सारांश

सिनेमा केवल एक मनोरंजक साधन ही नहीं, अपितु एक जनजागृति और शिक्षा प्रदान करने का साधन भी है। विकलांग वर्ग एक ऐसा वर्ग है जो समाज का एक अभिन्न अंग होते हुए भी हाशिए पर स्थित रहा है और समाज की नकारात्मक और रूढ़िवादी सोच का शिकार रहा है। समय-समय पर कम ही सही लेकिन इस वर्ग की तरफ हिंदी सिनेमा का ध्यान जाता रहा है। विकलांगता की अभिव्यक्ति के कई रूप हिंदी सिनेमा ने प्रस्तुत किए हैं। कुछ फिल्मकारों ने विकलांगता का केवल व्यावसायिक उपयोग किया है तो कुछ ने केवल दीन-हीन, समाज द्वारा उपेक्षित, असमर्थ वर्ग के रूप में विकलांगों का चित्रांकन किया है। कुछ फिल्मकारों ने विकलांगों की अतिमानवीय क्षमताओं की अभिव्यक्ति की है, वहीं कुछ ऐसे फिल्मकार भी रहे हैं जिन्होंने विकलांगता का सकारात्मक और यथार्थ निरूपण अपनी फिल्मों में किया है। हिंदी सिनेमा की विकास यात्रा को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हिंदी सिनेमा ने विकलांगता के चित्रण में नकारात्मकता से सकारात्मकता की यात्रा की है।

भूमिका

समाज में घटित घटनाओं को दर्शाने वाले माध्यम के रूप में सिनेमा एक सशक्त और लोकप्रिय माध्यम है। यद्यपि रील लाइफ और रीयल लाइफ के मध्य एक महीन सी बारीक रेखा दृष्टिगोचर होती रहती है, फिर भी सिनेमा जनता का मनोरंजन करने, शिक्षित करने और उनमें व्यवहारगत व अभिवृत्तिपरक परिवर्तन लाने में अहम भूमिका निभाता रहा है। सिनेमा की राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँच लोगों की बहुत सारी रूढ़िवादी धारणाओं और मान्यताओं को जड़ से उखाड़ फेंकने में मददगार सिद्ध हुई है। शायद यही कारण था कि नेहरु सरकार ने अपने प्रारम्भिक समय 1948 ई. में ही फिल्मों में निवेश करके सिनेमा को प्रोत्साहन देने का कार्य किया ताकि नए स्वतंत्र भारत की विचारधारा को लोगों तक पहुँचाया जा सके जो पश्चिम के प्रभाव से मुक्त और निखालिस भारती हो। (दिशानायक जयकुमार)

विकलांगता एक ऐसा महत्वपूर्ण विषय है जिसके बारे में आज भी अधिकांश लोगों की अवधारणाएँ उपयुक्त नहीं हैं। अनुसंधानों में इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिले हैं कि अभी भी विकलांग वर्ग के एक बहुत बड़े भाग को सामाजिक रूप से हाशिए पर जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है। यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि विकलांगता को प्रायः कर्म के सिद्धान्त से जोड़कर देखा जाता रहा है। यह मान्यता रही है कि विकलांगता या तो विकलांग व्यक्ति द्वारा पूर्व जन्म में या इस जन्म में किए गए दुष्कर्मों का फल है या विकलांग व्यक्ति के माता-पिता के द्वारा किए गए दुष्कर्मों का फल है। यह धारणा केवल अशिक्षितों ही नहीं अपितु शिक्षितों में भी व्याप्त है। इस सब के अतिरिक्त भी समाज में बहुत सारी रूढ़ियाँ और वर्जनाएँ व्याप्त हैं। हालांकि बहुत से गैर-सरकारी संगठनों ने इन वर्जनाओं और रूढ़ियों को तोड़ने का प्रयास किया है लेकिन इन संगठनों की सीमाएँ सहज ही हमारे सामने आ जाती हैं।

सिनेमा एक सशक्त माध्यम हो सकती है जो लोगों को विकलांगता के विषय में जागरूक बनाने में सहायक सिद्ध हो सकती है। यदि सिनेमा में विकलांगों के चरित्र का यथार्थ और सम्यक् निरूपण किया जाए तो लोग विकलांगों के जीवन, उनकी समस्याओं, उनकी बाधाओं और उनकी क्षमताओं व संघर्षों से परिचित हो सकेंगे क्योंकि सिनेमा में दिखाए गए चरित्र जनता के दिलो-दिमाग पर छा जाते हैं। हिंदी के महान कथासम्राट प्रेमचंद जी ने भी सिनेमा के इस महत्व को स्वीकार किया था और बम्बई गए थे। प्रस्तुत शोध-पत्र में यही विश्लेषण किया गया है कि हिंदी फिल्मों में विकलांगता का चित्रण किस रूप में किया गया है और समय के साथ विकलांगता के चित्रण में क्या परिवर्तन आए हैं, विकलांगों के अधिकारों संबंधी आंदोलनों में हिंदी फिल्मों की क्या भूमिका रही है।

हिंदी सिनेमा में विकलांगता का प्रस्तुतीकरण

हिंदी सिनेमा में विकलांगता का चित्रण मुख्यतः दो प्रकार से हुआ है। एक तो फिल्मकारों ने अपनी फिल्म के कथानक को रोचक, विविधतापूर्ण और नाटकीय बनाने के लिए विकलांगता का चित्रण हास्य-अंतराल के रूप में किया है। ऐसे फिल्मकारों व फिल्मों का विकलांगों के अधिकारों या विकलांग-चेतना से नगण्य सरोकार रहा है। दूसरा, कुछ फिल्मकारों ने ऐसा कथानक दर्शाया है जिसमें विकलांगों के प्रति समाज की क्रूरता और संवेदनहीनता को दिखाया गया है। डॉ. मोहिपात्र ने कहा है कि “हिंदी फिल्मों में विकलांगों का चित्रण दो अतिवादी छोरों के बीच स्थित रहा है जिसमें एक छोर पर दया, उपहास, कार्टूनीकरण, सहानुभूति और अतिमानवीय गुणों से युक्त नायक का चित्रण रहा है जबकि भेदभाव, समझौतापरकता, भावों का उतार-चढ़ाव और मानव की आत्मिक आकांक्षाएँ दूसरे छोर पर हैं। आगे इसी बात पर चर्चा की गई है कि बॉलीवुड में उपर्युक्त ढंग से विकलांगता का चित्रण किस प्रकार किया गया है।

विकलांगता एक दण्ड के रूप में

भारत में बहुत समय से विकलांगता को एक दंड समझा जाता रहा है और हिंदी फिल्मों में भी विकलांगता का यही प्रस्तुतीकरण सर्वाधिक प्रचलन में रहा है। हिंदी सिनेमा की शुरुआती फिल्मों में 1936 ई. में आई बॉम्बे टॉकिज की फिल्म ‘जीवन नैया’ में विकलांगता का इसी रूप में चित्रण हुआ है। फिल्म में फिल्म के लेखक निरंजन पाल नें हिंदू रूढ़िवादियों की सोच से उत्पन्न होने वाली समस्या को उठाया है। फिल्म में एक व्यक्ति अपनी पत्नी को केवल इसलिए त्याग देता है कि वह नृत्य करने वालों के परिवार से थी। फिल्म में दिखाया गया है कि उस व्यक्ति को उसके किए का दंड तब मिलता है जब वह एक दुर्घटना में अपनी आँखें गवां देता है और नाटकीय परिवर्तन तब आता है जब उसे पता लगता है कि जिस महिला ने उसकी सेवा करके उसे फिर से स्वस्थ और प्रसन्न कर दिया है, वह वही महिला है जिसे उसने सामाजिक वर्जनाओं के कारण त्याग दिया था। 1979 ई. में आई फिल्म ‘नेत्रीक्कन’ में भी यही दर्शाया गया है कि रजनीकांत को उसकी कामुकता और बुरे कार्यों का दुष्फल उसकी विकलांगता के रूप में मिलता है और फिल्म में विकलांगता को विकामित होने से भी जोड़ा गया है। 1972 की फिल्म ‘कशिश’ भी एक ऐसा उदाहरण है जिसमें खल पात्र असरानी अपनी मूक-बधिर बहन और उसके पति को बहुत प्रताड़ना देता है और अंत में परिणामस्वरूप स्वयं भी विकलांग हो जाता है। वह स्वयं भी अपनी विकलांगता को अपने दुष्कर्मों का फल मानता है। 1981 ई. की फिल्म ‘धनवान’ में राजेश खन्ना द्वारा अभिनीत भूमिका वाला पात्र बहुत धनवान, क्रोधी, अहंकारी और निरीश्वरवादी है। इस सब का दंड उसे अंधेपन के रूप में मिलता है। वह धन के बलबूते आँखें प्राप्त नहीं कर पाता। उसके अंधेपन का इलाज तभी हो पाता है जब वह ईश्वर के सामने अपने कर्मों और व्यवहार का पश्चाताप करता है और एक दयालु ह्रदय व्यक्ति अपनी आँखें दान करता है।

इसके अतिरिक्त हिंदी फिल्मों में विकलांगता का चित्रण मौत के समान और मौत से बदतर भी दिखाया गया है। उदाहरण के लिए, 1971 ई. की फिल्म ‘महबूब की मेहँदी’ में फिल्म का प्रमुख पात्र प्रदीप कुमार फिल्म के खल पात्र इफ्तिखार को उसके किए का दंड देने के लिए उसे कत्ल करना चाहता है लेकिन जब वह देखता है कि वह तो विकलांगता रूपी दंड पहले ही प्राप्त कर चुका है तो वह उसे कत्ल करने का विचार यह सोचकर त्याग देता है कि उसे इससे बड़ा दंड क्या मिलेगा। 2014 ई. की फिल्म ‘हैदर’ में भी ऐसे ही भावों को दर्शाया गया है। फिल्म में शाहिद कपूर अपने पिता के हत्यारे से बदला लेना चाहता है लेकिन दो बातों के कारण अपने निर्णय को बदल लेता है, एक तो यह कि उसकी माँ ने कहा कि बदला बदले को ही जन्म देता है और दूसरा यह कि उसके पिता का हत्यारा विकलांग हो चुका है और अपने दुष्कर्मों का मृत्यु से भी बड़ा दंड भुगत रहा है। 1975 ई. में आई फिल्म ‘शोले’ में विकलांगता का दंड के रूप में चित्रण संभवतः सर्वाधिक सशक्त रूप में हुआ है। पहले डाकू गब्बर सिंह ठाकुर के हाथ काटकर उसे दंड देता है और बाद में ठाकुर गब्बर सिंह के साथ द्वन्द्व युद्ध में यह सिद्ध करता है कि हाथ कटे हुए होने के बावजूद भी ठाकुर का मुकाबला गब्बर सिंह नहीं कर पाता और ठाकुर दंडस्वरूप गब्बर की गोली से हत्या नहीं करता बल्कि अपने जूतों से गब्बर के हाथ कुचलकर उसे विकलांग बना देता है। इसका यही कारण था कि ठाकुर के अनुसार गोली इत्यादि से हत्या गब्बर के लिए कम सज़ा थी जबकि विकलांग बना देना उसके लिए सही दंड था।

विकलांगता हास्य अंतराल के रूप में

प्रायः हिंदी फिल्मों में यह परंपरा रही है कि हल्के-फुल्के मनोरंजन वाली और एक्शन फिल्मों में गंभीरता कम करने और हास्य का पुट लाने के लिए विकलांगता का चित्रण किया जाता है। सन् 2006 में आई फिल्मों ‘टॉमडिक एंड हैरी’ और ‘प्यारे मोहन’ में विकलांग पात्रों को मुख्य पात्र तो बनाया गया है लेकिन उनके द्वारा एक-दूसरे से बात करने के ढंग और उनकी शारीरिक अक्षमता को उपहास और मनोरंजन का माध्यम बनाया गया है। फिल्म ‘गोलमाल’ में तुषार कपूर की वाणी संबंधी विकलांगता और परेश रावल और उनकी पत्नी की दृष्टिबाधिता, फिल्म ‘मुझसे शादी करोगी’ में कादर खान की प्रतिदिन की अलग-अलग विकलांगता  और फिल्म ‘जुदाई’ में उपासना सिंह की वाणी संबंधी विकलांगता ऐसे अन्य उदाहरण हैं जिनमें विकलांगता को हास्य और मनोरंजन का ज़रिया बनाया गया है। ऐसी फिल्मों का उद्देश्य लोगों में विकलांगता के प्रति जागरुकता उत्पन्न करना नहीं, अपितु विकलांगता को मनोरंजन का साधन बनाकर अपने व्यावसायिक हितों की पूर्ति करना है। विकलांगता के इस प्रकार के चित्रण ने विकलांगों के विषय में प्रचलित सामाजिक रूढ़ियों को बढ़ाया ही है। बहुत लंबे समय से मानसिक अक्षमताओं से युक्त लोगों का चित्रण भी इसी प्रकार से हास्य अन्तराल के रूप में हिंदी फिल्मों में किया जाता रहा है। हालांकि हिंदी फिल्मों ने अपनी विकास यात्रा में अनेक मुद्दों को उठाया है लेकिन यह बड़ी विचित्र बात है कि मानसिक रूप से अक्षम लोगों के चित्रण की ओर हिंदी फिल्मों में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ है। आंद्रे के अनुसार “फिल्मों की गलत सूचनाएँ फैलाने की क्षमता को मद्देनजर रखते हुए, फिल्मकारों को कोई भी ऐसी प्रभावात्मक रचना करते हुए मूल्यों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए जो विकलांगता की अवधारणा के लिए प्रतिकूल सिद्ध हो सकती हैं।“ प्रोफेसर दिनेश भुगरा कहते हैं “यदि हॉलीवुड से तुलना करें तो बॉलीवुड मानसिक व्याधियों के चित्रण में बहुत कम जागरूक है। जनसंचार के साधनों की शक्ति को कभी भी कम नहीं आंकना चाहिए। फिल्मों का प्रयोग मनोवैज्ञानिक विकारों से जुड़ी हुई गलत सामाजिक धारणाओं को मिटाने के लिए किया जाना चाहिए जबकि वर्तमान में इससे विपरीत कार्य हो रहा है।”

विकलांगता का सुपर हीरो के रूप में चित्रण

पिछले कुछ समय से हिंदी फिल्म जगत में ऐसी फिल्मों का चलन हुआ है जिनमें विकलांगों को सुपरहीरो की तरह प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के लिए 1998 में आई फिल्म ‘दुश्मन’ में संजय दत्त एक दृष्टिबाधित की भूमिका निभा रहे हैं। फिल्म में जब आशुतोष राणा काजोल का बलात्कार करने की कोशिश करता है तो संजय दत्त अपनी छठी इन्द्रिय का प्रयोग करते हुए उसकी स्थिति और स्थान-परिवर्तन का अनुमान करता हुआ उससे लड़ता है और उसे मात दे देता है। इसी तरह से 2002 में आई फिल्म ‘आँखें’ में अक्षय कुमार, परेश रावल और अर्जुन रामपाल को दृष्टिबाधित होते हुए भी बैंक में डाका डालते हुए दिखाया गया है। इसी तरह 2017 की फिल्म ‘काबिल’ में रितिक रोशन जो कि एक दृष्टिबाधित व्यक्ति है, अपनी अद्भुत क्षमताओं से अपनी प्रेमिका के बलात्कारियों और हत्यारों से बदला लेता है। इसी प्रकार 2018 की फिल्म ‘अन्धाधुन’ में आयुष्मान खुराना को दृष्टिबाधित होते हुए भी कार चलाते हुए दिखाया गया है। जहाँ एक तरफ ये फिल्में विकलांगों को सशक्त भूमिका में प्रस्तुत करके सकारात्मक चित्रण करती हैं, वहीं अतिरंजित प्रस्तुतीकरण से यथार्थ से दूर भी हो जाती हैं। प्रत्येक विकलांग सुपर हीरो नहीं हो सकता। ऐसी फिल्मों का लोगों की मनोवृत्ति पर एक नकारात्मक प्रभाव यह हो सकता है कि वे सभी विकलांगों से ऐसी अद्भुत क्षमताओं की अपेक्षा करने लगें। नायर के अनुसार “बॉलीवुड से दो-एक प्रचलनों को समाप्त करने की आवश्यकता है ……..कृपया, विकलांगों में एक अतिरिक्त इन्द्रिय मत बढ़ाइये, न ही उनकी क्षमताओं को अतिमानवीय स्तर तक बढ़ाइये क्योंकि वे एक विशेष शारीरिक क्षमता से रहित हैं।“

विकलांगता दया और पराश्रय की वस्तु के रूप में

हिंदी फिल्मों में विकलांगों का दया के पात्र और पराश्रित व्यक्ति के रूप में चित्रण किया जाता रहा है। इससे विकलांगों के स्वाश्रित बनने के आंदोलन को गहरा धक्का लगता है। उदाहरण के लिए, 1964 की फिल्म ‘दोस्ती’ में रामू और मोहन दो प्रमुख पात्र हैं। दोनों ही विकलांग हैं। बहुत दिनों तक दोनों की आधारभूत आवश्यकताएँ दान में मिले धन से पूरी होती हैं। फिल्म में जब रामू किसी व्यक्ति से काम मांगता है तो विकलांग होने के कारण ही उसे यह सुनने को मिलता है कि तू क्या काम करेगा अर्थात् विकलांग क्या काम करने के लायक है। स्कूल में पढ़ते समय रामू को उसकी कक्षा के अन्य विद्यार्थी भी इसी तरह की बातें कह-कहकर प्रताड़ित करते हैं। मोहन को तो फिल्म में अंत तक स्वाश्रित नहीं दिखाया गया है। 1996 की फिल्म ‘खामोशी’ में भी नाना पाटेकर और सीमा बिस्वास को एक मूक-बधिर पति-पत्नी के रूप में दिखाया गया है जो कि पूरी तरह से अपनी बेटी मनीषा कोइराला पर आश्रित हैं। जब मनीषा कोइराला को सलमान खान से प्यार हो जाता है और वह शादी करना चाहते हैं तो दोनों माता-पिता स्वयं को बहुत असहाय अनुभव करते हैं और उन्हें लगता है कि बेटी के सहारे के बिना वे दोनों जीवित नहीं रह पाएँगे। 1972 ई. की फिल्म ‘कोशिश’ विकलांगता के शिक्षाप्रद और सकारात्मक चित्रण में मील का पत्थर साबित हुई। फिल्म में नायक और नायिका दोनों मूक-बधिर हैं। फिल्म में मूक-बधिरों के द्वारा प्रयोग की जाने वाली संकेत भाषा का प्रयोग दिखाया गया है। दर्शक फिल्म देखकर परिचित हो जाते हैं कि मूक-बधिर भी संकेत भाषा का प्रयोग करके संवाद कर सकते हैं और व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में प्रतिभागिता कर सकते हैं। हालांकि दोनों को सामाजिक अलगाव और रूढ़ियों से सामना करना पड़ता है लेकिन दोनों फिर भी एक सामान्य व्यक्ति की तरह स्वाश्रित होकर अपना परिवार चलाते हैं। फिल्म के अंतिम भाग में संजीव कुमार को उनकी कंपनी के बॉस अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित करते हैं और अपनी बेटी की शादी संजीव कुमार के बेटे से करने का प्रस्ताव रखते हैं। पहले तो संजीव कुमार थोड़े हड़बड़ा जाते हैं कि दोनों परिवारों के आर्थिक स्तर में बहुत अन्तर है। लेकिन थोड़ी ही देर में लड़की का पिता हिचकते हुए अपनी बेटी के मूक-बधिर होने की बात बताते हैं। तभी कैमरा लड़की के मुख और कानों पर फोकस हो जाता है। लड़का एक मूक-बधिर लड़की से विवाह करने से मना कर देता है जबकि उसके स्वयं के माता और पिता दोनों मूक-बधिर हैं। एक विडंबना यह भी है कि विकलांग के विवाह के समय स्टेटस नहीं देखा जाता, कम स्टेटस वाला व्यक्ति भी योग्य मान लिया जाता है।

विकलांगता का यथार्थ चित्रण

जहाँ कुछ फिल्मों में विकलांग वर्ग का असहाय और कमजोर वर्ग के रूप में चित्रण हुआ है और कुछ फिल्मों में विकलांगों की क्षमता का अतिरंजनापूर्ण चित्रण हुआ है, वहीं कुछ फिल्में ऐसी भी हैं जिनमें विकलांगों की क्षमताओं और बाधाओं के यथार्थ चित्रण ने विकलांगता संबंधी सही समझ प्रसारित करने वाले जनजागृति आंदोलनों को गति प्रदान की है। 1980 ई. में आई फिल्म ‘स्पर्श’ एक ऐसी ही फिल्म है। इसमें नसीरूद्दीन शाह ने एक नेत्रहीन व्यक्ति की भूमिका निभाई है जिसका नाम अनिरुद्ध है। वह एक अंध विद्यालय का प्राचार्य है। प्राचार्य के तौर पर उसे अंध विद्यालय का बड़ी कुशलता से संचालन करते हुए दिखाया गया है। वह अपने रोजमर्रा के कार्य जैसे भोजन बनाना, सफाई करना इत्यादि भी स्वयं ही करता है। वह फिल्म में एक जगह कहता भी है कि हमें दया और अनपेक्षित सहायता की आवश्यकता नहीं है अपितु हमारी सहायता तब ही की जाए जब हमें आवश्यकता हो। वह किसी ओर से वे काम करवाना बिल्कुल पसंद नहीं करते जिन्हें वे स्वयं करने में सक्षम हैं। फिल्म उस झुंझलाहट को भी अभिव्यक्त करती है जो बार-बार विकलांगों की क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाने से उत्पन्न होती है और जिसका सामना प्रायः विकलांग लोग करने लगते हैं यह फिल्म विकलांगता और संबंधों के पहलू को भी उजागर करती है। फिल्म दर्शाती है कि विकलांग भी रिश्तों में कृपा या दया नहीं चाहते अपितु प्रेम व संवेदना चाहते हैं। फिल्म में उस समय की एक ओर वास्तविकता को अभिव्यक्त किया गया है कि नेत्रहीनों के पास पढ़ने के लिए ब्रेल की सुगम्य पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं जो कि उस समय का एक कटु यथार्थ था। 1972 ईं में गुलजार द्वारा निर्देशित फिल्म ‘कोशिश’ में भी दोनों मूक-बधिर नायक और नायिका को आत्म-निर्भर दिखाया गया है। वे किसी भी परिस्थिति के सामने हार नहीं मानते बल्कि विषम परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते हैं। फिल्म में सभी स्थितियों का केवल आदर्श चित्रण नहीं है बल्कि समाज के द्वारा विकलांगों के मार्ग में लगातार उत्पन्न की जाने वाली बाधाओं की भी अभिव्यक्ति हुई है। शिशु के रोने की आवाज न सुन पाने के कारण उनके शिशु की मृत्यु हो जाती है। नायिका का भाई उनके घर से पैसे और वस्तुएँ इत्यादि चुरा ले जाता है। फिल्म में अधिकतर लोगों को नायक-नायिका की विकलांगता के प्रति संवेदनशील दिखाया गया है जिसे देखकर दर्शक सोचता है कि क्या यह वास्तविक स्थिति है। लेकिन फिर भी इसका प्रभाव सकारात्मक ही है। और फिल्म मूक-बधिरों के यथार्थ जीवन को प्रस्तुत करती है। सन् 2007 में आमिर खान द्वारा निर्देशित फिल्म ‘तारे जमीं पर’ में एक दस वर्ष के बच्चे की कहानी है जो डिस्लेक्सिया से पीड़ित है। फिल्म ने न केवल अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त की बल्कि विकलांगों से जुड़े समूहों के द्वारा पूरे विश्व में सराही गई। फिल्म बौद्धिक विकलांगता का सामना कर रहे लोगों की समस्याओं को अभिव्यक्ति प्रदान करती है और सहानुभूति के साथ-साथ संवेदना और जागृति भी उत्पन्न करती है। परिणामस्वरूप, कई शैक्षिक संस्थाओं और प्रशासनिक इकाईयों ने ऐसे बच्चों और लोगों को मुख्यधारा में शामिल करने का प्रयास किया। फिल्म के रिलीज होने के दस दिन बाद ही 31 दिसंबर को केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने इस प्रकार की विकलांगता से युक्त विद्यार्थियों को परीक्षा में क्षतिपूर्ति के लिए अतिरिक्त समय प्रदान करने का प्रावधान कर दिया। मुम्बई की एक क्षेत्रीय इकाई जो लगभग 1188 विद्यालयों का संचालन करती है, ने भी ऑटिज्म से युक्त बच्चों के लिए 12 कक्षा-कक्ष बना दिए। इस फिल्म का एक यह भी प्रभाव हुआ कि लोगों में इस प्रकार की विकलांगता के विषय में उल्लेखनीय जागरुकता आई। एक सामाजिक कार्यकर्ता के अनुसार फिल्म के बाद अनुदान देने वालों की संख्या भी बढ़ गई और सरकारी अधिकारियों के व्यवहार में भी परिवर्तन देखा गया। फिल्म के बाद विकलांगों की सहायता के लिए फैशन शो के माध्यम से धन जुटाने का प्रचलन भी बढ़ गया। 2005 ईं में आई फिल्म ‘मैं ऐसा ही हूँ’ एक ऐसे पिता के जीवन की कहानी है जो मानसिक रूप से कुछ अशक्त है। वह अकेले ही अपनी बेटी की परवरिश करता है। इस व्यक्ति के जीवन में तब तक सब कुछ सही चलता रहता है जब तक रुचा वैद्य के नाना अमेरिका से वापस नहीं आते और अजय देवगन को गैर-जिम्मेदार ठहराकर रुचा वैद्य को अपने साथ ले जाने की बात नहीं करते। इसके बाद एक कानूनी लढ़ाई लड़ी जाती है जिसमें सुष्मिता सेन न केवल अपने केस की वकालत करती हैं बल्कि समाज की विकलांगता के प्रति कई अवधारणाओं पर भी प्रश्न उठाती हैं। फिल्म में विकलांगों के लिए प्रयोग की जाने वाली शब्दावली जैसे पागल, retarted आदि पर भी विचार किया गया है। वास्तव में हिंदी फिल्मों में ऐसे विषयों पर विचार किया जाना बहुत नई घटना थी। फिल्म में विकलांगों के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की भी चर्चा की गई है और बाद में उन्हें भारत के विकलांगता संबंधी कानूनों में सम्मिलित भी किया गया। 2014ई. की फिल्म ‘मारग्रीटो विद ए स्ट्रॉ’ भी एक ऐसी ही फिल्म है जिसमें एक लड़की जो सेरेब्रल-पालसी से युक्त है, अपनी यौनिकता की पहचान करती है। विकलांगों की यौनिकता का विषय भी इस फिल्म में एक नए विषय के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। इसी प्रकार 2018 ई. की फिल्म ‘हिचकी’ में भी वाक्-विकार से युक्त महिला के संघर्षों की यथार्थ व सशक्त अभिव्यक्ति हुई है। ऐसी फिल्मों का उद्देश्य लोगों में जागरुकता लाना होता है। ये फिल्में दूसरों के विकलांगों के विषय में नजरिए की अपेक्षा विकलांग व्यक्तियों के नजरिए को सामने रखती हैं

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हिंदी फिल्मों में विकलांगता के चित्रण में समय के साथ सकारात्मक परिवर्तन आया है। अब हिंदी फिल्मों ने विकलांगता के यथार्थ चित्रण की ओर उत्साह प्रदर्शित किया है। इस परिवर्तन की झांकी सन् 2005 में मिलती है जब चेन्नई के गैर-सरकारी संगठन ने देश में पहला अंतर्राष्ट्रीय विकलांगता फिल्म महोत्सव आयोजित किया। यह महोत्सव अपने आप में अद्वितीय था और इसमें विश्व भर की प्रेरणादायक और उत्कृष्ट फिल्में प्रदर्शित की गई। विकलांगता के बारे में जागरूकता फैलाना और विकलांगों के बारे में समाज में फैली रूढ़ियों को मिटाना इस महोत्सव का उद्देश्य था। तत्पश्चात् यह महोत्सव प्रतिवर्ष आयोजित किया जाने लगा। लेकिन अभी हिंदी फिल्मों में विकलांगता के चित्रण में एक अभाव दिखाई देता है और वह यह है कि वास्तविक जीवन में नायक बने विकलांगों की कहानी पर फिल्में नहीं बनी हैं। ऐसी फिल्में लोगों की विकलांगता के विषय में सोच में परिवर्तन लाने में बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती हैं। यदि 2005 ई. की फिल्म ‘ब्लैक’ को इस श्रेणी की फिल्म माना जा सकता है जिसमें हेलेन केलर के जीवन को आधार बनाया गया है।

संदर्भ

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विशाल कुमार
सहायक प्रोफेसर, हिंदी
राजकीय स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय, रोहतक, हरियाणा