सातवीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में बाणभट्ट द्वारा रचित ‘हर्षचरित’ को चरित साहित्य (ऐतिहासिक जीवनी) परंपरा का अग्रदूत कहा जाता है। साहित्य लेखन की यह परंपरा आरंभिक मध्यकालीन भारत में अस्तित्व में आई कुछ नई क्षेत्रगत राजनैतिक इकाइयों के उदय के साथ जुड़ी हुई है। चरित साहित्य परंपरा को इतिहासकारों ने इन नवोदित राजनैतिक इकाइयों द्वारा समग्र ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं के साथ जुड़ने के प्रयासों में से एक माना है।
प्राचीन भारतीय इतिहास-लेखन परंपरा के एक अंग के रूप में चरित साहित्य अपने पूर्ववर्ती साहित्य लेखन शैलियों की तुलना में सातत्य एवं परिवर्तन दोनों की अभिव्यक्ति करता है। सातत्य का प्रदर्शन जहां वंशावली संबंधी जानकारी के रूप में दिखता है वहीं ऐतिहासिक महत्व की जानकारी को अधिक स्पष्ट रूप से दर्ज़ किया जाना एक महत्वपूर्ण परिवर्तन प्रदर्शित करता है। उल्लेखनीय है कि इससे पूर्ववर्ती प्राचीन भारतीय साहित्य में जहां ‘अंतर्निहित ऐतिहासिक-चेतना’ युक्त माना गया है वहीं चरित साहित्य को ‘बाहयीकृत ऐतिहासिक-चेतना’ युक्त बताया गया है।[1] ऐतिहासिक चेतना में इस बदलाव का प्रमुख कारण इस काल में छोटे-छोटे क्षेत्रीय राज्यों के उदय के फलस्वरूप स्थानीय वफ़ादारियों व हितों का जन्म को माना गया है। इसके अलावा अब अपने इतिहास के साथ क्षेत्र विशेष के अधिक प्रबल रूप से परिभाषित संबन्ध का भी उदय हुआ। अब ऐतिहासिक अभिरूचि का केन्द्र कबीले की बजाय राजा एवं उसका दरबार बन गया। चरितनायक वाली परंपरा का स्थान दरबार ने एवं दरबार की केंद्रीय हस्ती राजा ने ले लिया। इतिहास लेखन में सूत की बजाए दरबारी कवि की भूमिका प्रमुख हो गई।[2] इस प्रकार इतिहास की यह व्याख्या कि यह एक कथा के रूप में व्यवस्थित अतीत की उन घटनाओं का संकलन है जो नैतिक आस्थावादी, परलौकिक एवं इहलौकिक क्षेत्रों के सत्यों को दर्शाती हैं, अब अपरिवर्तित हो गया। अब इसका अर्थ उन घटनाओं के लेखे-जोखे से हो गया जो राजा द्वारा शाही वैभव प्राप्त करने के रूप में निष्कर्ष पर पहुँचती थी। इस काल की रोमानी भावना, महाकाव्य की आलंकारिक शैली तथा रामायण एवं वृहत्कथा की परंपरा से प्रभावित कवि-इतिहासकारों ने शाही वैभव को एक खूबसूरत राजकुमारी के रूप में दर्शाया जिसे अनेक कठिनाइयाँ उठाकर भी सामान्यतः विवाह के लिए राजा प्राप्त करता था।[3]
‘हर्षचरित’ का ऐतिहासिक सर्वेक्षण एवं ऐतिहासिक स्रोत के रूप में इसका प्रयोग एवं मूल्यांकन करना उपरोक्त वर्णित प्रवृत्तियों को समझने में सहायक हो सकता है। ‘हर्षचरित’ का रचनाकार बाणभट्ट कन्नौज के महाराज हर्षवर्धन का दरबारी कवि था। बाण ने हर्षचरित का आरंभ स्वयं को प्राचीन परम्पराओं के साथ सम्बद्ध करके किया है। बाण के लिए महाभारत एक आदर्श रचना थी- “…उस कवि के काव्य से क्या जिसकी वाणी सब प्रकार के वृत्तांतों वाली महाभारत की कथा के समान तीनों लोकों में व्याप्त नहीं होती।”[4] इसी प्रकार हमें ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि वह हर्षचरित को दूसरे महाभारत के समान मानता था।[5] उसकी प्रस्तुतीकरण शैली पर भी महाभारत का प्रभाव दिखता है। जिस प्रकार महाभारत का आरंभ भार्गव वंश के वर्णन से होता है उसी प्रकार हर्षचरित का आरंभ भार्गव-वात्स्यायनों के इतिहास से होता है। इसके अलावा जिस तरह उग्रश्रवों ने शौनक के नेतृत्व में ऋषियों के अनुरोध पर महाभारत की कथा सुनानी आरंभ की थी उसी तरह बाण ने भी श्यामल के नेतृत्व में अपने रिश्तेदारों के अनुरोध पर हर्ष के जीवन चरित का वर्णन आरंभ किया था।[6] इसी तरह हर्षचरित में मिलने वाली दधीच व सरस्वती की कथा[7] के मुख्य बिन्दु जैसे एक दैवीय स्त्री का एक नश्वर राजा से प्रेम, ऋषि के श्राप के कारण उसका स्वर्ग से निष्कासन और श्राप के काल का एक बच्चे के जन्म तक सीमित होना आदि पुरूरवा एवं उर्वशी की प्रसिद्ध कथा से लिए गए हैं जो कि ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण, विष्णु पुराण एवं मत्स्य पुराण आदि में कुछ परिवर्तनों के साथ मिलती है। इसी प्रकार शाही वैभव का एक सुंदर राजकुमारी के रूप में चित्रण की प्रवृत्ति की जांच करें तो पाते हैं कि हर्षचरित में शाही वैभव का प्रतीक हर्ष की बहन राज्यश्री है जो अपने पति व कन्नौज के राजा ग्रहवर्मा की मृत्यु के पश्चात वन में चली गयी थी। आख्यान के अंत में हर्ष उसे वन से लेकर आता है। हर्ष की उससे मुलाक़ात का सांकेतिक महत्व यह है कि हर्ष ने उसके सहयोग से कन्नौज की सत्ता को प्राप्त करके उत्तर भारत में एक शक्तिशाली सत्ता स्थापित की। उल्लेखनीय है कि इससे पहले पुष्पभूति राज्य की राजधानी स्थानेश्वर (वर्तमान थानेश्वर, हरियाणा) में स्थित थी।
आख्यान की संरचना
उपरोक्त अध्ययन से स्पष्ट होता है कि हर्षरित में बाणभट्ट ने एक वृहद परंपरा का अनुसरण किया है। वह उन घटनाओं एवं हालातों का वर्णन करता है जिन्होंने हर्ष को सिंहासन पर बैठने के लिए मजबूर किया। इसके आख्यान में दो कथाएँ जुड़ी हैं जिसमें से एक बाण की आत्मकथा है एवं दूसरी हर्ष की जीवनी है। रचना के उद्देश्य के अनुरूप ही इनमें से दूसरी कथा पर अधिक ज़ोर दिया गया है। यदि शास्त्रीय भारतीय नाट्य शैली के आधार पर हर्षचरित का अध्ययन किया जाए तो इसमें भी पाँच सुपरिभाषित चरण दिखते हैं[8], जिनकी उपस्थिति इसे एक पूर्ण नाटक बनाती हैं[9]–
- प्रारम्भ- पुष्पभूति की कथा;
- प्रयत्न- हर्ष का जन्म;
- आशा- प्रभाकर वर्धन की मृत्यु तथा उसके पश्चात ग्रहवर्मा एवं राज्यवर्धन की हत्या;
- निश्चितता- राज्यश्री की स्वतन्त्रता; तथा
- फलागम- राज्यश्री से हर्ष की मुलाक़ात।
लेकिन बाण के इस आख्यान में जिस कालक्रम का प्रयोग किया गया है वह तिथियों एवं वर्षों के ढांचे की बजाए कार्यों एवं घटनाओं के क्रम में दिखता है। इससे प्रतीत होता है कि प्रभाकर वर्धन की मृत्यु के कुछ ही दिनों पश्चात हर्ष की राज्यश्री से मुलाक़ात हो गई। गद्य में रचित इस रचना में राजदरबार, सैनिक छवानी एवं सेना के कूच आदि का जो विशद वर्णन किया गया है वह काफी जीवंत है। यथा सैनिक प्रयाण के वर्णन के तहत छवानी में सवेरे तीन बजे बाजे बजने से लेकर क्रमश: होने वाली सैनिक तैयारियों का बरनन किया गया है।
हर्षकालीन राज्यव्यवस्था का पुनर्निर्माण
यदि हर्षकालीन इतिहास की पुनर्रचना की दृष्टि से हर्षचरित का अध्ययन करें तो इतिहास के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है। किन्तु स्थानाभाव के कारण प्रस्तुत शोधपत्र समकालीन राज्यव्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं के संबंध में मिलने वाली जानकारी तक ही सीमित है। हर्षचरित से ज्ञात होता है कि समकालीन राजनैतिक मानचित्र काफी जटिल था। अनेक क्षेत्रीय शक्तियाँ उत्तर एवं पूर्वी भारत में अस्तित्व में थीं जिनमें से प्रमुख थीं- पुष्पभूति, गौड़, मौखरी। साथ ही ये शक्तियाँ अपना-अपना प्रभाव क्षेत्र विस्तृत करने हेतु जोड़-तोड़ की राजनीति में संलग्न थीं। हर्षचरित में पुष्पभूति वंश के वर्णन से आभास होता है कि इन क्षेत्रीय ताकतों का उदय स्थानीय राजनैतिक इकाइयों की शक्ति में विकास के फलस्वरूप हुआ। उदाहरण के लिए यदि पुष्पभूति वंश के उदय का अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि यह आरंभ में एक स्थानीय शक्ति थी जिसका प्रभाकर वर्धन के काल में प्रभाव विस्तार हुआ। आरंभिक मध्यकाल के संबंध में यह जानकारी इस लोकप्रिय अवधारणा पर प्रश्नचिन्ह लगाती है कि स्थानीय राज्यों का उदय बड़े राज्यों द्वारा किए गए भूमि अनुदानों के फलस्वरूप हुआ।[10]
हर्षचरित से हर्ष के राज्य के स्वरूप के संबंध में भी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। यथा हर्षचरित हर्ष के राज्यों में विभिन्न स्तरों के सामंतों का अस्तित्व बताता है यथा सामन्त, महसामन्त, आप्तसामन्त, प्रधान सामन्त, शत्रु महासामन्त, प्रति-सामन्त आदि। यद्यपि बाण के विवरण से विभिन्न कोटियों के सामंतों के बीच अंतरों का तो ज्ञान नहीं होता किन्तु इतना तय है कि इनमें एक अनुक्रम भी था क्योंकि बाण ने एक स्थान पर कहा है, ‘’…… प्रधान सामंतों ने, जिनकी बात टाली नहीं जा सकती थी, पहुँचकर बड़ा समझाया बुझाया तब राज्यवर्धन ने किसी प्रकार भोजन किया।”[11] बाण ने विभिन्न राजाओं द्वारा प्रणाम के प्रत्युत्तर में जो प्रतिक्रियाएँ कीं वे भी राजाओं के स्तर में भिन्नता को इंगित करता है। यथा “……. प्रणाम करते हुए किसी को तिहाई खुले हुए नेत्रों की दृष्टि से, किसी को कटाक्ष दृष्टि से, किसी को समग्र दृष्टि व भरपूर आँखों से देखकर…….. किसी को कुशलक्षेम पूछकर, किसी को प्रणाम के उत्तर में स्वयं प्रणाम करके….. वीरों के वीर सम्राट ने राजसमूह को योग्यता के अनुसार विभक्त किया”।[12] बान इनकी दो श्रेणियों का स्पष्ट वर्णन करता है। एक श्रेणी उन शत्रु महासामंतों की थी जो जीत लिए गए थे और दरबार में अनेक प्रकार की सेवाएँ प्रदान करते थे। बाण उल्लेख करता है कि जब वह हर्ष से मुलाक़ात करने जा रहा था तो भुजनिर्मित अनेक शत्रु महासामन्त उपस्थित थे जो “पराजित होते हुए भी सम्मानित के समान थे”[13]। लेकिन साथ ही उनकी हालत का जो वर्णन बाण ने किया है उससे पता चलता है कि उनकी जान बख्श देना मात्र ही उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार था। दूसरे प्रकार के सामन्त वे थे जो सम्राट के “प्रताप के अनुराग से पधारे हुए थे, महाराज के दर्शनों के अवसर की प्रतीक्षा में वहाँ विराजमान थे”[14]। बाण का वर्णन यह भी दर्शाता है कि सामन्त प्रशासन का महत्वपूर्ण अंग थे। वे शांतिकाल एवं युद्ध काल में राजा की सेवा करते थे। युद्धकाल में ये सैन्य सेवा भी प्रदान करते थे। बाण के अनुसार जब राज्यवर्धन हूणों के खिलाफ अभियान पर निकला तो, “महासामंतों की सहायता से अपरिमित सेना”[15] भी उसके साथ गई।
इसके अतिरिक्त बान ने हर्ष की सेना के कूच का जो विशद वर्णन किया है उससे उसकी राजसत्ता के उत्पीड़क स्वरूप का पता चलता है। बान उल्लेख करता है कि हर्ष व उसकी सेना के गुजरने पर स्थानीय लोग उसे दही, गुड़, शक्कर व पुष्प उपहारस्वरूप देते थे। साथ ही जब सेना कूच करती थी तो मार्ग में आने वाली आबादी को ख़ासी हानि भी उठानी पड़ती थी। हाथी मार्ग में पड़ने वाले घरों को पैरों से रौंद डालते थे व लोगों की खड़ी फसलें काट ली जाती थीं।[16]
वास्तव में इतिहास के पुनर्निर्माण हेतु हर्षचरित का अध्ययन दो प्रकार से किया जा सकता है। एक तो स्पष्ट रूप से दर्ज़ किए गए तथ्यों को पढ़कर समकालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक इतिहास की रूपरेखा खींची जा सकती है जिसके उदाहरण ऊपर प्रस्तुत किए गए हैं। दूसरा, इसमें उपस्थित असंलग्नताओं के अध्ययन के आधार पर एक ऐसी तस्वीर प्राप्त की जा सकती है जो कि बाण ने छुपाने का प्रयास किया हो। यथा पूरे आख्यान में बाण का यही प्रयास रहा है कि हर्ष के सिंहासनरोहण को अपरिहार्य सिद्ध किया जाये। विभिन्न घटनाओं एवं पात्रों का विवेचन उसने इसी बात को ध्यान में रखकर किया है। इसके लिए बाण ने हर्ष के जन्म को लक्ष्मी द्वारा हर्ष के पूर्वज पुष्पभूति को दिये गए वरदान का फ़ल बताया है जिसने त्रिभुवन की विजय प्राप्त करनी थी।[17] साथ ही उसकी तुलना महाभारत के नायकों यथा बुद्ध, ब्रह्मा, इन्द्र, शिव, विष्णु आदि के साथ करके[18] उसमें देवत्व स्थापना का प्रयत्न किया गया है। राजगद्दी के लिए उसकी योग्यता को उसके पिता ने भी स्वीकृति दी- “यह पृथ्वी तुम्हारी है’ यह कहना दोनों लोकों को जीतने की इच्छा रखने वाले तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है।”[19]
लेकिन हर्षचरित की असंलग्नताएँ इशारा करती हैं कि राजगद्दी की प्राप्ति के लिए हर्ष का राज्यवर्धन के साथ मूक संघर्ष चल रहा था। मृत्यु-शैय्या पर पड़े प्रभाकरवर्धन का अपने कनिष्ठ पुत्र हर्ष की तारीफों के पुल[20] बांधना एवं ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन का ज़िक्र तक न करना इशारा करता है कि प्रभाकरवर्धन हर्ष को उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे जो कि ज्येष्ठापुत्राधिकार की परंपरा के विरुद्ध था। इससे पूर्व भी प्रभाकरवर्धन ने कहा था कि उसका सुख, राज्य, वंश, प्राण, परलोक सभी हर्ष पर आधारित थे।[21] उसकी इस अभिव्यक्ति के अनुरूप ही राज्यवर्धन ने अपना दावा त्यागते हुए हर्ष को शासक के रूप में स्वीकार करने की इच्छा भी प्रकट की थी।[22] हर्ष ने भी राज्यवर्धन की इस इच्छा का खुलेआम विरोध नहीं किया बल्कि वस्त्र-कर्मान्तिक द्वारा राज्यवर्धन को वल्कल प्रस्तुत करने पर भी हर्ष शान्त खड़ा रहा एवं इसके संभावित कारणों को सोचता रहा।[23] इतना ही नहीं हर्षचरित में जिस प्रकार राज्यवर्धन की उपलब्धियों को दबाया गया है उससे भी स्पष्ट होता है कि बान का उद्देश्य मात्र हर्ष की जीवनी लिखना ही नहीं था बल्कि उसे एक अधिक दक्ष एवं योग्य शासक के रूप में दर्शाना भी था। यथा राज्यवर्धन द्वारा हूणों के खिलाफ अभियान व मालवा की सेना को हराने का काफी संक्षिप्त उल्लेख बाण ने किया है।
हर्षचरित में उपलब्ध असंलग्नताएँ मात्र उपरोक्त ही नहीं हैं बल्कि अनेक अन्य असंलग्नताएँ भी देखने को मिलती हैं यथा बाण उल्लेख करता है कि हर्ष की सेना की कूच के दौरान फसलें नष्ट हो जाने के कारण लोग घरों से निकालकर राजा को कोस रहे हैं- “….. जिनकी तैयार फसलें काट ली गईं थीं, विषाद प्रकट करते हुए उसके शोक में गृहस्थी के साथ बाहर निकलकर प्राणों को हथेली में रखे निडर होकर कह रहे थे- कहाँ है राजा? किसका राजा? कैसा राजा?”[24] इसी प्रकार बाण लिखता है कि जब राज्यवर्धन हूणों का मुक़ाबला करने के लिए गया तो हर्ष भी कुछ दूर तक पीछे गया किन्तु हिमालय की तराइयों में ही शिकार करने के लिए रुक गया।[25] लेकिन इतने महत्वपूर्ण कार्य के लिए जाते हुए शिकार करने के लिए रुक जाना संभवतः हर्ष द्वारा हूणों के विरुद्ध अभियान में अपने भाई को पूर्ण समर्थन न करना दर्शाता है।
इस प्रकार हर्षचरित में उपस्थित असंलग्नताओं के अध्ययन से हमें ऐसी तस्वीर प्राप्त होती है जो कि हर्षचरित के उस केंद्रीय भाव के विपरीत है जिसे प्रस्तुत करने का प्रयत्न बाणभट्ट ने इस कृति में किया है- जहां एक ओर बाण हर्ष की छवि एक ऐसे भाई के रूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रयत्नरत है जिसका हृदय दुख से भरे अपने बड़े भाई को देखकर हजारों टुकड़ों में बिखर जाता है[26], वहीं हर्षचरित की असंलग्नताएँ राज्यवर्धन के प्रति हर्ष की भावनाओं पर संशय उत्पन्न करती हैं; एक ओर जहां उसे दैवीय गुणों से भरे शासक के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है तो दूसरी ओर आख्यान की असंलग्नताएँ बताती हैं कि जनता का एक वर्ग हर्ष को ऐसे रूप में नहीं देखता था; इसी प्रकार एक ओर बाण जहां उसे “शौर्य व प्रखर बुद्धि द्वारा बढ़े हुए पराक्रम”[27] वाला बताता है तो वहीं हूणों के विरुद्ध अभियान में भागीदारी न करना इस दावे को संदेहास्पद बनाता है।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि हर्षकालीन इतिहास की पुनर्रचना के लिए हर्षचरित महत्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध करवाता है। क्योंकि बाणभट्ट हर्ष का दरबारी कवि था इसलिए यह एक आधिकारिक दस्तावेज़ है। उसका प्रयोग किस प्रकार किया जाए यह पूर्णतः शोधकरता की समझ एवं आलोचनात्मक दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। उपरोक्त विश्लेषण निःसन्देह हर्षचरित में उपलब्ध सूचनाओं एवं असंलग्नताओं का अंतिम विश्लेषण नहीं है किन्तु एक ऐतिहासिक स्रोत के रूप में इसके अध्ययन के संभावनाओं एवं चुनौतियों की ओर एक इशारा अवश्य है।
[1] रोमिला थापर, “समाज और ऐतिहासिक चेतना: इतिहास-पुराण परंपरा”, आदिकालीन भारत की व्याख्या, नई दिल्ली, 1998.
[2] रोमिला थापर, “प्राचीन भारत में इतिहास लेखन की परंपरा”, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, नई दिल्ली, 2001.
[3] विश्वंभर शरन पाठक, एंशिएंट हिस्टोरियंज़ ऑफ इंडिया, बॉम्बे, 1996.
[4] पं. श्री जगन्नाथ पाठक, हर्षचरितम, चतुर्थ संस्करण, वाराणसी, 1982, पृ. 6.
[5] वही, पृ. 155.
[6] वही, पृ. 149-155.
[7] वही, पृ. 12-67.
[8] विश्वंभर शरण पाठक, पूर्वोद्धृत, पृ. 49.
[9] ई. बी. कौवेल एवं एफ. डब्ल्यू. थॉमस (द हर्षचरित ऑफ बाण, द्वितीय संस्करण, दिल्ली, 1968, पृ. XI) सहित अनेक विद्वानों ने हर्षरित को एक अपूर्ण रचना माना है। फलस्वरूप एक ऐतिहासिक स्रोत के रूप में इसका महत्व सदा कम करके आँका गया है। ऐसे में अनेक इतिहासकारों ने अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर आख्यान में विभिन्न स्थलों से तथ्यों को उनके संदर्भों से हटकर इच्छानुसार तोड़-मरोड़कर प्रयोग किया है।
[10] आरंभिक मध्यकालीन इतिहास की लोकप्रिय समझ पर विस्तृत वर्णन के लिए देखें, रामशरण शर्मा, भारतीय सामंतवाद, दिल्ली, 2007; पूर्व मध्यकालीन भारत का सामंती समाज एवं संस्कृति, दिल्ली, 1996; डी. एन. झा (सं.), भारतीय सामंतवाद: राज्य, समाज और विचारधारा; दिल्ली, 2014.
[11] पं. श्री जगन्नाथ पाठक, पूर्वोद्धृत, पृ. 314.
[12] वही, पृ. 372.
[13] वही, पृ. 103.
[14] वही, पृ. 103.
[15] वही, पृ. 257.
[16] वही, 377-378.
[17] वही, पृ. 196.
[18] वही, पृ. 130-132.
[19] वही, पृ. 294.
[20] वही, पृ. 294.
[21] वही, पृ. 273.
[22] वही, पृ. 317.
[23] वही, पृ. 317-321.
[24] वही, 378.
[25] वही, पृ. 258.
[26] वही, पृ. 313.
[27] वही, पृ. 294.