शताब्दियों की गुलामी से मुक्त होकर स्वतत्रंता के पचास वर्ष पूर्ण होने के पश्चात् जब हम हिन्दी की स्थिति पर विचार-चिन्तन करते हैं तब ज्ञात होता है कि अंग्रेजी के बढ़ते प्रकोप ने हिन्दुस्तान में ही हिन्दी पर अपना वर्चस्व स्थापित किया हुआ है। हिन्दी को बढ़ावा देने का दम भरने वाले तथाकथित लोगों ने सिद्धांत और व्यवहार के बीच की खाई को पाटने की अपेक्षा उसे और अधिक प्रसार दिया है। यद्यपि यह सत्य है कि शिक्षित-प्रशिक्षित विद्यार्थी एवं अध्येता वर्ग ने हिन्दी के प्रयोग को व्यवहार के सीमित दायरे से निकालकर व्यवसाय तथा प्रशासन से जोड़ने का सार्थक प्रयास किया है तथापि उनके मस्तिष्क एवं हृदय के किसी एक गुप्त लघु कोने में यह भाव पल्लवित हो रहा है कि अंग्रेजी के अभाव में उनका जीवनयापन असंभव है। यह कटु सत्य उनके हृदय में एक हीन भाव को जन्म देता है जिसके परिणामस्वरूप हिन्दी को प्रगति की ओर ले जाने वाला उनका दृढ़ संकल्प कुछ शिथिल पड़ जाता है तथा इसका भयावह परिणाम अंग्रेजी के बढ़ते प्रयोग के रूप में जन-जन के समक्ष प्रस्तुत होता है। हालांकि हिन्दी को राष्ट्र के सर्वोपरि भाषायी सिंहासन पर आरूढ़ करने का दायित्व मात्र कुछ लोगों अथवा किन्हीं विशेष संस्थाओं का ही नहीं है तथापि अपेक्षा यही की जाती रही है कि हिन्दी प्रेमी संस्थाएं ही इस दायित्व को अपने कंधों पर वहन करें। जिस दिन अथवा यह कहें कि जिस क्षण इस प्रकार की मानसिकता विलुप्त हो जाएगी उसी क्षण हिन्दी अंग्रेजी के पैने पंजों के चंगुल से बाहर निकलकर अपनी स्वतंत्र एवं उन्मुक्त सत्ता स्थापित कर लेगी।
सन् 1947 तक ब्रिटिश शासनकाल में प्रशासन के सभी कार्यों में अंग्रेजी का प्रयोग किया जाता था। उस दौरान भारत राष्ट्र की राजभाषा अंग्रेजी थी। स्वतंत्रता के पश्चात् 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान के अन्तर्गत हिन्दी को राजभाषा का गौरव प्राप्त हुआ। किन्तु वर्षों की गुलामी ने भारत माता के सपूतों के मस्तिष्क को भी इतना गुलाम बना दिया था कि वे सहसा अंग्रेजी को त्यागकर हिन्दी को सहर्ष न अपना सके। संभवतः इसीलिए राजभाषा के प्रकार्य के निर्वाह में हिन्दी भाषा की तैयारी को देखते हुए यह भी स्वीकार किया गया कि सन् 1965 तक अंग्रेजी पूर्ववत् राजभाषा के रूप में कार्य करती रहेगी। इसी समय सीमा में 7 जून, 1955 में राजभाषा आयोग का गठन किया गया, विविध राजभाषा अधिनियम प्रस्तुत किए गए तथा विभिन्न संसदीय समितियाँ बनीं, जिन्होंने यथासंभव प्रयास किया कि भारत राष्ट्र के समस्त प्रशासनिक कार्य हिन्दी माध्यम में ही सम्पन्न हों। यह तो सत्य है कि भारत में अंग्रेजी का प्रचलन हिन्दी की अपेक्षा अधिक है किन्तु इस राष्ट्र की एक अन्य महत्त्वपूर्ण भाषायी समस्या यह भी है कि यहाँ प्रत्येक प्रदेश की अपनी एक स्वतंत्र भाषा भी है जिसका प्रयोग उस प्रदेश के निवासी अधिक मनोयोग के साथ करते हैं। ऐसे में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्रदान करने में अनेक बाधाएँ उभर कर सामने आईं, जैसे किन्हीं विशिष्ट प्रदेशों के निवासी अपनी प्रादेशिक भाषा के साथ अंग्रेजी का ज्ञान तो रखते थे किन्तु हिन्दी समझने में वे पूर्णतः असमर्थ थे। राजभाषा आयोग एवं संसदीय समितियों ने इन समस्याओं से उभरने का भी मार्ग प्रशस्त किया जिसके अनुसार राजभाषा के समुचित और प्रणालीबद्ध प्रसार के लिए देश को तीन क्षेत्रों-‘क’, ‘ख’ तथा ‘ग’ में बांटा गया। राजभाषा आयोग ने यह नियम पारित किया कि केन्द्रीय सरकार ‘क’ तथा ‘ख’ क्षेत्र के राज्यों/संघ शासित क्षेत्रों से सामान्यतः पत्राचार हिन्दी में करेगी। यदि कोई पत्र अंग्रेजी में भेजा गया तो उसका हिन्दी अनुवाद भी भेजना आवश्यक होगा। ‘ग’ क्षेत्र के राज्यों/संघ शासित क्षेत्रों/व्यक्तियों से पत्राचार अंग्रेजी में होगा। राजभाषा अधिनियम के अनुसार संसद में प्रस्तुत प्रशासनिक तथा अन्य प्रतिवेदन और राजकीय कागज पत्र, साधारण आदेश, नियम, अधिसूचनाएँ, संविदाएँ, लाइसेंस, परमिट, नोटिस, प्रेस विज्ञप्तियाँ, टेंडर फार्म आदि अन्य दस्तावेजों में हिन्दी और अंग्रेजी दोनों का प्रयोग जरूरी है।
हिन्दी को समस्त प्रदेशों में लोकप्रिय बनाने के लिए उस समय यह आवश्यक था कि हिन्दी के साथ अंग्रेजी को भी चलते रहने दिया जाए। किन्तु पूर्ण रूप से हिन्दी को व्यवहार में लाने तथा अंग्रेजी की गुलामी से उन्मुक्त होने के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक भारतवासी को अपनी राष्ट्रीय भाषा का ज्ञान प्राप्त हो। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिक्षा मंत्रालय ने स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं को अहिन्दीभाषी राज्यों में हिन्दी शिक्षण तथा हिन्दी टंकन और आशुलिपि की कक्षाएँ चलाने, हिन्दी-प्रचारकों के प्रशिक्षण और नियुक्ति, हिन्दी पुस्तकालयों और वाचनालयों की स्थापना, द्विभाषिक को तैयार करने और अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी-माध्यम वाले स्कूलों के खर्च की कमी को पूरा करने के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करनी आरम्भ की। मार्च, 1960 में शिक्षा मंत्रालय के अधीनस्थ कार्यालय के रूप में केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की स्थापना की गई। निदेशालय ने अहिन्दी भाषियों और विदेशियों के लिए हिन्दी पाठ्यमालाएँ तैयार कीं तथा शब्दकोशों, द्विभाषिक शब्दकोशों और हिन्दी विश्वकोशों का संकलन भी किया। निदेशालय के विविध प्रयासों के परिणामस्वरूप देवनागरी लिपि को मानक रूप प्राप्त हुआ तथा हिन्दी टाइपराइटर और हिन्दी टेलिप्रिंटर के कुंजी-पटल को भी अन्तिम रूप दिया जा सका।
हिन्दी का प्रशासन में अधिकाधिक प्रयोग करने में एक कठिनाई जो उभर कर सामने आ रही थी, वह थी-समुचित शब्दावली का अभाव। इस अभाव की पूर्ति के लिए अक्टूबर 1961 में शब्दावली आयोग अस्तित्व में आया। इस आयोग ने वैज्ञानिक तथा मानवीय विषयों के तीन लाख शब्दों को अन्तिम रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसी दिशा में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, साहित्य अकादमी तथा केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के प्रयास भी सराहनीय सिद्ध हुए। किसी भी कार्य को सिद्धि की दिशा तक पहुंचाने में सिद्धांत का व्यवहारिक रूप में प्रयोग होना परमावश्यक है। ऊपर वर्णित विभिन्न आयोगों एवं संस्थाओं ने प्रशासनिक हिन्दी की रूपरेखा कर दी तथा राष्ट्रपति के विविध आदेशों ने उन्हें व्यवहार में परिणत करने का कार्य किया। प्रशासन से संबंधी प्रतियोगिताओं के प्रश्न-पत्र हिन्दी माध्यम में भी आरम्भ किए गए तथा हिन्दी माध्यम से उत्तीर्ण परीक्षार्थियों की भर्ती के बाद विभागीय हिन्दी परीक्षा में बैठने और उसमें उत्तीर्ण होने की शर्त से छूट दी गई। राजभाषा आयोग ने उच्चतम न्यायालय को अपना समस्त कार्य हिन्दी में करने की सिफारिश की तथा उच्च न्यायालय के निर्णयों, आज्ञप्तियों और आदेशों की भाषा के लिए हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषा में वैकल्पिक स्थिति को स्वीकृति प्रदान की। विधि क्षेत्र में हिन्दी में काम करने के लिए भी आवश्यक कदम उठाए गए-इस क्षेत्र में विधि शब्दावली की तैयारी के साथ अनुवाद संबंधी कार्य को बढ़ावा देने का प्रयास किया गया। राजभाषा नियमों के अन्तर्गत कर्मचारी अपनी टिप्पणियाँ केवल हिन्दी में ही लिख सकता है। हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान रखने वाला कर्मचारी, विधिक या तकनीकी दस्तावेजों को छोड़कर अन्य हिन्दी दस्तावेजों का अंग्रेजी अनुवाद नहीं मांग सकता। मैट्रिक, इसके बराबर या उच्च स्तरीय परीक्षा में हिन्दी एक विषय रहने पर या हिन्दी शिक्षण योजना की प्राज्ञ परीक्षा पास करने पर या हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान होने की घोषणा करने पर यह माना जाएगा कि कर्मचारी को हिन्दी में प्रवीणता प्राप्त है। संविधान में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच तथा किसी राज्य और संघ के बीच में पत्र-व्यवहार के लिए संघ की राजभाषा का ही प्रयोग होगा।
कहने का अभिप्राय यह है कि प्रशासन में अधिकाधिक हिन्दी का प्रयोग करने की दिशा में अनेक प्रयास किए गए हैं। लेकिन इन अथक प्रयासों के पश्चात् भी स्थिति पूर्ववत् ही है। आज भी हिन्दी अंग्रेजी का अवलम्ब लेकर ही खड़ी हुई है। इसका मुख्य कारण जो स्पष्ट रूप से दृष्टव्य है, वह है-हिन्दी का प्रयोग करने में हीन भावना की अनुभूति। भारतीय होकर भी हम अपनी मातृभाषा के प्रति हीन दृष्टिकोण को अपनाए हुए हैं। इसी तुच्छ अनुभूति के परिहार में हिन्दी का विकास संभव है। अतः आइए, स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के उपलक्ष्य में हम यह दृढ़ संकल्प करें कि हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा है और हम इसी माध्यम में अपने समस्त भावों एवं विचारों को अभिव्यक्त करेंगे।
डॉ. ममता सिंगला
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
भगिनी निवेदिता कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय