सहचर टीम : रमा जी, सर्वप्रथम देश की बेहतरीन महविद्यालयों में से एक हंसराज महाविद्यालय की प्रथम महिला प्राचार्य बनने पर आपको हार्दिक बधाई। आप पहली महिला प्राचार्या होने के नाते महिलाओं के लिए क्या कर रही हैं ?
डॉ. रमा : धन्यवाद, सबसे पहले मुझे लड़कियों को मोटिवेट करना है। मोटिवेट से मेंरा मतलब है कि महिलाएँ अपने को आत्मनिर्भर कर सकें। वो अपनी ग्रेस बनाकर रखें, लड़कियों को अपनी हर चीज पर धयान रखना चाहिए उनकि ड्रेस के लिए किसी को टोकना न पड़े। उनकी कैसी ड्रेस हो, कैसी बॉडी लेंग्वेज हो; लगना चाहिए कि कोई लड़की आ रही है क्योंकि ए छोटी-छोटी बाते ही लड़कियों में कॉन्फिडेंट पैदा करती हैं। मैं चाहती हूँ कि हंसराज की हर लड़की कॉन्फिडेंट हो जीवन में जो भी चुनौतियाँ आए उनका वो सामना कर सकें, स्वावलंबी बने, अनुशासनप्रिय बने और सबसे जरुरी उन्हें ए समझाने की जरूरत है कि नौकरी करना ही आत्मनिर्भर होना नहीं है मैं चाहती हूँ कि हंसराज की हर लड़की नौकरी देने वाली बने। खूब अच्छे से अपना जीवन चलाएँ, ग्रेजूएशन के बाद लाइफ को लीड करे हर कोई उनसे पूछे कि आप किस कॉलेज से पढ़ी हैं।
सहचर टीम : मैम, जहाँ तक हमें ज्ञात है आपने देश के प्रतिष्ठित संस्थान आई.आई. एम.सी. से मीडिया का कोर्स भी किया है और उस समय जब बहुत कम ही लोग इस कोर्स को करते थे, फिर मीडिया लाइन से आपका साहित्य की तरफ कैसे रुझान हुआ ?
डॉ. रमा : मीडिया की लाइन मैनें छोड़ी नहीं है उसमें अभी भी मैं काम करती रहती हूँ…हाँ बहुत ज्यादा नहीं करती हूँ जैसे बीच-बीच में रेड़ियो की रिकोर्डिंग मुझे डिस्टर्ब नहीं करती जितनी मर्जी व्यस्त रहूँ रेडियो की रिकोर्डिंग के लिए टाइम निकाल लेती हूँ। थोड़ा बहुत न्यूज़पेपर में, मैग्ज़िन में लिखती रहती हूँ …..थोड़ा बहुत काम तो कर लेती हूँ। बेसिकली मीडिया से साहित्य में आने की बात मैं नहीं कहूँगी, मीडिया से टीचिंग में आने का मै कहूँगी, पहले मैंने मीडिया की फुलटाइम जॉब की है मॉर्निंग-टू-इवनिंग; पर कुछ ऐसी परिस्थितियाँ आ गई…जब मैं मीडिया में फुलटाइम काम कर रही थी तो रेडियो में मेंरी शिफ्ट होती थी तीन बजे से, टी.वी में मेंरी शिफ्ट होती थी शाम के टाइम से …..कई साल तक दिल्ली दूरदर्शन का यूवा मंच मैंने संभाला है और न्यूज़ एजेंसी में भी काम किया है। वहाँ काम करते हुए मुझे लगा की वहाँ कि जो जॉब है वो सुबह से शाम वाली है मतलब आपको बंधना तो उसमें है ही है ….जबकी टींचिग में जो है ऐसी समस्या नहीं है फिर जब फेमिली में एँट्री करना था, फेमिली की भी कुछ ऐसी परिस्थितियाँ थी कि वहाँ पर बहुत ज्यादा जिम्मेदारियाँ थी तो मुझे लगा कि जब फेमिली में आप एँट्री कर रहे हो तो वहाँ की जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभाना चाहिए। तो फिर मुझे लगा की मीडिया का फुलटाइम जॉब मेंरे लिए संभव नहीं है या मेंरे भाग्य में था कि मुझे टींचिग में आना था और जब मैं टींचिग में आई तो मेंरा सबसे प्लस प्वांइट ए रहा कि मैंने मीडिया ही पढ़ाया। कॉलेज मैंने 1991 में ज्वाइन किया तब से लेकर अब तक चाहे बी.ए ऑनर्स की क्लासेज़ हो एम.ए की क्लासेज़ हो ,नॉर्थ कैम्पस हो या साउथ कैम्पस सब जगह मुझे मीडिया पढ़ाने को मिला तो मीडिया को मैंने मिस्स नहीं किया बल्कि मीडिया से टींचिग में आने का मेंरा प्लस प्वाइंट ए भी रहा कि मीडिया की मेंरे पास प्रेक्टिकल नॉलेज थी। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन (IIMC) से मैं पढ़कर निकली थी उस समय मीडिया के इतने इंस्टीट्यूट ही नहीं थे IIMC था,जामिया मिलिया इस्लामिया था, या भारतीय विधा भवन था बस दो-तीन ही इंस्टीट्यूट थे। मीडिया में कैरियर बहुत अच्छा था लेकिन जब मैं टींचिग में आई तो यहाँ लोगों के पास प्रेक्टिक्ल ट्रेंनिग नहीं थी। अभी भी जब यूनिवर्सटी के कॉलेज में देखते हैं तो ज्यादातर साहित्य के लोग ही मीडिया पढ़ा रहे होते हैं ऐसा नहीं है कि साहित्य के लोग अच्छा नहीं पढ़ा रहें है अच्छ पढ़ा रहे हैं, लेकिन जो मीडिया है वो बिलकुल ट्रेंनिग है। अगर उसमें प्रेक्टिकल ट्रेंनिग नहीं है तो क्या होता है बच्चे ने कहने के नाम पर तो मीडिया का कोर्स कर लिया। जब वे मार्केट में जाता है तो उसे लगता है मैंने बेकार ही ए कोर्स किया, क्योंकि जब आप मीडिया बाजार जाओगे तो वो आपको काम सिखाएँगे नहीं वहाँ पर वो आपसे काम करने के लिए कहेंगे। और जब तक हमने अपने हाथ में कैमरा पकड़ा नहीं होगा, जब तक हमने खुद रिपोर्टिंग नहीं की होगी और मैंने ए देखा है की एक लिट्रेचर का टीचर रिपोर्टिंग तैयार करवाता है और एक मीडियाकर्मी जब रिपोर्टिंग तैयार करवाता है तो दोनों में जमीन आसमान का अंतर होता है। अब ऐसा हो गया है कि हर कोई मीडिया पढ़ाने को तैयार है हर एक की मीडिया पर किताबें भी आ रही हैं। लेकिन फिर भी मेंरा मानना है कि प्रेक्टिकल ट्रेनिंग हमारे पास नहीं है तो उससे हम विषय के साथ बहुत बडा अन्याय कर रहे हैं। और मैं सौभाग्यशाली रही कि इधर से जब मैं टीचिंग में आई तो मेंरे पास मीडिया की ट्रेनिंग रही तो मुझे पढाने में किसी तरह की समस्या नहीं आई।
सहचर टीम : मीडिया के द्वारा एक नई हिंदी विकसित हो रही है इस विषय में आपका क्या विचार है ?
डॉ. रमा : नई हिंदी तो मैं इसे नहीं कहूँगी, मैं यह कहूँगी की मीडिया के द्वारा बिगड़ी हुई हिंदी विकसित हो रही है। आप इंग्लिश के न्यूज पेपर उठा कर देख लो मीडिया की डबल डयूटी है एक होता है की जो कुछ हो रहा है वो मीडिया दिखाए, जो होना चाहिए वो भी मीडिया को दिखाना चाहिए । अंफोरच्यूनेट्ली क्या होना चाहिए मीडिया अब उससे परे है स्वभाविक है, क्योंकि मीडिया में अब मिशन की भावना नहीं रही, अब वह व्यवसाय बन गया है। समाज में जब सब तरफ बदलाव हो रहा है तो मीडिया उससे अछूता क्यों रहेगी। लेकिन भाषा की दृष्टि से मीडिया ही नहीं हमारा पूरा समाज खासतौर पर हमारे जो विद्यार्थी हैं, जो बच्चे हैं; भाषा की दृष्टि से हमारा पूरा समाज विकृत हो रहा है। भाषा में व्याकरण की जो भूमिका होती है, मुझे अच्छे से ध्यान है जिस समय मैं जनसत्ता में काम कर रही थी, प्रभाष जोशी जी संपादक थे और मैंने एक न्यूज़ आइटम तैयार किया था हालांकि मै हिंदी ऑनर्स की थी लेकिन एक शब्द को लेकर सर के साथ मेंरी 10 मिनट तक आप सोचिए 10 मिनट तक सिर्फ एक शब्द के लिए हमारे बीच में खूब विचार-विमर्श हुआ और 10 मिनट में प्रभाष जोशी जी ने मुझे विश्वास दिला दिया कि जो शब्द मैंने इस्तेमाल किया था वो गलत नहीं था लेकिन उसकी जगह पर क्योंकि अखबार में जाना है उसकी जगह पर जो शब्द उन्होंने बताया था वो ज्यादा उचित था। मुझे लगता है की एक-एक शब्द पर हम इतना ध्यान देंगे तो भाषा अपने आप ठीक हो जाएगी। लेकिन समय की अपनी गति है ना फटाफट स्पीड चाहिए जैसे वो है न “ए दिल मांगे मोर” वो ही मीडिया मांगे मोर, समाज मांगे मोर वो मोर के चक्कर में चैनल्स हमारे बढ़ गए। हमें लगता है जितनी ढेर सारी सामग्री उसमें आ जाए ,वो अधिकता, वो क्वांटटी के चक्कर में क्वालिटी हमारी खराब हो गई है और भाषा का तो सच में बहुत बुरा हाल है। चाहे वो मीडिया का कोई भी रूप हो इलैक्ट्रोनिक हो या प्रिंट मीडिया हो तो उसका खास कारण है कि हम भाषा पर ध्यान नहीं देते हैं भाषा को लेकर हम बहुत कैजुअल हो गए हैं आसानी से हम शब्दों को बोल लेते हैं, पढ़ भी लेते हैं, लिख भी लेते हैं, जब तक हमें कोई टोकेगा नहीं, टोकेगा कब…? जब उसकी नज़र पैनी होगी। जब भाषा के साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा तभी भाषा सुधरेगी और वरना तो जो भाषा है, वो हम देख ही रहे हैं भाषा विकृत भाषा बनती जा रही है।
सहचर टीम : न्यू मीडिया या यूँ कहें कि सोशल मीडिया के आने से प्रिंट मीडिया की उपयोगिता पहले की तरह ही है या उसे चुनौती मिल रही है, इस संदर्भ में आपका क्या मत है?
डॉ. रमा : देखिए ऐसा है कि न्यू मीडिया आ गया है पर इससे प्रिंट मीडिया को कोई खतरा नहीं है, हमारे सामने की बात है कि जब नया-नया टी.वी आया तो सबने कहा रेडियो कि महत्ता कम हो जाएगी लेकिन रेडियो कि महत्ता आज भी बनी हुई है। पहले टी.वी पर प्रोगाम बहुत कम समय के लिए प्रसारित होते थे लेकिन जब चैनल्स बढ़े तो लगा की अब तो कोई देख नहीं पाएगा लेकिन चैनल्स अब भी चल रहे हैं टी.वी अब भी चल रहे हैं। न्यू मीडिया का मतलब है कि फेसबुक आ गया है, आपका इंटरनेट आ गया, आपकी ब्लॉगिंग आ गई, लेकिन आज भी प्रिंट कि महत्ता बरकरार है, आज भी किताब कि महत्ता बनी हुई है। अगर आज भी एक अच्छी किताब लिखी जाए तो आज भी उस किताब को पढ़ने के लिए सब ललायित रहते हैं। इंटरनेट मशिनरी से जुडा हुआ है आप अगर किसी जगह पर बैठे हो तो इंटरनेट या वी.फी में खराबी आ जाए आप उस समय अपना काम कर ही नही सकते हैं आप बहुत मन से बैठे हो लेकिन आप टेक्नोलॉजी पर निर्भर रहते हो और दूसरी तरफ अगर अखबार आपके हाथ में हो,किताब आपके हाथ में हो, तो उसके लिए आप टेक्नोलॉजी पर निर्भर नहीं हो। आप पढ़ रहे हो आपने 10वां पेज फोल्ड किया आपको बाद में जब समय मिला फिर पढ़ लिया आप चलती बस में पढ सकते हो आप कहीं बैठ कर पढ सकते हो, आप बस में जा रहे हो या तो आपके पास डाटा होना चाहिए। क्या हमारे यहाँ बच्चे इतने अमीर हो गए हैं बच्चे उसका भार किस पर डाल रहे हैं अपने पेरेंट्स पर ।तो प्रिंट मीडिया को खतरा नहीं है लेकिन बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने से जरुर न्यू मीडिया रोक रहा है। आप ए देखिए पहले बच्चा जितना लिखता था, प्रिंट मीडिया में कभी आप पढोगे, संपादक के नाम पत्र लिखा करते थे अब हम लिखते नहीं है अब हमारी उंगलिया सीधा टाइप पर चलती है जो भाषायी गलतियाँ हो रही हैं उसके लिए बहुत कुछ जिम्मेदारी न्यू मीडिया की है। न्यू मीडिया हमारे जीवन में हड़बड़ाहट, जो अखबार है शांति से बैठकर पढ़ना, किताब शांति से बैठकर पढ़ना, उसमें जो अच्छी बात है उसको अंडरलाइन करना वो चीज हमारे दिमाग में छप जाती है लेकिन प्रभावित इसने उस सेंस में नहीं किया आज भी अखबार की अपनी एक दुनिया है आज भी चाहे ई-अखबार आ गए हैं, लेकिन घरों में आज भी अखबार आते हैं मेरे घर में। बल्कि जब न्यू मीडिया नहीं था तब हमारे घर में तीन अखबार आते थे आज इतना न्यू मीडिया आने के बाद वी-फी भी है, 24 घंटे इंटरनेट भी अवेलेबल है लेकिन फिर भी आज हमारे घर में सात अखबार आते हैं और सातों अखबार पढे जाते हैं। अखबार आ रहे हैं तो उनकी जरुरत है तभी तो आ रहें है इसलिए मुझे नहीं लगता की कोई खतरा है।
सहचर टीम : आज युवा लेखकों और पत्रकारों के लेखन से आप कितना संतुष्ट है और वो कितना न्याय कर पा रहें है मीडिया को लेकर ।
डॉ. रमा : देखिए लिखने वालों की संख्या तो बहुत बढ़ रही है अगर एक युवा मान लिजिए कहीं नहीं लिख रहा पर फेसबुक पर ही लिख रहा है पर लिख तो रहा है वो ….लेकिन क्वालिटी वाइज़ नहीं बात बन रही है क्वालिटी डाउन हो रही है। ठीक है साहित्य हमारे मन की अभिव्यक्ति है हमारे मन में जो भी विचार आएँ हमें उसे अभिव्यक्त कर देना चाहिए, मन की भावनाओं को दबाना नहीं चाहिए, हमें पूरी स्वतंत्रता है, हम स्वतंत्र देश के नागरिक हैं लेकिन फिर भी हम एक मनुष्य हैं, समाज में रहते हैं, समाज में रहने के कारण और मनुष्य होने के नाते हमारी कुछ जिम्मेदारियाँ भी बनती है। समाज के प्रति हम ऐसा लिखे कि जिससे कोई मन, वचन, कर्म से किसी को ठेस न पहुचें। लेकिन मुझे लग रहा है जितना हम लिख रहें है वो हम स्वार्थवश लिख रहे हैं। मतलब वो जो पहले होता था कि लिखने से पहले हम 10 बार सोचते थे और सोचना भी चाहिए क्योंकि लिखा हुआ वापस नहीं आएगा, बोला हुआ वापस आ सकता है बोला हुआ अर्थात सीमित है कि आपने 10 लोगों के बीच बोला होगा आपने 20 लोगों के बीच बोल दिया लेकिन मीडिया खासतौर पर सोशल मीडिया के क्षेत्र में युवा वर्ग जिस भाषा का प्रयोग कर रहा है उस लेखनी से कई बार हमारे संबंध भी विकृत हो रहे हैं। मान लिजिए किसी ने वैसे ही लिख दिया पर सामने वाला तो उतना उदार नहीं हैं न, उसकी अपनी एक दृष्टि है लिखने वाले की अपनी एक दृष्टि है पढ़ने वाले की अपनी एक दृष्टि है। दोनों दृष्टियों में सामंजस्य होना चाहिए लेकिन फिर भी लेखन हो रहा है मैं पूरी तरह से निराश भी नहीं हूँ। बहुत अच्छा लेखन भी हो रहा है। बस क्वालिटी इस लेखन की बढ़ जाए तो कोई दिक्कत नहीं है।
सहचर टीम : मैम आपने बताया कि आपने मीडिया में कई वर्षों तक काम किया है तो मीडिया में स्त्री को किस दृष्टि से देखा जाता है क्या उस समय में उसके लिए इतना आसान था इस क्षेत्र में जाना ?
उत्तर : देखिए जो हम आसान कठिन कहते है न दरअसल यह हमारे अपने उपर निर्भर करता है, हमारी अपनी बैकग्राउंड क्या है? हमारी थींकिंग क्या है? 1987-88 में जब मैंने मीडिया में काम करना शुरू किया तो तब भी ऐसा था कि मेंरे साथ कि स्त्रियाँ बहुत आराम से कर लेती थी उन चीजों को मैं नहीं कर पाती थी क्योंकि हर एक की पारिवारिक पृष्ठभूमि अलग-अलग होती है। मान लीजिए आज भी चौराहे पर किसी स्त्री के लिए सिगरेट पीना बहुत आम बात है और मैं सोच भी नहीं सकती। अब यह अलग बात है कि वो सही है या मै गलत हूँ….गलत सही क्या है? इसके लिए हमारी पृष्ठभूमि क्या है? हमारा व्यक्तित्व जो है वो किस सांचे में ढला हुआ है और तब भी स्त्रियों के लिए मुश्किल नहीं था और आज भी स्त्रियों के लिए मुश्किल नहीं है। आज भी मुश्किल नहीं है, चुनौतियाँ है पर चुनौतियाँ तो हर समय पर रही है लेकिन तब भी हम सलमा-सुल्ताना को सुनते थे, सरला महेश्वरी को हम सुनते थे तब भी मीडिया में खूब महिलाएँ आ रही थी और आज भी आ रही हैं। यह तो हमारे अपने ऊपर है सिर्फ मीडिया ही नहीं किसी भी क्षेत्र में हम जाते हैं तो वहाँ हम किस तरह से उस स्थिति, वातावरण, परिवेश को हम कैसे टैक्ल करते हैं वो सब हमारे अपने ऊपर निर्भर करता है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ महिलाओं के लिए चुनौतियाँ हैं, चुनौतियाँ पुरूषों के लिए भी हैं। हमें इनको कटघरे में नहीं बाँटना चाहिए दोनों को अलग करके या दोनों में विभाजन रेखा नहीं खिंचनी चाहिए।
सहचर टीम : मीडिया में पहले भी स्त्री की भूमिका थी और आज भी है …आज उसे किस तरह से पेश किया जाता है क्या उसमें भी कुछ परिवर्तन हुआ है ? एँकर की भूमिका को ही हम ले लें तो अब उस तरह की चीजें नहीं होती हैं ।
डॉ. रमा : देखिए ऐसा है यह तो हमेशा ही रहा है, ऐसा नहीं है कि पहले नहीं होता था पहले भी यही होता था कि क्योंकि एक महिला घर में बैठी है और एक महिला पर्दे पर आ रही है, और पर्दे पर आने का मतलब है कि आपको एक बहुत बड़ा समुदाय देख रहा है। वहाँ पर आपकी पूरी ड्रैस सेंस अच्छी होनी चाहिए। आपका जो भी मैकअप आपने किया हुआ है वो बहुत अच्छे से होना चाहिए …बेहूदा नहीं होना चाहिए। वो जब बेहूदा होता है न तब वो बुरा लगता है तब भी महिलाएँ बड़े अच्छे से आती थी …ऐसा नहीं है कि वो महिला सो कर उठी और सीधा समाचार पढ़ने चली आई ..वो उसके लिए ही नहीं हमारे समाज के लिए भी अच्छा नहीं है। ईश्वर ने हमें जैसा बना दिया उसे हम स्वंय को अच्छे से पेश करें। और जब अच्छे से पेश करने की बात है तो मैं यह नहीं कह रही कि हम बेहूदी ड्रैस पहन लें …बेहूदा हरकतें करें, हाथ-पैर बहुत चलाएँ। मुझे लगता है हम किसी भी क्षेत्र में जाएँ, किसी भी चैनल पर जाएँ तो हमें बड़ी ही ग्रेसफूली अपने को पेश करना चाहिए। उस समय यह ध्यान रखना चाहिए कि हम कितने लोगों के लिए रोल-मॉडल बने, क्योंकि एक बहुत बड़ा समुदाय हमारे साथ जुड़ा हुआ है। पर्दे पर कितने लोगों के सामने हम जा रहें हैं। बेहूदापन या भौड़ापन तो किसी को भी अच्छा नहीं लगता है तो उसी चीज का हमें ध्यान रखना चाहिए बाकी मीडिया में कोई दिक्कत नहीं है।
सहचर टीम : मैम जैसा कि पहले आप पत्रकार रही हैं फिर अध्यापक और अब प्राचार्या, तो अब तक कौन सी भूमिका आपके लिए ज्यादा आसान रही या ज्यादा दिलचस्प रहा ?
डॉ. रमा : आसानी तो किसी भी भूमिका में नही होती, जब मैं पत्रकारिता में थी तो हमारे पास इतनी सुविधाएँ नहीं थी। बस में लोग खूब आते-जाते थे, मैट्रो भी नहीं थी उन दिनों में। उसके बाद जब प्राध्यापिका बनी, टीचिंग में आई तो भी मेरे सामने एक चैलेंज था कि मीडिया पढ़ाना है, क्योंकि वहाँ से मैं आई हूँ वो एक अलग तरह की दुनिया है टीचिंग एक अलग तरह की दुनिया है। टीचिंग में आपने मीडिया भी पढ़ाना है आपने साहित्य भी पढ़ाना है। एफ.वाइ.यू.पी भी पढ़ाना है। अपने आपको हर तरह से एक अलग माहोल में स्टैबलिश करना है। सबसे बड़ा सौभाग्य मेरा यह रहा कि मुझे स्टूडैंट्स बहुत अच्छे मिले, मतलब कभी किसी स्टूडैंट से लेकर मुझे कोई प्रोब्लम नहीं हुई है। अक्सर हम देखते हैं कि जब नए-नए हम टीचिंग में आते हैं तो … मैं अभी भी देखती हूँ कि जिस पद पर मैं हूँ आज, टीचर मेंरे पास आते हैं कि हम क्लास ही नहीं कंट्रोल कर पा रहे हैं। बच्चे हमें बहुत परेशान कर रहें हैं या बच्चे बहुत ज्यादा शरारतें कर रहें हैं ..तो टीचिंग में मुझे ऐसी कोई प्रोब्लम नहीं हुई। 25 साल से मैं पढ़ा ही रही हूँ और 25 साल का अनुभव बहुत सार्थक और बेहतरीन अनुभव रहा। जबकि मैं आज प्रिंसिपल बनी हूँ तो प्रिंसिपल प्रशासनिक क्षेत्र है तो फिर भी मेंरी कोशिश रहती है उसमें भी मेरा पढ़ने-पढ़ाने का काम न छूटे। उतना तो नहीं हो पाएगा वो स्वभाविक है। क्योंकि हंसराज दिल्ली यूनिवर्सटी का बहुत बड़ा और बहुत ही प्रस्टिजियस तथा लारजेस्ट कॉलेज है। 5000+ इसमें स्टूडेंट्स है हमारे यहाँ पर 24-25 डिपार्टमेंट्स हैं। A टू Z डिपार्टमेंट वाला कॉलेज माना जाता है हंसराज। A टू Z मतलब A= ANTHROPOLOGY और Z = ZOLOGY। A टू Z तो डिपार्टमेंट जिस कॉलेज में हैं अलग-अलग तरह के लोग और उसके अलग-अलग स्वभाव हैं। लेकिन मुझे लगता है कि अगर इस पद पर आप हैं तो इस पद की अपनी चुनौती है, पर ठीक है.. जीवन में जैसे-जैसे चुनौतियाँ आती रहती हैं, हमें वैसे-वैसे उनका सामना करना चाहिए। रास्ता तालाश करना चाहिए और रास्ता कोई भी आसान नहीं होता है। अगर हमें यहाँ से 10 किलोमीटर दूर भी जाना है तो 10 किलोमीटर का रास्ता आसान नहीं होगा। यह है कि हम अपने रास्ते कैसे बनाते हैं उन पर कैसे चलते हैं? ….कई बार ऐसा होता है कि हम सामने वाले की बात सुनते हैं पर इसका मतलब यह नहीं कि हम घुटने टेक रहें हैं, हम समझौता कर रहें हैं, जीवन में जैसी-जैसी परिस्थितियाँ आई उनमें से रास्ते निकालते हुइ उनका सामना करते हुए अपना मूलभूत व्यक्तित्व बनाते हुए मतलब हमारी जो अपनी पहचान है उसके साथ हमें समझौता नहीं करना चाहिए। आज अगर टीचर मेरा सबसे ज्यादा संबंध स्टूडेंट्स से जोड़ता है तो खुशी की बात है। यहाँ पर मुझे ब्रिज भी बनाना है टीचिंग-नॉनटीचिंग के बीच में टीचर और स्टूडेंट के बीच ब्रिज। स्टूडेंट की अपनी प्रोब्लम होती है, टीचर की अपनी प्रोब्लमस होती हैं। लेकिन फिर भी सब अच्छी चीजें हो रही हैं, जो भी कठिनाईयाँ आती हैं उनका रास्ता भी निकल आता है। सबसे बड़ी बात है कि आपकी अपनी दृष्टि क्या है? अगर आपकी अपनी नियत सही है आपकी अपनी दृष्टि सही है। आपके मन में किसी के लिए कोई दुरभाव नहीं हैं तो अपने आप काम हो जाते हैं। उस तरह की कोई दिक्कत आती नहीं हैं ।
सहचर टीम : मैम यह जो कभी न हार मानने वाला जो आपका हौसला हैं, इसकी प्रेरणा आपको कहाँ से मिलती है ?
डॉ. रमा : यह जो कभी न हार मानने वाली बात है उसके पीछे परिवार तो हैं ही, क्योंकि मैं बहुत डिसिपलिन वाले परिवार से हूँ। फादर हमारे मिलिटरी में थे। जब तक मेरे पिता जी रहे हमने अपनी माता जी को कभी उनके सामने ऊँची आवाज में बात करते नहीं सुना था, हम सोच ही नहीं सकते थे कि घर में कोई महिला भी पुरूष के आगे ऊँची आवाज में बोल सकती है। मतलब घर में एक पूरा डिसिपलिन वाला माहौल था। और पेरैंट्स को हमारे लिए बहुत संघर्ष करते देखा है, मेरी माता जी ने दूसरों के घरों के कपड़े भी सिले हैं। हम लोगों ने शुरू से ही खूब काम किया है। कई बार ऐसी भी नौबत आई है जब हमने अपनी जरूरतों के लिए दूसरों के काम भी किए हैं। लेकिन पेरैंट्स ने हमें कभी इस बात का अहसास नहीं होने दिया कि हम किसी से कम हैं। ऐसा भी हुआ है कि जब हम छोटे थे जब तक बी.ए में नहीं आए थे हमने नए कपड़े भी पहने हो। क्योंकि घर में बड़ी बहन थी जो उसके उतरते थे उससे छोटे को …जो उससे उतरते थे उससे छोटे को …ऐसे ही हमारा चलाता था। हमें पेरैंट्स यह अहसास कराते थे कि जो मेहनत और संघर्ष जो इंसान करता है उसका जीवन अलग ही साँचे में ढला होता है। उसका जो आत्मविश्वास है उसके संघर्ष की जो आदत है, बचपन में हम जितना संघर्ष कर लेंगें जो आभवग्रस्त जीवन हम जीते हैं अज्ञेय तो कहते ही हैं – “दुख इंसान को माँझता है” और मुझे लगता है कि अगर हमें सारी सुविधाएँ मिल जाएँ, माता-पिता सारी सुविधाएँ हमें दे दें, घर में बैठे सारी सुविधाएँ हमें मिल जाती है तो शायद हम जीवन जीना सीख ही नहीं सकते। कोशिश करके चीजों को हासिल करना माता-पिता के बाद जो टीचरस मिलें वें एक्सट्राऑर्डनरी रहें। शायद मैं उतनी अच्छी टीचर नहीं बन पाई क्योंकि हमारे टीचर जो हैं वे हमारे लिए हमेशा तैयार रहते थे 24 घंटे। मैं यह मानती हूँ कि मेरी आगे पढ़ाई जारी रही क्योंकि एक स्टेज ऐसी भी आ गई थी कि हम तो आपको आगे नहीं पढ़ा सकेंगें हमारी अपनी सीमाएँ हैं। और आप सोचिए 10वीँ क्लास में जब बच्ची पहुँच जाए उस समय 10 वीं करना बहुत बड़ी बात थी। अब 10वीं क्लास तो तुम्हारी हो गई है इसके आगे हमारे बस का नहीं हैं तो दो ही रास्ते हैं या तो शादी कर दी जाए तुम्हारी क्या इच्छा है बताओ….? तो उस समय यह होता है कि जब ईश्वर आपको अच्छी बुद्धि देता है तो मुझे यह अहसास हो गया कि पेरैंट्स से मुझे अब कुछ भी नहीं लेना चाहिए। 10वीं क्लास में वास्तव में मेंरे मन में यह अहसास आ गया था माता-पिता का हमपर विश्वास बहुत रहा। आप देख सकते हो एक तरफ इतना डिसिपलिन रहा पर कोई काम करने से उन्होंने हमें कभी रोका नहीं, उन्होंने एक ही मंत्र हमें दिया कि काम चाहे अच्छा करो य बुरा करो यह ध्यान रखना कि किस परिवार से हो और दूसरा कि उसका परिणाम भुगतने के लिया तैयार रहना। जो भी परिणाम हो अच्छा य बुरा। घर में सब तरह कि बात हम कर लेते थे। तब मैंने पेरैंट्स से कहा कि आपको कोई और समस्या तो नहीं हैं न। एक ही रिज़न है न कि आप आर्थिक दृष्टि से आप मेरी सहायता नहीं कर सकते हैं तो अर्थ की व्यवस्था मैं खुद कर लूंगी। अगर मैं कह रही हूँ कि यह काम मैं करूँगी …तो मतलब मैं करूँगी और उसके बाद पेरैंट्स ने पलटकर मुझसे पूछा भी नहीं कि तुम क्या करते हो? क्योंकि कई बार पेरैंट्स पूछते हैं कि कहीं कुछ गलत स्टेप न उठा लो, गलत संगति में न पड़ जाओ, कोई गलत काम न करो। तो फादर ने कहा कि ठीक है तुम अपना मैनेज कर लोगी..? हमें कोई दिक्कत नहीं हैं। तो वहाँ से एक आत्मविश्वास आना शुरू हुआ फिर कैसे रास्ते निकलते गए संघर्ष भी जारी रहा ट्यूशंस भी खूब पढ़ाए हैं। पार्ट टाइम में बैंक भी नौकरी भी की, मतलब जहाँ-जहाँ लगता रहा कि यह रास्ते हैं कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पडता है। मुझे ध्यान नहीं कि कभी हम गए हो कि चलो आज 3 घंटे की फिल्म देख लेते हैं। आज किसी मार्किट चले जाते हैं क्योंकि उसके लिए मुझे फुर्सत ही नहीं होती थी। सुबह से शाम, शाम से रात क्योंकि आपने अपना कैरियर भी बनाना है पेरैंट्स कि रिस्पोंसबिल्टि को भी पूरा करना है क्योंकि जब पेरैंट्स हर चीज में इंवॉल्व होते हैं तो हम थोड़े से लापरवाह हो जाते हैं लेकिन जब पूरी तरह से हमें छूट दे देते हैं तो तब हमारी जिम्मेदारी का अहसास हमें और ज्यादा होता है कि कहीं जाने-अनजाने में कहीं कोई ऐसा काम न हो जाए कि जिस सोसाइटी में हम रह रहें हैं उसमें कुछ हो और उसके बाद फरेंड्स भी बहुत अच्छे मिलें । हमारा जो फरैंड्स का ग्रुप बना कॉलेज में वो भी बहुत अच्छा था । कई बार ए होता था कि मैं कहीं डिबेट में जा रही हूँ डिबेट भी हम लोगों ने खूब कि मुझे पता ही नहीं होता था कि कहाँ मेंरा बैग है कैसे है ? तो फ्रेंड सर्कल मेंरा बहुत ध्यान रखते थे कि इसका बैग कहाँ पर है इसने सुबह से कुछ खाया है कि नहीं खाया होगा तो चलो कहीं खाने कि वयवस्था करें । मतलब पागलपने कि तरह था वो जो काम करने की आदत थी न पेरैंट्स ने जो वो आदत डाली पागलपने की तरह काम करने कि वो एक नींव बनी । उसके बाद टीचर अच्छे मिलें , फ्रेंड्स अच्छे मिलें उसके बाद स्टूडेंट्स बहुत अच्छे मिलें और बीच में मैं मीडिया में जब रही तो मीडिया में सिखाने वाले लोग मुझे अच्छे मिले मैंन तो बता रही हूँ प्रभाश जोशी को मैं बहुत याद करती हूँ विधानिवास मिश्र जी ने हमें बहुत चीजें सिखाई । साहित्य में भी तरह–तरह के लोगों से हम मिलते रहे क्योंकि पत्रिका कार्यक्र्म था उसमें सब लोग आया करते थे साहित्यकारों को हम बुलाया करते थे । अज्ञेय जी को हमने दूरदर्शन में परिचर्चा में कई बुलाया और वे आए भी। आज प्रिंसिपल के रूप में कॉलेज में काम करने लगी तो कलिग्स बहुत अच्छे मिले देखिए बहस तो हर जगह थोड़ी बहुत होती रहती है मैंने कभी यह सोचा नहीं कि जो मैं कहूँ मेंरा सामने वाला वही मानेगा। न मेरी कभी स्टूडेंट्स से रही कि जो मैं कह दूँ वही वो करें। बल्कि कई बार तो स्टूडेंट्स हमें सिखाते रहते हैं कई बार ऐसा होता है स्टूडेंट्स हमें बहुत अच्छी बात सिखा देते हैं। स्टूडेंट्स हमें जीवन का बहुत अच्छ पाठ सिखा देते हैं टीचिंग-नॉनटीचिंग वाले स्टाफ है वो अलग स्वाभाव के हैं, तो बल्कि मैं कई बार मजाक भी करती हूँ कॉलेज में 5000 स्टूडेंट्स है और 200 टीचर है 200 नॉन टीचिंग स्टाफ है। वो यह मानकर चलते हैं कि प्रिंसिपल को खुश रखना है कभी सारे के सारे यह भी मानकर चले कि हमें प्रिंसिपल को खुश कैसे रखना है? लेकिन वही है कि जीवन में न तो सबको खुश करना चाहिए हमें और न हमें सबको निराश करना चाहिए …मध्यमार्ग जो होता है जीवन का वो सबसे अच्छा होता है। मध्यमार्ग अपनाते रहो और ईश्वर पर भरोसा रखो, अपनी तरफ से मेहनत करते रहो, अपनी नियत साफ रखो ईमानदारी से काम करते रहो तो मुझे लगता है किसी भी चीज कि कमी नहीं रहती।
सहचर टीम : मैम अध्यापन के साथ-साथ आपके कंधो पर प्रशासनिक कार्य भी है कॉलेज का प्रशासन ऐसे मैं स्वतंत्र लेखन कि लिए आप समय निकाल पाती हैं? और अगर निकाल भी पाती हैं तो क्या वो समाज का कौन सा ऐसा वर्ग है जिसे अपनी लेखनी से रोशनाई में लाना चाहती है ?
डॉ. रमा : देखिए टाईम मैंनेजमेंट तो हमें करना पड़ता है। हो सकता है मैं प्रिंसिपल नहीं भी बनती तो भी मैं लेखन के लिए उतना समय नहीं निकाल पाती, लेकिन समय निकालना पड़ता है और समय निकल भी जाता है। मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा कि मैं एक प्रटिकूलर विषय पर लिखूँ जब कोई विषय मेंरे मन में आता है चाहे वो साहित्य का विषय भी हो सकता है, वो महिलाओं का विषय भी हो सकता है, वो युवाओं से संबंधित विषय भी हो सकता है, जब मुझे लगता है कि मुझे इस विषय पर लिखना चाहिए उस विषय पर लिख देती हूँ। और इस पद पर आने के बाद कई बार ऐसा होता है कि आप अपनी इच्छा से जब नहीं लिखते लेकिन सामने के कुछ लोग प्रेशर से आपसे कुछ लिखवा लेते हैं जैसे अभी एमप्लोयमेंट न्यूज़ आना और उसमें कहा कि आपसे हमें एक लेख चाहिए तो मैंने कहा कि अभी तो बिलकुल समय ही नहीं है मेंरे पास वो कहते हैं कि नहीं-नहीं आप जैसे मर्जी करिए हमें आपसे चाहिए ही चाहिए और वो चांस की बात है कि मुझे तीन दिन का समय दिया और तीन दिन में एक जिम्मेदारी आ गई तो तीन दिन में वो आर्टिकल तैयार करके दिया तो इसके लिए लेखन हो जाता है।
सहचर टीम : मैम आपने मीडिया में पी.एच.डी किया हुआ है तो आप हंसराज कॉलेज में मीडिया पाठ्यक्रम को किस प्रकार बढ़ावा देंगी ?
डॉ. रमा : देखिए हंसराज में जब से हमें मौका मिला है विकल्प के तौर पर तो हमने मीडिया को जरूर रखा है। मीडिया का पाठ्यक्रम हमारा काफी सफल पाठ्यक्रम है क्योंकि जो मैंने बीच में अभी प्रेक्टिकल ट्रेनिगं कि बात की थी तो उन लोगों ने पूरी तरह से उसे प्रेक्टिकल ट्रेनिंग बेस बनाया हुआ है । हमारे उस पाठ्यक्रम में 30% थ्योरी और 70% प्रेक्टिकल है उस प्रेक्टिकल से बहुत अच्छा लोगों को सिखने को मिल जाता है । दूसरा हमने विश्वविद्यालय में अप्लाई किया हुआ है मीडिया के पाठ्यक्रम के लिए और विश्वविद्यालय से अगर हमें सिगनल मिल जाएगा तो हम वो पाठ्यक्रम शुरू कर देंगे ।
सहचर टीम : मैम हमारे पाठकों को आप कोई संदेश देना चाहेंगी ?
डॉ. रमा : पाठको को पहली बात तो कि जीवन में सब मेहनत करो, जीवन से घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है जैसे आपके टीचर आपके साथ जुड़े हुए हैं उसी तरह अपने टीचर से खूब सीखें। जितना आप सीख सकते हैं और जीवन में अच्छी नीयत के साथ मेहनत करते हुए जितना आप आगे बढ़ सकते हो उतना आगे बढ़ने की कोशिश करो। लेकिन आगे बढ़ने कि लिए किसी को गिराने की कोशिश मत करो, षड़यंत्र मत करो, साफ नीयत से अपनी तरफ से जीतना अच्छा हो सके उतना करो।
सहचर के सभी पाठकों व सदस्यों की तरफ से समय देने के लिए आपको विशेष धन्यवाद!
हंसराज महाविद्यालय की पहली महिला प्राचार्य और मीडिया विशेषज्ञ डॉ. रमा से सहचर टीम की आत्मीय बातचीत