प्रारूप:- सेवा सदन से पूर्व की प्रायः सभी रचनाएँ रूमानी जासूसी और कल्पना लोक में विचरण करनेवाली कथा पर आधारित थी। समाज के वास्तविक स्वरूप को तो देखने का शायद ही किसी ने प्रयास किया हो। यह पहला उपन्यास है जिसने समाज में लगी जंग को निडर होकर पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया है। दहेज-प्रथा, अनमेल विवाह, वेश्या समस्या और शहरी दिखावे को लेकर प्रेमचन्द ने कृष्णचन्द या सुमन के परिवार को नष्ट होते हुए दिखाया है। उन्होंने स्पष्ट रूप से यह घोषित कर दिया है कि समाज का ढांचा ऊपर से जितना आकर्षक है और लुभावना हैं वह अन्दर से उतना ही खोखला है, जिसके कारण मानवता सिसकियां भर ही है। आज मान मर्यादा की रक्षा के लिए उन सभी जायज और नाजायज साधनों को सहर्ष अपनाया जा रहा है जो मानवता पर पूर्ण कलंक है।
जो व्यक्ति जितना अधिक धन संचन कर सकता है वह उतना ही सम्मानीय समझा जाता है। उसके बच्चों के विवाह सम्बन्ध भी अच्छे और कुलीत परिवार से होते हैं और लडकी की शादी के लिए तो बहुत से घराने उसकी दया दृष्टि पर नजर गढाये रहते हैं। दरोगा कृष्णचंद्र का जीवन इसके बिल्कुल विपरीत था। दरोगा होते हुए भी जिन्दगी भर ईमानदारी बरती, परिणामतः उन्हें अपने अंतिम समय में पछताना पडा। सेवा सदन का आरम्भ इसी तथ्य को लेकर हुआ है। “पश्चाताप के कडवे फल कभी न कभी सभी को चाखने पडते है, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दरोगा कृष्णचंद अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे।“1 इस कथन से प्रेमचंद ने समाज के उस रूप का पर्दाफाश किया है जिसमें चाटुकारिता और उत्कोच आवश्यक नियम बन गये है, सफलता की कुंजियाँ बन गई हैं तथा ईमानदारी विफल और दारूण जीवन की भूमिका मात्र रह गई हैं।
समाज के वास्तविक स्वरूप को तो देखने का शायद ही किसी ने प्रयास किया हो। दहेज प्रथा, अनमेल विवाह, वेश्या समस्या और शहरी दिखावे को लेकर प्रेमचंद ने कृष्णचंद या सुमन के परिवार को नष्ट होते हुए दिखाया है। तथ्य यह है कि इस समस्याओं के कारण न जाने कितने निरीहा परिवारों का नाश हुआ है और हो रहा है। इसी प्रकार सुमन ही नहीं सैकडों ऐसी बालाएँ हैं जो दहेज की कमी के कारण अनमेल विवाह की शिकार हो रही हैं। समाज के ठेकेदार अपनी काम पिपासा की शांती के लिए सत्पथ पर चलनेवाली इन लज्जाशील बालाओं का जबरन पर्दा उठा रहें हैं। किंतु बंधन की ओर में सब छिपा लेते हैं और समाज उन्हें फिर भी आदर देता है, उनके पथ में आंखें बिछाये रहता है।
प्रेमचंद ने इन तथ्यों को बडी ही गहराई से देखा है। इसीलिए उनके सभी चित्र सजीव और यथार्थ हैं। धर्म के ठेकेदार एक महन्त का चित्रण उन्हीं के शब्दों में सुनिये, ”महन्त रामदास एक गद्दी के महन्त थे। उनके यहाँ सारा कारोबार श्री. बांके बिहारी के नाम पर होता था। श्री. बांके बिहारी जी लेन-देन करते थे और बत्तीस रूपये से कम सूद न लेते थे।’’2 यहां तक कि वही मालगुजारी वसूल करते थे, रेहन नामे-बैमाने लिखते थे। इनके यहाँ समय-कुसमय की रक्षा के लिए दस-बीस मोटे-ताजी साधु स्थायी रूप से रहते थे जो अखाडे में दण्ड पेलने, भैंस का ताजा दूध पीते, संध्या का दूधिया भाँग छानते और रात-दिन गाँजे और चरस में दम लगाते।
यह दूसरी बात है कि उत्कोच लेनेवाला अनाडी और नौसिखिया था अतः साथियों को प्रसन्न न कर सकने के कारण कानून की गिरफ्त में आ गया। इसी जूल्म के कारण दरोगा कृष्णचंद पकडे गये। यद्यपि कृष्णचंद ने यह रिश्वत बडी ही मजबूरी में ग्रहण की थी, किन्तु जुल्म जुल्म ही है। इनकी मजबूरी का एक चित्र देखिए – ’’यदि मैं पाप से न डरता, तो आज मुझे यों ठोकरें न खानी पडती। देख लिया, संसार में सन्मार्ग पर चलने का यह फल होता है। यह आज मैंने लोगों को लूटकर अपना घर भी लिया होता तो लोग मुझसे संबंध करना अपना सौभाग्य समझते। अब तो कोई सीधे मुँह बात नहीं करता, पारमात्मा के दरबार में यही न्याय होता है। धर्म का मजा चख लिखा। सुनीति का हाल भी देख चुका। अब लोगों के खूब गले दबाऊँगा, खूब रिश्वते लूँगा। यही अन्तिम उपाय है। संसार यही चाहता है और शायद ईश्वर भी यही चाहता है।’’3 दरोगा कृष्णचंद अब उन्हीं साधनों को अपनाने के लिए कमर कस लेते हैं जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें जेल जाना पडता है। इस पर टिप्पणी करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं ’’जिस प्रकार विरले ही दुराचारियों को अपने कुकर्मों का दण्ड मिलता है उसी प्रकार सज्जनता का दण्ड पाना अनिवार्य है।’’4
सुमन का मन कल्पना के महल बनाने लगता है। यह सोचने लगती है कि मुझमें ऐसी क्या कमी हैं जिसके कारण समाज में मेरा मान नहीं होता। मैं भोली से अधिक सुंदर हूँ उससे कहीं सुरीले स्वर में गा लेती हूँ, फिर भी आज मेरे लिए कहीं खडे होने को स्थान नहीं और भोली जहाँ जाती है, लोग उसे सम्मान के साथ स्थान देते हैं – ’’मंदिर के आंगन में तिल धरने की भी जगह न थी। आँगन में झाँका तो क्या देखती है कि वही उसकी पडौसिन भोली बैठी हुई गा रही है। सभा में एक से एक बडे आदमी बैठे हुए थे, कोई वैष्णव तिलक लगाये, कोई भस्म लगाये, कोई गले में कण्ढी-माला डाले और राम नाम की चादर ओडे, कोई गेरूये वस्त्र पहने। उनमें कितनो ही को सुमन नित्य गंगा स्नान करते देखती थी। वह उन्हें धर्मात्मा, विद्वान समझती थी। वहीं लोग यहाँ इस प्रकार तन्मय हो रहे हैं, मानो स्वर्ग लोक पहुँच गये हों। भोली जिस की ओर कटाक्ष पूर्ण नेत्रों से देखती थी वह मुग्ध हो जाता था, मानों साक्षात राधा-कृष्ण के दर्शन हो गये हो।’’5 यहीं से सुमन और गजाधर में मन मुटाव होना आरांभ हो जाता है। यद्यपि गजाधर उसे लाख समझता है कि केवल तिलक छापे ही धर्मात्मा की निशानी नहीं हैं। आजकल का धर्म तो धूर्ती का अड्डा है। इस विश्व रूपी सागर में एक से एक विकराल मगरमच्छ पडे हुए है जिनका काम भोले-भाले वक्तों को निगल जाना मात्र है। धर्म के नाम पर धन एकत्र करना और उसके द्वारा भोग-विलास में मग्न रहना ही इनका काम है। सुमन वकील साहब की शरण लेती है, किन्तु वहाँ उसे जग हँसाई और समाज की चर्चायों के कारण अधिक टिकने नहीं दिया जाता। अतः अन्त में वह भोली वेश्या के यहाँ पनाह पाती है।
इस प्रकार एक ओर उन्हें लक्ष्मी का विलास मिलता है और दूसरी ओर श्रेष्ठ और सभ्य समाज का समादर। उनका कोई भी उत्सव इनके म्हत्व के बिना पूर्ण नहीं समझा जाता। समाज में उनकी सुधि लेनेवाला कोई नहीं। सुमन भी ऐसी ही उपेक्षित नारी है जिसे उसके पति ने तो ठुकराया ही, समाज ने भी ठुकरा दिया। अब उसे कहाँ ठिकाना था? शायद समाज और समाज के ठेकेदारों पर उसका उतार नहीं है। सुमन वकील पद्सिंह शर्मा से कितने स्पष्ट शब्दों में कहती है – ’’आदर में वह सन्तोष है जो धन और भोग में नहीं। मेरे मन में नित्य यही चिन्ता रहती थी कि यह आदर कैसे मिले। इसका उत्तर मुझे कितनी ही बार मिला। ग्ग्ग्ग् अपको मैं बहुत सच्चरित्र पुरूष समझती थी, इसलिए आपकी रसिकता का मुझ पर और भी अधिक प्रभाव पडा। भोली बाई आपके सामने गर्व से बैठी थी, आप उसके सामने आदर और भक्ति की मूर्ति बने हुए थे। आपके मित्र वृन्द उसके इशारे पर कठपुतली की भाँति नाचते थे। एक सरल Úहदय आदर की अभिलाषिणी स्त्री पर इस दृश्य का जो फल हो सकता था वही मुझ पर हुआ।’’6 प्रेमचंद कहते है – अनमेल विवाह, दहेज प्रथा, अशिक्षिता नारी और अनुदार मणुष्य समाज के इस कोड के दूर करने के लिए दहेज प्रथा समाप्त करनी पडेगी, अनमेल विवाह की जड काटनी होगी, नारी को शिक्षित करने का प्रण करना पडेगा और स्त्री को भी पुरूष के समान अधिकार देने होंगे।
विठ्ठलदास से सुमन कहती हैं – ”तो जब आपकी हिन्दू जाति इतनी हृदय शून्य है तो मैं इसकी मर्यादा पालने के लिए क्यों कष्ट भोगूं, क्यों जान दूँ। जब आप मुझे अपनाने के लिए जाति को प्रेरित नहीं कर सकते जब जाति आप ही लज्जाहीन है, तो मेरा क्या दोष है?’’7 यही है प्रेमचंद का यथार्थ चित्रण जिसकी उन्होंने बडे ही मनोमय से सत्पथ तक सीमित रखा है। कलुष भावना तो उसमें कहीं है ही नहीं वे सेवासदन स्थापित कर सुमन को उचित पथ पर लाने के अधिक पक्षपाती हैं जिससे समाज का नासूर दूर हो सके। जिसमें पाठक को यह विश्वास हो जाए कि नेकी का फल नेक ही होता है। हमारी दृष्टि में ऐसा ही साहित्य स्वस्थ होता है।
सारांश:-
सुमन के माध्यम से प्रेमचंद ने सेवासदन में अनेक अन्य समस्याओं की ओर भी दृष्टिपात किया है। वास्तव में वे बडे सजग और जागरूक कलाकार थे। वे किसी एक समस्या से नहीं चिवट जाते, प्रमुख समस्याओं के साथ-साथ या आस-पास अन्य जितनी भी समस्याएँ उन्हें मिलती है, उन सब पर वे यथा संभव प्रकाश डालते चलते हैं और उनका हल भी प्रस्तुत करते चलते हैं। समाज की दृष्टि में यह वेश्याएँ पतित होनी ही न चाहिए क्योंकि यह सब समाज के ठेकेदार के किये का ही फल है। हम रात दिन रिश्वत लेते है, ब्याज लेकर गरीबों को चूसते हैं, असदायों का गला काटते हैं, मीना बाजारों को सजाने वाले भी तो हम ही हैं, ये चिडियाँ सब हम लोगों की फँसाई हुई ही हैं जो कोठे पर कुकर्म करके हमारे भाग्य को रो रही हैं।
संदर्भ:-
1. प्रेमचंद, सेवासदन, पृष्ठ. 05
2. प्रेमचंद, सेवासदन, पृष्ठ. 12
3. प्रेमचंद, सेवासदन, पृष्ठ. 12
4. प्रेमचंद, सेवासदन, पृष्ठ. 22
5. प्रेमचंद, सेवासदन, पृष्ठ. 158
6. प्रेमचंद, सेवासदन, पृष्ठ. 65-66