुम जरूर वापस कर दो। “
उसने बताया,
“छोटी बहन सरोज भी आजकल एक लड़के से प्रेम करने लगी है, जो राजपूत कॉलेज में पढ़ता है । बाबूजी उसकी वजह से बड़े परेशान और चिंतित हैं। इन्हीं विषम परिस्थितियों से मजबूरी होकर मैंने उनकी मर्जी के खिलाफ विवाह स्वीकार कर लिया है । लेकिन यह सरोज पता नहीं क्यों, प्यार का लड़कपन कर बैठी है। तुम ही बताओ, सच्चा प्रेम हो आत्मा का, हमारा-तुम्हारा जैसा तो कोई बात भी है । मैं तो उस मरी को जरूर सबक दूंगी। मुझे लड़कपन पसंद नहीं है।”[7] प्रेम में अगर भावनाएँ न हो तो वह मात्र दैहिक आकर्षण ही है। इस तरह के संबंधों में इसके सिवा और क्या है?
विवाहेतर संबंधों पर हिंदी में जितनी भी कहानियाँ लिखी गई हैं उन सबके केंद्र में दैहिक सुख है। वहाँ कहीं आत्मा और भावना का संबंध नहीं है। इसलिए इस तरह के संबंधों की उम्र भी बहुत ज्यादा नहीं होती है। परंतु यह मूल्यों का पतन है, निश्चित तौर पर समाज के लिए बहुत ही घातक है। समाज में ज्यों -ज्यों खुलापन आता गया है त्यों-त्यों विवाह जैसी संस्था चरमराने लगी। ऐसे में विवाहेतर संबंधों के प्रति सोच भी बदलती गई। इस तरह के संबंध देह के दायरे में बंधे नज़र आते हैं। प्रेम, हृदय और भावनाओं की गहराइयों से उनका कोई लेना देना नहीं होता है।
[1] कालिया, रवीन्द्र (सं. ), (2010) नया ज्ञानोदय (पत्रिका), भारतीय ज्ञानपीठ, अंक- 90, दिल्ली
[2] मुद्गल, चित्रा, (2010), तहखानों में बंद अक्स, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
[3] भंडारी, मन्नू, (2005), एक प्लेट सैलाब (कहानी संग्रह), राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
[4] वही
[5] प्रियंवद, (2018), उस रात की वर्षा में और अन्य कहानियां, संवाद प्रकाशन, मेरठ
[6] कालिया, रवीन्द्र, (2005), मेरी दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली
[7] ज्ञानरंजन, (1977), सपना नहीं, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली