हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में कबीर इकलौते ऐसे कवि हैं , जिन्होंने अपना समस्त जीवन लोक-कल्याण हेतु समर्पित किया था । वे आजीवन समाज में व्याप्त आडम्बरों पर अपनी तीव्र प्रतिक्रिया प्रकट करते रहे । इसमें कोई दोराय नहीं कि वे कर्मप्रधान समाज के पैरोकार थे, यही विशेषता उन्हें अन्य से भिन्न करता है । जहाँ तक कबीर की प्रासंगिकता का सवाल है वह अद्यतन समाज की हर कसौटी पर खरा उतरता है । कबीर की जो वाचिक परम्परा रही उसमें उन्होंने समाज के उस प्रत्येक व्यक्ति को स्थान दिया जिन्हें भक्तिकाल के अन्य कवियों ने तवज्जों नहीं दिया । या यूँ कहे उस समस्या की ओर न तुलसी का ध्यान गया, न जायसी का और न ही सूर का । इन तीनों कवियों के पास भगवत-भक्ति के साथ-साथ संस्कृत साहित्य का भी अच्छा-खासा ज्ञान था जिसका उन्होंने भरपूर उपयोग अपनी रचनाओं के लिए किया, कबीर के पास यह मौका नहीं था । उस समय के कट्टरवादी जाति प्रथा के कारण कबीर लिखने और साहित्यिक सृजन के कार्य से हाथ गवा बैठे । परंतु उनकी वाचिक परंपरा में वह शक्ति और सामर्थ्य दोनों था जो लिखित परंपरा को चोट कर सके । आश्चर्य की बात है, एक ही समय के तीन बड़े कवि जो कबीर के समकक्ष हैं वे अपनी समसामायिक परिस्थिति से अवगत होने के बाद भी उस दिशा में प्रयत्नशील नजर नहीं आये जितने परिणाम में कबीर और उनकी वाणी नजर आती है । शायद यही वह चाबी का गुच्छा है जिसके बल पर कबीर आधुनिक समय के साथ अपना तारतम्य बिठा पाते हैं । कबीर भक्तिकाल में ही वे समस्त तथ्यों की और इशारा कर गये थे जो आज भी हमारे समाज में जीवित है। इसलिए कबीर का स्थान हिंदी के महान कवियों में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
आज भी उत्तर भारत की हिंदी भाषी जनता में तुलसीदास के उपरान्त यदि कोई अन्य कवि लोकप्रिय हुआ है तो वह कबीर ही है । कबीर के पद लोगों की जबान पर चढ़ा हुआ है चाहे वो बच्चे हो या बुढ़े । कबीर के पद लोगों को जबानी याद है जिन्हें वे विभिन्न अवसरों पर उदाहरण के रूप में सुनाया करते हैं । कबीर की लोकप्रियता का मुख्य कारण उनके काव्य में अनुभूति की सच्चाई और अभिव्यक्ति की ईमानदारी है । उन्हें जो अच्छा लगा उसका खुलकर समर्थन किया और जो उनके दिल को नहीं भाया उसका विरोध उन्होंने निर्भीकता के साथ किया । उनका यही सीधा एवं सच्चा स्वभाव लोगों को पसंद आया और इसीलिए कबीर जनता के दिलों के कंठहार बन गए। कबीर का समय भले ही १४ वीं शताब्दीं रही हो किन्तु उनके द्वारा व्यक्त की गयी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक है । समय के परिवर्तन के साथ-साथ काव्य का स्वरूप, शैली, भाषा आदि के रूप बदल जाते हैं परन्तु महान कवियों के काव्य का कथ्य अक्षुण्ण रहता है । जिन तथ्यों एवं समस्याओं को केंद्र में रखकर वे समाज के सत्य को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं उसकी प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं होती । क्योंकि वे सारे सत्य मनुष्य जीवन के मूलभूत सत्य होते हैं । यह कहना गलत न होगा कि कबीर की शिक्षा वर्तमान समाज की धूरी है । उस समय के हिंदु-मुस्लिम लोग मंदिर-मस्जिद के नाम पर आपस में संघर्षरत रहते थे । जिसका दुष्प्रभाव आगे के समाज पर तीव्र रूप से पड़ा । कल के राजा-महाराजाओं की जगह आज के नेताओं ने ले लिया है । साधु संतो की तो बात ही कुछ और है। वे पहले से अधिक समाज को बिगाड़ने में जुटे हुए हैं । आशाराम बापू, राम रहीम इसके ज्वलंत उदाहरण हैं । उसी प्रकार नेताओं ने भी अपने स्वार्थ और वोट के लिए राजनीति को और अधिक भ्रष्ट कर दिया है । मंदिर-मस्जिद, जाति-धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे तब भी होते थे और आज भी हो रहे हैं । आज भी समाज में धार्मिक भेद-भाव व्याप्त है, जाति प्रथा ने अपनी जड़ों को और मजबूत किया है, समाज में विषमता बढ़ी है, समरसता का अभाव है । ऊँच-नीच की भावना वर्तमान समय में खान-पान एवं विवाह के स्तर पर आज भी मौजूद है । इसलिए कबीर की आवश्यकता समाज में थी, है और रहेगी।
उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावी था कि प्रत्येक मनुष्य को उनसे सीख लेनी चाहिए । इसलिए हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने शब्दों में उनकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि – “सिर से पैर तक मस्त-मौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचंड, दिल के साफ़, दिमाग के दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अश्पृश्य, कर्म से वंदनीय, वे जो कुछ कहते थे अनुभव के आधार पर कहते थे, इसलिए उनकी उक्तियाँ बेधनेवाली और व्यंग्य चोट करने वाले होते थे |”1 एक व्यक्ति के अंदर इतने सारे भिन्नताओं का जो मिश्रण द्विवेदी ने दिखाया है उसका एक खास मकसद रहा है । जिसके जरिये द्विवेदी जी कबीर की विशेषता को उभारना चाहते हैं और दंभ के साथ पाठक वर्ग को समझाते है कि कबीर दास को यदि समझना है तो इसी रूप में उनको समझना पड़ेगा । द्विवेदी जी ने कबीर को मस्त इसलिए कहा कि वो अपने पुराने कृत्यों का हिसाब नहीं रखते और हर फ़िक्र को हँसी में उड़ा देते हैं । जो व्यक्ति घर की दुनियादारी में लिप्त है वो कभी मस्त नहीं रह सकता । कबीर जैसे फक्कड़ को इस दुनियादारी से कोई वास्ता नहीं है। वो अपनी धुन में मग्न रहने वाले व्यक्ति थे। कबीर स्वयं कहते हैं –“हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या/रहे आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या/ जो बिछुड़े है पियारे से, भटकते दर-बदर फिरते/ हमारा यार है हम में, हमन को इंतजारी क्या/ खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है/ हमन गुरुनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या/ न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछुड़े पियारे से/ उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या/ कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से/ जो चलना राह नाजुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या/ ।”2 कबीर के जीवन में प्रेम का बड़ा महत्व रहा है । उन्हें प्रेम का व्यापारीकरण कतई पसंद नहीं है। उनका मानना है कि समाज में व्याप्त दुराचार को केवल प्रेम के माध्यम से ही घटाया जा सकता है । मनुष्य को अपने भीतर प्रेम की उर्जा को जगाना चाहिए, क्योंकि प्रेम वह कुंजी है जिसके द्वारा मनुष्य के मन में अखंड विश्वास का भाव उत्पन्न होता है । परंतु इस प्रेम का मार्ग कठिनाइयों से भरा-पूरा है । कबीर के अनुसार प्रेम एक साधना है, तपस्या है, जिसे प्राप्त करने के लिये मनुष्य को राग-द्वेष, वैर, कलह आदि तत्वों से ऊपर उठना होगा । तब जाके वह प्रेम का आस्वाद ले सकता है । इसलिए वे कहते हैं -“कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाँही/ सीस उतारे हाथि करि, सो पैसे घर माँहि/ कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम-अगाध/ सीस उतारि पगतति धरै, तब निकटि प्रेम का स्वाद/ ।”3 अर्थात् प्रेम कोई खाला का घर नहीं है कि बात-बात पर मचल जाए तो सारी आशा-आकांक्षाएँ पूरी हो जाए । उसके लिए व्यक्ति को अपना सिर (अहं भाव) उतारकर धरती पर रख देना (किनारे रख देना) चाहिए। जहाँ तक कबीर की भक्ति भावना की बात है तो उन्होंने सदाचरण पर अत्यधिक बल दिया है । उनके अनुसार सदाचार भक्ति का प्रमुख अंग है। मनुष्य सदाचारी तभी हो सकता है जब वह सभी विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या) को त्याग सके । विकार-ग्रस्त मनुष्य भगवान की भक्ति में कभी लीन नहीं हो सकता । भक्ति के संबंध में कबीर की एक और विशेषता रही कि उन्होंने कभी ईश्वर पर से अपना विश्वास नहीं हटाया । उन्हें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि वे राम के कुत्ते हैं । भक्ति की डोर उन्हें जिस डगर ले जाता है वे उस और चल देते हैं । “कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाँउ/ गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाँउ ।”4 इससे स्पष्ट होता है कबीर की भक्ति में समर्पण भाव कूट-कूट कर भरा हुआ है । वे पुन: कहते हैं-“ना किछु किया न करि सक्या, ना करणैं जोग सरीर ।/ जे किछु किया सो हरि किया, ताथैं भया कबीर॥”5 कबीर को कबीर बनाने के पीछे भगवान के श्रेय को दंभ के साथ स्वीकार करना कबीर के दास्य भाव को उजागर करता है । कबीर का यह रूप द्विवेदी जी को नापसंद है । तभी तो द्विवेदी जी लिखते हैं- “कबीरदास हिंदु और मुसलमानों के ऐक्य-विधायक थे परन्तु जैसा कि आरम्भ में ही कहा गया है, कबीरदास को केवल इन्हीं रूपों में देखना सही देखना नहीं है । वे मूलतः भक्त थे। भगवान पर उनका अविचल अखंड विश्वास था। वे कभी सुधार करने के फेर में नहीं पड़े ।”6 इसका आशय यह है कि कबीर समाज सुधारक बाद में और भक्त पहले हैं । परंतु यह वाक्य लिख कर द्विवेदी जी कबीर के महत्व को कम नहीं करना चाहते हैं और आगे लिखते हैं -“शायद वे अनुभव कर चुके थे कि जो स्वयं सुधरना नहीं चाहता उसे जबरदस्ती सुधारने का व्रत व्यर्थ का प्रयास है। वे अपने उपदेश ‘साधु’ भाई को देते थे या फिर स्वयं अपने-आपको ही संबोधित करके कह देते थे । यदि उनकी बात कोई सुनने वाले व मिले तो वे निश्चित होकर स्वयं को ही पुकार कर कह उठते: ‘अपनी राह तू चले कबीरा !”7 कबीर की इस महत्ता को पुरुषोत्तम अग्रवाल भी बखूबी समझते हैं । वे स्वीकारते हैं कि -“विनम्र भाव से कबीर तक जानेवाले देख सकेंगे कि उनकी महत्वकांक्षा धर्मप्रवर्तक बनने से कहीं ऊँचे दर्जे की थी ।”8 और इस बात को उन्होंने पीपा के उद्धरण के द्वारा प्रस्थापित किया है जो इस प्रकार है – “(कबीर न होते तो लोक, वेद और कलियुग ने मिलकर भक्ति को रसातल ही पहुँचा दिया होता । पांडे लोगों ने आगम-निगम की न जाने कितनी बातों का जाल फैला रखा है, राजसी, तामसी और सात्विक जैसी पारिभाषिक शब्दावली में असली जुगति भुला रखी है । कबीर रूपी कल्प-वृक्ष की छाया में बैठने वाले वक्ता और श्रोता दोनों ही दुनिया के इन झंझटों से, रोने-कलपने से मुक्त हो जाते हैं । सगुण रूपी मिष्ठान्न खा-खाकर रोग बढ़ानेवाले यदि निर्गुण नीम का सेवन कर लें तो अच्छा हो । लेकिन क्या कहें, अवर्ण हों या सवर्ण, अंधे अंधों के सहारे चल रहे हैं, कुएँ में तो गिरेंगे ही । हम तो कबीर के कारण बच गए, वरना हम भी न जाने किस किस की बातें सुन कर किन किन रास्तों पर चल पड़ते । कबीर द्वारा रेखांकित सत्य के प्रकाश में पीपा ने भी कुछ पा लिया।)”9 वास्तव में पीपा का यह कृतज्ञता ज्ञापन कबीर के महत्व को आसमान की ऊँचाई तक ले जाने का अच्छा साधन है ।
अब तक की चर्चा से एक बात तो स्पष्ट होती है, कबीर प्रगतिशील चेतना से युक्त एक ऐसे कवि हैं जो आँखों देखी समस्त घटना को अपनी साफ़ और चोट करने वाली भाषा में ईमानदारी से व्यक्त कर देते हैं। इसलिए उन्होंने व्यंग्य का सहारा लिया । यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि उनकी व्यंग्य की भाषा बहुत सीधा और साधारण है । उदाहरण के तौर पर कबीर की यह वाणी प्रस्तुत है- “ना जाने तेरा साहब कैसा है/ मसजिद भीतर मुल्ला पुकारै, क्या साहिब तेरा बहिरा है/ चिउंटी के पग नेवर बाजे, सो भी साहब सुनता है/ पंडित होय के आसन मारै, लंबी माला जपता है/ अंतर तेरे कपट-कतरनी, सो भी साहब लखता है/ ऊँचा नीचा महल बनाया, गहरी नेंव जमाता है/ चलने का मनसूबा नाहीं, रहने को मन करता है/ कौड़ी कौड़ी माया जोड़ी, गाड़ि जमीं में धरता है/ जेहि लहना है सो लै जइहै, पापी बहि बहि मरता है/ सतवंती को गजी मिलै नहिं, वेश्या पहिरै ख़ासा है/ जेहि घर साधू भीख न पावै, भंडुआ खात बतासा है/ हीरा पाय परख नहीं जाने, कौड़ी परखन करता है/ कहत कबीर सुनो भाई साधो, हरि जैसे को तैसा है|”10 पंक्तियों को पढ़ने के बाद एक कौतूहल मन में घर कर जाता है, निरक्षर कबीर इन कटाक्ष पूर्ण कविताओं की रचना अपने मन में कैसे करते होंगे। शायद इसीलिए वे हिंदी साहित्य के इतिहास में अद्वितीय हैं । यूँ ही द्विवेदी जी कबीर को वाणी के डिक्टेटर नहीं कहते। उनमें वह प्रतिभा थी। द्विवेदी जी के शब्दों में “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था ।… जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया – बन गया है तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर् । भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नजर आती है । उसमें मानों ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवा फक्कड़ की किसी फरमाइश को नाहीं कर सके ।”11 वास्तव में कबीर की कविता की भाषा सहज-सरल होने के साथ साथ झकझोर देने वाली थी । उसमें वह पैना पन प्रचुर मात्रा में विद्यमान थी । आचार्य शुक्ल के अनुसार -“भाषा बहुत परिष्कृत और परिमार्जित न होने पर भी कबीर की उक्तियों में कहीं-कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है प्रतिभा उनमें बड़ी प्रखर है, इसमें संदेह नहीं ।”12
किंतु कबीर का लक्ष्य केवल कविता करना नहीं था । उनका लक्ष्य तो पथ-भ्रष्ट मनुष्यों को पथ प्रदर्शित करना था । कबीर ने समाज में व्याप्त मिथ्याडम्बरों और विसंगतियों पर जम कर प्रहार किया । साथ ही साथ अपने काव्य के माध्यम से हिंदु और मुसलमान दोनों को फटकारा । वे एक ओर हिन्दुओं के तीर्थाटन, छापा, तिलक, उंच-नीच का विरोध करते हैं तो दूसरी ओर रोजा, नमाज एवं अजान का । उनको धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्र में जहाँ कही भी प्रगति को रोकने वाली रूढ़ियाँ देखीं, वहीं उनका जमकर विरोध किया । बाहरी आडम्बरों को बढ़ावा देने वाले उन सभी धर्मों का खुलकर खंडन किया । धर्म के ठेकेदार बनने का दम्भ भरने वाले पण्डे-पुजारियों, ढोंगी साधु-फकीरों तथा मुल्लाओं की कबीर ने जमकर खबर ली । इसमें कोई दोराय नहीं, सामाजिक बुराइयों के वे कटु आलोचक रहे किन्तु उनकी आलोचना दृष्टि सुधार भावना से प्रेरित था । उन्होंने समन्वय का प्रस्ताव समाज के सामने रखा और उम्मीद की, समस्त समाज एकता के सूत्र में बंध जाए । जहाँ असमानता के काले बादल कभी न छाए। गार्सा द तासी भी कबीर के इसी रूप के कायल बने रहे । उन्होंने कबीर की इस विशेषता को कुछ इस तरह परिभाषित किया है- “उन्हें कोई भी मत स्वीकार नहीं है जो मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद उत्पन्न करता है। उन्हें कोई भी अनुष्ठान या साधना मंजूर नहीं है जो बुद्धिविरुद्ध है। उन्हें कोई भी शास्त्र मानी नहीं है जो आत्मज्ञान को कुंठित करता है । वेद किताब भ्रमोत्पादक है । अतः अस्वीकार्य है, तीर्थ, व्रत, पूजा, नमाज, रोजा गुमराह करते हैं । इसलिए अग्राह्य हैं । पंडित-पांडे, काजी-मुल्ला उन धर्मों के ठेकेदार हैं, जो धर्म नहीं है । अतः घृणास्पद है ।”13 कबीर का ज्ञानी और लोकहित स्वरूप ऊपर्युक्त वाक्य से स्पष्ट है । परंतु उनका यह सपना, सपना ही रह गया । मध्ययुग से ही जो असमानता का बीज हमारे समाज में बोया गया वह आज पल्लवित हो चुका हैं। पाखंड, अंधविश्वास, रूढ़ियाँ जैसे अवगुणों के अवशेष आज भी हमारे समाज में मौजूद हैं । मानव समाज हिंसा, असत्य, अज्ञान एवं भ्रम जैसी गंभीर समस्या से निजात नहीं पा सकी है । वर्षों पुरानी हिंदु-मुस्लिम समस्या की गुत्थी अभी तक अनसुलझी है । न हम कबीर के समय में जातिगत, कुलगत, धर्मगत, शास्त्रगत एवं सम्प्रदायगत समस्याओं से मुक्त हो सके थे और न ही उन समस्याओं से अब तक ऊबर सके हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में कबीर की प्रासंगिकता पर कोई प्रश्नवाचक चिह्न नहीं लगाया जा सकता । वे कल भी प्रासंगिक थे, आज भी प्रासंगिक हैं और आने वाले समय में भी प्रासंगिक रहेंगे ।
परंतु कुछ लोग कबीर को स्त्री विरोधी कह कर उनके महत्व को कम करने की कोशिश में संलग्न हैं । परंतु पुरुषोत्तम अग्रवाल उन्हें यह समझाने में जुटे हुए हैं कि-“कबीर के अनोखेपन को उनके समय के अनोखेपन की उपेक्षा करके नहीं समझा जा सकता । नारी से बचने का उपदेश देने और स्वयं नारी रूप धारण करने के जिस रचनात्मक अंतर्विरोध की चर्चा हम फिलहाल कर रहे हैं, वह भी कबीर का व्यक्तिगत अंतर्विरोध मात्र नहीं है। नारी निंदा का संस्कार जिस सांस्कृतिक कॉमनसेंस को व्यक्त करता है, नारी रूप धारण करने की विधि उसी कॉमनसेंस का रचनात्मक, प्रतीकात्मक प्रतिवाद करती है । संस्कार और संवेदना का यह द्वंद्व कबीर और अन्य निर्गुण संतों की कविता में अद्भुत तनाव उत्पन्न कर देता है । एक तरफ साधना के मार्ग में स्त्री को बाधक मानते हुए उसकी निंदा करते हुए नारी-निंदक कबीर; दूसरी तरफ स्त्री पुरूष के सहज आकर्षण को सहज ही स्वीकार करते हुए, उसकी विविध भावदशाओं को मार्मिक काव्य क्षणों में बदलते कवि कबीर ।… नारी निंदा और नारी रूप धारण के विरोध को लगातार जीती कबीर की कविता, ‘सभ्यता’ मात्र में नारी और उसकी सेक्सुअलिटी के बारे में बद्ध मूल ग्रंथियों को समझने का एक प्रस्थान भी बन सकती है। नारी रूप कबीर के आत्मा का, और कवित्व का, सर्वाधिक व्यंजक रूप है । साधना की विधि होने से कही अधिक वह कवि की संवेदना का हस्ताक्षर बन जाता है। अनुराग और विरह की कविता में कबीर पूरमपूर नारी ही बन जाते हैं। ऐसी कविताओं के प्रसंग में कबीर नाम का प्रयोग पुलिंग में करना तक अटपटा लगने लगता है। अधिक स्वाभाविक लगता है यह कहना कि ‘कबीर कह रही हैं…हरि मोर पीव मैं राम की बहुरिया, और न हौं देखूँ और को न तुझ देखन देऊँ ।”14 कबीर संबंधी स्त्री निंदा और उनके नारी-रूपधारण के द्वंद्व को पुरुषोत्तम अग्रवाल ने जिस तरीके से समझा और समझाने का प्रयास किया है वह कबीर संबंधी नये शोध की मांग करता है। जब लोकहित और मनुष्यता ही उनकी काव्य रचना का मूल उद्देश्य रहा तो वे इस तरह की उक्ति -“चली है कुलबोरनी गंगा नहाय/ सतुवा कराइन बहुरी भुजाइन, घूँघट ओटे भसकत जाय/ गठरी बाँधिन मोटरी बाँधिन, खसम के मूँडे दिहिन धराय/ बिछुवा पहिरिन जमुना-न्हाइनउ नौ मन मैल लिहिन चढ़ाय/ पाँच-पच्चीस के धक्का खाइन, घरहूँ की पूँजी आई गँवाय/ कहत कबीर हेत कर गुरु सों, नहीं तोर मुकुती जाइ नसाय|”15 रचे होंगे, यह कहना उनके कवित्व को कटघरे में लाकर खड़ा करने जैसा है । हम सभी जानते हैं कबीर की जो भी परंपरा रही वह मौखिक थी । यह नामुमकिन नहीं कि बाद में इस प्रकार के दोहे रचकर उनके वाणी में मिला दिया गया हो। यह सब संशय को बढ़ावा देने वाली वह उक्तियाँ हैं जिनके पुर्नविश्लेषण मात्र से कबीर की एक नयी पहलू समाज के समक्ष उपस्थित हो सकती है। जिसकी शक्त जरूरत वर्तमान समय को है।
निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है कि कबीर की प्रासंगिकता प्रत्येक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है । चाहे वह कवि के रूप में हो, भक्त के रूप में हो या क्रांतिकारी तथा समाज-सुधारक के रूप में हो । उनकी प्रासंगिकता कभी कम नहीं हो सकता क्योंकि वे सर्वकालिक हैं । जब भी कबीर का पठन-पाठन होगा उससे नवीन अर्थबोध ही उत्पन्न होंगे । इसलिए कबीर जैसे व्यक्तित्व को किसी भी चतुराई के तहत खेमेबाजी में बाँटना उनके महत्व को सीमित करना होगा ।
(संदर्भ–सूची)
- हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृष्ठ संख्या-126
- वही, पृष्ठ-संख्या-127
- वही, पृष्ठ-संख्या-129
- वही, पृष्ठ-संख्या-130
- वेव सामग्री-
- हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृष्ठ-संख्या-172
- वही, पृष्ठ-संख्या-172
- पुरुषोत्तम अग्रवाल, अकथ कहानी प्रेम की कबीर की कविता और उनका समय, पृष्ठ-संख्या-41
- वही, पृष्ठ-संख्या-48
- हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृष्ठ-संख्या-131-132
- वही, पृष्ठ-संख्या-170
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-संख्या-80
- बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृष्ठ-संख्या- 87
- पुरुषोत्तम अग्रवाल, अकथ कहानी प्रेम की कबीर की कविता और उनका समय, पृष्ठ-संख्या-57-59
- हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृष्ठ- संख्या-135